ऐड्रियन फोर्सिथ और कैन मियाटा    [Hindi PDF, 247 kB]
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी:  

भाग-2

एसे अनेक पक्षी होते हैं, जो पक्षी विशेषज्ञों की भाषा में प्रजनन या नवजात या चूज़ा परजीविता (ब्रूड पैरासाइटिज़्म) में संलग्न रहते हैं। यह आदत स्वतंत्र रूप से सात अलग-अलग बार विकसित हुई है, और चूज़ा परजीविता सम-शीतोष्ण तथा उष्ण-कटिबन्धी, दोनों क्षेत्रों में पाई जाती है। चूज़ा परजीवी दूसरी प्रजातियों के घोंसलों में अपने अण्डे देते हैं, फिर ये दूसरे पक्षी अपनी खुद की सन्तानों की कीमत पर परजीवी के बच्चों का लालन-पालन करते हैं। अधिकांश लोगों को ऐसी परजीविता विशेष रूप से घृणास्पद लगती है, यहाँ तक कि कुछ जीव-विज्ञानी भी इसे नैतिक रोष के साथ देखते हैं। इसे समझना आसान है। चूज़ा परजीवी अक्सर पालन करने वाले माता-पिताओं से आकार में बड़े होते हैं, और एक छोटे पक्षी को एक लालची, अपेक्षाकृत विकराल चूज़े को खिलाते देखना उसी तरह से हमारे नैतिक बोध को झकझोर देता है जिस तरह संसद सदस्यों को स्वयं को करों में छूट प्रदान करते देखने से होता है। वैसे तो यही अपने-आप में बहुत बुरी बात है मगर कुछ चूज़ा परजीवी अपना खुद का कल्याण सुनिश्चित करने के लिए निन्दनीय तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं। यूरोपियन कोयल के चूज़े अपने पालकों के जायज़ अण्डों को सेये जाने से पहले ही घोंसलों से बाहर धकेल देते हैं, और अफ्रीकी हनीगाइड (शहद, मोम तथा लार्वा पर पलने वाली एक छोटी चिड़िया) के चूज़े एक विशेष रूप से परिष्कृत नुकीले दाँत को चुभो-चुभो कर अपने घोंसले के साथियों को मार डालते हैं।

इस पारिस्थितिक तंत्र के जिस चूज़ा परजीवी का हम वर्णन करेंगे वह जाएन्ट काउबर्ड (स्काफिडुरा ओरिज़िवोरा) है जो ओरियोल परिवार की सदस्य है। इसकी प्रजनन सम्बन्धी आदतें सम-शीतोष्ण उत्तरी-अमेरिका की भूरे-सिर वाली काउबर्ड से मिलती जुलती हैं। मादा काउबर्ड पहले एक मेज़बान प्रजाति का घोंसला तलाश कर लेती है। फिर जब सही समय होता है, आम तौर पर जब मेज़बान मादा ने अपने अण्डे रख दिए होते हैं, तब परजीवी मादा चोरी-छिपे भीतर घुसती है और घोंसले में अपना अण्डा या अण्डे देती है। अण्डों से निकलने वाले नवजात काउबर्ड चूज़े परजीवी की तरह जीने के लिए अनुकूलित होते हैं। वे तेज़ी से विकसित होते हैं और आक्रामक होते हैं। जाएन्ट काउबर्ड के चूज़े घोंसले के जायज़ साथियों से तकरीबन एक सप्ताह पहले अण्डों से बाहर निकल आते हैं, और कहीं ज़्यादा तेज़ी से विकसित होते हैं। उनकी आँखें अण्डे से बाहर आने के 48 घण्टे के भीतर खुल जाती हैं, जबकि मेज़बान चूज़ों की आँखें हो सकता है कि 6 से 9 दिन तक न खुलें। कोयल तथा हनीगाइड के विपरीत, काउबर्ड अपने घोंसले के साथियों को खत्म नहीं करतीं, पर उनका तेज़ विकास उन्हें घोंसले के जायज़ निवासियों की तुलना में खासी शुरुआती बढ़त दे देता है, और वे पालक माता-पिता द्वारा घोंसले में लाए गए भोजन का बड़ा हिस्सा हथियाने में कामयाब रहते हैं।

