विश्व भर में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और चिकित्सा (STEM) के क्षेत्र में महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक हैं। इस लिंग-आधारित बंटवारे के पीछे के क्या सामाजिक कारण हैं? शोध बताते हैं कि चाहे श्रम बाज़ार हो या उच्च योग्यता वाले क्षेत्र, इनमें जब महिला और पुरुष दोनों ही नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तब पुरुष उम्मीदवार स्वयं का खूब प्रचार करते हैं और अपनी शेखी बघारते हैं जबकि समान योग्यता वाली महिलाएं ‘विनम्र’ रहती हैं और स्वयं को कम प्रचारित करती हैं। और उन जगहों पर जहां महिला और पुरुष सहकर्मी के रूप में होते हैं, वहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं के विचारों या मशवरों को या तो अनदेखा कर दिया जाता है या उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। नतीजतन, पुरुषों की तुलना में महिलाएं स्वयं की क्षमताओं को कम आंकती हैं, खासकर सार्वजनिक स्थितियों में, और अपनी बात रखने में कम सफल रहती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की डॉ. सपना चेरियन और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में उपरोक्त अंतिम बिंदु को विस्तार से उठाया है। साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित अपने शोध पत्र, ‘क्यों कुछ चुनिंदा STEMक्षेत्रों में अधिक लिंग संतुलन है?’ में वे बताती हैं कि अमेरिका में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान विषयों में 60 प्रतिशत से अधिक उपाधियां महिलाएं प्राप्त करती हैं जबकि कंप्यूटर साइंस, भौतिकी और इंजीनियरिंग में सिर्फ 25-30 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। सवाल है कि इन क्षेत्रों में इतना असंतुलन क्यों है? चेरियन इसके तीन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारण बताती हैं (1) मर्दाना संस्कृति, (2) बचपन से लड़कों की तुलना में लड़कियों की कंप्यूटर, भौतिकी या सम्बंधित विषयों तक कम पहुंच, और (3) स्व-प्रभाविता में लैंगिक-विषमता।
रूढ़िगत छवियां
‘मर्दाना संस्कृति’ क्या है? रूढ़िगत छवि है कि कुछ विशिष्ट कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुष इन कामों में अधिक निपुण होते हैं, और महिलाएं ‘कोमल’ और ‘नाज़ुक’ होती हैं इसलिए वे ‘मुश्किल’ कामों के लिए अयोग्य हैं। इसके अलावा महिलाओं के समक्ष पर्याप्त महिला अनुकरणीय उदाहरण भी नहीं हैं जिनसे वे प्रेरित हो सकें और उनके नक्श-ए-कदम पर चल सकें। (866 नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से सिर्फ 53 महिलाएं हैं। यहां तक कि जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में अब तक दिए गए 400 से भी अधिक लास्कर पुरस्कारों में से भी सिर्फ 33 महिलाओं को मिले हैं।)
दूसरा बिंदु (यानी बचपन से लड़कियों की कुछ नियत क्षेत्रों में कम पहुंच) की बात करें तो कंप्यूटर का काम करने वालों के बारे में यह छवि बनाई गई है कि वे ‘झक्की’ होते हैं और सामाजिक रूप से थोड़े अक्खड़ होते हैं, जिसके चलते महिलाएं कतराकर अन्य क्षेत्रों में चली जाती हैं।
तीसरा बिंदु, स्व-प्रभाव उत्पन्न करने में लैंगिक-खाई, यह उपरोक्त दो कारणों के फलस्वरूप पैदा होती है। इसके कारण लड़कियों और महिलाओं के मन में यह आशंका जन्मी है कि शायद वास्तव में वे कुछ चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और जीव विज्ञान) के ही काबिल हैं। उनमें झिझक की भावना पैदा हुई है। यह भावना स्पष्ट रूप से प्रचलित मर्दाना संस्कृति के कारण पैदा हुई है और इसमें मर्दाना संस्कृति झलकती है।
फिर भी यदि हम जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों की बात करें तो, जहां विश्वविद्यालयों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के पद और तरक्की के लिए महिला और पुरुष दोनों ही दावेदार होते हैं, वहां भी लैंगिक असामनता झलकती है। विश्लेषण बताते हैं कि शोध-प्रवण विश्वविद्यालय कम महिला छात्रों को प्रवेश देते हैं। