माधव केलकर

पिछले दिनों आपने अखबारों में छपी खबरों पर गौर किया होगा तो आपको याद आएगा कि अखबारों में एक खबर काफी जोर-शोर से प्रकाशित हुई थी कि सन् 2019 की पहली फरवरी को एक क्षुद्रग्रह 2002 NT-7 के धरती से टकराने की पूरी संभावना है। इस क्षुद्रग्रह और उसके खतरनाक इरादों के बारे में इसी साल जुलाई के महीने में पहली बार पता चला है।
शायद इस तरह की खबरों का मकसद जनता को डराना या सनसनी फैलाना नहीं होता लेकिन अभी भी कई लोगों को स्काईलैब को लेकर भारत में (खासकर बम्बई में) मची खलबली और अफवाहों की याद होगी। उस समय सिर्फ एक संभावना के तौर पर कहा गया था कि स्काईलैब भारत में कहीं गिर सकता है।

हम में से कुछ लोगों ने जुलाई 1994 में धूमकेतु शूमेकर-लेबी की बृहस्पति से टक्कर के दृश्य टी.वी. पर देखे होंगे। इस धुमकेतु के इक्कीस टुकड़ों ने बृहस्पति पर विशाल व अत्यन्त शक्तिशाली धमाके किए थे।
अभी साल भर पहले रूसी स्पेस स्टेशन 'मीर' को भी इन्हीं सब संभावनाओं और अफवाहों के बीच सफलता पूर्वक समुद्र में गिराया गया था।

2002 NT-7 के बारे में जो मोटी-मोटी जानकारी अभी हासिल हो सकी है उसके मुताबिक इसकी लंबाई तकरीबन दो किलोमीटर है और यह धरती के परिक्रमा कक्ष को काटते हुए गुजरता है और सूरज की एक परिक्रमा 2.29 साल में पूरी करता है। इस क्षुद्रग्रह यानी एस्टेरॉयड का परिक्रमा कक्ष लगभग वैसा ही है जैसा धूमकेतुओं का होता है। 2002 NT7 के बारे में एक और बात बताई जा रही है कि 2019 के बाद सूर्य के 17-18 चक्कर लगाकर यह फिर से 2060 की पहली फरवरी को धरती के पास से गुज़रेगा। इस एस्टेरॉयड के बारे में अभी और जांच-पड़ताल की जा रही है। हालांकि इसे कम-से-कम खतरे की सूची में रखा गया है लेकिन अटकलों और पूर्वानुमानों के बीच अमेरिका और कई यूरोपीय देशों ने 2002 NT-7 से निपटने के लिए अपने-अपने अभियानों की घोषणाएं भी कर दी हैं।

इन अभियानों पर थोड़ी देर बाद आते हैं - क्षुद्रग्रहों के बारे में थोड़ी चर्चा करने के बाद। (क्षुद्रग्रहों को आजकल छोटे ग्रह भी कहा जाता है) इनकी खोज कैसे हुई? ये मुख्य ग्रहों से किस तरह फर्क हैं? ये धरती के लिए खतरा किस तरह बनते हैं... वगैरह। इसके लिए हमें अठारहवीं सदी में जाना पड़ेगा क्योंकि इनके बारे में हमें तकरीबन 200 साल पहले ही पता चला था।

बात पुराने दौर की    
बात 1770 के आसपास की है। - जर्मनी के एक गणितज्ञ और भौतिक-शास्त्री जोहानेस डेनियल टिटियस ने अंकों की एक ऐसी श्रेणी बनाई जिससे ग्रहों की सूर्य से दूरी का पता चलता था। इस तालिका को बाद में टिटियस-बोड तालिका* कहा जाने लगा। (तालिका के लिए देखिए अगला पृष्ठ)
इस तालिका में उस समय तक ज्ञात - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति और शनि शामिल थे। तालिका इस बात को इंगित करती थी कि मंगल और बृहस्पति के बीच में एक और ग्रह होना चाहिए। लेकिन उस समय इस तालिका पर भरोसा करने वाले लोग काफी कम थे। सन् 1781 में विलियम हर्शेल ने यूरेनस की खोज की और यूरेनस की सूर्य से दूरी लगभग उतनी ही पाई गई जितनी टिटियसबोड़ तालिका बताती थी फिर तो इस तालिका पर बहुत से लोग भरोसा करने लगे।