ज़ाहिर है कि परजीवी फायदे में रहता है, क्योंकि उसका काम सिर्फ एक उपयुक्त मेज़बान घोंसला ढूँढ़ने और उसमें अपने अण्डे डाल देने तक सीमित रहता है। उसे अपने शिशुओं का लालन-पालन करने की ज़ेहमत नहीं उठानी पड़ती, जिसमें सामान्यत: खासी मेहनत करने और जोखिम उठाने की आवश्यकता होती है। स्पष्ट रूप से यह स्थिति उन ठगे गए पालक माता-पिता के लिए भी जैव-विकास की दृष्टि से अत्यधिक नुकसान की होती है जो अपनी खुद की सन्तानों को घाटे में रखकर काउबर्ड का लालन-पालन करते हैं। या क्या सचमुच में ऐसा है?
स्मिथसोनियन ट्रॉपिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के नील स्मिथ ने पनामा में जाएन्ट काउबर्ड और उसकी मेज़बान प्रजाति के सम्बन्ध का अध्ययन किया। उनके अध्ययन का शीर्षक, ‘ऑॅन दि एडवान्टेजेस ऑॅफ बीइंग पैरासिटाइज़्ड (परजीवी द्वारा शिकार बनाए जाने के लाभ)’ तुरन्त इशारा करता है कि सामान्य सहज समझ के विपरीत कुछ नया सामने आने वाला है।

उत्तरी अमेरिका की भूरे सिर वाली काउबर्ड, जो इसकी परवाह नहीं करती कि अपनी सन्तानों को किसके सुपुर्द कर रही है, के विपरीत जाएन्ट काउबर्ड एक खास तरह के पालक माता-पिता को ही चुनती है। पनामा में इस प्रकार की चार मेज़बान प्रजातियाँ हैं: चेस्टनट के जैसे सिर वाली ओरोपेन्डोला (ज़ेर्हिंचस वागलेरी), मोन्टेज़ूमा ओरो-पेन्डोला (जिमनोस्टिनोप्स मोन्टेज़ूमा), मुकुट वाली क्रैस्टेड ओरोपेन्डोला (सारोकोलियस डिक्युमानुस), तथा पीले-पुट्ठे वाली कसीक (कासिकस सेला)। ये चार प्रजातियाँ झुण्डों (कॉलोनीज़) में घोंसले बनाती हैं और उनके बड़े-बड़े, बारीकी से बुने गए, लटकते हुए घोंसले उष्णकटिबन्धी जंगलों की दर्शनीय चीज़ हैं। ये घोंसले अक्सर किसी ऊँचे, खुली-खुली व फैली हुई छतरी वाले एक ही पेड़ पर गुच्छों में बनाए जाते हैं। ये पेड़ जंगल में खुली जगहों या नदी किनारे पाए जाते हैं।

स्मिथ ने काउबर्ड तथा ओरोपेन्डोला के बीच में जटिल पारस्परिक क्रिया-कलापों का ताना-बाना पाया। कुछ कॉलोनियों में परजीवी काउबर्ड चोरी-छिपे काम करती थीं; वे ओरो-पेन्डोला के घोंसलों के आस-पास घात लगाए बैठी रहती थीं और जब मेज़बान मादाएँ चली जाती थीं तो वे चुपके-से एक या दो अण्डे उनके घोंसलों में जमा कर देती थीं। उनके अण्डे ओरोपेन्डोला के अण्डों से मिलते-जुलते होते थे, यह अनुकूलन अन्य चूज़ा परजीवियों में भी देखा गया है। इस तरह का व्यवहार चूज़ा परजीवियों की खासियत है, और उनके लिए जितना सम्भव हो चोरी-छिपे काम करना फायदेमन्द होता है। लेकिन सभी काउबर्ड इसी तरह से व्यवहार नहीं करती थीं। ओरोपेन्डोला बस्तियों के आस-पास मँडराती कुछ काउबर्ड निहायत दबंग और निडर होती थीं। ये काउबर्ड आक्रामक होती थीं और अक्सर घोंसले बनाने वाली ओरोपेन्डोलाओं को भगा देती थीं ताकि अपनी सुविधा से उनके घोंसलों में अपने अण्डे दे सकें। चोरी-छिपे काम करने वाली अपनी बहनों जैसे बस एक या दो अण्डे देने की बजाय, ये मादाएँ एक बार में कई अण्डे, एक अकेले ओरोपेन्डोला घोंसले में पाँच अण्डे तक भी, देती थीं। और, उनके अण्डे बिलकुल भी उनके मेज़बानों के अण्डों जैसे नहीं होते थे।

