सवालीराम                                                                                                                                           [Hindi PDF, 185 kB]

सवाल: गोंद कैसे ब   नती है और यह काम कैसे करती है?

—प्रदीप कुमार, अनूपपुर, म.प्र.

जवाब: पिछले अंक में सवालीराम कॉलम में पूछा गया यह प्रश्न एक ऐसे पदार्थ के बारे में कुछ और सोचने का मौका देता है, जो हमारे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अगर आप इसके बारे में सोचें तो चिपकाने वाले पदार्थ का इस्तेमाल कई चीज़ों में होता हुआ दिखाई देता है, जैसे - किताब-कॉपियाँ, जूते, फर्नीचर, खेल सामग्री, सजावट के सामान, वाहन आदि।
अपने ही बचपन को याद करें तो गोंद से पतंग चिपकाने, लिफाफे को गोंद से बन्द करने या खेल-खेल में कागज़ की कतरनों को चिपकाने जैसी कई बातें याद आ जाएँगी। कुछ और किस्से फेविकोल जैसी चिपकू गोंद के भी होंगे, लेकिन हम यहाँ साधारण गोंद की ही बात करने वाले हैं।

क्या आप अन्दाज़ लगा सकते हैं कि गोंद का इस्तेमाल इन्सान कब से कर रहा होगा? गोंद के उपयोग के बारे में बताया जाता है कि यूरोप में आज से सत्तर हज़ार साल पहले आदि-मानव (होमो निएंडरथेलेंसिस) ने भूर्ज वृक्षों की छाल से बने चिपचिपे पदार्थ का प्रयोग अपने भालों में किया था। इसी तरह इज़राइल में लगभग दस हज़ार साल पुरानी कलाकृतियों में पशुओं से प्राप्त गोंद का उपयोग किया गया था।

मिलता है गोंद कहाँ से?
ऊपर की गई चर्चा से इतना तो स्पष्ट है कि सामान्य तौर पर गोंद प्राप्ति के दो स्रोत हैं - पशु और वनस्पतियाँ।
वनस्पतियों में बबूल, धावड़ा, कुलू आदि के तनों से स्रावित चिपचिपे द्रव का इस्तेमाल गोंद के रूप में किया जाता रहा है। आज भी हम अकेशिया जाति के कुछ पौधों के तने से प्राप्त रेज़िन का उपयोग गोंद के रूप में करते हैं (पौधों से प्राप्त एक गोंद जो खाने योग्य है, उसका उपयोग जचकी के लड्डू में किया जाता है)।
पशुओं से गोंद प्राप्त करने के लिए उनकी हड्डियों, त्वचा और पेशी या कोई भी संयोजी ऊतक से बने भागों को उबालने से चिपचिपे कोलेजन  अलग हो जाते हैं।

जैसे-जैसे चिपकाने वाले पदार्थ का उपयोग बढ़ता गया वैसे-वैसे गोंद के लिए कच्चा माल प्रकृति से जुगाड़ने की जगह कृत्रिम गोंद का उपयोग बढ़ने लगा।
पिछले सौ सालों में चिपकाने वाले पदार्थों के आधुनिकीकरण पर काफी काम हुआ है। इसलिए आज हमारे पास सामान्य गोंद के अलावा इस सूची में - फिनॉल फॉर्मल्डिहाइड, यूरिया फॉर्मल्डिहाइड, पॉलीविनाइल एसीटेट, पॉलीविनाइल क्लोराइड, ऐक्रेलिक और एपोक्सी जैसे कई नाम शामिल हैं। इनमें लचीलापन, उच्च तापमान प्रतिरोधकता, मज़बूती और अन्य रसायनों के प्रति निष्क्रियता जैसे गुणों के समावेश से ज़ाहिर है कि चिपकाने वाले पदार्थों की गुणवत्ता में भी खासा सुधार हुआ है।

गोंद काम कैसे करती है?
अलग-अलग प्रकार के चिपकाने वाले पदार्थों के काम करने में थोड़ा अन्तर होता है।
गोंद से किन्हीं दो चीज़ों को चिपकाने से पहले इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि एक गोंद जो कागज़ के कई टुकड़ों को आसानी से चिपका सकती है, वही गोंद धातुओं के दो टुकड़ों को चिपकाने में नाकामयाब रहती है।
सच कहा जाए तो अभी भी चिपकाऊ पदार्थों द्वारा वस्तुओं को चिपकाने के पीछे निहित सिद्धान्त या बलों की भली-भाँति व्याख्या नहीं हो सकी है।

