पिछले करीब 50 वर्षों से भारत ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि रसायनों पर अधिकतम ध्यान दिया है। इसके लिए हज़ारों किस्म के पंरपरागत, विविधतापूर्ण बीजों को हटाकर ऐसी नई हरित क्रांति किस्मों (एच.वाई.वी.) को प्राथमिकता दी गई जो रासायनिक उर्वरकों की अधिक मात्रा के अनुकूल हैं व जिनके लिए कीटनाशकों आदि की ज़रूरत ज़्यादा पड़ती है।
इस नीति को अपनाने से मिट्टी, पानी, खाद्यों की गुणवत्ता, परागण करने वाले मित्र कीटों व पक्षियों के साथ पूरे पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।
लंदन फूड कमीशन की चर्चित रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटेन में मान्यता प्राप्त कीटनाशकों व जंतुनाशकों का सम्बंध कैंसर व जन्मजात विकारों से पाया गया है। अमेरिका में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की एक रिपोर्ट ने बताया है कि खाद्य में कीटनाशकों की उपस्थिति के कारण कैंसर के दस लाख अतिरिक्त मामले बढ़ने की संभावना है। विश्व संसाधन रिपोर्ट में बताया गया है कि कीटनाशकों का बहुत कम हिस्सा (कुछ कीटनाशकों में मात्र 0.1 प्रतिशत) ही अपने लक्ष्य कीटों को मारता है। शेष कीटनाशक अन्य जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं तथा भूमि व जल को प्रदूषित करते हैं। पोषण विशेषज्ञ सी. गोपालन ने बताया है कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंन उपयोग से मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की गंभीर कमी हो गई है जो इसमें उगे खाद्यों में भी नज़र आने लगी है।
इन प्रभावों के बावजूद कहा जाता है कि एच.वाई.वी. बीजों को अपनाए बिना खाद्य उत्पादन व कृषि उत्पादन बढ़ाना संभव नहीं था। यह एक बहुत बड़ा मिथक है जिसे निहित स्वार्थों ने फैलाया है ताकि वे रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक पर आधारित नीतियों का प्रसार करते रहें जिसके चलते पर्यावरण रक्षा करने वाले विकल्प उपेक्षित रहे हैं।
दूसरी ओर, हरित क्रांति से पहले व बाद के कृषि उत्पादकता के आंकड़ों से यह स्पष्ट पता चलता है कि वास्तव में हरित क्रांति से पहले कृषि उत्पादकता की वृद्धि दर बेहतर थी, जबकि इस दौरान रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का उपयोग बहुत ही कम था।
12वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में इस बारे में विस्तृत आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं कि हरित क्रांति से पहले के 15 वर्षों में उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है तथा उसके बाद उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है? यह जानकारी तालिका में प्रस्तुत है।
तालिका से स्पष्ट है कि हरित क्रांति से उत्पादकता में शीघ्र वृद्धि की बात महज एक मिथक है। दूसरी ओर यह सच है कि हरित क्रांति के दौर में रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक वगैरह पर खर्च बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पहले 15 वर्षों की अपेक्षा बाद के 12 वर्षों में रासायनिक उर्वरकों की खपत लगभग छह गुना बढ़ गई व कीटनाशकों में वृद्धि इससे भी कहीं अधिक थी।
यह बहुत ज़रूरी है कि अनुचित मिथकों से छुटकारा पाया जाए व सही तथ्यों को देखा जाए ताकि किसानों के हित व पर्यावरण रक्षा वाली नीतियां अपनाई जाएं तथा किसानों के अनावश्यक खर्चों को कम कर उनके संकट के समाधान की ओर बढ़ा जाए। इस समय देश और दुनिया में सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं जहां महंगी रासायनिक खाद व कीटनाशकों के बिना अच्छी कृषि उत्पादकता प्राप्त की गई है। इनसे सीखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
इस संदर्भ में विख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया के कार्य से भी बहुत सीख मिलती है। 25 वर्ष की उम्र में ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के कुछ वर्षों पश्चात वर्ष 1959 में वे केंद्रीय धान अनुसंधान केंद्र के निदेशक नियुक्त हुए व वर्ष 1967 तक इस पद पर रहे। वर्ष 1971 में वे मध्यप्रदेश के धान अनुसंधान संस्थान के निदेशक नियुक्त हुए तथा 1976 तक इस पद पर रहे।
डॉ. रिछारिया धान विशेषज्ञ थे। इस संदर्भ में उन्होंने हमेशा एक बात कही कि धान की खेती का विकास स्थानीय प्रजातियों के आधार पर ही होना चाहिए। हमारे देश में धान की बहुत समृद्ध जैव-विविधता मौजूद है व किसानों को इस बारे में बहुत परंपरागत ज्ञान है। वे कई पीढ़ियों से इन विविध किस्मों को अपने खेतों पर उगाते आ रहे हैं। पर हाल के वर्षों की अनुचित नीतियों के कारण परंपरागत बीज तेज़ी से लुप्त होते जा रहे हैं। अत: इनका संरक्षण अब बहुत आवश्यक है जो किसानों के खेतों पर ही जीवंत रूप से संभव है।
उन्होंने कीटनाशक त्यागने व रासायनिक खाद के बहुत कम उपयोग पर ज़ोर दिया। उन्होंने रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अनुकूल नई किस्में लाने के स्थान पर परंपरागत किस्मों में ही बहुत अच्छी उत्पादकता देने वाली किस्मों की पहचान की। इनकी उत्पादकता तथाकथित हरित क्रांति में उपयोग की गई किस्मों के बराबर या अधिक है।
उन्होंने परंपरागत बीजों व किस्मों सम्बंधी किसानों (विशेषकर आदिवासी किसानों) के ज्ञान की प्रशंसा की तथा इस परंपरागत ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए कृषि अनुसंधान व प्रसार की एक वैकल्पिक विकेंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आग्रह किया। उनका कहना था कि इस व्यवस्था में गांवों में ही अनुभवी किसानों की सहायता से खेती (विशेषकर धान की खेती) के अनुसंधान केंद्र विकसित किए जाने चाहिए। किसानों के परंपरागत ज्ञान का उपयोग करते हुए व उनकी भागीदारी से वैज्ञानिकों को अपना सहयोग देना चाहिए।
डॉ. रिछारिया ने कृषि अनुसंधान की जो सोच रखी थी उसमें स्वाभाविक रूप से किसानों का खर्च कम होता है, उनकी आत्म निर्भरता बढ़ती है व उनके परंपरागत ज्ञान का संरक्षण व प्रसार होता है। साथ में आधुनिक विज्ञान की नई बातों का उपयोग होता है व यह स्पष्ट होता है कि किसानों को आधुनिक विज्ञान से क्या चाहिए व क्या नहीं चाहिए।
जलवायु बदलाव के दौर में डॉ. रिछारिया के इस सोच की उपयोगिता और भी बढ़ गई है क्योंकि इससे खेती में बदलते मौसम के अनुकूल व्यावहारिक बदलाव करने की किसानों की क्षमता निश्चित तौर पर बढ़ जाती है। डॉ. रिछारिया द्वारा बनाई गई व्यवस्था में किसान स्वयं बदलते मौसम के अनुसार अपनी कृषि में ज़रूरी बदलाव कर सकते हैं।
परंपरागत बीजों की उपलब्धता शीघ्र बढ़ाने में उनकी क्नोनल प्रोपेगेशन तकनीक या कृन्तक प्रसार विधि से बहुत मदद मिलती है। (स्रोत फीचर्स)