जान्हवी राजन

साक्षात्कार
गीता रामस्वामि एनसीएफ (नेचर कॉन्सर्वेशन फाउण्डेशन), बेंगलूरु में रिसर्च एसोसिएट हैं और खास तौर से घुसपैठिए पौधों में दिलचस्पी रखती हैं। उनकी रुचि खास इस बात में है कि ये पौधे जिस इकोसिस्टम में घुसपैठ करते हैं उसे कैसे प्रभावित करते हैं और स्वयं कैसे उससे प्रभावित होते हैं।

बाहरी (नव-प्रवेशी) प्रजातियाँ क्या हैं? देशज प्रजातियाँ क्या हैं?
कई सहस्राब्दियों में विभिन्न प्रजातियों का विकास विभिन्न किस्म के पर्यावरणों में जीने के लिए हुआ है। शायद उन्हें नए पर्यावरणों में जाने का अवसर नहीं मिला और इसलिए वे वहाँ ‘कुदरती’ रूप से नहीं पाई जाती हैं। मान लीजिए आप एक काल्पनिक मेंढक हैं, जो किसी महाद्वीप से 1000 कि.मी. दूर स्थित किसी टापू पर विराजमान हैं। यह भी मान लीजिए कि आपकी त्वचा खारे पानी में तैरने के लायक नहीं है। ऐसे में आप समुन्दर पार करके किसी नई जगह जाने का खतरा मोल नहीं लेंगे। मगर आप उस टापू पर जीवन के उतार-चढ़ावों से निपटने के लिए सुसज्जित हैं। तो आप उस टापू की देशज प्रजाति हो गए।

मगर कल्पना कीजिए कि आप जन्तुओं के किसी सौदागर को भा गए और उसे लगता है कि आपके चटख रंगों की छटा तो महाद्वीप के किसी एक्वेरियम में शोभा देगी। वह आप जैसे कुछ मेंढक पकड़ कर उन्हें समुन्दर पार महाद्वीप में भेज देता है (जहाँ आपने या आपके पुरखों की कई पीढ़ियों ने कभी कदम नहीं रखा था), तो आप वहाँ एक बाहरी प्रजाति होंगे।

घुसपैठी (इन्वेज़िव) प्रजाति ठीक-ठीक क्या होती है?
मान लीजिए कि आपके झुण्ड की साइज़ महाद्वीप के उस एक्वेरियम के हिसाब से बहुत बढ़ जाती है और जन्तुओं का सौदागर तय करता है कि आपको बाहर एक नए चमचमाते तालाब में छोड़ देगा। आपको वहाँ नए-नए कीटों की दावत मिलती है, आप मोटे-तगड़े हो जाते हैं और जिस तालाब में आपको छोड़ा गया था वहाँ से दूर-दूर तक (मान लीजिए हज़ार-हज़ार कि.मी. की दूरी तक) फैल जाते हैं और शायद अन्य प्रजातियों तथा पर्यावरण को प्रभावित करने लगते हैं। तब आपको घुसपैठी प्रजाति कहा जाएगा।
आप पूछेंगे कि आपके जैसे छोटे-से प्राणी ने इतना बड़ा काम कैसे कर दिखाया। हो सकता है कि आपकी चटख रंगों वाली त्वचा से कुछ विषैले पदार्थ निकलते हों जिनसे शिकारी पक्षी परहेज़ करते हों। तो आपका भक्षण उस हद तक नहीं होता जितना कि स्थानीय मेंढकों का होता है। जितने ज़्यादा आप ज़िन्दा रहेंगे, उतनी ही ज़्यादा सन्तानें पैदा करेंगे और आपकी संख्या उतनी ही अधिक हो जाएगी। मेंढक 1, शिकारी 0।