चिपकाने को लेकर हमारा व्यवहारिक अनुभव कहता है कि एक अच्छी गोंद में कुछ विशेष गुण होने चाहिए। जैसे, गोंद चिपकाए जाने वाले या जोड़े जाने वाले पदार्थों की सतह पर तेज़ी से और अच्छे से फैल जानी चाहिए। यानी सतह को अच्छे से गीला कर दे। अच्छी तरह से गीला करने से मज़बूत बन्ध बनते हैं। जबकि अगर सतह ठीक से गीली न हुई हो तो हवा और नमी से भरी हुई खाली जगह छूट जाती है, जो बन्ध को कमज़ोर बनाती है।

गोंद के लिए कच्चा माल जुटाना

कारखानों में गोंद बनाने के लिए कच्चा माल जुटाना भी एक प्रमुख चरण है। गोंद बनाने के लिए कच्चा माल बबूल जैसे पेड़ या मरे हुए पशुओं की पेशियों या हड्डी आदि से मिलता है।
वैसे तो बबूल के तने पर मौजूद दरारों से चिपचिपा तरल निकलता है लेकिन बबूल से औद्योगिक स्तर पर लगातार गोंद पाने के लिए इसके तने की छाल को चाकू से छीला जाता है। छीले गए तने से धीरे-धीरे चिपचिपा पदार्थ निकलकर तने पर इकट्ठा होता है और सूखने लगता है। इस सूखे पदार्थ (गोंद) को एकत्रित कर कारखानों में पहुँचाया जाता है। यहाँ इनमें अन्य रसायन मिलाकर ऐसा तरल पदार्थ बनाया जाता है जो जल्द वाष्पित होकर तरल गोंद को ठोस परत के रूप में तब्दील कर दे।

भारत के कई राज्यों - गुजरात, राजस्थान, म.प्र., आन्ध्रप्रदेश - में गोंद इकट्ठा करने का काम महिलाओं के स्वरोज़गार समूह करते हैं। ये महिलाएँ अलसुबह बबूल के जंगलों में गोंद इकट्ठा करने, बबूल के तनों पर काट लगाने जैसे काम करती हैं। बबूल से प्राप्त की गई गोंद को साफ करके, इसकी रंग-गुणवत्ता के आधार पर ग्रेडिंग कर इसे कारखानों को बेचती हैं। गोंद बनाने की आगे की प्रक्रिया कारखाने में होती है।

चमड़ा उद्योग और मांस की पैकिंग इकाइयों से प्राप्त मरे हुए पशुओं के विविध अवशेषों का उपयोग गोंद बनाने में किया जाता है। पशुओं की हड्डियों से जिलेटिन आदि बनाने वाले कारखानों में पशुओं से प्राप्त प्रोटीन से औद्योगिक उपयोग के लिए गोंद बनाई जाती है। यह सामान्य कागज़ चिपकाने वाली गोंद नहीं होती।

परन्तु चिपकाने वाली सतहों को अच्छे से गीला करना ही पर्याप्त नहीं है। यदि ऐसा होता तो पानी भी गोंद की तरह काम करता (बहुत ज़्यादा पानी मिली गोंद से लिफाफे चिपकाने का आपका अनुभव क्या कहता है?)। चिपकाने की प्रक्रिया में दोनों सतहों पर फैलाई गई गोंद धीरे-धीरे एक ठोस परत के रूप में तब्दील होती जाती है और दोनों सतहें स्थाई रूप से चिपक जाती हैं।
मान्यता यह है कि चिपकना उन अणुओं या परमाणुओं का गुण है जिससे चिपकने वाली सतह बनी है। सम्भव है कि गोंद के कठोर होने की प्रक्रिया के दौरान आणविक स्तर पर गोंद के अणुओं के बीच और गोंद व सतह के अणुओं के बीच कार्यरत बल की वजह से चिपकना सम्भव हो पाता हो। अभी भी कोई पक्का जवाब नहीं है।

शायद लेई या उबले चावल की बात किए बिना बात खत्म करना ठीक नहीं होगा। चावल और आटे की लेई का आपने भी लिफाफे चिपकाने में खूब उपयोग किया होगा। चावल और आटे में स्टार्च होता है। वैसे स्टार्च में खुद चिपकाने वाला गुण नहीं होता लेकिन उसे पानी के साथ उबालने पर स्टार्च फूल जाता है और पानी के अणुओं के साथ एक बन्धन बनाता है। ऐसा करने पर स्टार्च एक चिपकाने वाले पेस्ट की तरह काम करता है।
आशा है आपकी जिज्ञासा का कुछ हद तक समाधान हुआ होगा। आप भी ‘संदर्भ’ के पते पर अपने सवाल भेज सकते हैं।


अनुवाद सहयोग: रामकृष्ण ओझा: एकलव्य के भोपाल केन्द्र में कार्यरत हैं।