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि कई काबिल महिला वैज्ञानिकों ने, यह महसूस करते हुए कि उनके अनुदान आवेदन खारिज कर दिए जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूटट ऑफ हैल्थ जैसी बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं में अनुदान के लिए आवेदन करना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में लेर्चेनमुलर, ओलेव सोरेंसन और अनुपम बी. जेना का एक पठनीय व विश्लेषणात्मक पेपर Gender Differences in How Scientists Present the Importance of their Research: Observational Study (वैज्ञानिकों द्वारा अपने काम का महत्व प्रस्तुत करने में लैंगिक अंतर) दी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के 16 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है (नेट पर मुफ्त उपलब्ध है)। अपने पेपर में उन्होंने 15 वर्षों (2002 से 2017) के दौरान पबमेड में प्रकाशित 1 लाख से ज़्यादा चिकित्सीय शोध लेख और 62 लाख लाइफ साइंस सम्बंधी शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चिकित्सा फैकल्टी के रूप में और जीव विज्ञान शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं की संख्या कम है। पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, कुछ ही शोध अनुदान मिलते हैं और उनके शोध पत्रों को कम उद्धरित किया जाता है।
भारत में स्थिति
भारत में भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन क्यों? महिलाओं की तुलना में पुरुष अपने काम की तारीफ में भड़कीले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, और अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। लेखकों ने ऐसे 25 शब्द नोट किए हैं, इनमें से कुछ शब्द तो बार-बार दोहराए जाते हैं जैसे अनूठा, अद्वितीय, युगांतरकारी, मज़बूत और उल्लेखनीय। जबकि इसके विपरीत महिलाएं विनम्र रहती हैं और खुद को कम आंकती हैं। लेकिन अफसोस है कि इस तरह अपनी शेखी बघारने के कारण पुरुषों को अधिक अनुदान मिलते हैं, जल्दी पदोन्नती मिलती है, वेतनवृद्धि होती है और निर्णायक समिति में सदस्यताएं मिलती है। इस तरह खुद को स्थापित करने को चेरियन ने अपने पेपर में मर्दानगी कहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित चेरियन के उपरोक्त पेपर के नतीजे कई नामी अखबारों में भी छपे थे, जिनमें से एक का शीर्षक था - पुरुष वैज्ञानिक ऊंचा बोलकर महिलाओं को चुप करा देते हैं!
तो क्या भारतीय वैज्ञानिक भी इसके लिए दोषी हैं? उक्त 62 लाख शोध पत्रों में निश्चित रूप से ऐसे शोधपत्र भी होंगे जिनका विश्लेषण करके भारतीय वैज्ञानिकों की स्थिति को परखा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में अनुदान प्रस्तावों, निर्णायक दलों और प्रकाशनों के इस तरह के विश्लेषण की हमें प्रतीक्षा है। सेज पब्लिकेशन द्वारा साल 2019 में प्रकाशित नम्रता गुप्ता की किताब Women in Science and Technology: Confronting Inequalities (विज्ञान व टेक्नॉलॉजी में महिलाएं: असमानता से सामना) स्पष्ट करती है कि इस तरह की असमानता भारत में मौजूद है। वे बताती हैं कि भारत के पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा रही है कि महिलाओं को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं है। यह धारणा हाल ही में बदली है। आगे वे बताती हैं कि आईआईटी, एम्स, सीएसआईआर और पीजीआई के STEM विषयों के शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों में सिर्फ 10-15 प्रतिशत ही महिला शोधकर्ता और अध्यापक हैं। निजी शोध संस्थानों में भी बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं। अर्थात भारत में भी स्थिति बाकी दुनिया से बेहतर नहीं है।
भारतीय वैज्ञानिकों को प्राप्त सम्मान और पहचान की बात करें तो इस बारे में जी. पोन्नारी बताते हैं कि विज्ञान अकादमियों में बमुश्किल 10 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। अब तक दिए गए 548 भटनागर पुरस्कारों में से सिर्फ 18 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है। और 52 इंफोसिस पुरस्कारों में से 15 महिलाएं पुरस्कृत की गई हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन पुरस्कारों की निर्णायक समिति (जूरी) में एक भी महिला सदस्य नहीं थी।
भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे DST, DBT, SERB, ICMR, DRDO) द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान में लैंगिक अनुपात का अध्ययन करना रोचक हो सकता है। साथ ही लेर्चेनमुलर के अध्ययन की तर्ज पर, नाम और जानकारी गुप्त रखते हुए, दिए गए अनुदान के शीर्षक और विवरण का विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या भारतीय पुरुष वैज्ञानिक भी हो-हल्ला करके हावी हो जाते हैं? (स्रोत फीचर्स)
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Srote - March 2020
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