चूँकि स्थानीय वायरसों और स्थानीय बैक्टीरिया ने आपके जैसी कोई चीज़ पहले नहीं देखी थी, इसलिए उन्हें पता नहीं कि आपका उपयोग बतौर एक मेज़बान कैसे करें। लिहाज़ा आपको स्थानीय मेंढकों से मिलने वाले जानलेवा संक्रमणों का कोई डर नहीं है। मेंढक 1, परजीवी 0।
हो सकता है कि आप जैसे सैकड़ों मेंढक उस दुनिया में छूटे हों जहाँ अन्य किस्म के मेंढक मात्र दस-बीस रहे हों। जब आप जैसे सैकड़ों मेंढक उस भूमि पर पेट भर रहे हों और प्रजनन कर रहे हों, तो थोड़े-से स्थानीय मेंढक मुकाबला कैसे कर पाएँगे? सम्भवत: आप कीटों को पकड़ने में ज़्यादा कुशल हों या ठण्ड-गर्मी सहने की बेहतर क्षमता से लैस हों। तो बीमारियों, शिकारियों और मौसम से जूझते हुए भोजन व प्रजनन की जद्दोजेहद में लगे स्थानीय मेंढक आपके सामने कहाँ टिक पाएँगे। मेंढक 1, प्रतिस्पर्धी 0।
और-तो-और आपके अण्डे मौसमी जलधाराओं में तैरते-उतराते हुए पानी के बहाव के साथ नई-नई जगहों पर फैलते रहते हैं। आप देख ही सकते हैं कि घुसपैठी प्रजातियों के पास कई ट्रिक्स होती हैं जो उनको जीने और टिके रहने में मदद करती हैं।
ऐसा लगता है कि पहले की अपेक्षा आजकल प्रजातियों के लिए नए स्थानों पर पहुँचना कहीं ज़्यादा आसान हो गया है। क्या है जो इस फैलाव को बढ़ावा देता है?

इन्सान! मानव-निर्मित यातायात के साधनों पर सवार होकर जीव आजकल ज़मीन और पानी पर लाखों किलोमीटर की यात्रा चुटकियों में कर लेते हैं। इन्सानों की मदद के बगैर किसी प्रजाति के लिए इस काम को अंजाम देने में सहस्राब्दियाँ लग जाया करती थीं। इसमें से काफी सारा यातायात तो मनुष्य की इस ज़रूरत का नतीजा है कि उसे प्रजातियाँ नई-नई जगह पर चाहिए (उदाहरण के लिए, बाहरी पालतू प्राणी या जैविक नियंत्रण के एजेंट वगैरह)। कई बार दुर्घटनावश भी ऐसा हो जाता है (जैसे स्तनधारियों से रहित किसी टापू पर चूहों जैसे स्तनधारियों का पहुँचना, जो उन जहाज़ों के साथ पहुँचे थे जो मनुष्य उस टापू पर बस्ती बसाने के लिए ले गए थे)।

घुसपैठी पौधे क्या होते हैं? पौधा घुसपैठी कैसे बनता है?
कल्पना कीजिए कि उपरोक्त सारी घटनाएँ आपके साथ होती हैं, जबकि आप मेंढक नहीं, एक पौधा हैं! कई सारे पौधों को अपने फायदे के लिए मनुष्य नई जगहों पर ले जाते हैं (जैसे बगीचों की शोभा बढ़ाने वाले सुन्दर फूलों के लिए, या इसलिए कि वे तेज़ी से बढ़ते हैं और ईन्धन व चारा उपलब्ध कराते हैं)। या ऐसा दुर्घटनावश भी हो सकता है (जैसे किसी फसली पौधे के बीजों के साथ किसी घुसपैठी पौधे के बीज मिल जाएँ और नई जगह भेज दिए जाएँ)। यदि वे अन्यत्र ‘पलायन’ कर जाएँ, जी पाएँ, एक नई आबादी स्थापित कर पाएँ, फल-फूलकर आगे फैल पाएँ, तो उन्हें ‘घुसपैठी’ कहा जा सकता है।