जैसा कि आप तालिका में देखेंगे इस तालिका के अनुसार मंगल और बृहस्पति के बीच में एक और ग्रह होना चाहिए था। तालिका पर भरोसा करने वाले जर्मनी के बेरॉन वॉन जख ने सन् 1800 में कई खगोलविदों को मंगल-बृहस्पति के बीच छुपे इस ग्रह की खोज में शामिल होने का आग्रह किया, और एक सम्मेलन के दौरान कई खगोलविदों को खोज के लिए आसमान में इलाके भी वितरित कर दिए। इस सम्मेलन की सूचना खत के मार्फत यूरोप के कई खगोलविदों को भी भेजी गई। इस खोज में शामिल लोगों को 'सेलेशियल पुलिस' यानी आसमानी चौकीदार कहा गया।

छुपे ग्रह की खोज   
छुपे ग्रह के इस खोज अभियान से एकदम बेखबर सिसली की खगोलविद पिआजी टेलीस्कोप की मदद से आसमान में नए तारों की सूची का मिलान कर रहा था। 31 दिसंबर, 1800 की रात उसने वृषभ (टोरस) तारामंडल में एक धुंधले से पिंड को देखा। अगली रात वह अपनी पिछली रात की स्थिति से कुछ खिसका हुआ था। उसकी अगली रात भी स्थिति में परिवर्तन नजर आया। कुछ और अवलोकना के बाद पिजी को विश्वास होने लगा था कि निश्चित ही यह एक नई खोज है, लेकिन छुपे ग्रह की खोज वाले मिशन से वाकिफ न होने के कारण उसे लगा कि उसने किसी नए तारे या किसी धूमकेतु की खोज की है। पिआजी ने अपनी खोज

*इस तालिका को जर्मनी के खगोलविद जोहान एलर्ट बोव ने अपनी किताब इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ द स्टारी स्काई' में फुटनोट के रूप में छपवाया। इस तालिका के साथ टिटियस का नाम न होने की वजह से सभी लोग ने बोर का निगम' नाम से जानने लगे। काफी बाद में बोड ने इस सभा को स्वीकार किया कि उसने टिटियस की तालिका को अनुदित करके अपनी किताब में प्रकाशित किया था। इस सच्चाई को जानने के बाद इस तालिका को टिटियस-बोर तालिका कहा जाने लगा।

   टिटियस-बोड तालिका   
ग्रह टिटियस के अनुसार सूर्य से वास्तविक दूरी सूर्य से वास्तविक दूरी
बुध (4 +0)/10 = 0.4 0.38
शुक्र (4 + 3)/10 = 0.7 0.7 23  
पृथ्वी (4 + 6)/10 = 1.0 1.0
मंगल (4+12)/10 = 1.6 1.52  
छोटे ग्रह** (4+ 24)10 = 2.8 2.77 
गुरु (4+ 24)10 = 2.8 5.203   
शनि (4 +96)/10 = 10,0 9.539   
यूरेनस** (4 + 192)/10 = 19.6 19.1 82
नेपच्यून** (4 + 384)/10 = 38.8 30.058
प्लूटो**    (4 + 768)/10 = 77.2 39.44

*सूर्य से वास्तविक दूरी  एस्ट्रोनॉमिकल यूनिट पर आधारित है। एक एस्ट्रोनॉमिकल यूनिट यानी लगभग 14 करोड़ 45 लाख 97 हजार किलोमीटर यानी धरती से सूरज की दूरी के बराबर होता है।
** इनकी खोज तालिका बनने के बाद हुई थी।

