विक्रम सेठ

संस्मरण
मेंरा जीवन देहरादून से इतना अधिक  बँधा हुआ है कि यहाँ वापस आने पर बरबस ही मैं उस पल के बारे में सोचने लगता हूँ जब मैं छ: साल की उम्र में पहली बार वैल्हम आया था। मुझे याद है कि मेरी माँ ने मुझे अजनबियों की देखरेख में छोड़ दिया था, ऐसे अजनबी जो उन्हें खूब आश्वस्त कर रहे थे, इतना ज़्यादा कि सन्देह होने लगता था। और मुझे अपनी माँ की इस हरकत पर बहुत क्रोध आ रहा था और भरोसा नहीं हो रहा था कि वे मुझे लिए बगैर पटना जाने के बारे में सोच भी कैसे सकती थीं। पर वे चली गईं, और बाकी सभी नए लड़कों की माताएँ भी चली गईं, और कई हफ्तों तक हम सब सदमे में रहे। लेकिन वैल्हम का प्रशासन माँ-बाप से बच्चों के ‘बिछड़ने’ के इस सदमे से निपटना जानता था।
रोज़, रात के खाने के एकदम पहले हम नए लड़कों को अस्पताल के पास रखी एक बैंच तक ले जाया जाता, जहाँ से खेल के मैदान का नज़ारा दिखाई देता था, और हम वहाँ बैठे रहते। फिर हममें से कोई एक लड़का रोना शुरू करता, फिर दूसरा शुरू होता और फिर हम सब एक साथ रोने लगते, और आधे घण्टे तक रोते रहते जब तक कि हमें खूब ज़ोर-से भूख न लग आती, ताकि हमें इत्मिनान से खाना खिलाने के लिए ले जाया जा सकता।

उस समय से लेकर आज तक मैं देहरादून आते हुए हमेशा ही घबराहट-सी महसूस करता हूँ।
कुछ साल पहले, लगभग सोलह सालों के अन्तराल के बाद मैं दून आया था। मैं चीड़ के पेड़ के नीचे अकेला चहलकदमी कर रहा था, हालाँकि मुस्करा तो नहीं रहा था, पर मुझे याद है मैं यही सोच रहा था कि यह स्कूल कितना सुन्दर है, और खुद को झिड़क रहा था कि मैं इतने साल यहाँ आने से बचता रहा, और यहाँ से कोई वास्ता नहीं रखा।
बात दरअसल यह है कि मैं अपने स्कूली दिनों में काफी नाखुश रहता था। इसमें कुछ गलती तो मेरी ही थी या शायद इसे गलती नहीं कहना चाहिए, लेकिन मेरा व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था। मुझसे पाँच साल बाद दून पढ़ने आने वाले मेरे भाई शांतुम का स्कूली दौर बहुत अच्छा गुज़रा, और मेरी तुलना में उसकी अपने स्कूल के मित्रों के साथ बहुत अच्छी बनती थी। मैं तो स्कूल खत्म होने के बाद उससे जुड़ी हर बात भूल जाना चाहता था।

लेकिन यह कहना एक प्रकार से अजीब है कि मैं दून में दुखी था। आखिरकार, मेरा अकादमिक प्रदर्शन बहुत अच्छा था, मैं कई सोसाइटियों का सदस्य था, मैंने वीकली का सम्पादन किया   था,   और   वाद-विवाद प्रतियोगिताओं तथा नाटकों में हिस्सा लेता था। चूँकि मेरी रिपोर्ट अच्छी रहती थीं इसलिए मेरे माता-पिता को तो यही लगता था कि मैं खुश था। और मैंने भी उनकी इस समझ को सही करने के लिए उनसे कभी कुछ नहीं कहा। मैं सुबह से रात तक खूब व्यस्त रहता था। इसके बावजूद यहाँ बिताए छ: सालों के दौरान मेरे भीतर अकेलेपन और सबसे अलग होने की डरावनी भावना सदा रहती थी। कभी-कभी रात को सोते समय मैं सोचता था कि काश मैं सुबह उठूँ ही नहीं ताकि छोटा हाज़री की घण्टी सुनना ही न पड़े। स्कूल से निकलने के कई सालों बाद तक मैं स्कूल को एक प्रकार का जंगल मानता रहा और उसके बारे में सोचने पर भी मैं काँप जाता था।

