अनिर्बन मित्र

हम मनुष्य एकमात्र प्रजाति हैं जो कपड़े पहनते हैं। और इसमें कोई शक नहीं कि हम कपड़ों को लेकर दीवाने हैं - उनकी डिज़ाइनिंग, बनाने और हासिल करने तथा पोशाकें बनाने में लगने वाली सामग्री को लेकर। किसी भी अखबार का ‘पेज 3’ इस बात की गवाही देगा कि हमें यह बात बहुत आकर्षित करती है कि कौन क्या पहनता है, और यह भी कि किसने क्या नहीं पहना!!
किन्तु यह सब हुआ कैसे? शुरुआती डगमगाते कदम क्या थे? हमने कपड़े पहनना शुरु कब किया था?
इस तरह की तहकीकात के साथ समस्या यह होती है कि ‘ठोस’ प्रमाणों का अभाव होता है। हड्डियों के समान कपड़ों के जीवाश्म नहीं बनते और पत्थरों और धातुओं के विपरीत कपड़े जल्दी नष्ट हो जाते हैं। लिहाज़ा, पर्यावरण की विशेष परिस्थितियों (जैसे बर्फीले  आल्प्स  में  3000  साल   तक  संरक्षित  रही  एटज़ी  मानव  की  ममी)  के  अलावा,  प्रागैतिहासिक वस्त्रों के प्रत्यक्ष प्रमाण बहुत कम मिलते हैं और इस वजह से वस्त्रों की उत्पत्ति की बात समय की धुन्ध में ओझल हो गई है।
अलबत्ता, जैसा हमेशा होता है, प्रमाण तो मौजूद हैं - सिर्फ ठीक से देखने की ज़रूरत है। वर्तमान सन्दर्भ में ये प्रमाण एक जाने-माने कीट के रूप में हैं - जूँ।

नाशी कीट परिवार
पक्षियों व स्तनधारियों की लगभग सारी प्रजातियाँ जूँ की मेज़बान होती हैं। किन्तु मनुष्य उन गिनी-चुनी प्रजातियों में से हैं जो एक नहीं बल्कि 3-3 जूँ प्रजातियों (या उप-प्रजातियों) के मेज़बान हैं। सिर की जूँ (Pediculus humanus capitis), बदन की जूँ (P.     humanus     corporis) और जंघन या प्यूबिक जूँ (Pthirus pubis) मनुष्य शरीर पर अविकल्पी बाह्य परजीवी होती है (देखें चित्र-1)।
ये किसी अन्य प्रजाति (पालतू पशुओं समेत) पर जीवित नहीं रह पातीं। सिर की जूँ आकार में बदन की जूँ से थोड़ी छोटी होती है और इसका रंग अक्सर थोड़ा गाढ़ा होता है। इन दोनों के शरीर की लम्बाई तथा स्पर्शक व अगली टाँगों की मोटाई में बारीक अन्तर होते हैं। अलबत्ता, यह कोई अचरज की बात नहीं है कि शरीर रचना की दृष्टि से ये दोनों काफी समान होती हैं। इनके बीच प्रमुख अन्तर इनके प्राकृतवास यानी हैबिटाट का है।