टिटियस का नियम वास्तव में न्यूटन के सिद्धांत जैसा कोई नियम नहीं था। यह महज संगाभों की एक श्रेणी है। इन संख्याओं को प्राप्त करने का तरीका बहुत ही आसान था। ग्रहों के नाम क्रम से लिखकर उनके सामने 0, 3, 6, 12, 24, 48,...... को एक क्रम में लिखा। इन सभी संख्याओं में चार जोड़ते हैं और दस से भाग देते हैं। इससे जो आंकड़े सामने आते हैं वे आश्चर्यजनक ढंग से ग्रहों की सूरज से दूरी से काफी हद तक मेल खाते है। जब यह तालिका प्रकाशित हुई थी उस समय छोटे ग्रहों वाली जगह खाली थी। इसी तरह शनि के बाद वाले ग्रहों (यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो) के बारे में भी जानकारी नहीं थी।
इस तालिका पर भरोसा करने वालों को पहला झटका तब लगा जब 1846 में नेपच्यून की खोज हुई। तालिका के हिसाब से नेपच्यून की सूरज से दूरी और वास्तविक दूरी के बीच आए भारी अंतर ने लोगों का इस श्रेणी पर से भरोसा तोड़ दिया। 1930 में प्लूटो के मामले में भी यह अंतर दोगुने तक पहुंच गया, इसलिए उसके बाद तो इस तालिका को दरकिनार कर दिया गया।

के बारे में जनवरी 1801 के आखिर में बर्लिन खगोलशाला के डायरेक्टर जे. ई. बोड को लिखा। बोर्ड को यह खत काफी दिनों बाद मिला। बोड ने जख वॉन से चर्चा की तब तक वह धुंधला पिंड दिन के आसमान में पहुंच चुका था इसलिए अब अवलोकन कर पाना कठिन था। अब इंतज़ार उस दिन का था जब वह पिंड दुबारा रात में दिखाई देने लगे ताकि उसकी सूरज से दूरी और कक्षा के बारे में गणनाएं की जा सकें। वह पिंड रात में फिर से दिखने भी लगता तो उसे कहां खोजा जाए यह भी एक समस्या थी। इन सब समस्याओं से उबारा गणितज्ञ कार्ल फेडरिख गॉस ने। गॉस ने ग्रहों की कक्षा निर्धारित करने का एक नया तरीका विकसित किया था। उसने अपने तरीके से उस पिंड की सूर्य से दूरी और कक्षा की गणना की। उसके मुताबिक यह पिंड सूरज से लगभग 41 करोड़ किलोमीटर की दूरी (यानी 2.77AU) पर स्थित था। साथ ही उसने आकाश में वह संभावित स्थान भी बता दिया जहां वह पिंड रात के समय पुनः प्रकट हो सकता था।

गॉस की गणनाओं के मुताबिक इस पिंड की सूरज से दूरी बोड-टिटियस तालिका में इंगित दूरी से मेल खाती थी। बस फिर क्या था, वॉन जख ने तुरन्त 'छुपे हुए ग्रह' के मिलने की घोषणा कर दी। इस पिंड का नाम पिआज़ी ने 'सेरेस' रखा। इस तरह मंगल और बृहस्पति के बीच छुपा हुआ ग्रह खोज लिया गया था लेकिन उत्साही 'सेलेशियल पुलिस ने अपना काम जारी रखा।
इस खोज के कुछ महीनों बाद सूरज से लगभग उतनी ही दूरी पर एक अन्य पिंड खोजा गया जिसे 'प्लास' नाम दिया गया। 1804 में 'जूनो' नामक पिंड खोजा गया। इन सभी को छुपे हुए ग्रह की पदवी देने वालों को तब तक समझ में आ गया था कि यहां मामला कुछ और ही है। 1807 में एक और पिंड़ 'वेस्टा' की खोज के बाद यह कहा जाने लगा कि मंगल-बृहस्पति के बीच में कोई एक ग्रह नहीं वरन् काफी सारे छोटे-छोटे ग्रहों की संभावना है। 1850 तक 300 से ज्यादा छोटे ग्रह खोजे जा चुके थे। मंगल और बृहस्पति के बीच के इस स्थान को एस्टेरॉयड बेल्ट कहा गया। 1850 के बाद शायद ही कोई साल ऐसा बीता हो जब किसी-न-किसी छोटे ग्रह को न खोजा गया हो। आज हम 7000 से ज्यादा छोटे ग्रहों के बारे में जानते हैं।