पौधों को खाने वाले जन्तुुओं और सूक्ष्मजीवों के आक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोध, अन्य पौधों को हानि पहुँचाने वाले जैव-रासायनिक अस्त्रों का उत्पादन, मददगार फफूँदों का अपने लाभ के लिए अपहरण, बड़ी संख्या में बीज पैदा करना, संसाधनों का दोहन करने व स्थानीय परिस्थितियों को सहने की क्षमता और स्थानीय परिस्थितियों को बदलने की क्षमता - इनमें से किन्हीं भी महाशक्तियों का सम्मिश्रण किसी पौधे को घुसपैठी बना सकता है।
लैंटाना सुन्दर फूलों वाली एक कँटीली झाड़ी है; जलकुम्भी चर्मिल पत्तियों वाला एक जलीय पौधा है जो समूची झीलों को ढँक लेता है; गाजर घास (पार्थीनियम) छोटा-सा पौधा होता है जिस पर तीखी गन्ध वाले सफेद फूल लगते हैं जो दमा पैदा कर सकते हैं; ये सब घुसपैठी पौधे हैं जो बेंगलूरु के आसपास देखे जा सकते हैं।
तो, क्या यह कहना ठीक है कि सारी घुसपैठी प्रजातियाँ बाहर से लाई गई प्रजातियाँ होती हैं, मगर सारी बाहर से लाई गई प्रजातियाँ घुसपैठी नहीं होतीं?
सही कहा। ज़रूरी नहीं कि बाहर से लाई गई सारी प्रजातियाँ हमारे उपरोक्त काल्पनिक मेंढक जैसा अच्छा प्रदर्शन करे। हो सकता है कि वे उस पर्यावरण में जल्दी ही मारी जाएँ जिससे उनका सामना पहले कभी नहीं हुआ था। या हो सकता है कि वे प्रतिस्पर्धा न कर पाएँ, या प्रजनन न कर पाएँ या बहुत दूर तक न फैल पाएँ और अपने ही सम्बन्धियों की भीड़भाड़ में उनका दम घुट जाए। यह भी हो सकता है कि उन्हें प्रजनन करने और अपनी संख्या बनाए रखने के लिए ज़रूरी साझेदार - परस्पर सहयोगी - न मिल पाए। जैसे मान लीजिए आप एक बाहर से लाए गए पौधे हैं जिसके फूलों कापरागण सिर्फ हमिंगबर्ड करती है, और यदि नई जगह में हमिंगबर्ड होती ही नहीं तो आपका परागण नहीं होगा, आपके बीज नहीं बनेंगे और आपका वंश आपके साथ ही खत्म हो जाएगा। आप फैल नहीं पाएँगे और इसलिए आप घुसपैठी नहीं बन पाएँगे।

क्या सारी गैर-देशज, बाहर से लाई गई प्रजातियाँ पर्यावरण के लिए हानिकारक होती हैं, क्या वे सभी जैव विविधता पर प्रतिकूल असर डालती हैं?
जैसा कि मैंने पहले कहा, सारी बाहर से लाई गई प्रजातियाँ घुसपैठी नहीं बनतीं। जो बन जाती हैं उनके अपने नए पर्यावरण पर कुछ-न-कुछ असर होते हैं। घुसपैठी जन्तु कभी-कभी अन्य जन्तुओं व पौधों की जैव विविधता को प्रत्यक्ष रूप से कम करते हैं क्योंकि वे उनका भक्षण करते हैं। क्या आपने ब्राउन ट्री स्नेक (चित्र-3) का नाम सुना है? यह ऑस्ट्रेलिया और पपुआ न्यू गिनी का देशज है और दुर्घटनावश गुआम पहुँच गया। इसके बाद जो घुसपैठ हुई वह पक्षियों, कृन्तक जीवों (रोडेन्ट) और सरिसृपों जैसे शिकार होने वाले जीवों के लिए विनाशकारी साबित हुई। गुआम के कुछ पक्षी तो विलुप्त ही हो गए!
पौधों के सन्दर्भ में मामला थोड़ा पेचीदा होता है। वैज्ञानिक साहित्य देखेंगे, तो पाएँगेे कि कई घुसपैठी पौधे देशज पादप विविधता में गिरावट से सम्बद्ध रहे हैं। मगर ऐसा हमेशा नहीं होता क्योंकि बदलाव की दिशा सदा स्पष्ट नहीं होती - घुसपैठ के कारण जैव विविधता में कमी हुई है या जैव विविधता में कमी के कारण घुसपैठ सम्भव हुई है। इसमें प्राकृतिक तंत्रों की पेचीदगियों - जैसे मिट्टी, मौसम, पानी, जन्तु, सूक्ष्मजीव और मनुष्यों का हस्तक्षेप - को और जोड़ लिया जाए, तो कई कारकों की एक गड्ड-मड्ड खिचड़ी बन जाती है जो सबके सब देशज प्रजाति विविधता को कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं। घुसपैठी पौधों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के बीच परस्पर विरोधी मत मौजूद हैं। शोधकर्ता एक किस्म का सांख्यिकीय विश्लेषण करते हैं जिसे ‘मैटा-विश्लेषण’ (meta-analysis) कहते हैं। इसके अन्तर्गत एक ही विषय पर किए गए कई सारे अध्ययनों के परिणामों को साथ रखकर उनका सार निकाला जाता है। इन मैटा-विश्लेषणों को देखकर कहा जा सकता है कि देशज विविधता पर घुसपैठी पौधों के असर पर कई बातों का असर पड़ता है - पर्यावरण, किस पैमाने पर अवलोकन किए गए, अवलोकन का समय और स्थान वगैरह।
देशज पादप विविधता में गिरावट के अलावा, घुसपैठी पौधों के ज़्यादा चिन्ताजनक असर होते हैं: इकोसिस्टम की मौजूदा प्रक्रियाओं में परिवर्तन, जो किसी स्थान पर समय के साथ ढलती हैं (जैसे आग का चक्र, मृदा पोषण चक्र, स्थानीय जल गतिकी वगैरह), देशज प्रजातियों के बीच मौजूदा अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव (जैसे मददगार फफूँदों या परागणकर्ताओं और बीज बिखेरने वाले जन्तुओं का अपहरण), और ऐसे एलेलोपैथिक रसायन छोड़ना जो देशज प्रजातियों के जीवन को प्रभावित करते हों।

