न्यूयॉर्क टाइम्स के 28 दिसंबर के अंक में एक आलेख के शीर्षक का भावार्थ कुछ ऐसा था: दीवालियापन के शिकार एंटीबायोटिक्स - स्वास्थ्य का संकट मंडरा रहा है क्योंकि दवा-प्रतिरोधी कीटाणुओं के खिलाफ लड़ाई में मुनाफा कम होने की वजह से निवेशक कतरा रहे हैं (Lifelines at risk as bankruptcies stall antibiotics – a health crisis looms: scant profits in fighting drug-resistant bugs sours investors)। इसका सम्बंध ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया और फफूंद से है जो अब पारंपरिक एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हो चले हैं। इनमें स्यूडोमोनास, ई. कोली, क्लेबसिएला, साल्मोनेला और तपेदिक का बैक्टीरिया शामिल हैं। ऐसे बहु-औषधि प्रतिरोधी (MDR) रोगाणु उभर रहे हैं। ये प्रति वर्ष दुनिया भर में लगभग 30 लाख लोगों को बीमार करते हैं और राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि हमने जल्दी ही ऐसे रोगाणुओं से लड़ने के लिए दवाइयां विकसित न कीं तो 2050 तक इनकी वजह से सालाना 1 करोड़ लोग मौत के शिकार होंगे।
सवाल है कि ये बहु-औषधि प्रतिरोधी रोगाणु आए कहां से? पेनिसिलीन और उसी जैसे एंटीबायोटिक्स (एरिथ्रोमायमीन, फ्लॉक्सिन) वगैरह का इस्तेमाल 60-70 साल पहले शुरू हुआ था। तब से हम इनका उपयोग सफलतापूर्वक करते रहे हैं क्योंकि ऐसी कोई भी परंपरागत दवा करोड़ों रोगाणुओं को मार डालती है। लेकिन फिर भी ऐसे रोगाणुओं की एक छोटी-सी संख्या बच निकली। उनके जीन्स में कतिपय छोटे-मोटे अंतरों की वजह से उनमें बचाव के कुछ रास्ते रहे होंगे जिसकी बदौलत उनमें ऐसी क्षमता होती है कि वे दवा को अपनी कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं करने देते या प्रवेश करने के बाद उसे निकाल बाहर करते हैं। ऐसे बचे हुए रोगाणु लगातार संख्यावृद्धि करते हैं और महीनों-वर्षों में करोड़ों की तादाद में इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें से कुछ एकाधिक दवाइयों से बचने का जुगाड़ कर लेते हैं। सारे प्रचलित एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधी ऐसे रोगाणुओं को ही MDR कहते हैं।
ऐसी स्थिति में ज़रूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक और दवा कंपनियां MDR रोगाणुओं के जीव विज्ञान को लेकर बुनियादी अनुसंधान करें और उनके खिलाफ लड़कर फतह हासिल करने के लिए कारगर दवाइयां विकसित करें।
किसी नई दवा की खोज/आविष्कार करके उसे बाज़ार में उपलब्ध कराने में प्राय: दस वर्ष तक का समय लग जाता है। दरअसल, इसी तरह के अनुसंधान व विकास के प्रयासों के दम पर ही मधुमेह, गठिया, रक्त विकार और कैंसर जैसी जीर्ण बीमारियों के खिलाफ दवाइयां विकसित हुई हैं। और इनमें से हरेक से सम्बंधित अनुसंधान व विकास के काम पर अरबों डॉलर का निवेश लगता है और कंपनी की अपेक्षा होती है कि उसे हर साल अरबों डॉलर का मुनाफा मिले। न्यूयॉर्क टाइम्स के उपरोक्त लेख में एंड्रू जैकब कहते हैं कि प्रमुख दवा कंपनियां MDR रोगाणु सम्बंधी शोध से कतराती रही हैं क्योंकि जीर्ण रोगों के विपरीत एंटीबायोटिक दवाइयों में अच्छा मुनाफा नहीं है। कारण यह है कि जहां जीर्ण रोगों की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं, वहीं एंटीबायोटिक तो कुछ दिनों या, बहुत हुआ तो, हफ्तों के लिए दी जाती हैं।
यही स्थिति MDR रोगाणुओं के संदर्भ में अनुसंधान और विकास कार्य करके उनके खिलाफ दवा विकसित करने के मामले में भी है। इसके लिए भी लंबी अवधि के प्रयासों और अरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है। इसी मामले में कुछ निजी कंपनियों ने योगदान दिया है। खुशी की बात है कि इन्हें अनुसंधान व विकास कार्य के लिए वित्तपोषण कुछ निजी प्रतिष्ठानों और सरकारी रुाोतों से प्राप्त हो रहा है। उक्त लेख में बताया गया है कि कैसे एकाओजेन नामक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी यूएस सरकार के बायोमेडिकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से एक अरब डॉलर का अनुदान पाने में सफल रही है और उसने 15 साल के अनुसंधान व विकास कार्य के फलस्वरूप ज़ेमड्री नामक दवा तैयार की है। ज़ेमड्री दरअसल प्लेज़ोमायसिन का ब्राांड नाम है और यह मूत्र मार्ग के दुष्कर संक्रमण के उपचार में कारगर पाई गई है। ज़ेमड्री को यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी मिल चुकी है। बदकिस्मती से, एकाओजेन इस औषधि से ज़्यादा मुनाफा नहीं कमा सकी, जिसके चलते उसके निवेशक खफा हो गए और कंपनी दिवालिया हो गई।