इसका एक कारण तो खैर किशोरावस्था में स्वाभाविक रूप से होने वाला तनाव और दबाव था, पर इसकी दूसरी वजह थी दून की प्रकृति और वातावरण। यह एक ऐसी जगह थी जहाँ, कम-से-कम लड़कों की दृष्टि में तो, बस खेलों का ही महत्व था। मेरे सहपाठी और मुझसे बड़े लड़के मुझे चिढ़ाते और सताते रहते थे जिसकी कई वजहें थीं। एक तो यह कि मेरी रुचि पढ़ने-लिखने में थी, उस वक्त तक खेलों में नहीं थी। फिर यह कि मैं लड़कों के किन्हीं गुटों और समूहों का सदस्य नहीं बनना चाहता था। एक और कारण था मेरी लम्बाई, जिसका अन्दाज़ा यहाँ माइकों को नीचे किए जाने से आपको लग गया होगा, और सबसे बड़ा कारण था कि चिढ़ाए जाने पर मैं बहुत गुस्से में आ जाता था। इसमें कोई शक नहीं कि अपनी किशोरावस्था के दौर में अगर मेरे भीतर परिस्थितियों को लेकर थोड़ा धीरज होता, या चीज़ों को हँसी-मज़ाक में लेने की आदत होती, तो मेरे लिए स्थितियाँ इतनी कठिन नहीं होतीं। लेकिन मुझ में धीरज नहीं था, न ही मैं बातों को हँसी-मज़ाक में टाल पाता था और इसी वजह से मेरे लिए वह दौर बहुत कठिन रहा।

इन्हीं सब बातों को देखते हुए, मुझे इस बारे में बहुत संशय था कि मुझे इस मंच पर खड़े होकर यहाँ बिताए गए अपने दुख भरे समय के बारे में कृतघ्नता के साथ बात करना चाहिए या नहीं। कुछ सोच-विचार और कठिनाई के बाद मैंने तय किया कि हाँ, मुझे बोलना चाहिए। इसका एक कारण है कि दून में मैंने वाकई बहुत कुछ सीखा जिसके लिए मैं स्कूल का शुक्रगुज़ार हूँ। दूसरा कारण यह कि मुझे लगा आप लोगों के लिए (और ‘आप लोगों’ से मेरा मतलब खास तौर पर लड़कों से है) ऐसे व्यक्ति को सुनना दिलचस्प होगा जो, आम तौर पर दिए जाने वाले ‘स्कूली दिन मेरे जीवन के सर्वश्रेष्ठ दिन थे’ वाले उबाऊ भाषण की बजाय, स्कूली दिनों के जीवन के बारे में एक अलग नज़रिया रखता है। और जब आप निराश या व्याकुल हों तो हो सकता है मेरी बातें आपका हौसला बढ़ाएँ।