क्या कुछ देशज पक्षी और जन्तु घुसपैठी पौधों से लाभान्वित भी हो सकते हैं?
हो सकते हैं। खासकर तब जब घुसपैठी पौधा उन्हें काफी मात्रा में स्वादिष्ट भोजन मुहैया कराए। परागणकर्ता फूलों का मकरन्द पीते हैं और बदले में पराग को एक फूल से दूसरे फूल तक पहुँचाते हैं। इससे फूलों को बीज बनाने में मदद मिलती है जो भावी पौधे हैं। इन परागणकर्ताओं की हरकारा (कुरियर) सेवा के बगैर कई पौधे तो खत्म ही हो जाएँगे। घुसपैठी पौधे उसी प्रकार के विनिमय की पेशकश करते हैं जो स्थानीय पौधे करते हैं (पराग को ढोने के बदले मकरन्द का तोहफा) और इस अतिरिक्त लाभ का उपयोग वे परागणकर्ता खुशी-खुशी कर लेते हैं जिन्हें सिर्फ मकरन्द से मतलब है, मकरन्द के स्रोत से नहीं।
कुछ घुसपैठी पौधे लज़ीज़ फल बनाते हैं जिन्हें जन्तु चाव से खाते हैं। फल तो खैर एक लालच भर है। वास्तविक मकसद तो यह है कि जन्तु इनके बीजों को अपनी आँतों में मूल पौधे से दूर-दूर तक ले जाए (बीज प्रकीर्णन) और नई-नई जगहों पर मल के साथ उन्हें बिखराए ताकि पौधे वहाँ उग सकें। तो, हाँ, कुछ फलभक्षी जन्तु, जिन्हें घुसपैठी पौधों के फल प्रिय लगते हैं, वे उन्हें भोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करेंगे। कुछ सूक्ष्मजीव (बैक्टीरिया और फफूँद) जो पौधों को किसी प्रकार से लाभ पहुँचाते हैं (जैसे पोषक पदार्थ पैदा करके या पानी सोखकर) और बदले में लाभ प्राप्त करते हैं (प्रकाश संश्लेषण द्वारा शर्करा के रूप में स्थिरीकृत कार्बन का भक्षण), वे भी घुसपैठी पौधों की संगत में खुश रहेंगे जो इस तरह के एक्सचेंज ऑफर्स देते रहते हैं।
इतना कहने के बाद, हमें यह स्वीकार करना होगा कि घुसपैठी पौधे देशज प्रजातियों और उनके पर्यावरण के बीच जटिल सम्बन्धों के ताने-बाने में प्रवेश करते हैं (उनका फेसबुक रिलेशनशिप स्टेटस यही हो सकता है: “पेचीदा है”)।
जो बात यकीन से कही जा सकती है वह यह है कि घुसपैठी पौधे बदलाव लाते हैं और इनमें से कुछ बदलाव इतने नाटकीय हो सकते हैं कि घुसपैठ से पूर्व की स्थिति शायद कभी बहाल न हो पाए। मगर इन सारे बदलावों को मासूमियत से ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ के रूप में वर्गीकृत करने से समस्या को समग्रता से सम्बोधित करने में कोई मदद नहीं मिलती। ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ का फैसला उस सन्दर्भ पर निर्भर है जिसके तहत पौधे को देखा जा रहा है (मसलन: घुसपैठी पादप विविधता के लिए ‘बुरा’ मगर उन परागणकर्ताओं के लिए ‘अच्छा’ जो घुसपैठी पौधे पर आश्रित हैं)। यह भी ध्यान रखना होगा कि परिवर्तन लम्बे समय में होता है। आज जिसे ‘बुरा’ कहा जा रहा है, हो सकता है कि वह घटनाओं के एक ऐसे सिलसिले का आगाज़ करे कि दस साल बाद उसमें से कुछ ‘अच्छा’ निकल आए जो दस और सालों के बाद फिर से ‘बुरा’ साबित हो।