छोटे ग्रह - कुछ और तथ्य
एस्टेरॉयड की उत्पत्ति के बारे में एक व्याख्या प्रचलित है कि सौर मंडल की उत्पत्ति के समय मंगल और बृहस्पति के बीच में एक और ग्रह मौजूद था। किन्हीं कारणों से वह पिंड बृहस्पति के काफी करीब पहुंच गया और बृहस्पति के अत्यन्त बलशाली गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से कई टुकड़ों में टूटकर बिखर गया, और ये सब टुकड़े अपनी अलग-अलग कक्षाओं में सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने लगे।

छोटे ग्रहों की मौजूदगी: इस रेखाचित्र में पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति के अलावा छोटे ग्रह (एस्टेरॉयड) भी दिखाई दे रहे हैं। छोटे ग्रह मुख्य रूप से मंगल और बृहस्पति के बीच पाए जाते हैं। यदि चित्र को ध्यान से देखें तो कुछ छोटे ग्रह बृहस्पति की कक्षा के बाहर भी दिखाई दे जाएंगे, तो कुछ पृथ्वी और मंगल के बीच भी। अभी तक ज्ञात छोटे ग्रहों की संख्या 7000 से ऊपर है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि खोजा गया छोटा ग्रह गुम हो गया, बाद में कुछ साल बाद उसे दुबारा खोजा गया। इस समस्या से बचने के लिए जैसे ही किसी छोटे ग्रह की खोज होती है उसे 'अस्थाई पहचान नंबर' दिया जाता है। अस्थाई नंबर जिम साल और जिस महीने बह खोजा गया है उससे जुड़ा होता है। अस्थाई नंबर 'मायनर प्लेनेट सेंटर' द्वारा दिया जाता है। जब उस छोटे ग्रह की सूर्य से दूरी और कक्ष का निर्धारण हो जाता है तो उसे 'स्थाई पहचान नंबर' दिया जाता है। जैसे 2002 NT 7 को ही लें तो इसे जुलाई यानी सातवें महीने में सन् 2002 में खोजा गया है।
 
इसी तरह एस्टेरॉयड बेल्ट की उत्पत्ति की एक और व्याख्या है कि एस्टेरॉयड अंतरिक्षीय पदार्थ का मलबा हैं। जब सौर मंडल का निर्माण हो रहा था तब किन्हीं कारणों से यह 'अंतरिक्षीय मलबा' ग्रह के रूप में निर्मित नहीं हो सका। इस व्याख्या में भी ग्रह के रूप में तब्दील न होने की खास वजह बृहस्पति की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को ही बताया जाता है।
एस्टेरॉयड बेल्ट के टुकड़े बाकी ग्रहों की तरह दीर्घ वृत्ताकार पथ में सूर्य की परिक्रमा करते हैं, और साथ ही अपने अक्ष पर भी घूम रहे हैं, लेकिन आकार में ये काफी छोटे हैं इसलिए इन्हें छोटे ग्रह (Minor Planets) कहा गया। (इस लेख में जहां-जहां एस्टेरॉयड लिखा गया है। उसका तात्पर्य छोटे ग्रहों से ही है।)
सौर मंडल के प्रमुख नौ ग्रहों के मुकाबले छोटे ग्रहों का 7000 का आंकड़ा देखकर ऐसा लग सकता है। कि यहां पर सौर मंडल की काफी संहति (Mass) है। लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। एक अनुमान के अनुसार एस्टेरॉयड बेल्ट के सभी छोटे ग्रहों की सम्मिलित संहति हमारे चांद की संहति की आधी ही होगी।