जिस पक्षी को चोरी-छिपे काम करना चाहिए उसका ऐसा धृष्ट व्यवहार देखकर स्मिथ को बड़ा कौतुहल हुआ। और उन्हें ओरोपेन्डोला मेज़बानों का व्यवहार देखकर उससे भी ज़्यादा कौतुहल हुआ। जिन कॉलोनियों में काउबर्ड चोरी-छिपे अपने अण्डे देती थीं, उनमें रहने वाली ओरोपेन्डोला चिड़ियाँ बड़ी मीन-मेख निकालने वाली होती थीं। यदि उन्हें अपने घोंसले में कोई ऐसा अण्डा मिलता था जो ठीक नहीं दिखता था तो वे उसे बाहर धकेल देती थीं। उनका यह व्यवहार और काउबर्ड का चोरों जैसा आचरण साफ ज़ाहिर करता था कि उन कॉलोनियों में काउबर्ड अनचाही मेहमान थीं। लेकिन जिन कॉलोनियों में ये बेशर्म काउबर्ड घुसती थीं उनमें रहने वाली ओरोपेन्डोला चिड़ियों को अपने घोंसलों में बेगाने अण्डे होने की कोई परवाह नहीं होती थी। हालाँकि ये अण्डे उनके अपने अण्डों से मिलते-जुलते नहीं होते थे, फिर भी वे उन्हें बने रहने देती थीं, और लगता था कि काउबर्ड को अण्डा देने का मौका देने के लिए वे अपने घोंसलों से खदेड़े जाने का भी बुरा नहीं मानती थीं।

व्यवहार की खोजबीन
स्मिथ ने अन्तत: इस विचित्र विरोधाभासी व्यवहार का कारण खोज लिया। ओरोपेन्डोला और कसीक पक्षी ही इन विशाल एमर्जेर्ट पेड़ों पर सामूहिक रूप से घोंसले बनाने वाले एकमात्र प्राणी नहीं होते। ऐसे वृक्ष अनेक सामाजिक ततैयों और मेलि-पोनिन मधुमक्खियों की विभिन्न प्रजातियों के भी मनपसन्द स्थल होते हैं। इनमें पोलिबिया, स्टेलोपोलिबिया, प्रोटोपोलिबिया, तथा ब्राकीगास्ट्रा प्रजातियाँ शामिल हैं। इन ततैयों तथा मधुमक्खियों की कॉलोनियाँ बहुत विशाल होती हैं, कभी-कभी तो प्रत्येक छत्ते में लाखों वयस्क सदस्य तक होते हैं। यदि कोई जीव छत्तों के नज़दीक आने की हिमाकत करे तो ये ततैयाँ खतरनाक ज़हर बुझे कँटीले डंकों से लैस रहती हैं, और मेलिपोनिन मधुमक्खियाँ डंक मारकर त्वचा तथा आँखों में तकलीफदेह तरल पदार्थ रगड़ देती हैं। वैसे तो ततैयाँ और मधु-मक्खियाँ, दोनों किसी भी बाहरी हलचल का तत्परता से जवाब देती हैं, पर वे छत्तों को ज़ोर से हिलाए जाने, या पसीने जैसी विदेशी गन्ध जैसे संकेत के प्रति सबसे ज़्यादा संवेदनशील होती हैं। एकबारगी विक्षुब्ध हो जाने पर, ये सामाजिक कीट फेरोमोन्स की मदद से अपनी बहनों को सचेत करके छत्ते की रक्षा करने हेतु बुला लेती हैं।