सिर की जूँ एक खून चूसने वाला कीट है जो सिर्फ सिर की खाल पर रहती है और सिर्फ खोपड़ी के बालों पर अण्डे देती है। दूसरी ओर, बदन की जूँ सिर का रुख नहीं करती। वह तो त्वचा से भोजन प्राप्त करती है और सबसे गौरतलब बात यह है कि यह मनुष्यों के वस्त्रों में रहती है और वहीं पर अण्डे देती है। सिर की जूँ और बदन की जूँ अपने-अपने प्राकृतवास को लेकर काफी ज़िद्दी होती हैं। दोनों एक-दूसरे के ‘इलाके’ में अतिक्रमण नहीं करतीं (दरअसल, सिर की जूँ वस्त्रों पर जी ही नहीं सकती)। और तो और, इन दोनों में से कोई भी प्रजाति मानव मेज़बान से दूर रहकर ज़्यादा समय तक जीवित नहीं रहती। सिर की जूँ 24 घण्टे के अन्दर मर जाती है जबकि बदन की जूँ (जो वस्त्रों पर रहती है) मानव सम्पर्क के बगैर लगभग एक सप्ताह तक जीवित रह सकती है। प्रतिष्ठित जीव वैज्ञानिक मार्क  स्टोनकिंग  (चित्र-2)  -  जो माइटोकॉण्ड्रियल ‘हौवा’ (mitochondrial Eve) के अपने अध्ययन से काफी नाम कमा चुके थे - की रुचि इन अविकल्पी परजीवियों के वैश्विक प्रवास में पैदा हो गई। उन्हें उम्मीद थी कि इसके ज़रिए मानव प्रवास के बारे में सूझबूझ हासिल होगी।

स्टोनकिंग ने परिकल्पना बनाई कि सिर की जूँ प्राचीन प्रजाति है और बदन की जूँ सिर की जूँ से तभी विकसित  हुई  जब  एक  नया पारिस्थितिक निश उपलब्ध हुआ - वह नया निश था मनुष्य के वस्त्रों की तहें और सिलवटें। यह कब हुआ? सीधा-सा जवाब है कि यह तब हुआ जब मनुष्य नियमित रूप से कपड़े पहनने लगे। इसके आधार पर यह रोचक सम्भावना उभरती है कि बदन की जूँ के विकास का समय पता होने से यह अनुमान लगाया जा सकेगा कि मनुष्यों ने व्यापक रूप से वस्त्रों का उपयोग कब शु डिग्री किया था। इसका जवाब, जैसा कि काफी नफासत से दर्शाया गया, आणविक घड़ी का उपयोग करके बदन की जूँ की उत्पत्ति के समय का हिसाब लगाने में निहित था।

जूँ की जेनेटिक कथाएँ
जूँ के विकास के समय निर्धारण के लिए आणविक घड़ी का निर्माण माइटोकॉण्ड्रिया के दो डीएनए खण्डों तथा केन्द्रक के दो डीएनए खण्डों के आधार पर किया गया था। अपनी खोजबीन में किसी तरह के पूर्वाग्रह से बचने के लिए वैज्ञानिकों ने 12 अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों - इथियोपिया, पनामा, जर्मनी, फिलिपाइन्स, ईरान, इक्वेडॉर, लाओस, पपुआ न्यू गिनी, फ्लोरिडा (यूएसए), ताइवान, नेपाल और युनाइटेड किंगडम - से जूँ इकट्ठी करके उनके माइटोकॉण्ड्रिया और केन्द्रक से डीएनए निकाला। उन्होंने चिम्पैंज़ी के सिर की जूँ का डीएनए भी लिया था। यह जानी-मानी बात है कि मेज़बान और उनके परजीवी साथ-साथ विकसित होते हैं, इसलिए यह माना गया था कि चिम्पैंज़ी जूँ (Pediculus schaeffi) और P. humanus अपने-अपने  मेज़बान  के  साथ  विशिष्ट प्रजातियों के रूप में उभरे हैं और यह लगभग 55 लाख साल पहले हुआ होगा - यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित हो चुका है कि मनुष्य और चिम्पैंज़ी 55 लाख साल पहले अलग-अलग होने लगे थे। इसका मतलब है कि मानव-जूँ और चिम्पैंज़ी-जूँ के डीएनए अनुक्रम में अन्तर 55 लाख सालों में संग्रहित हुए हैं। इस विशिष्ट समयावधि को घड़ी के अंशांकन हेतु उपयोग करके यह निश्चित किया जा सकता है कि सिर की जूँ और बदन की जूँ कब अलग-अलग हुई थीं।
अनुक्रम  विश्लेषण  के  लिए स्टोनकिंग के समूह ने सबसे पहले जूँ के माइटोेकॉण्ड्रिया में पाए जाने वाले 2 जीन ND4 और CYTB के खण्डों का विश्लेषण किया। इसके बाद उन्होंने केन्द्रकीय डीएनए के 2 खण्डों का तुलनात्मक अनुक्रम विश्लेषण किया। ये जीन लम्बाई के कारक EF-1á और आरएनए पोलीमरेज़ II की उप-इकाई RPII के खण्ड थे। इन खण्डों की साइज़ 400 से 600 क्षार-जोड़ियों के बीच थी। जो परिणाम मिले वे रोचक थे।

आणविक घड़ी क्या है?