इसी तरह आकार के मामले में भी छोटे ग्रहों में काफी विविधता है। सबसे पहले सेरेस को खोजा गया जिसका व्यास करीब 1 0 0 0 किलोमीटर है। दूसरी ओर कुछ छोटे ग्रहों का व्यास केवल कुछ मीटर ही है। बृहस्पति की ओर भेजे गए एक अंतरिक्ष यान ने अपनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा के दौरान एस्टेरॉयड बेल्ट में करीब 100 ऐसे छोटे ग्रहों का पता लगाया जिनका आकार 20 सेंटीमीटर था और वे अपने निश्चित कक्ष में सरज का चक्कर लगा रहे थे। 
इन छोटे ग्रहों का आकार (Shape) काफी उबड़-खाबड़ है। दरअसल काफी छोटे होने की वजह से इनका गुरुत्वाकर्षण बहुत कम है और इसलिए वे गेंद जैसे गोलाकार नहीं पाए जाते। यह स्थिति सौर मंडल के अन्य नौ ग्रहों से बहुत भिन्न है जो लगभग गेंद की तरह गोलाई लिए हुए हैं। गुरुत्वाकर्षण से ही जुड़ा एक और मसला है कि सेरेस  जैसे छोटे ग्रह पर पलायन वेग (Escape Velocity) केवल आधा किलोमीटर प्रति सेकेंड है।

एक उपग्रह इनका भी: गेलीलियो स्पेसक्राफ्ट की मदद से 1993 में इडा एस्टेरॉयड का लिया गया एक चित्र। इसमें पत्थर के टुकड़े जैसा असमान आकार वाला इडा तो दिख ही रहा है साथ ही उसका एक उपग्रह भी दिखाई दे रहा है। इडा 55 किलोमीटर लंबा और 24 किलोमीटर चौड़ा है। इसके उपग्रह का व्यास एक किलोमीटर है और यह इडा से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
ज्यादातर छोटे ग्रहों की रासायनिक बनावट के बारे में स्पेक्ट्रोस्कोप के ज़रिए पता लगाया गया है। छोटे ग्रहों को रासायनिक बनावट के आधार पर कार्बनमय, सिलिकामय, लोहमय, जैविक पदार्थ युक्त, जैसी कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
 
इन दो पृष्ठों पर दिए गए रेखाचित्र अनुपातिक नहीं हैं। चूंकि इनका प्रमुख उद्देश्य छोटे ग्रहों के पथ समझाना है। इसलिए ग्रहों के कक्ष व अन्य सब कुछ अत्यन्त सरल करके दिखाए गए हैं।

1. इस चित्र में सूरज की परिक्रमा करने वाले ग्रहों में से पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति को दिखाया गया है। मंगल और बृहस्पति के बीच मौजूद छोटे ग्रहों की पट्टी भी दिख रही है। इस पट्टी में अब तक 7000 से भी ज्यादा छोटे ग्रह खोजे जा चुके हैं और इनकी संख्या दस हज़ार पार होने की संभावना है। अधिकांश छोटे ग्रह एस्टेरॉयड बेल्ट में रहते हुए ही सूर्य की परिक्रमा करते हैं इसलिए इनकी धरती से दूरी बनी रहती है।
2. इन छोटे ग्रहों में से कुछ के परिक्रमा पथ अत्यन्त अंडाकार होते है जिसकी वजह से सूरज का चक्कर लगाते समय ये धरती के करीब से गुज़र सकते हैं। चित्र-2 में एक छोटे ग्रह का परिक्रमा पथ दिखाया गया है जिसका एक छोर एस्टोरॉयड पट्टी में है तो दूसरा छोर पृथ्वी और मंगल के बीच। यह पिंड धरती से काफी दूर से गुजरता है।
 
