भारत डोगरा
हाल के वर्षों में देश के अनेक प्रमुख शहरों, विशेषकर राज्यों के राजधानी शहरों के बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होने के समाचार मिलते रहे हैं। इसके उदाहरण हैं - चैन्नई, मंबई व श्रीनगर। प्राय: बाढ़ प्रबंधन में इस तरह के बड़े शहरों व उनकी घनी व समृद्ध आबादियों की रक्षा को प्राथमिकता दी जाती है। तटबंधों का निर्माण इस तरह किया जाता है जिससे महानगरों व विशेषकर राजधानियों के बाढ़ग्रस्त होने की संभावना न्यूनतम की जा सके।
यदि इसके बावजूद अनेक बड़े शहर बाढ़ से इतनी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं तो इसकी एक मुख्य वजह यह है कि इन शहरों में निर्माण कार्य बहुत अनियंत्रित ढंग से किया गया है। आवासीय व व्यावसायिक स्थलों की कीमतें तेज़ी से धन कमाने का सबसे प्रचलित तरीका हो गया है व बिल्डरों, अधिकारियों व राजनेताओं की मिलीभगत से ऐसे तमाम स्थानों पर बड़े-बड़े निर्माण कार्य हो गए हैं जहां निर्माण होने से जल की निकासी बुरी तरह बाधित होती है।
इतना ही नहीं ये बिल्डर आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पहुंच गए हैं और वहां के जल-निकासी के स्थानों व जल-स्रोतों पर भी कब्ज़ा करने लगे हैं जिससे आसपास के क्षेत्र में भी मुख्य शहर की जल-निकासी में रुकावट आने लगी है। इस तरह जहां एक ओर बहुत से नए क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हुए वहीं दूसरी ओर अनेक किसानों, पशुपालकों व मछुआरों की पहले से संकटग्रस्त आजीविका भी उजड़ने लगी। यदि ये रोज़गार बने रहते तो शहरों को ताज़े व स्वस्थ खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी।
अब आगे सवाल यह है कि क्या इन गलतियों से भविष्य के लिए कुछ सबक मिल सकते हैं? यह सवाल विशेषकर कोलकाता के संदर्भ में इस समय बहुत महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि अब संभावना बन रही है कि पहले वाली गलतियों को यहां और भी बड़े पैमाने पर दोहराया जा सकता है।
पूर्वी कोलकाता वैटलैंड (नमभूमि) क्षेत्र लगभग 12,500 हैक्टर क्षेत्र में फैला है जिसमें से लगभग 4000 हैक्टर क्षेत्र में भेरी कहलाए जाने वाले मछली फार्म हैं। शहर का सीवेज इस क्षेत्र के जल मार्गों व तालाबों में बहता है व कुछ हद तक प्राकृतिक प्रक्रियाओं से साफ भी होता है। एक बड़ा प्रदूषक बनने के स्थान पर इसकी कृषि व मछली पालन में उर्वरक की भूमिका बनी हुई है। अनुमान है कि इस क्षेत्र से शहर को प्रति वर्ष 55,000 टन सब्जियां व 10,500 टन मछली प्राप्त हो रही है। इन कार्यों में लगभग 20,000 लोगों को प्रत्यक्ष रूप से व लगभग 50,000 लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोज़गार मिला हुआ है। वर्षा के समय मुख्य शहर की जल-निकासी भी इन स्रोतों व जल-मार्गों की ओर ही होती है।
अब इस नमभूमि पर निर्माण कार्य करने व इसके लिए कानूनी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके लिए बहुत शक्तिशाली व्यक्तियों का समर्थन भी बढ़ता जा रहा है। पर इस नमभूमि के एक बड़े क्षेत्र पर निर्माण कार्य हुआ तो शहर के वर्षा के जल की निकासी भी बुरी तरह अवरुद्ध हो सकती है व इससे बाढ़ की समस्या बहुत विकट हो जाएगी। सीवेज व कूड़े को ठिकाने लगाने की समस्या बहुत विकट हो जाएगी व हज़ारों लोगों की ऐसी रोज़ी-रोटी खतरे में पड़ जाएगी जिससे महानगर के बाशिंदों को ताज़े व सस्ते खाद्य पदार्थ मिलते हैं।
इससे पहले कि बिल्डर लॉबी व ज़मीन की खरीद-फरोख्त में लगे व्यावसायियों का दबाव शहर के नज़दीकी क्षेत्र की प्राकृतिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बाढ़ व अन्य समस्याओं को बढ़ाने में सफल हो जाए, यह ज़रूरी है कि महानगर व आसपास के क्षेत्र के दीर्घकालीन हितों की रक्षा के लिए लोग एकजुट हों और इस विषय पर सही निर्णय के लिए जनमत तैयार करें तथा सरकार पर दबाव बनाएं।
जलवायु बदलाव के इस दौर में वैसे भी समुद्र तटवर्ती शहरों में तो बाढ़ का खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ सकता है। अत: ऐसे कोई भी निर्णय नहीं लेने चाहिए जिससे प्रकृति में पहले से मौजूद बाढ़ से बचाव वाली रक्षा प्रणाली क्षतिग्रस्त होने की आशंका हो।
विभिन्न शहरों की बाढ़ से रक्षा केवल तटबंध बनाकर नहीं हो सकती है। इसके लिए ज़रूरी होगा कि शहरी विकास और निर्माण पर समग्र रूप से नज़र रखी जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह जल निकासी में बाधक न बने। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - September 2016
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