आणविक घड़ी वह तरीका है जिसकी मदद से यह पता लगाया जा सकता है कि एक साझा पूर्वज से दो प्रजातियाँ/अनुक्रम (सीक्वेंस) कब अलग-अलग हुए थे। यह विधि इस सिद्धान्त पर टिकी है कि समय बीतने के साथ प्रतिलिपिकरण (रेप्लीकेशन) के दौरान डीएनए में बेतरतीब त्रुटियाँ/प्रतिस्थापन (सब्सटीट्यूशन) होते हैं और ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते रहते हैं। दो अनुक्रमों को अलग-अलग हुए जितना अधिक समय बीता हो, उनके बीच अन्तर उतने ही अधिक होंगे (क्योंकि प्रतिस्थापन एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से होते हैं)। अर्थात् यदि ‘प्रतिस्थापनों की संख्या प्रति दस लाख वर्ष’ ज्ञात हो तो यह गणना की जा सकती है कि कोई 2 अनुक्रम कितने वर्षों पहले किसी साझा पूर्वज से अलग-अलग हुए थे। यदि किन्हीं दो अनुक्रमों के अलग-अलग होने का समय जीवाश्म रिकॉर्ड जैसे अन्य तरीकों से स्थापित हो चुका हो, तो उनमें इस दौरान संग्रहित प्रतिस्थापनों की संख्या के आधार पर इस दर की गणना की जा सकती है। यह मानकर कि समय के साथ और विभिन्न प्रजातियों के बीच प्रतिस्थापन की दर स्थिर रहती है, तो इसकी मदद से अज्ञात अन्तराल की गणना की जा सकेगी।

प्रतिस्थापनों की कुल संख्या =X
प्रति वंशानुक्रम प्रतिस्थापनों की संख्या = X/2
प्रति वंशानुक्रम प्रति दस लाख सालों में प्रतिस्थापनों की संख्या = X/(2 X 7)

 

चित्र-3: मानव आणविक घड़ी की गणना


प्रथम परिणाम (तालिका 1) से पता चला कि अफ्रीकी जूँ (हालाँकि इसे इथियोपिया से लिया गया था) में विविधता गैर-अफ्रीकी जूँ के वैश्विक नमूने में पाई जाने वाली विविधता से कहीं ज़्यादा है। यह परिणाम अन्य महाद्वीपों की अपेक्षा अफ्रीका में मनुष्यों में पाई जाने वाली अत्यधिक जेनेटिक विविधता को ही प्रतिबिम्बित करता है। चूँकि लगभग हमेशा स्रोत पर जेनेटिक विविधता अपेक्षाकृत अधिक होती है, ये परिणाम दर्शाते हैं कि मनुष्यों के समान ही मानव-जूँ की उत्पत्ति भी अफ्रीका में हुई है।
इसी प्रकार से, परिणामों के अगले समूह (तालिका 2) से पता चला कि मनुष्य के सिर की जूँ में कहीं अधिक विविधता है बनिस्बत बदन की जूँ के। इससे प्रमाणित होता है कि सिर की जूँ अपेक्षाकृत प्राचीन प्रजाति थी।