इसलिए फिलहाल इससे कोई खतरा नहीं है।
3.  यह एक ऐसे छोटे ग्रह का परिक्रमा पथ है जो और भी ज्यादा चपटा है। यह मंगल की कक्षा को तो काटता ही है साथ ही पृथ्वी के परिक्रमा पथ को भी दो जगहों (प, फ) पर काट रहा है। ऐसे छोटे ग्रहों से पृथ्वी को खतरा तभी हो सकता है जब पृथ्वी और छोटा ग्रह दोनों एक ही समय बिन्दु प या फ के आसपास हों।
4.  इस चित्र में दिखाए गए छोटे ग्रह का परिक्रमा पथ 2002 NT-7 के परिक्रमा पथ से मेल खाता है। यह पथ पृथ्वी के परिक्रमा पथ को घार जगहों पर (क, ख, ग, घ) पर काट रहा है। पृथ्वी के लिए इस छोटे ग्रह से खतरा तभी हो सकता है जब छोटा ग्रह और पृथ्वी इन चार बिन्दुओं में से किसी एक बिन्दु पर एक ही समय आसपास हों।

छोटेग्रह, धूमकेतु और उल्कापिंड

रात के आसमान में अक्सर आपने तारे टूटते देखे होंगे और आपस में कहते हुए सुना भी होगा कि कल रात तारा टूटते देखा। जिसे हम तारा टूटना कहते हैं वे वास्तव में उल्कापिंड (Meteor) होते हैं। उल्कापिंड अंतरिक्ष में बिखरा हुआ वह मलबा है जिसमें एक मिलीमीटर आकार से लेकर कुछ मीटर आकार के चट्टानी टुकड़े शामिल हैं। यह समझने के लिए कि हमारे वायुमंडल में आकर जलने वाले उल्कापिंड आखिर कहां से आते हैं, कुछ बड़े उल्कापिंडों पर पृथ्वी के करीब आने से पहले से नज़र रखी गई। फिर उनके फोटो लेकर उनके रास्ते को पीछे बढ़ाकर देखा गया तो पता चला कि ये छोटे ग्रहों से संबंधित हैं। कुछ और अध्ययनों से पता चला कि उल्कापिंडों की उत्पत्ति छोटे ग्रहों के आपस में टकराव या टूट-फूट की वजह से भी होती है। वहीं कुछ उल्कापिंडों को धूमकेतु सूर्य का चक्कर लगाते समय अपने पीछे छोड़ जाते हैं।

दुनिया में कयामत लाने वाले पुच्छलतारों (धूमकेतु) के बारे में अक्सर कई तरह की चर्चाएं सुनने में आती हैं। 1997 में भारत में काफी लोगों ने 'हेल बॉब' नाम का पुच्छलतारा देखा था। एक सामान्य पुच्छलतारे का कुछ हिस्सा वाष्पशील पदार्थों से बना होता है, इसलिए जब ये सूरज के करीब आते हैं। तो वाष्पशील पदार्थ वाष्प में तब्दील हो जाते हैं और पुंछ का निर्माण हो। जाता है। जैसे-जैसे पुच्छलसारा सुरज से दर जाता है वह दुबारा ठोस रूप में वापस आने लगता है। कई बार ऐसा भी होता है कि पच्छलतारे का सारा वाष्पशील हिस्सा खत्म हो जाता है और उसका ठोस चट्टानी हिस्सा पहले की तह सूरज का चक्कर लगाता रहता है। लेकिन ऐसी स्थिति में सूरज के नजदीक आने पर भी इसमें पहले की तरह पूंछ नहीं बनती। इसलिए ऐसे पुच्छलतारे छोटे ग्रहों की तरह ही दिखते हैं।