ओरोपेन्डोलाओं के घोंसलों की कॉलोनियों के सामाजिक कीटों से जुड़ने से पक्षियों को कुछ स्पष्ट लाभ होते हैं। यदि ये पक्षी कीटों के रोष से स्वयं को बचाए रख सकें तो अनेक सम्भावित शिकारियों से सुरक्षित रहते हैं। वृक्ष के छत्र में अनेक जानवर घूमते रहते हैं जो पक्षियों के अण्डों का भोजन पाकर बहुत खुश होंगे - ओपोसम, रकून, किंकाजू और सफेद चेहरे वाले बन्दरों जैसे स्तनपायी जानवर अण्डों और घोंसलों में रहने वाले नन्हे चूज़ों, दोनों को बहुत चाव से खाते हैं, और अवसर मिले तो वे ततैयों तथा मधुमक्खियों के लार्वा को भी मज़े से खाएँगे। इन परभक्षियों से अपनी रक्षा करने में, ततैए और मधुमक्खियाँ अपने ज़्यादा कमज़ोर पड़ोसियों को भी सुरक्षा मुहैया करवा देती हैं। इसके अतिरिक्त, पक्षियों की साँपों जैसे परभक्षियों से भी रक्षा हो जाती है, जो ततैयों या मधुमक्खियों के लार्वा में रुचि नहीं लेंगे क्योंकि वृक्ष के छत्र में उनकी हलचल तत्काल उन कीटों को उकसा देगी। ओरोपेन्डोला अकेले ऐसे नव-उष्णकटिबन्धी (नियोट्रॉपिकल) पक्षी नहीं हैं जिन्हें आक्रामक कीटों (हिमेनोप्टेरन कीटों) के पड़ोस में रहने के फायदों का पता चल गया है; कुछ ट्रोगोन पक्षी तो वास्तव में अपने घोंसले ततैयों के छत्तों के भीतर बनाते हैं

स्मिथ को पता चला कि मधु-मक्खियों या ततैयों के किसी छत्ते के नज़दीक घोंसला होने से ओरोपेन्डोला पक्षियों को बॉट मक्खियों की आफत से छुटकारा मिल जाता है। जहाँ ततैए या मधुमक्खियाँ मौजूद नहीं होती थीं, वहाँ घोंसलों में रहने वाले ओरोपेन्डोला शिशु जिस आम परजीवी का शिकार बनते थे वह फिलोर्निस प्रजाति की बॉट मक्खियाँ थीं, और जैरी के अपेक्षाकृत सज्जन बॉट मेहमान के विपरीत, फिलोर्निस अपने मेज़बानों को तबाह कर सकती थीं। बॉट मक्खी का एक अकेला लार्वा घोंसले में रह रहे किसी चूज़े को अत्यन्त दुर्बल बना सकता था, और सात ऐसे लार्वा उसे मार डालने के लिए काफी होते थे। लेकिन न जाने कैसे आक्रामक ततैयों तथा मधुमक्खियों की उपस्थिति बॉट मक्खियों को दूर रखती थी। यदि ओरोपेन्डोला अपने घोंसलों को ततैयों या मधुमक्खियों के छत्तों से बहुत दूर बनाते तो चूज़ों में बॉट मक्खियों के लार्वा दिख जाते थे, पर यदि पक्षियों के घोंसले ततैयों और मधुमक्खियों के नज़दीक होते थे तो उनमें कोई बॉट कीड़े नहीं होते थे।

ओरोपेन्डोला कॉलोनियों तथा कीट कॉलोनियों के बीच का सम्बन्ध एकदम परिपूर्ण नहीं होता। कुछ पेड़ों में जहाँ ओरोपेन्डोला कॉलोनियाँ पाई जाती हैं, आक्रामक ततैयाँ या मधुमक्खियाँ या तो बिलकुल नहीं होतीं, या नगण्य होती हैं। इन पेड़ों में चिड़ियाँ अपने घोंसले छत्र की परिधि पर, ऐसी पतली शाखाओं पर बनाती हैं जिन पर पहुँचने में किसी शिकारी को दिक्कत होगी। हालाँकि इससे चिड़ियों को अपने घोंसलों पर डाका डालने वाले स्तनपायी और रेंगने वाले जानवरों से सुरक्षा मिल जाती है, पर बॉट मक्खियाँ कतई हतोत्साहित नहीं होतीं, और घोंसलों के अनेक शिशु इन परजीवियों के संक्रमणों के कारण दम तोड़ देते हैं।