वृक्ष पर फिंगरपिंट्स
इसके  बाद  मानव  जूँ  के माइटोकॉण्ड्रिया के अनुक्रमों का उपयोग करते हुए एक वंशवृक्ष की रचना की गई (चित्र-4)। वृक्ष से स्पष्ट हुआ कि उसमें कई क्लेड्स मौजूद हैं। सबसे प्राचीन क्लेड्स में मात्र सिर की जूँ के अनुक्रम मिले। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सारी जूँ सिर की जूँ से ही विकसित हुई हैं। उल्लेखनीय है कि एक क्लेड-विशेष में बदन की जूँ के सारे तथा सिर की जूँ के 16 अनुक्रम मिले और इसमें दुनियाभर से प्राप्त नमूने शामिल थे। चिम्पैंज़ी जूँ को एक आउटग्रुप मानते हुए विकसित आणविक घड़ी से पता चला कि यह क्लेड 72,000 (+/- 42,000) वर्ष पुराना है। चूँकि इस क्लेड में बदन की जूँ के सारे अनुक्रम मिले थे, इसलिए इस क्लेड का अनुमानित काल बदन की जूँ की उत्पत्ति की ऊपरी सीमा है। और चूँकि बदन की जूँ शुद्धत: मनुष्य के वस्त्रों में ही रहती हैं, इसलिए आधुनिक मानव द्वारा वस्त्रों के नियमित उपयोग का काल भी यही रहा होगा।

लगभग इसी तरह के निष्कर्ष केन्द्रकीय डीएनए अनुक्रम से भी मिले, इस तथ्य के बावजूद कि डीएनए के पुनर्मिश्रण के चलते केन्द्रकीय डीएनए का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन होता है। अन्तिम प्रमाण के तौर पर स्टोनकिंग की टीम ने सायटोक्रोम ऑक्सीडेज़ (COX) के जीन के कुछ हिस्सों की भी जाँच की। यह जीन भी माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए में पाया जाता है। उन्होंने दर्शाया कि इससे प्राप्त नतीजे ND4-CYTB के विश्लेेषण से प्राप्त नतीजों से मेल खाते हैं। अर्थात् शारीरिक दृष्टि से आधुनिक मानव, जो अफ्रीका के निवासी थे, ने लगभग 70,000 वर्ष पूर्व वस्त्र पहनना शुरु किया था।

बाद के एक अध्ययन में फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डेविड रीड के समूह ने एक ज़्यादा तगड़ा विश्लेषण किया। उन्होंने इसेक लिए Multilocus Bayesian isolation-with-migration coalescent methodका उपयोग किया। उनका निष्कर्ष था कि बदन की जूँ लगभग 1,70,000 वर्ष पहले पृथक हुई थी और निश्चित तौर पर वह 83,000 वर्ष पहले तो पृथक हो ही चुकी थी।
इन दो आँकड़ों में जो अन्तर है वह कोई अचरज की बात नहीं है क्योंकि दोनों में अलग-अलग पद्धतियों का उपयोग किया गया है (और तो और, रीड और उनके साथियों ने अपने विश्लेषण में जूँ के केन्द्रकीय जीनोम के राइबोसोम आरएनए के 18च् का भी उपयोग किया था)। बहरहाल, इन दोनों आँकड़ों में मोटे तौर पर सहमति है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों का निष्कर्ष है कि बदन की जूँ का विकास अफ्रीका में शारीरिक दृष्टि से आधुनिक मानव की उपस्थिति में एक नए पारिस्थितिक निश (वस्त्र) की उपलब्धता की वजह से हुआ था।

चित्र-4: माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए अनुक्रम के आधार पर वंशवृक्ष। इसमें सिर की जूँ (H) और बदन की जूँ (B) का अलग-अलग होना दर्शाया गया है। तीर किसी क्लेड की अनुमानित आयु बताते हैं। ध्यान दें कि लगभग 72,000 वर्ष पुराने एक क्लेड में बदन की जूँ के सारे अनुक्रम और सिर की जूँ के कुछ अनुक्रम पाए गए हैं। जूँ की भौगोलिक उत्पत्ति संक्षिप्ताक्षरों में लिखी है: ET इथियोपिया, PA पनामा, GEजर्मनी, PH फिलिपाइन्स, Ir ईरान, Ec इक्वेडॉर, Ne नेपाल, PNG पपुआ न्यू गिनी, Fl  फ्लोरिडा (यूएसए), La लाओस, UK युनाइटेड किंगडम, Ta ताइवान। वृक्ष की जड़ का निर्धारण चिम्पैंज़ी-जूँ के संकक्ष अनुक्रम के आधार पर किया गया है। (किटलर व साथी (2003) करंट बायोलॉजी 13, 1414-1417 के आधार पर)