धरती पर इन तीनों को विनाश का पर्याय माना जाता है। आप किसी जीव वैज्ञानिक या जीवाश्मविद से पूछकर देखिए कि इस धरती से डायनॉसोर कैसे खत्म हुए? संभव है वो आपको बताएगा कि कैसे 6.5 करोड़ साल पहले एक एस्टेरॉयड या धूमकेतु धरती से टकराया और धरती से काफी सारी प्रजातियों का अंत हो गया। इनमें डायनॉसौर भी शामिल थे। यदि आप उल्कापिंडों की वर्षा किसी भूगर्भशास्त्री से करेंगे तो वह आपको अमरीका, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका समेत कई इलाकों का हवाला देकर बताएगा कि इन जगहों पर पिछले लाखों-करोड़ों सालों में उल्का पिंडों के गिरने से 50 किलोमीटर से 300 किलोमीटर तक व्यास वाले विशाल गड्ढे बन गए थे।
इनमें से कुछ तो विशाल झीलों में भी तब्दील हो चुके हैं। भारत में महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लोनार झील भी उल्कापिंड की वजह से बनी है। परमाणु बमों की खासी समझ रखने वाले आपको यह बता सकते हैं कि 200 मीटर व्यास का उल्कापिंड अगर धरती पर गिरे तो कितने एटम बमों के बराबर नुकसान हो सकता है।

सन् 1908 में साइबेरिया में एक विशाल उल्कापिंड के धरातल से कुछ किलोमीटर ऊपर फटने की वजह से साइबेरिया में कई किलोमीटर इलाके के जंगलों को बहुत नुकसान हुआ था। यदि उल्कापिंड वगैरह ऐसे इलाकों पर गिरे जहां खामी तादाद में इंसानी आबादी मौजूद हों, तो क्या होगा? शायद यही वह सवाल है जिसकी वजह से छोटे ग्रहों, उल्कापिंडों और धूमकेतुओं को हर हालत में धरती से दूर रखने के बारे में सोचा जा रहा है।
वैसे यहां यह बता देना भी वाजिब रहेगा कि जिन्हें हम विनाश का पर्याय मान रहे हैं, कुछ लोग उन्हें धरती पर जिंदगी लाने वाला भी मानते हैं। धरती पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में एक परिकल्पना यह भी है कि करोड़ों साल पहले कोई धुमकेतु या छोटा ग्रह धरती से आकर टकराया। इस धूमकेतु छोटे ग्रह के मार्फत धरती पर जटिन जैविक अणु आए जिनसे धीरे-धीरे प्रारंभिक जीवन का विकास शुरू हुआ। छोटे ग्रहों की करीबी जांचपड़ताल से एक तथ्य सामने आया है कि कुछ छोटे ग्रह सिर्फ जैविक पदार्थों से बने हुए हैं। यह तथ्य इस परिकल्पना के पक्ष में जाता है।

जिसकी वजह से यहां वायुमंडल मौजूद नहीं है।
अगला मुद्दा है छोटे ग्रहों के कक्ष का। वैसे तो अधिकांश छोटे ग्रह एस्टेरॉयड बेल्ट में लगभग गोलाकार कक्ष में घूमते हैं लेकिन इनमें भी काफी विविधताएं हैं। कुछ छोटे ग्रह बृहस्पति के कक्ष में घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगा रहे हैं। इन छोटे ग्रहों को ट्रोजन (Trojan) कहते हैं। यह सोचकर ही हैरानी होती है कि बृहस्पति से आगे और बृहस्पति से पीछे छोटे ग्रहों का हुजूम निश्चित भाव से सूरज का चक्कर लगा रहा है। इनकी इस बड़े ग्रह से टक्कर नहीं होती क्योंकि ये बृहस्पति से एक समान दूरी (60 डिग्री का अंतर) बनाए रखते हैं। कुछ छोटे ग्रहों के कक्ष इतने दीर्घवृत्ताकार हैं कि वे धूमकेतुओं जैसा रास्ता नापते हैं। चिरॉन एस्टेरॉयड का कक्ष शनि और यूरेनस के कक्ष के बीच से शुरू होता है।
 
