नीला आपटे                                                                                                                                                                                    [Hindi PDF, 143 kB]

उन दिनों जब मेरा बेटा सात-आठ साल का था, एक रोज मैं, मेरे पति और बेटा सृजन गपशप में मशगूल थे। अचानक हमारी गपशप एक अलग ही दिशा में चल निकली।
मेरे बेटे ने पूछा, “माँ, मौत क्या होती है?”
“मौत यानी ज़िन्दगी का खत्म होना। देखो, हमारे आसपास के जानवर, पंछी, पेड़-पौधे, ये सभी कुछ-न-कुछ हलचल करते हैं, खाते हैं, पीते हैं, साँस लेते हैं। लेकिन कुछ समय के बाद यह सब बन्द हो जाता है। वे हलचल नहीं कर पाते, खाना-पीना बन्द। यानी उनकी ज़िन्दगी खत्म हो जाती है।”
“क्या इन्सान भी इसी तरह से मरते हैं?” मेरे बेटे सृजन ने काँपती हुई आवाज़ में पूछा।
“हाँ, जो भी जीवित है, वो इसी तरह से खत्म हो जाता है।” पिता ने फरमाया।
“खत्म हो जाता है, मतलब कहाँ जाता है?” सृजन ने पूछा।
पिताजी ने बताया, “मिट्टी में मिल जाता है। तुमने मरा हुआ तिलचट्टा देखा था न? बताओ क्या होता है उसका?”
“चींटियाँ उसे खींचकर ले जाती हैं।”
“ले जाकर क्या करती होंगी?”
“खा जाती हैं और क्या।”

“मतलब तिलचट्टा खत्म हो गया कि नहीं?”
सृजन एकदम शान्त... गम्भीर।
मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “सृजन अभी मुझे याद आया। डेढ़-दो महीने पहले अपने गेट के पास की झाड़ी में बिल्ली का एक बच्चा मरा पड़ा था। तुम्हें भी याद आ रहा है न? बदबू की वजह से हम उस बच्चे को खोज पाए थे। फिर हमने क्या किया था?”
“उस बच्चे पर तसला भर मिट्टी और राख डाली थी हमने।” सृजन ने बताया।
“बिल्ली के उस बच्चे का क्या हुआ होगा, चलकर देखें क्या?” मैंने पूछा।
“क्या हुआ होगा उसका?”
सृजन ने सवाल ज़रूर किया लेकिन वहाँ जाकर देखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सम्भवत: वो डर रहा था। उसके चेहरे और आवाज़ से महसूस हो रहा था।

मैंने ही अपनी ओर से कहा, “वो बिल्ली का बच्चा अब वहाँ दिखाई नहीं देगा, वो मिट्टी में तब्दील हो गया होगा।”
“यानी इन्सान मरकर मिट्टी में मिल जाता है?” सृजन ने फिर पूछा।
सृजन ने जब यह पूछा तो उसकी आवाज़ में डर झलक रहा था।

सृजन के पिता ने कहा, “एक मज़ेदार बात है, वो बताऊँ, एक तरफ कोई जीव मिट्टी में मिल रहा होता है, और दूसरी ओर एक नया जीव पैदा हो रहा होता है। देखो, यहाँ एक बिल्ली का बच्चा मरा और मिट्टी में मिल गया। वहीं दूसरी ओर हमारे पड़ोसी मठकर चाचा की बिल्ली ने चार बच्चों को जना। इस तरह एक ओर खत्म हो रहा था तो दूसरी ओर कुछ नया जीवन आ रहा था। ऐसा हमारी कुदरत में पहले से होता आ रहा है। यदि कुछ खत्म ही नहीं होता और सिर्फ नया जीवन ही आता रहता तो सोचो कितनी भीड़ हो गई होती? बस एक-दूसरे को कुचलते रहो। इस धरती पर कहीं जगह ही नहीं बचती।”
इस चर्चा को वह सुन रहा था। लेकिन एक बार फिर वो मौत के मुद्दे पर लौट ही आया। उसने पूछ लिया, “फिर तुम दोनों भी मरोगे, तो मैं किसके साथ रहूँगा?”