स्मिथ ने पाया कि कुछ ओरोपेन्डोला तथा कसीक पक्षी, जिन्होंने ततैयों तथा मधुमक्खियों से रहित पेड़ों में घोंसले बनाए थे, वे भी बॉट मक्खियों से पीड़ित हुए बिना अपने शिशुओं का लालन-पालन कर पाते थे। रोचक बात यह कि इन घोंसलों में जाएन्ट काउबर्ड के चूज़ों की मौजूदगी थी। जो घोंसले ततैयों या मधुमक्खियों वाले पेड़ों पर नहीं थे और जिनमें चूज़ा परजीवी भी नहीं थे, उनमें बॉट मक्खियाँ ओरो-पेन्डोला और कसीक चूज़ों को संक्रमित कर देती थीं, और उनमें से बहुत कम ही बड़े होकर घोंसलों से बाहर आने के लिए जीवित बच पाते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि काउबर्ड की उपस्थिति किसी प्रकार से स्वास्थ्यवर्धक थी; ये परजीवी पक्षी अपने मेज़बानों के लिए किसी तरह से हितकारी थे।

स्मिथ ने इस पहेली के कुछ सुराग ढूँढ़ने के लिए काउबर्ड चूज़ों का अध्ययन किया। चूज़ों की समय से पूर्व विकसित बुद्धिमानी और आक्रामकता, जो इन चूज़ा परजीवियों को घोंसले के जायज़ निवासियों की तुलना में एक शुरुआती बढ़त प्रदान करती हैं, वास्तव में मेज़बान प्रजातियों के लिए भी, ततैयों और मधुमक्खियों की अनुपस्थिति में, हितकारी होती है। जब भी एक काउबर्ड चूज़ा किसी बॉट मक्खी या बॉट मक्खी के लार्वा को देखता है, तो वह तुरन्त उसे चोंच मारकर सन्तोषपूर्वक गटक जाता है। वे इन खतरनाक परजीवियों को असहाय ओरोपेन्डोला शिशुओं को संक्रमित कर पाने के पहले ही खा जाते हैं, और इस तरह अपने मेज़बानों का भला करते हैं।

तो हम ओरोपेन्डोला के सापेक्ष काउबर्ड को परजीवी कहें या पारस्परिक जीव (म्युचुअलिस्ट), यह ततैयों, मधुमक्खियों और बॉट मक्खियों की संख्या और वितरण पर निर्भर करता है। इन कीटों की बहुलता में कोई भी परिवर्तन काउबर्ड-ओरोपेन्डोला सम्बन्ध की प्रकृति पर गहरे प्रभाव डाल सकता है।

ओरोपेन्डोला घोंसलों की रक्षा करने में मददगार ततैए अन्य जीवधारियों को सुरक्षित रखने में भी सहायक होते हैं। कुछ मामलों में यह सीधा-सीधा एक-पक्षीय हितकारी (कॉमेन्सलिस्टिक) सम्बन्ध होता है। बड़े डेक्टिसिन केटीडिड (एक प्रकार के टिड्डे) दिन में ततैयों के छत्तों के आस-पास की घनी पत्तियों में सुस्ताते हैं, और वे भी उन शिकारियों से सुरक्षित रहते हैं जो ओरोपेन्डोला के घोंसलों पर आक्रमण कर सकते हैं। यहाँ तक कि सामाजिक ततैयों की एक प्रजाति होती है जो इस रणनीति पर भरोसा करती है, लेकिन इस मामले में कभी-कभी लाभ अचानक नुकसान में बदल जाता है।