यह तो वाकई काफी पेचीदा सम्बन्ध लगता है। थोड़ा यह बताइए कि आप किस तरह का काम करती रही हैं।
मैं एक दिलचस्प घुसपैठी पौधे लैंटाना कैमेरा (Lantana camara) की इकोलॉजी पर काम करती हूँ। इसके अन्तर्गत यह भी अध्ययन करती हूँ कि इस पौधे ने भारत के जंगलों में क्या शरारतें की हैं। लैंटाना मध्य व दक्षिण अमरीकी मूल का पौधा है और यह भारत में बहुत आम घुसपैठी पौधा है। आपने इस कँटीली, बेतरतीब झाड़ी को ज़रूर देखा होगा - बारिश के मौसम में हरी भरी और गर्मियों में झंखाड़। इस पर छोटे-छोटे झुण्डों में गुलाबी या नारंगी फूल लगते हैं। पत्तियों को मसलें तो उनमें से पसीने जैसी एक विचित्र गन्ध आती है। आपने शायद इसके छोटे-छोटे जामुनी-काले, मीठे फल (बेरी) खाए भी होंगे। फलों में अंगूर के समान एक बीज होता है।
लैंटाना के पास जीवित रहने के लिए कई गुर होते हैं। यह किसी भी प्रतिस्पर्धी पौधे को अपनी छाया से ढँक देता है (मगर खुद छाया में रहना पसन्द नहीं करता), आग और खरोंच का प्रतिरोधी होता है, अत्यन्त गर्म और मध्यम ठण्डे तथा मध्यम स्तर के सूखे पर्यावरण में जी सकता है। यह ढेर सारे फूल और ढेर सारे फल पैदा करता है और अपना बीज भण्डार बनाने में काफी संसाधन लगाता है। एक बार ठीक-ठाक आबादी स्थापित हो जाए, तो लैंटाना से मुक्ति पाना आसान नहीं होता और उक्त रणनीतियों के चलते इसका पूरी तरह उन्मूलन तो असम्भव है।
मैंने ऊपर बीज प्रकीर्णन की बात की थी। मेरा वर्तमान अध्ययन यह देखने के लिए चल रहा है कि क्या लैंटाना ने देशज प्रजातियों के बीज बिखराने वालों का अपहरण किया है। मैं यह समझना चाहती हूँ कि क्या पक्षी अन्य देशज प्रजातियों की अपेक्षा लैंटाना के फल खाना ज़्यादा पसन्द करते हैं। और यदि ऐसा है तो क्या इसलिए है कि लैंटाना के फलों की गुणवत्ता बेहतर है या इसलिए है कि जब सभी प्रजातियाँ फल निर्माण कर रही हों, तो लैंटाना के फल हमेशा अन्य प्रजातियों से ज़्यादा मात्रा में उपलब्ध होते हैं। शायद लैंटाना बीज बिखराने वालों का अपहरण नहीं करता, मगर जिस देशज पौधे के समीप यह उगता है, उस पर बीज बिखराने वालों को ज़्यादा आकर्षित करता है। अगले वर्ष मैं ऐसी कुछ पहेलियों को सुलझाने की उम्मीद करती हूँ।