अब हम दोनों पति-पत्नी के होश फाख्ता हो गए। माथा पीट लिया, क्यों इस बारे में बातचीत इतनी बढ़ाई। बच्चे के सभी सवालों के जवाब देना चाहिए इस सोच के तहत हम जवाब दे रहे थे, उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बेटे को इस तरह भावनाओं से सराबोर देखकर हम दोनों को कुछ अजीब-सा महसूस होने लगा था। हम दोनों कुछ पल खामोश रहे।
फिर सृजन ने कहा, “तुम लोग मरकर फिर कहाँ पैदा हो रहे हो, यह मुझे कैसे पता चलेगा, यह पता चले तो मैं आपके पास आकर रहूँगा।”
अब कुछ बोलना ज़रूरी लग रहा था। मैंने बेटे से कहा, “अरे जब हम नहीं होंगे तब तुम भी तो अकेले नहीं होगे। तुम्हारी बीवी होगी, प्यारे से बच्चे भी होंगे। तुम उनके साथ रहना।” सृजन ने जैसे ही बीवी और बच्चों की बात सुनी तो रूठते और लड़ियाते हुए बोला, “माँ, क्या तुम भी ऐसी-वैसी बातें करने लगती हो।”

हम लोग मौत के मुद्दे से दूसरे हलके-फुलके विषयों पर बातचीत करने लगे।
मौत के मुद्दे से बाहर निकलने के बाद मुझे बहुत राहत महसूस होने लगी थी। पता नहीं सृजन कौन-कौन से सवाल पूछता। इस घटना के बाद कुछ दिनों तक मैं खुद से सवाल करती रही कि इतनी छोटी उम्र में मौत के बारे में इतना साफ-साफ बताना उचित है क्या?

एक दिन सृजन और उसका दोस्त अखबार में कुछ पढ़ते हुए आपस में बातचीत कर रहे थे। उनके किसी दोस्त के दादाजी की मौत की खबर और उनकी फोटो अखबार में छपी थी। थोड़ी देर में सृजन और उसका दोस्त मेरे पास आए। सृजन बोला, “माँ, संदीप के दादाजी मिट्टी में मिलने वाले हैं न? मैं तन्मय को यह बता रहा हूँ लेकिन वो मेरी बात नहीं सुन रहा है।” यह सब क्या हो रहा था मेरी समझ में आ गया था। मैंने सृजन से कहा, “तुम जो कुछ कह रहे हो वो सही है। लेकिन तन्मय को किसी ने इस तरह से समझाया नहीं है। तुम लोग इस बात पर झगड़ा मत करो।” दोनों मेरी बात से सहमत से दिखाई दिए और खेलने चल दिए।

इसके बाद कई मौकों पर किसी की मौत की खबर सुनकर या पढ़कर सृजन कहता था, यानी अब वे मिट्टी में मिलने वाले हैं। हम लोग भी ‘हाँ’ कहकर उसकी राय से सहमति जतातेे। लेकिन मेरी समझ में एक बात आ रही थी कि मौत को सृजन ने एकदम सहजता से स्वीकार कर लिया है। उसे मरने का डर भी नहीं लगता है।

अब सृजन लगभग साढ़े आठ बरस का हो चला है। दो महीने पहले सृजन की दो फुफेरी बहनें हमारे घर कुछ दिनों के लिए आई थीं। इनमें से एक दसवीं में और दूसरी छठवीं में पढ़ती थी। मेरे स्वभाव, रहने, पहनने को लेकर इन दोनों बहनों के मन में ढेर सारे सवाल थे। हमारे दूसरे रिश्तेदारों की बातचीत, अन्य महिलाओं के संवादों से इस तरह के सवाल उनके मन में पैदा हुए होंगे। फिर भी मैं इतना कह सकती हूँ कि उन दोनों बहनों के दिल में मेरे लिए काफी प्यार और आत्मीयता थी। वे दोनों मुझसे काफी घुल-मिलकर बातचीत करती थीं।

एक दिन बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा, “मामी तुम रोज़ साड़ी क्यों नहीं पहनती, तुम्हारे गले में मंगलसूत्र क्यों नहीं है, तुम्हारे घर में भगवान क्यों नहीं हैं, घर आने वाली सुहागनों को हल्दी-कुमकुम से विदा क्यों नहीं करती, तुम अपना मायके वाला सरनेम ही क्यों बताती हो, तुम्हें तुम्हारी माँ ने इस बारे में कुछ नहीं बताया था क्या, तुम्हें बड़ी मामी ने भी कुछ नहीं कहा क्या, तुम्हारा ईश्वर में विश्वास है या नहीं....?” ऐसे ही कई सवालों के मैं जवाब देती जा रही थी। सवालों की कड़ी में उन्होंने मुझसे पूछा, “मामी तुम्हारा पुनर्जन्म में यकीन है या नहीं?” इससे पहले के सवालों के जवाब देते हुए मेरा विद्रोही मन काफी जाग चुका था। मैंने छूटते से जवाब दिया, “बिलकुल नहीं, पुनर्जन्म वगैरह कुछ नहीं है। एक बार इन्सान मर गया मतलब खत्म हो गया। वह दोबारा जन्म नहीं लेता।” दोनों बहनें मेरी बात को ध्यान से सुन रही थीं। एकदम नए किस्म के विचारों को वे सुन रही थीं, उनके चेहरों को देखकर यह बात मुझे समझ में आ रही थी। हम तीनों की बातचीत को सृजन भी ध्यान से सुन रहा था। हो सकता है बहुत-सी बातें उसके सिर के ऊपर से गुज़री हों। लेकिन पुनर्जन्म की बात से वह व्यथित था। उसने मेरे पास आकर हौले से पूछा, “माँ, इन्सान की मौत के बाद वो दोबारा पैदा नहीं होता यानी पूरी तरह से खत्म हो जाता है?”
मैंने भी गपशप के मूड में कहा, “हाँ।” थोड़ी देर बाद सब सोने चले गए।

