सवालीराम

सवालः पिछली दफा नम्रता रघुवंशी ने सवालीराम से प्रयोग का हवाला देते हुए एक सवाल किया था। नम्रता का प्रयोग और सबाल इस प्रकार हैं:
पिछले दिनों मैंने अपने घर पर एक प्रयोग किया। मैने एक लोहे का टुकड़ा और एक टूटी हुयी स्टील की चम्मच की क्यारियो मे रख दी, कुछ दिनों के बाद लोहे के टुकड़े पर तो काफी सारी जंग लगी थी लेकिन स्टील की चम्मच वैसी की वैसी चमचमा रही थी। मेरा सवाल है कि जब स्टील की चम्मच भी लोहे से बनी है तो उसमें जंग क्यों नहीं लगता ?
जवाब: आपका प्रयोग और अवलोकन काफी सराहनीय हैं। यहां सुविधा के लिए आपके सवाल के जवाब को दो हिस्सों में बांट लेते हैं। पहला - लोहे में जंग क्यों लगता है? दूसरा - स्टेनलेस स्टील में जंग क्यों नहीं लगता?

धातुओं में मजबूती के लिहाज़ से लोहे का स्थान काफी ऊपर है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि लोहे में जंग लग जाए तो न केबल उस की खूबसूरती पर असर पड़ता है, साथ ही उसकी मजबूती भी प्रभावित होती है। आपके प्रयोग के अबलोकन में यह बात सामने आई है कि लोहे में जंग तभी लगता है जब उसकी सतह नम हवा के सम्पर्क में आती है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ लोहे के साथ ही होता है, ऐसी कई धातुएं हैं जो हवा के सम्पर्क में आती हैं तो उनका ऑक्सीकरण होने लगता है। अपने आसपास मौजूद कई धातुओं के साथ ऐसा होता हुआ देखा जा सकता है। मसलन घरों में बिजली के लिए इस्तेमाल होने वाले एल्यूमीनियम के तार को लीजिए। तार को इन्सुलेटिंग (कुचालक) खोल से बाहर निकाल कर देखिए, तार चमचमाता हुआ दिखाई देगा। इस तार को कुछ दिन इसी तरह खुला रहने दीजिए, फिर देखिए। तार की चमक कम हो गई होगी, साथ ही तार पर एक हल्कीसी सफेद परत भी दिखाई देगी। यह परत एल्यूमीनियम की ऑक्सीजन से क्रिया का परिणाम है। इसी तरह पीतल या तांबे के बर्तनों पर हरी परत बनती है।
 
अब इस सवाल पर आएं कि लोहे में जंग किस तरह लगती है ? शुद्ध लोहा चमकीली और नरम धातु होती है। लोहे को अपने हिसाब से कठोर और मज़बूत बनाने के लिए उसमें कार्बन वगैरह मिलाया जाता है ताकि इस धातु का व्यावसायिक तरीके से इस्तेमाल किया जा सके। शुद्धत्तम लौह धातु, पिटवा लोहा या इस्पात - इनमें से किसी के भी संपर्क में नम हवा आने के बाद उसमें जंग लगने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। लोहा खुद की रक्षा नहीं कर पाता और उसकी सतह पर धीरे-धीरे पीले-मटमैले रंग दिखने लगते हैं जो क्रमशः एक पतली परत में तब्दील होने लगते हैं। जल्दी ही इससे शल्कनुमा मोटी परत बन जाती है।
उपरोक्त वर्णन में लोहे में जंग लगने की प्रक्रिया बहुत ही सरलीकृत करके समझायी  गई है। वास्तव में यह काफी जटिल है जिसे पूरी तरह से समझने की कोशिशें आज भी जारी हैं। यहां एक बात बता देना लाज़मी होगा कि लोहे के दो किस्म के आयन बनते हैं फेरस (Fe2+) और फेरिक (Fe3+)। इनमें फेरस लोहे के परमाणु की वह अवस्था है। जब उसमें से दो इलेक्ट्रॉन निकल गए हों और फेरिक वह अवस्था जब लोहे के परमाणु में से तीन इलेक्ट्रॉन निकल गए हों। रसायन की शॉर्टकट भाषा में इन्हें आयरन-2 और आयरन-3 भी कहते हैं।
जंग के बारे में कहा जाता है कि यह एक किस्म की विद्युत-रासायनिक प्रक्रिया की वजह से निर्मित होता है। अब तक इसके बारे में जो भी समझ बनी है उसके मुताबिकः -
--लोहे पर जंग की परत चढ़ाने के लिए ऑक्सीजन व पानी के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड भी महत्वपूर्ण कारक है।
लोहे पर जंग लगना वहां से शुरू होता है जहां पर लोहे के फेरस आयन बन रहे हों। जहां फेरस आयन बन रहे होंगे वहां पर रासायनिक क्रिया कुछ इस तरह से होगी।
Fe (s) ------> Fe2+ (aq) + 2
इस रासायनिक समीकरण से यह दिखता है कि इस जगह लोहे का ऑक्सीकरण हो रहा है। इसके बाद फेरस आयनों की क्रिया हाइड्रॉक्साइड आयन से होती है और फेरस हाइड्रॉक्साइड बनता है।
Fe2+ (aq) + 2OH (aq) ------> Fe (OH)2(s)
तत्पश्चात घुली हुई ऑक्सीजन फेरस हाइड्रॉक्साइड को ऑक्सीकृत करती है और एक नया पदार्थ बनाती है जिसे हम जंग कहते हैं।
Fe (OH)2 (s) + घुली हुई ऑक्सीजन -------> Fe2O3 x H2O(जंग)