कुछ और रणनीतियाँ
मध्य अमेरिका की ततैया मिस्को-साइटारस इम्मार्जिनाटस ततैयों के हिसाब से एक नाज़ुक प्राणी है। इसके वयस्क सदस्य, जो छरहरे और काली तथा पीली पट्टियों से सजे रहते हैं, काफी दब्बू होते हैं, और नवजात शिशुओं के लिए बने खुले प्रकोष्ठों (सेल्स) में कुछ दर्जन सदस्यों से अधिक नहीं होते। आप किसी मिस्कोसाइटारस कॉलोनी को छू सकते हैं जिसकी अक्सर कोई रक्षात्मक प्रतिक्रिया नहीं होती। इस प्रकार के शान्त स्वभाव और नाज़ुक छत्ते वाली ततैया किसी भूखे ओपोसम के मुकाबले कहीं नहीं टिकती। मिस्कोसाइटारस की अधिकांश प्रजातियाँ अपने कमज़ोर छत्ते किसी दुर्गम स्थान पर बनाती हैं - जैसे किसी जलधारा के किनारे खोहों, या ताड़ के बड़े पत्ते की दूर वाली बाहरी किनारी पर। लेकिन मिस्कोसाइटारस इम्मार्जिनाटस ने एक वैकल्पिक रक्षा तरकीब ढूँढ़ निकाली है। यह प्रजाति आम तौर पर अपने छत्ते सामाजिक ततैए की एक अन्य प्रजाति की संगत में बनाते हैं, जिसके वयस्क सदस्य अधिक आक्रामक हों और जिनकी कॉलोनियाँ ज़्यादा बड़ी हों। अक्सर यह पोलिबिया ऑॅक्सीडेन्टालिस समूह की किसी सदस्य को चुनती है, जो अपने बड़े, स्पष्ट, गोलाकार या बेलनाकार कागज़ के छत्ते झाड़ियों में, कैक्टस तथा पेड़ों की शाखाओं पर बनाती हैं। ये आक्रामक पड़ोसी नि:सन्दिग्ध रूप से दब्बू मिस्को-साइटारस इम्मार्जिनाटस की रक्षा करने में मददगार होती हैं, काफी कुछ उसी तरीके से जैसे अन्य पोलीबीन ततैयाँ ओरोपेन्डोला पक्षियों की मदद करती हैं।

ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह स्तनपायी शिकारियों की समस्या से निपटने के लिए मिस्कोसाइटारस द्वारा किया गया लागत-रहित अनुकूलन है। इस तरह से यह कॉमेन्सलिस्टिक सम्बन्ध का एक स्पष्ट उदाहरण होगा। और बरसाती मौसम में यही स्थिति होती है। लेकिन मिस्कोसाइटारस इम्मार्जिनाटस सबसे अधिक बाहुल्य में उत्तर पश्चिमी कोस्टा रिका के गुआनकास्टे प्रान्त के सूखे जंगलों में पाए जाते हैं जहाँ एक लम्बी सूखी ऋतु होती है। इस मौसम में यहाँ पतझड़ होता है, जिससे पोलिबिया ऑॅक्सीडेन्टालिस के छत्ते, जो वैसे ही अपने बड़े आकार और विशेष आकृति के कारण एकदम नज़र में आते हैं, खुले में आ जाते हैं। इसी समय अन्य कीटों की आबादी घट जाती है और इन छत्तों में स्थित हज़ारों मोटे-मोटे लार्वा आकर्षक आहार बन जाते हैं और तरह-तरह के बड़े-छोटे पक्षी, जल्दी इन छत्तों पर धावा बोलने लगते हैं। लाल-गले वाले दुस्साहसी काराकरास और चीलें ततैयों के डंकों की परवाह न करते हुए जम कर दावत उड़ाने के लिए पोलिबिया छत्तों को ध्वस्त कर देती हैं।

हमला काफी तेज़ होता है; किसी इलाके में पोलिबिया के आधे छत्ते दो सप्ताह के भीतर नष्ट हो जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। पोलिबिया छत्तों के साथ-साथ मिस्कोसाइटारस इम्मार्जि-नाटस के छत्ते भी नष्ट कर दिए जाते हैं। पर थोड़े-से मिस्कोसाइटारस इम्मार्जिनाटस छत्ते इधर-उधर बचे रहते हैं, और सूखी ऋतु के दौरान सभी पोलिबिया छत्ते भी चिड़ियों का शिकार नहीं हो जाते, इसलिए यह व्यवस्था चलती रहती है और मिस्कोसाइटारस इम्मार्जिनाटस प्रजाति में एक आक्रामक पड़ोसी से मिलने वाले मौसमी फायदों की चाह बनी रहती है। लेकिन इस इन्तज़ाम की नज़ाकत आसानी से देखी जा सकती है। सूखी ऋतु ज़रा-सी लम्बी हो जाए तो सन्तुलन बदल सकता है, क्योंकि तब हो सकता है कि मिस्कोसाइटारस की अधिकांश अन्य प्रजातियों की तरह मिस्कोसाइटारस इम्मार्जिनाटस के लिए भी छत्तों के लिए सुरक्षित ओट वाले स्थान तलाशना अधिक लाभप्रद हो जाए।