मैं तो यही सोच रही हूँ कि ठेठ दक्षिण अमेरिका का यह पौधा भारत पहुँचा कैसे...
लैंटाना को भारत में ब्रिटिश लोग 1800 के दशक के आसपास एक सजावटी पौधे के रूप में लाए थे। कहते हैं कि कुछ शरारती पौधे करीब 200 साल पहले कलकत्ता वानस्पतिक उद्यान से पलायन कर गए थे और उन्हीं के वंशज आज किसानों और वन प्रबन्धकों को आतंकित कर रहे हैं। ये बेतरतीबी से फैलते रहते हैं और साल-दर-साल नई-नई ज़मीन पर कब्ज़ा करते जाते हैं।
लैंटाना को भारत के पश्चिमी तट पर भी लाया गया था और हो सकता है कि कुछ आबादियाँ श्रीलंका से आई हों। 1800 के दशक में ही इंडियन फॉरेस्टर नामक प्रतिष्ठित वानिकी पत्रिका में ऐसी खबरें छपने लगी थीं कि लैंटाना पहाड़ी क्षेत्रों और बागानों में जड़ें जमाने लगा है। और आज 200 साल बाद भी हम लैंटाना से निपटने के तरीके खोज रहे हैं।

घुसपैठियों को बाहर रखने के लिए क्या किया जा रहा है?
बेहतर तो यही होता है कि समस्या से बचने के लिए घुसपैठियों को अपने तटों पर आने ही न दिया जाए! विभिन्न देशों में घुसपैठी प्रजातियों से निपटने व उनकी रोकथाम के लिए अपने-अपने नियम-कानून हैं। कई देश समुद्रपार से आने वाले पौधों को कुछ समय तक अलग-थलग (क्वारेंटाइन) करके रखते हैं और ऐसी सामग्री के आयात की अनुमति तभी देते हैं जब वह किसी भी खरपतवार से मुक्त हो। भारत में यह काम प्लांट रोधन आदेश1 और पादप, फल व बीज (भारत में आयात का नियमन) आदेश2 के अन्तर्गत किया जाता है। मगर ये नियम काफी नए हैं और खरपतवारनुमा घुसपैठी प्रजातियों के कुप्रभावों को पहचानने के बाद विकसित किए गए हैं। जो पौधे इससे पहले यहाँ आए थे, वे आज भी मौजूद हैं और भूमि प्रबन्धकों को रोज़ाना उनका सामना करना पड़ता है। वन प्राकृत वासों में घुसपैठी प्रजातियों को हटाने (उन्मूलन व उन्हें और फैलने से रोकने के मकसद से) विभिन्न राज्यों के वन विभागों के अलग-अलग दिशानिर्देश हैं। अक्सर किसी लक्षित इलाके से घुसपैठी पौधे को हटाने के लिए कई विधियों का मिला-जुला उपयोग किया जाता है। यह आम तौर पर एक सालाना कवायद होती है (यह धन और मानव संसाधन की उपलब्धता पर निर्भर करता है)। उन्मूलन की विधि इस बात से तय होती है कि किस प्रजाति को हटाना है और ये प्राय: काफी श्रम-बहुल होती हैं। आरक्षित क्षेत्रों में बीट की निरन्तर निगरानी की जाती है और घुसपैठियों की स्थिति को नियमित रूप से अपडेट किया जाता है। आरक्षित क्षेत्र से बाहर, कृषि क्षेत्र में जुताई और मौसमी तौर पर आग लगाने का सहारा लिया जाता है ताकि घुसपैठियों पर अंकुश रहे।