जंग की इस प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड की भूमिका के बारे में ऐसा माना जाता है कि ऐसा पानी जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड घुली हुई हो थोडा अम्लीय होता है। जब यह पानी लोहे के संपर्क में आता है तो लोहे से क्रिया करके फेरस आयन बनाता है। यह फेरस आयन आगे फेरस हाइड्रॉक्साइड और फिर जंग में तब्दील हो जाते हैं।
लोहे पर जंग से होने वाले नुकसान से हम लोग भली-भांति परिचित हैं। एक हद तक तो लोहा बा-पानी के प्रति प्रतिरोध दिखाता है लेकिन उसके बाद उसमें जंग लगनी शुरू हो जाती है। लोहे को जंग से बचाने के कई तरीके ईजाद किए गए हैं, ताकि उसकी सतह का हवा-पानी से संपर्क टूट जाए, आइए उनमें से कुछ तरीके देखें: -

➔    लोहे की सतह पर साधारण पेंट या रेड ऑक्साइड पेंट कर दिया जाए।  
➔    लोहे की सतह पर तेल की परत चढ़ा दी जाए, जैसे पेंट करते हैं वैसे ही  तेल की परत भी पेंट जैसा ही काम करती है।
➔    लोहे की सतह पर निकिल या क्रोमियम की परत (प्नेटिंग) चढ़ाई जाए, जैसा कि साइकिल के कई पुर्जों पर किया जाता है।
➔    गेल्वेनाइजेशन द्वारा इस विधि में लोहे की वस्तुओं पर जिंक की परत चढ़ाई जाती है। इस विधि का लाभ यही है कि वायुमंडलीय गैसों और नमी की क्रिया पहले जिंक से होती है। जिंक लगातार क्रिया में हिस्सा लेता रहता है और लोहे की सतह को संपर्क में आने से बचाता रहता है। जिंक के इस त्याग के कारण लोहा तो सुरक्षित रहता है, लेकिन यदि किमी कारण से जिंक की परत खुरच जाए तो भीतर के लोहे में जग लगने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कच्चे घरों की छतों पर लगने वाली धातु की चादरें, बगीचों में पानी सींचने के लिए इस्तेमाल होने वाली झारी आदि इसके उदाहरण हैं।
➔    बहुत से डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों को ज्यादा दिनों तक सुरक्षित रखने के लिहाज़ से टिन की प्लेटिंग की हुई लोहे की पतली शीट का इस्तेमाल किया जाता है।
➔    एक अंतिम लेकिन काफी महत्वपूर्ण तरीका है लोहे की क्रोमियम, निकिल वगैरह के साथ मिश्रधातु बनाई जाए। 1913 में ब्रिटेन के एक धातु वैज्ञानिक हैरी ब्रेयरली बंदूक की नली के लिए उपयुक्त लोहे की मिश्रधातु की खोज कर रहा था। इस खोज के दौरान अपने बिगड़े हुए नमूने वह कचरे की तरह फेंक रहा था। कुछ दिनों बाद उसने देखा कि उस ढेर में मिश्रधातु के काफी सारे नमूनों में तो जंग लगी हुई थी लेकिन एक सेंपल चमचमा रहा था। हैरी ने उसका विश्लेषण किया तो पाया कि उस मिश्रधातु में 14 प्रतिशत क्रोमियम है। इसी के आधार पर उसने स्टेनलेस स्टील (मिश्रधातु) का निर्माण किया जिसे हवा में लंबे समय तक रहने के बाद भी जंग नहीं लगता था।