पेचीदा रिश्ते
साधारण-सा रात और दिन का अन्तर भी दो प्रजातियों के बीच के पारिस्थितिक सम्बन्धों को बदल सकता है। दिन के दौरान, उष्णकटिबन्धी स्कैरब बीटल (एक किस्म का गुबरैला) और विभिन्न प्रकार की मक्खियों के बीच गोबर जैसे दुर्लभ संसाधन के लिए कड़ी स्पर्धा चलती है। मक्खियों की गन्ध संवेदना तेज़ होती है जिससे उन्हें गोबर के किसी ताज़े ढेर की स्थिति का पता जल्दी-से लग जाता है। सामान्यत: गोबर पर मक्खियाँ ही सबसे पहले पहुँचती हैं, और अपने अण्डे दे देती हैं जो जल्दी ही भुक्खड़ इल्लियों में परिवर्तित हो जाते हैं। इन इल्लियों की वजह से बाद में पहुँचने वाले गुबरैलों के लिए, गोबर थोड़ा अनुपयोगी हो जाता है क्योंकि मक्खियों की इल्लियाँ बहुत तेज़ी से बढ़ती हैं और उनके कारण गुबरैलों के लार्वा भूखे रह जाते हैं। लेकिन गोबर के कुछ बीटलों ने मक्खियों के साथ होने वाली होड़ को कम करने में मदद के लिए एक अन्य प्राणी की सहायता स्वीकार कर ली है।

अगर आप वयस्क स्कैरब गुबरैलों को नज़दीक से देखें, तो कभी-कभी आपको उनके हाथ-पैरों और उदर पर मोम जैसे बारीक गोल दाने दिखाई देंगे जो वास्तव में सूक्ष्म कीड़ों (माइट्स) का झुण्ड होता है। इन माइट्स को देखकर आप शायद यह सोचें कि बीटल एक धीमी, खुजलाहट भरी और खूनी मौत की पीड़ा भोग रहे हैं। यदि संयोग से आप उस समय चिगर्स (उष्णकटिबन्धी पिस्सू) से पीड़ित हों तो यह विचार आपके अनुभव से जुड़कर और भी जीवन्त हो जाएगा। परन्तु ज़रूरी नहीं कि बात ऐसी ही हो। इन माइट्स में से अनेक सिर्फ मुफ्त की सवारी करने वाले होते हैं; जब बीटल्स गोबर की किसी ढेरी पर पहुँचते हैं तो माइट्स जल्दी-से उतर कर ढेरी की सतह कुरेदकर जो भी अण्डे या लार्वा मिलते हैं उन्हें खाने लगते हैं। ज़्यादातर मामलों में ये अण्डे मक्खियों के होते हैं। उत्तर के सम-शीतोष्ण क्षेत्रों में इसी क्रियाकलाप के अध्ययन दर्शाते हैं कि इन माइट्स की मदद मिले तो मक्खियों से स्पर्धा करने की गुबरैलों की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है।

सम-शीतोष्ण क्षेत्र में अधिकांश गोबर के बीटल दिनचर जीव होते हैं, परन्तु गर्म उष्णकटिबन्धों में गोबर खाने वाले स्कैरब की अनेक प्रजातियाँ निशाचर होती हैं। ये बड़े-बड़े अपेक्षाकृत फूहड़ गुबरैले दिन में पक्षियों और बड़ी छिपकलियों का शिकार बन जाते हैं, और शायद ऐसी परभक्षिता से बचने के लिए ही वे निशाचर बन गए हैं। इसके अलावा, अनेक उष्णकटिबन्धी स्तनपायी जानवर भी निशाचर होते हैं, अत: शायद भोजन (यानी गोबर) की उपलब्धता ने इन बीटलों को रात में सक्रिय रहने को प्रेरित किया हो। कारण जो भी हो, ये रात में विचरण करने वाले बीटल गोबर खाने वाली मक्खियों से कम प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं। मक्खियाँ न हों तो मुफ्तखोर माइट्स लाभप्रद होने की बजाय कष्टकारी बोझ बन जाते हैं; जो सम्बन्ध दिन के दौरान परस्पर हितकारी होता है वही अचानक रात में एकतरफा हो जाता है। जो माइट्स निशाचर गोबर के स्कैरब को संक्रमित करते हैं उनके शरीर-विज्ञान के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है, लेकिन हमें इस बात में बहुत सन्देह है कि वे रात में भोजन करने वाले स्कैरब को वैसे ही फायदे पहुँचाते होंगे जैसे कि वे दिन में भोजन करने वाले बीटलों को पहुँचाते हैं। दरअसल हो सकता है कि ये माइट्स बीटल्स के क्रियाकलापों में बाधक बनते हों। यानी दिन का पारस्परिक जीव (म्युचुअलिस्ट) रात्रि के दौरान परजीवी बन सकता है।