स्कूल की -- न सिर्फ दून स्कूल की बल्कि किसी भी बोर्डिंग (आवासी) स्कूल की -- सबसे मुश्किल और नुकसानदेह बातों में से एक है कि साल के दो-तिहाई हिस्से में, या उससे भी ज़्यादा समय, लड़कों को अपने माता-पिता का प्यार, उनका साथ नहीं मिल पाता, क्योंकि जब लड़के छुट्टियों में घर जाते हैं तो चूँकि उनके माता-पिता को उनके साथ रहने की, समय बिताने की आदत ही नहीं होती इसलिए एक छत के नीचे रहते हुए भी वे लोग समझ ही नहीं पाते कि अपने बच्चों के साथ किस तरह व्यवहार करें। बड़े होते हुए लड़कों को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि बहन का साथ क्या होता है। पारिवारिक जीवन की, प्यार की इस कमी का आकलन करना बहुत कठिन है, लेकिन मुझे लगता है कि लड़कों के दिमाग पर, उनके दिलों पर इसका गहरा असर पड़ता है। वे अपने माता-पिता से, मजबूरी में, कई मामलों में स्वतंत्र तो हो ही जाते हैं, पर इसके अलावा वे भावनात्मक रूप से असुरक्षित भी हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे अपने साथियों की तरह बनने के लिए, उनके बीच लोकप्रिय होने के लिए, और अपने समूह के बाहर के लड़कों तथा अपने से छोटे लड़कों के सामने खुद को एकदम कठोर, बेपरवाह और निर्दयी दिखाने के लिए आतुर और उग्र हो जाते हैं। कुछ साल बाद, इसी भावना की परिणति हमें कक्षा के कप्तानों, कक्षा नायकों, मॉनीटरों में सुविधाओं और वरिष्ठता पाने की मूर्खतापूर्ण प्रतिस्पर्धा के रूप में, और कभी-कभी सत्ता के दुरुपयोग के रूप में देखने को मिलती है।

शिक्षक और हाउसमास्टर लड़कों की जो परवाह और देखभाल करते हैं, वह किसी भी तरह से माता-पिता के प्यार से मिलने वाली सुरक्षा की जगह नहीं ले सकती। जब मैं नए लड़कों की सूची देख रहा था, तो मैंने अपने आप से यह सवाल किया, “अगर मैंने कभी शादी की और मेरे बच्चे हुए तो क्या मैं उन्हें दून या इसी तरह के किसी अन्य बोर्डिंग स्कूल भेजूँगा?” मेरा जवाब था कि मुझे नहीं पता।
अभी तक मैंने जो कुछ भी कहा उसके बाद तो आप यही सोच रहे होंगे कि मेरा जवाब बहुत ज़ोरदार ‘नहीं’ रहा होगा। पर हकीकत यही है कि सभी चीज़ों का एक दूसरा पहलू भी होता है और वह भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। आज मैं जो कुछ भी हूँ, मेरे यहाँ बिताए गए सालों का उसमें बहुत बड़ा योगदान है और इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। दून ने मेरे भीतर अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आए लड़कों के लिए समानता का भाव पैदा किया। और समानता का भाव जगाने के लिए दून में कभी भी कोई ज़बरदस्ती, कोई ज़ोर नहीं डाला गया, शायद इसीलिए यह ज़्यादा प्रभावकारी रहा। बस यह भाव मन में आ ही जाता था। सभी लड़के एक तरह की पोशाक पहनते थे, भले ही उनके माता-पिता की समृद्धि के स्तर में कितना भी फर्क हो। सबको एक समान जेब खर्च मिलता था। आप किस जाति के हो, किस धर्म को मानते हो, देश के किस हिस्से से आए हो, आपके परिवार का सामाजिक दर्जा क्या है -- इन सब बातों का यहाँ कोई औचित्य नहीं था। मुझे और मेरे भाई को यहाँ पढ़ने के लिए भेजने में मेरे माता-पिता को बड़ा बलिदान देना पड़ा, और कुछ अन्य माँ-बाप के लिए तो यह और भी मुश्किल था -- लेकिन हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हमारे बगल में बैठा लड़का किसी करोड़पति की औलाद है। न ही उसे इससे कोई फर्क पड़ता था। यह जीवन की एक अद्भुत और अनूठी सीख थी जो किसी डे स्कूल में नहीं सिखाई जा सकती थी। हालाँकि डे स्कूल में पढ़ने में हमें अपने माता-पिता का साथ, उनका प्यार मिलता और उनका आदर्श हमारे सामने होता, पर हम उनके सामाजिक पूर्वाग्रहों को भी जस का तस अपना लेते, और स्कूल की अवधि खत्म होने के बाद हम ज़्यादा करके हमारी ही सामाजिक पृष्ठभूमि वाले, हमारे इलाके के, और हमारे आर्थिक वर्ग वाले बच्चों के साथ ही घुलते-मिलते।