इस घटना के बाद मुझे सृजन के व्यवहार में कुछ बदलाव दिखाई दिए। वह कई चीज़ों से घबराने लगा था। खासकर मरने से काफी डरने लगा था। उन्हीं दिनों, जापान की त्सुनामी, भूकम्प में जनहानि, कोंकण इलाके का जैतापुर परमाणु ऊर्जा प्रोजेक्ट आदि के बारे में खबरें और हमारी इनके बारे में बातचीत सृजन सुनता था।

कहीं प्राकृतिक आपदा, कहीं दुर्घटना, कहीं कुछ और। वह मौत की किसी भी खबर से डर जाता था। दिन-दहाड़े वह दरवाज़े में भीतर से कुण्डी चढ़ा लेता था। अलग-अलग मौकों पर उसके मुँह से निकले उद्गार मुझे परेशान करते थे। जैसे, वो मुझसे पूछता, “माँ, जापान में इतने लोग मर गए। क्या ये लोग फिर कभी भी ज़िन्दा नहीं होंगे? हमारे यहाँ भी भूकम्प आ सकता है? जैतापुर तो कोंकण में है यानी यहाँ भी जापान की तरह हो सकता है? हम सब भी मारे जाएँगे? माँ, मैं अकेला कहीं नहीं जाऊँगा। तुम्हें और पिताजी को लेकर जाऊँगा। यदि मैं कहीं गया और यहाँ भूकम्प आया तो...।” इस तरह की बातें वह यदाकदा बोलता था।

मैं इन सब का सम्बन्ध उस रात हुई पुनर्जन्म वाली गपशप से जोड़ती हूँ। पहले जितनी आसानी से मेरा बेटा मौत को स्वीकार करता था, उतनी सहजता से अब स्वीकार नहीं कर पा रहा है। अपनी दुनिया, माँ-बाप, रिश्तेदार और खुद के खत्म हो जाने का उसे डर लगता है। हमने अलग-अलग तरीके से उसे समझाने की कोशिश की। लेकिन मुझे लगता है उस रात को सृजन की बहनों से हो रही बातचीत में बिना लाग-लपेट मैंने मृत्यु और पुनर्जन्म पर जो कुछ कहा, वह मेरी गलती थी। मौत के बारे में मुझे इतनी स्पष्टता और सटीकता से नहीं बोलना चाहिए था।

इससे पहले, मृत्यु के बारे में बातचीत में इन्सान मरता है और दूसरी ओर एक नया जन्म लेता है, यह विचार उसके बाल मन को दिलासा देता था। लेकिन मरा हुआ इन्सान कभी जन्म नहीं लेता, इस विचार या संकल्पना ने उसके ज़हन में बनी दुनिया की सोच को ही बदल दिया था।
मैं एक बार फिर सोच में पड़ जाती हूँ कि मौत को लेकर बच्चे में समाए डर का क्या किया जाए? इस पूरे मुद्दे को, मौत का डर कुदरती है यह मानकर छोड़ दिया जाए क्या? सवाल यह भी है कि मृत्यु के बारे में बच्चों को क्या बताया जाए, बच्चों के मन को दिलासा मिलता है इसलिए पुनर्जन्म होता है, यह बताना चाहिए क्या? मौत के बारे में सतही बातचीत करनी चाहिए या थोड़ा गहराई में जाना चाहिए? ऐसे कई सवालों के जवाब मैं खोज रही हूँ। क्या आप इन सवालों के जवाब पाने में मेरी मदद करेंगे?


नीला आपटे: पिछले कुछ वर्षों से प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं। फिलहाल, भारतीय भाषाओं में साक्षरता सम्बन्धी शोध कार्य से जुड़ी हैं। सावंतवाड़ी में निवास।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध।
सभी चित्र: बोस्की जैन: सिम्बायोसिस ग्राफिक्स एंड डिज़ाइन कॉलेज, पुणे से ग्राफिक्स डिज़ाइन में स्नातक। भोपाल में निवास।
यह लेख पुणे से प्रकाशित ‘पालकनीति पत्रिका’ के फरवरी 2012 अंक से साभार।