आधुनिक दौर में बनाए जाने वाले स्टेनलेस स्टील में 70% लोहा, 20% क्रोमियम तथा 10% निकिल होता है। जरूरत के हिसाब से स्टील में सिलिकॉन, कार्बन, मोलेबिडनम, मैंगनीज वगैरह की भी कुछ मात्रा मिलाई जाती है। वैसे देखा जाए तो जंग से बचाव का सबसे भरोसेमंद तरीका लोहे की मिश्रधातु बनाना है। हालांकि कीमत के हिसाब से यह खर्चीला जरूर है लेकिन बाकी तरीकों की तरह इसमें रख-रखाव ज्यादा नहीं है।

दिल्ली का लौह स्तंभ 
आपने शायद सुना होगा कि दिल्ली के कुतुब-मीनार के पास का लौह स्तंभ तकरीबन 1600 साल से खुले आसमान तले खड़ा है और आज भी बिना जंग के चमचमा रहा है।
इस खंबे पर जंग न लगने की वजह खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने तरह-तरह के शोध किए हैं एवं कारण व मॉडल सुझाए हैं। इसी वर्ष जून 2002 की करंट सायन्स पत्रिका में श्री आर. बालासुब्रह्मण्यम ने जो मॉडल सुझाया है उसके अनुसार इस लौह स्तंभ की सतह अगर खुरच दें तो लगभग पहले तीन साल तक उस जगह जंग लगने की दर काफी तेज़ होती है, क्योंकि जंग की जो परत बहां बनती है वह छिद्रयुक्त (पोरस) होती है और एक समान मोटाई की भी नहीं होती।

उनका कहना है कि इस तीन साल के शुरुआती दौर के बाद इस जंग की परत और लौह स्तंभ की सतह के बीच विभिन्न प्रकार के फोस्फेट व सुरक्षा प्रदान करने वाले ऑक्सी-हायड्रॉक्साइड की एक महीन परत बनने लगती है, जो लौह स्तंभ को एक तरह का सुरक्षा कवच प्रदान करती है। फोस्फेट बन पाना इसलिए संभव होता है। चूंकि इस लौह स्तंभ की बनावट में फोस्फोरस की कुछ मात्रा पहले से ही मौजूद है। इस परत के बन जाने के बाद लौह स्तंभ को जंग लगने की दर लगभग नगण्य हो जाती है। यानी कि स्टेनलेस स्टील की तरह ही इस लौह स्तंभ पर भी एक ऐसी परत बन गई है जिसने उसे 1600 साल तक जंग से बचाए रखा है।

अब इतनी जानकारी के बाद यह समझने की कोशिश करते हैं कि  स्टेनलेश स्टील पर जंग क्यों नहीं लगती। हमारी रसोई मे खाने-पीने के बर्तनों से लेकर बर्तन धोने के सिंक तक आपको हर जगह स्टेनलेस स्टील दिखाई दे जाएगा। इनमें से कई बर्तन ऐसे भी होंगे जिन्हें हम बचपन से देखते आ रहे हैं और उनमें बिल्कुल भी जंग नहीं लगा। दरअसल स्टेनलेस स्टील में होता यह है कि क्रोमियम, निकिल जैसी धातुएं हवा में मौजूद ऑक्सीजन और पानी में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया करके धातु की सतह पर एक महीन-सी परत बना लेती हैं। यह भू॒ काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक बार इस परत के बन जाने । के बाद बर्तन पर ऑक्सीजन की कोई क्रिया नहीं हो पाती और धातु लंबे समय के लिए सुरक्षित हो जाती है। इन बर्तनों पर खरोंच आने की स्थिति में भी बर्तनों का कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि वहां भी जल्दीही महीन फिल्मनुमा परत बन जाती है।