दून का मुझ पर जो दूसरा बड़ा ऋण है वह है सर्वांगीण शिक्षा जो सिर्फ आपकी स्कूल की पढ़ाई तक सीमित नहीं रहती। इसे समझने के लिए आप बस रोज़ बोल को ही ले लें। इस अद्भुत थिएटर को कई साल पहले एक गुरु के मार्गदर्शन में खुद लड़कों ने ही बनाया था, जिनमें से कई यहाँ बैठे हुए हैं। दून में जो कुछ भी अच्छा है, मेरे लिए यह थिएटर उसका प्रतीक है। इसके इर्दगिर्द भी बहुत खूबसूरती है। एक बार स्कूल में लगे बाँस के पेड़ में फूल आया, फिर वह मुरझा गया, पर बाद में फिर उसमें फूल आ गए। खुले आसमान तले, हमें ‘जूलियस सीज़र’ की प्रस्तुति वाली रात को तूफान के दृश्य का मंचन करते हुए प्राकृतिक गर्जना और बिजली की चमक भी प्राप्त हो गई थी। वहाँ उस खड्ड में बहुत सारे पक्षी और साँप थे। लेकिन इस प्राकृतिक सौन्दर्य को सिर्फ रोज़ बोल में ही नहीं बल्कि पूरे स्कूल में देखा जा सकता है। आखिरकार एक समय यह जगह फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट (भारतीय वानिकी संस्थान) का हिस्सा थी। इस परिवेश में वर्षों गुज़ारने के कारण अनजाने ही मेरे भीतर प्रकृति के प्रति प्रेम का भाव पैदा हुआ। और सत्र के मध्य में आसपास के पहाड़ों और नदियों की यात्राओं ने इसे और प्रगाढ़ बना दिया। प्रकृति के प्रति मेरा यह प्रेम बड़े शहरों की प्रदूषण से भरी नीरसता के बीच रहते हुए भी कभी भी कम नहीं हुआ।

मुझे कक्षा के बाहर के उन दूसरे पहलुओं का उल्लेख करने की ज़रूरत नहीं है जिनके माध्यम से यह स्कूल विद्यार्थियों को उनकी रुचियों को आगे बढ़ाने का मौका देता है, जैसे वाद-विवाद, कला, भारतीय और पाश्चात्य संगीत, शतरंज, फोटोग्राफी, लकड़ी का काम, विज्ञान या गणित में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों के लिए विशेष समूह और सोसाइटियाँ, क्रॉसकंट्री दौड़ से लेकर क्रिकेट तक तमाम तरह के खेल, और लोगों के बीच सामाजिक काम करना जिसमें, खास तौर पर, हाल में आए भूकम्पों की तरह किसी आपदा के समय लोगों की मदद करना शामिल था। आज के अकादमिक प्रतिस्पर्धा भरे दौर में कई स्कूलों ने अपना लक्ष्य और ध्यान सिर्फ अच्छे ग्रेड, परीक्षाओं, और कॉलेज में दाखिला मिलने की ज़रूरतों तक सीमित कर लिया है। पर दून ने ऐसा नहीं किया है।
स्कूल के दौरान, और बाद में भी, चाहे आपका परिवेश आपको इसके लिए प्रेरित करता हो या नहीं, चीज़ों के बारे में स्वतंत्र ढंग से सोचने की कोशिश करें। बस कोई सत्ताधारी व्यक्ति कुछ कह दे तो इसका यह मतलब नहीं कि आपको उसका विश्वास कर लेना चाहिए। उसके बारे में सोचें। ध्यान से सोचें। महत्वपूर्ण मसलों पर सिर्फ दूसरे के कहने से अपना मत न बनाएँ।