इसी प्रकार से टेट्राफेज़ नामक कंपनी को एक गैर-मुनाफा संस्था से बड़ा अनुदान मिला था और उसने ज़ेरावा नामक दवा का विकास किया जो कुछ MDR रोगाणुओं के खिलाफ कारगर है। लेकिन कंपनी को गिरते स्टॉक मूल्य के चलते स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी और आगे अनुसंधान व विकास कार्य में भी कटौती करनी पड़ी।
यही हालत एक तीसरी कंपनी मेंलिंटा थेराप्यूटिक्स की भी हुई। इस कंपनी ने बैक्सडेला नामक औषधि विकसित की थी जिसे खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा-प्रतिरोधी निमोनिया के लिए मंज़ूरी दे दी थी।
यह बात गौरतलब है कि एकाओजेन कंपनी को सिप्ला-यूएस ने खरीद लिया था। सिप्ला-यूएस भारतीय लोकहितैषी दवा कंपनी सिप्ला की यूएस शाखा है। इसके अंतर्गत सारे उपकरण भी खरीदे गए और ज़ेमड्री को बनाने की टेक्नॉलॉजी तथा उसे बनाने व दुनिया भर में बेचने के अधिकार भी शामिल थे।
सिप्ला का यह कदम अन्य भारतीय कंपनियों के लिए मिसाल है कि उन्हें भी इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। वे अपने तर्इं यूएस की अन्य कंपनियों से बातचीत करके उन्हें खरीद सकती हैं या पार्टनर अथवा मालिक के रूप में रोगाणुओं के खिलाफ दवाइयां बनाने की वह टेक्नॉलॉजी अर्जित कर सकती हैं जो इन कंपनियों ने कड़ी मेहनत करके विकसित की है। इसके बाद ये भारतीय कंपनियां ये दवाइयां न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के ज़रूरतमंद मरीज़ों को मुहैया करा सकती है।
हाल ही में भारत में MDR रोगाणुओं की वजह से होने वाली मौतों को लेकर सोमनाथ गंद्रा व साथियों ने देश के 10 अस्पतालों में अध्ययन किया था। क्लीनिकल इंफेक्शियस डिसीज़ेस में प्रकाशित उनके शोध पत्र में बताया गया है कि MDR रोगाणुओं की वजह से मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। यदि यह अस्पताल में पहुंचने वाले मरीज़ों की स्थिति है, तो कल्पना कर सकते हैं कि देश के गांवों-कस्बों में लाखों लोग ऐसी बीमारियों की वजह से दम तोड़ रहे होंगे। और इसमें कोई संदेह नहीं कि अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वी एशिया और अन्य कम आमदनी वाले देशों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी। लिहाज़ा, भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया अनुसंधान व विकास कार्य जन स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा।
अच्छी बात यह है कि भारत सरकार और उसकी वित्तपोषक संस्थाएं सरकारी शोध व विकास संस्थानों और विश्वविद्यालयों में इस फोकल थीम के क्षेत्र में शोधकर्ताओं को अनुदान देने को तत्पर हैं। इसके अलावा, गैर-सरकारी संस्थाओं और दवा कंपनियों को भी यह अनुदान मिल सकता है। भारत में निजी गैर-मुनाफा प्रतिष्ठानों को भी अपने बटुए खोलने चाहिए।
हममें से कई यह बात शायद नहीं जानते कि हमारा देश दुनिया भर में बचपन के टीकों का एक प्रमुख सप्लायर बन चुका है। भारत के मुट्ठी भर टीका-उत्पादक आज अपने अनुसंधान व विकास कार्य के दम पर दुनिया भर में 35 प्रतिशत बचपन के टीके सप्लाय करते हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि क्यों भारत MDR किस्म के रोगों और अन्य संक्रमणों के खिलाफ अपने अनुसंधान के दम पर दुनिया के 7 अरब लोगों को अच्छा स्वास्थ्य देने के मामले में अग्रणि नहीं हो सकता। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - March 2020
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