कुछ ऐसे छोटे ग्रह भी हैं जो धरती के करीब से गुजरते हैं। ऐसे छोटे ग्रह जो पृथ्वी के कक्ष तक चले आते हैं। उन्हें धरती के पास वाले पिंड (Near Earth Objects) की श्रेणी में रखा जाता है। मुख्य खतरा तो इन्हीं से है, इसलिए इन पर खास नज़र रखनी पड़ती है। दुनिया की कुछ दूरबीनें केवल इसी काम में मशगूल हैं जिनकी वजह से समय-समय पर हमें इनके बारे में सूचनाएं मिलती रहती हैं। वैसे कई खोजी दल कोशिश कर रहे हैं कि धरती के लिए खतरनाक साबित होने वाले सभी छोटे ग्रहों के बारे में 2008 तक पक्के तौर पर जानकारियां हासिल कर ली जाएं।

क्या कयामत का दिन आएगा?
एक बार फिर लौटते हैं अखबारों में छपी खबरों पर। अभी 2002 NT7 के बारे में कुछ मोटी-मोटी जानकारियां ही मिली हैं लेकिन मुकाबले के लिए तरह-तरह के मिशनों की घोषणाएं होने लगी हैं। एक मिशन 'डॉन क्विज़ौट' के नाम पर स्पेन में शुरू हो रहा है। (स्पेनीश साहित्य में रुचि रखने वाले लोग जानते हैं कि सरबान्तीस के प्रसिद्ध उपन्यास का नायक था डॉन क्विग्जौट जिसने मध्यकाल में कइयों को धूल चटाई थी।) इस अभियान के तहत इस एस्टेरॉयड पर परमाणु अस्त्र-शस्त्र दागकर उसके मार्ग में परिवर्तन लाने की कोशिश की जाएगी।
1 फरवरी, 2019 को इस एस्टेरॉयड से कितना गंभीर खतरा है इस बारे में अलग-अलग मत हैं। इससे पहले भी ऐसा होता रहा है कि पहले अचानक सब ओर खतरे की चर्चा होने लगती है, फिर अकादमिक बहसों के बाद सारा मामला सुगमता से सुलझ जाता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं। कई बार वित्तीय संकट से गुज़र रहे अंतरिक्ष प्रोग्राम खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए (या फंडिंग को सुचारू बनाए रखने के लिए) भी अखबारों-टीवी, जैसे माध्यमों से सनसनी फैलाते हैं; बाद में अक्सर इनका खंडन या संशोधन किया जाता है। 'चांद पर पानी मिलने' या 'मंगल पर पानी के भंडार मिलने के संकेत या 'मंगल ग्रह पर जीवन के अवशेष पाए जाने' जैसे समाचार ज्यादा पुराने नहीं हैं।

मौजूदा दौर में ब्रह्मांड के बारे में जिस तरह की खोजबीन चल रही है। उसकी वजह से एस्टेरॉयड पर नज़र रखने जैसे प्रोजेक्ट काफी गौण व कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं। ब्रिटेन, अमरीका, आस्ट्रेलिया में भी इन कार्यक्रमों का विस्तार नहीं किया जा रहा है।
यहां इस बात को भी साफ कर देना चाहिए कि 2019 तो अभी काफी दूर है इसलिए तैयारी के लिए मौके भी हैं, लेकिन ऐसे भी मौके आते रहे हैं जब हमारे सारे 'वॉच टॉवर' को धत्ता बताते हुए छोटे ग्रह धरती के करीब से गुज़र जाते हैं और हमें इसकी सूचना काफी देर से मिलती है। उदाहरण के लिए मार्च 1989 को 400 मीटर चौड़ाई का एक छोटा ग्रह पृथ्वी की कक्षा को छूता हुआ पृथ्वी से सिर्फ छह लाख किलोमीटर की दूरी से गुजर गया था। इस खतरे की जानकारी हमें सिर्फ उसके करीब पहुंचने के चार दिन पहले मिली थी।
बहरहाल, कुछ खगोलविद मानते हैं कि 2002 NT-7 से कोई खतरा नहीं है। यह एस्टेरॉयड भी अपने रास्ते चुपचाप चला जाएगा क्योंकि ऐसा पहले भी होता रहा है। शायद हम भी ऐसा ही चाहते हैं, आखिर हम भी दुनिया की खैरियत के लिए फिक्रमंद जो हैं।


माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से संबद्ध