अलबत्ता, हो सकता है कि वस्त्रों का प्रादुर्भाव काफी पहले हुआ हो और जूँ ने इस पारिस्थितिक निश को देर से अपनाया हो। यह एक दिलचस्प सम्भावना है और इसे पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। स्टोनकिंग और उनके साथियों का मानना है कि चूँकि किसी भी पारिस्थितिक निश में बसाहट काफी तेज़ी-से हो जाती है, इसलिए यह सम्भव नहीं लगता कि बदन की जूँ ने यहाँ बसने में हज़ारों साल का वक्त लिया होगा। दरअसल, आणविक आँकड़े इस पुरातात्विक प्रमाण से मेल खाते हैं कि सुराख वाली प्रथम सुई - वस्त्र  से  सम्बन्धित   एकमात्र प्रागैतिहासिक औज़ार - करीब 40,000 साल पुरानी है। और ऐसी सूइयाँ मात्र आधुनिक मानव बसाहटों में मिली हैं, नीएंडरथल जैसे प्राचीन मानवों की बस्तियों में नहीं।

संक्षेप में
जेनेटिक और पुरातात्विक जानकारी इस निष्कर्ष पर मेल खाती है कि चिम्पैंज़ी-जूँ और मनुष्यों के सिर की जूँ निकट सम्बन्धी हैं जो एक साझा पूर्वज से विकसित हुई होंगी। प्राचीन मानवों के बदन के काफी सारे बाल गायब होने के साथ (लगभग 12 लाख वर्ष पूर्व), मनुष्य के सिर की जूँ एक छोटे-से प्राकृतवास (यानी खोपड़ी की खाल) में सिमट गई। अलबत्ता, 70,000 और 1,70,000 वर्ष पहले के बीच कभी शारीरिक दृष्टि से आधुनिक मानव ने कपड़े सिलना और पहनना शुरु किया और इसके साथ ही जूँ को बसने के लिए एक नया निश मिल गया। वास्तव में, यह बहुत सम्भव है कि वस्त्रों ने आधुनिक मानव को पर्यावरण के उतार-चढ़ावों से सुरक्षा प्रदान की हो और लगभग 50 से 80 हज़ार वर्ष पूर्व उन्हें अफ्रीका से बाहर की दुनिया में कदम रखने का मौका दिया हो। नवीनतम अध्ययनों ने इस अवधि की पुष्टि की है। और, मनुष्यों तथा उनके वस्त्रों के साथ-साथ जूँ भी दुनिया भर में फैल गई।


ताज़ा कलाम

और कोई अचरज की बात नहीं कि यह ‘जूँ अनुसंधान’ का अन्त नहीं है। 1000 वर्ष पुरानी पे डिग्री की ममी में जो जूँ मिली है, उससे इस बात की समझ बढ़ी है कि मनुष्य नई दुनिया में कब व कैसे पहुँचे। ज़रा कल्पना कीजिए  कि  यदि  हम  भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली जूँ का जेनेटिक अध्ययन कर पाए, तो कैसा खज़ाना हाथ लगेगा।


अनिर्बन मित्र: इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलुरु के सूक्ष्मजीव विज्ञान व कोशिका विज्ञान विभाग से पीएच.डी.। आजकल वे कोलकाता में जीव विज्ञान के अध्यापक हैं। उनकी रुचियों में जैविक विकास से लेकर विज्ञान का इतिहास तथा भारत के अतीत के आयाम शामिल हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
कल्ब साइराइ (Club SciWri) में 6 नवम्बर, 2016 को प्रकाशित। यह लेख इस लिंक पर उपलब्ध है - http://www.sciwri.club/