प्रजातियों के बीच के ये अन्तर-सम्बन्ध उष्णकटिबन्धों की जटिलता के बारे में काफी कुछ प्रकट करते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सम-शीतोष्ण क्षेत्रों की अपेक्षा ऐसी जटिलताएँ उष्ण-कटिबन्धों में अधिक व्यापक रूप से पाई जाती हैं, लेकिन सजीव संसार की गतिशील और चितकबरी प्रकृति सभी प्राकृतवासों में पाई जाती है। ऐसे सम्बन्ध पाठ्यपुस्तकों के शीर्षकों में तथा मानसिक दड़बों में नहीं समेटे जा सकते, और हमें मजबूर करते हैं कि हम हरेक उदाहरण को उसकी विशिष्टता और अनोखेपन के साथ देखें। हमें लगता है कि अनोखेपन को सराहना ही प्राकृतिक इतिहास का सार है, और हालाँकि हम जो देखते हैं उसे समझाने के लिए सामान्य सिद्धान्तों का सहारा लेना ज़रूरी होता है, परन्तु हमें वास्तविक संसार, अपनी सारी गफलतों और उलझनों के बावजूद ज़्यादा दिलचस्प लगता है, किसी भी साफ-सुथरे सिद्धान्त या मॉडल से कहीं ज़्यादा दिलचस्प। विलियम ब्लेक के इस दावे में कुछ सच्चाई तो है कि “सामान्यीकरण करना मूर्खता है”। जो महात्मा लोग जीवन की संरचना में सलीके की तलाश करते हैं उन्हें यह जानकर शायद थोड़ी राहत मिलेगी कि हमने अपनी बात कहने के लिए जानबूझकर जटिल सम्बन्धों का सहारा लिया है। सीधे सहज प्रकार के सहजीविता के सम्बन्ध आम होते हैं: पर ये सरल सम्बन्ध भी बदल रहे हैं क्योंकि प्राकृतिक चुनाव की प्रक्रिया उसमें शामिल सभी जीवों पर काम करती है। डार्विन की दृष्टि ने अचर संसार से हटकर ‘अन्तहीन स्वरूपों’ का जो दृश्य प्रस्तुत किया था, उसमें अलग-अलग जीवों के केवल हाथ-पैर और रंग ही नहीं आते, बल्कि उनके बीच बुने हुए समृद्ध सम्बन्ध भी शामिल हैं जिनकी हमारी समझ अभी भी धुँधली ही है।


ऐड्रियन फोर्सिथ: पिछले तीस सालों से ट्रॉपिक्स में शोध और कंज़र्वेशन करते आ रहे हैं। उत्तर अमेरिका के प्रकृति और विज्ञान के बेहतरीन लेखकों में से एक हैं।

कैन मियाटा: स्मिथ्सोनियन इंस्टिट्यूशन में पोस्ट-डॉक्टोरल फैलोशिप करने के बाद उन्होंने नेचर कंज़र्वेन्सी के साथ काम किया। 32 साल की अल्प आयु में उनका निधन हो गया।

अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब गाज़ियाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से अनुवाद कार्य कर रहे हैं।

यह लेख ‘ट्रॉपिकल नेचर - लाइफ एंड डैथ इन द रेन फॉरेस्ट्स ऑफ सैंट्रल एंड साउथ अमेरिका’ किताब से लिया गया है जो साइमन एंड शूस्टर द्वारा 1987 में छापी गई थी।