क्या हम सब लोग घुसपैठी प्रजातियों के प्रवेश और फैलाव को रोकने में मदद कर सकते हैं? कैसे?
* यदि आप विदेश से आ रहे हैं तो हवाई अड्डे पर क्वारेंटाइन नियमों का पालन करें। आपके पास कोई भी सजीव वस्तु हो तो घोषित करें। यह सुनिश्चित करें कि जो बीज आप लेकर आए हैं, वे आगे चलकर दुष्ट बीज तो साबित नहीं होंगे।
* बाहरी पालतू जानवर न खरीदें। बाहरी पालतू जानवरों को प्राकृतिक परिस्थिति में न छोड़ें (मछलियाँ और कछुए तब आसपास की जलराशि में छोड़ दिए जाते हैं जब किसी को उनकी ज़रूरत नहीं होती - ऐसा न करें। ज़रा देखिए कि यह भगौड़ी एलिगेटर मछली अन्य मछलियों और मछुआरा समुदाय पर क्या कहर बरपा रही हैं)3। शायद आप न जानते हों कि जो पालतू जानवर आप चाहते हैं उसके घुसपैठी होने की सम्भावना है या नहीं। मदद के लिए ग्लोबल इन्वेज़िव स्पीशीज़ डेटाबेस देखें।4 यदि वह प्रजाति डेटाबेस में है तो उसे न लीजिए।

* यदि आप बगीचा लगाने जा रहे हैं, तो तसल्ली कर लीजिए कि आप जानते हैं कि उस बगीचे में क्या-क्या लगाया जा रहा है। उन पौधों के बारे में पढ़िए जिन्हें आप अपने आंगन में लगाने वाले हैं। यह जाँच कर लें कि वह पौधा ग्लोबल इन्वेज़िव स्पीशीज़ डेटाबेस में तो नहीं है। यदि वह उस सूची में है तो उसे अपने बगीचे में न लगाएँ। इसकी बजाय स्थानीय प्रजातियों की सूची में से कोई पौधा चुनें। आप चाहेंगे कि आपके बगीचे के पौधे तितलियों और पक्षियों को लुभाएँ। तसल्ली कर लीजिए कि ऐसे पौधे देशज हों, बाहर से लाए गए नहीं। आप परागणकर्ताओं और बीज बिखराने वाले जन्तुओं को आकर्षित करना चाहें या न चाहें, मगर आपको पता होना चाहिए कि रंगीन फूल अवश्य परागित होंगे और मीठे फल ज़रूर खाए जाएँगे। इसलिए इस बात की जाँच कर लें कि आपके पौधे देशज हैं ताकि पक्षी या चमगादड़ रूपी वाहन पर सवार होकर ये यहाँ-वहाँ न पहुँचें।
* घुसपैठी प्रजातियों के बारे में नियमित रूप से पढ़ें।5 अन्य लोगों को भी पहले तीन बिन्दुओं का पालन करने को प्रेरित करें।
* यदि आप पहचान सकें, तो घुसपैठी पौधे को देखने पर उसकी रिपोर्ट किसी विश्वसनीय मंच पर दें।6 ये साइट वैज्ञानिकों को घुसपैठी पौधों के फैलाव के विस्तार का डेटाबेस बनाने में मददगार होती हैं।
* प्राणियों को उनके कुदरती स्थान से हटाकर किसी ऐसी जगह न ले जाएँ जहाँ के वे नहीं हैं। इस सरल-से नियम का पालन करके हम सुनिश्चित कर सकेंगे कि भविष्य में हमें घुसपैठियों की समस्या से नहीं जूझना पड़ेगा।


जान्हवी राजन: एनसीएफ (Nature Conservation Foundation) संस्था के विभिन्न कार्यों को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगी हुई हैं। ग्राफिक डिज़ाइन और फिल्म एडिटिंग में रुचि।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख http://blog.ncf-india.org/2016/07/04/plant-invaders/ के 04 जुलाई, 2016 पोस्टिंग से साभार। लेख के शुरुआती चित्र में एक देशज बीज प्रकीर्णनकर्ता (लाल पेट वाली बुलबुल) एक घुसपैठी (लैंटाना) का फल खाती हुई।