ब्रजेश वर्मा

पढ़ना  सीखने   की   प्रक्रिया   में एक  निर्णायक  और  अत्यन्त महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब बच्चे के सामने यह रहस्य खुल जाता है कि शब्द कुछ आवाज़ों, अक्षरों का मेल हैं जिन्हें क्रम से उच्चारित करना होता है। और इन आवाज़ों का क्रम बदलकर अनेक शब्द बनाए जा सकते हैं। गोलू ने मुस्कान के आवासीय शिविर में इतना भर सीखा था। इसके बाद का सीखना उसकी निजी रुचि और प्रयासों का नतीजा था।
तो पहले यह देखते हैं कि गोलू ने पढ़ना सीखने के रहस्य तक पहुँचने का सफर कैसे तय किया। गोलू भोपाल में काम कर रही संस्था मुस्कान से जुड़ा था जो झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले अत्यन्त वंचित तबके के बच्चों के लिए काम करती है। अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और ज़रूरतों के कारण बस्तियों में रहने वाले ज़्यादातर बच्चे प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही स्कूल से धकिया दिए जाते हैं। इन बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए विविध प्रयास किए जाते हैं जिनमें से एक तरीका है, आवासीय शिविर में रहते हुए सीखना। ये बच्चे लगातार पढ़ने आते रहें ऐसा उनके लिए अक्सर सम्भव नहीं हो पाता। इसके विविध सामाजिक-आर्थिक कारण हो सकते हैं। ऐसे में इन बच्चों को ज़्यादा-से-ज़्यादा दिनों तक लगातार लिखने-पढ़ने के सम्पर्क में बनाए रखने का एक तरीका है आवासीय शिविर। इस तरह के एक शिविर में अन्य बच्चों के साथ गोलू भी शामिल था।

वह शिविर में आ तो गया था, पर कक्षा में कभी कभार ही बैठता था। कक्षा में एक दिन कविता गाई जा रही थी-
रज्जू के बेटों ने, मिट्टी के ढेरों में, कद्दू के कई बीज बोए, बोए, बोए!!
गोलू ने इसमें उत्साह से भाग लिया। उसके इस उत्साह का कारण तब पता चला जब उसने मुझे बताया कि रज्जू उसके मामा का नाम है। उसके मामा उससे बहुत प्यार करते हैं।
गोलू ने पूछा, “भैया इसमें रज्जू कहाँ लिखा है?”
दूसरे बच्चे ने उसे बताया। उसने अपनी कॉपी में रज्जू लिखा। उसने  बताया कि क्योंकि रज्जू उसके मामा का नाम है इसलिए ये कविता उसे बहुत अच्छी लगी। गोलू ने जल्दी ही कविता याद कर ली।
कविता से पढ़ना सीखने की प्रक्रिया यह होती कि कविता का पोस्टर बनाकर कक्षा की दीवार पर लगा दिया जाता। जब बच्चे कविता याद कर लेते तब कविता पोस्टर में लिखी पंक्तियों की पहचान करवाई जाती। पंक्तियों की पहचान के बाद शब्दों की पहचान करवाई जाती, इसके बाद शब्दों में आए अक्षरों की। इसके लिए कविता पट्टियों को क्रम से जमाना, शब्द कार्ड का मिलान करवाना, कविता में आए संज्ञा शब्दों के चित्र बनवाना आदि काम करवाए जाते। इन सभी कामों में गोलू पूरे मन से शामिल हुआ।

इस प्रक्रिया में गोलू लिखित भाषा के तिलिस्म को समझ गया कि बोले गए शब्दों में अलग-अलग आवाज़ें (वर्ण) होती हैं, और हर बोली गई ध्वनि को लिखा तथा पढ़ा जा सकता है। इस रहस्य को जानने के बाद बच्चे इस ज्ञान का उपयोग करते हुए आगे सीखते जाते हैं।
आवासीय शिविर में गोलू पूरे तीन माह तक रुका। कैम्प से लौटकर वह एक ऑफिस कैंटीन में काम करने लगा। एक साल बाद गोलू फिर एक आवासीय कैम्प में मिला। तब तक गोलू अच्छे-से किताब पढ़ना सीख गया था।
बातचीत के दौरान गोलू ने बताया कि “कैंटीन वाले भाई-साहब कहते कि ‘जा संजय सर को चाय देकर आ।’ संजय सर के कमरे के बाहर पट्टी पर उनका नाम लिखा रहता जिसे मैं धीरे-धीरे पढ़ने की कोशिश करता और पढ़ लेता। ऐसे ही मैं संचालक, सचिव - ये नाम भी नेम प्लेटों में पढ़ता रहता। हर व्यक्ति के कमरे के सामने उनके नाम की लगी तख्ती को पढ़ता जिससे मैं नए-नए अक्षरों को भी सीखता। रास्ते में चलते समय दुकानों के नाम जैसे - तिवारी जी का भोजनालय, कमला नगर थाना, दीपराज होटल - इस तरह के होर्डिंग पढ़ता रहता। हर लिखी बात को पढ़ने का प्रयास करता। कैंटीन में अखबार के मोटे-मोटे शब्द पढ़ता रहता था। जिस अक्षर की आवाज़ मुझे पता नहीं होती उसे भाई-साहब से पूछ लेता। इस तरह मैं खुद से कोशिश करता रहता था। धीरे-धीरे मैं पढ़ना सीख गया। फिर अखबार के छोटे-छोटे अक्षरों वाली खबरों को भी पढ़ने लगा। खेल के पन्ने को ज़्यादा रुचि से पढ़ता था।”

गोलू का पढ़ना सीखना, पढ़ना सीखने की रोचक और अर्थपूर्ण प्रक्रिया और उसके निजी प्रयासों का मिला-जुला नतीजा है जिसमें आवासीय शिविर से ज़्यादा गोलू के निजी प्रयासों की भूमिका रही। पढ़ना सीखने की प्रक्रिया में गोलू को शामिल करने में एक नाम ‘रज्जू’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो संयोग से उसके मामा का नाम भी था। ऐसी भाषा, कविताएँ, वाक्य और शब्द जो बच्चों के दिल के करीब हों, सीखने में चमत्कार कर सकते हैं।


ब्रजेश वर्मा: मुस्कान संस्था, भोपाल के साथ काम करते हैं।
सभी चित्र: इशिता बिस्वास: दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर। सृष्टि स्कूल ऑफ आर्ट, डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी, बैंगलोर से आर्ट और डिज़ाइन में डिप्लोमा। स्वतंत्र चित्रकार एवं डिज़ाइनर हैं।