अक्सर हमारे पास हर बात के लिए इतने विस्तार से सोचने का समय नहीं होता, लेकिन महत्वपूर्ण मामलों में हमें खुद ही सोच-विचार कर निर्णय करना चाहिए। जनमत को जाँचें-परखें, खास तौर से जनमत के उस हिस्से को जिसे आपने अपनी राय बना लिया है। जब ज़रूरी हो तो खुद से पूछें कि आप जीवन में क्या करना चाहते हैं - शायद खुद के लिए, शायद अपने चारों तरफ मौजूद दुनिया के लिए। अगर आपके भीतर गहरे में कुछ ऐसा है, व्यक्तिगत या पेशेवर जो आपको किसी ओर खींचता है, और आप उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं, तो सतर्क रहें कि लोगों की नज़र में एक अच्छे व्यक्ति के रूप में स्वीकारे जाने की आकांक्षा कहीं आपको दूसरी ओर न धकेल दे। भले ही आप दुनिया की नज़रों में सफल या लोकप्रिय न हों - या सिर्फ आकस्मिक रूप से सफल हों -- पर आप ‘अपनी’ ज़िन्दगी जी पाएँगे, वह एकमात्र ज़िन्दगी जिस पर आपका कुछ बस है, वह एकमात्र ज़िन्दगी जो आपके पास है।

और आप जो भी करें, उसमें आसानी से हार न मानें। लोग मुझसे कहते हैं कि मैं सफल लेखक हूँ, और मैं मानता हूँ कि एक तरह से यह सच भी है। लेकिन लोग सिर्फ मेरी सफलताओं को  देखते  हैं,  पर  मैंने  कितनी असफलताएँ देखी हैं यह किसी को नहीं पता। लेकिन हमें असफलता को, जीवन में भी और अपने काम में भी, न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए बल्कि उसे अवश्यम्भावी मानना चाहिए। एक लेखक के रूप में, हो सकता है कि आप किसी उपन्यास के एक ही पन्ने को लेकर, या किसी कविता के एक ही छन्द को लेकर हफ्तों तक जद्दोजेहद करते रहें, फिर भी वह उस प्रकार नहीं ढल पाए जैसा आप चाहते हों। या ऐसा हो सकता है कि आप अपनी पाण्डुलिपि को, जिसपर आपने सालों बहुत मेहनत की हो, एक प्रकाशक से दूसरे प्रकाशक के पास भेजते रहें, और उसे बार-बार अस्वीकार किया जाता रहे। ये अस्वीकृतियाँ आती ही हैं, और उनसे तकलीफ भी बहुत होती है, पर किसी भी अस्वीकृति से ज़्यादा महत्वपूर्ण है वह स्वीकृति जो कभी आ सकती है।


विक्रम सेठ: उपन्यासकार, जीवनी लेखक, बाल साहित्कार और कवि हैं। इनके उल्लेखनीय लेखन में ए स्यूटेबल बॉय, द गोल्डन गेट, मैपिंग्स आदि शामिल हैं। इन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, प्रवासी भारतीय सम्मान, डब्ल्यू एच स्मिथ लिट्रेरी पुरस्कार और क्रॉसवर्ड बुक अवॉर्ड समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता की पढ़ाई। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।
सभी चित्र: शिवांगी: अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली से विज़्युअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर। लोक कथाओं की चित्रकारी पर शोध कर रही हैं। स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करती हैं। दिल्ली में निवास।
यह संस्मरण दून स्कूल, देहरादून में 1992 में संस्थापक दिवस पर आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में दिए गए उनके व्याख्यान का एक अंश है। व्याख्यान का यह अंश तूलिका द्वारा प्रकाशित पुस्तक बीइंग बॉय्ज़ से लिया गया है।