अफ्रीका में मलेरिया से लड़ाई में काफी सफलता मिली है मगर वैज्ञानिकों के अनुसार ये सफलताएं सीमित रही हैं। अफ्रीका में कीटनाशकों और मच्छरदानियों के व्यापक उपयोग से मलेरिया फैलाने वाले एक मच्छर एनॉफिलीज़ गेम्बिए पर तो विजय हासिल कर ली गई है। किंतु मलेरिया को फैलाने का काम मच्छरों की कई प्रजातियां करती हैं।
एक ओर तो मच्छरों में कीटनाशक रसायनों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया है तथा दूसरी ओर मच्छरों की अन्य प्रजातियां अभी भी अपना काम जारी रखे हुए हैं। इनमें से एक प्रजाति एनॉफिलीज़ अरेबिएन्सिस अफ्रीका के एक हिस्से में काफी महत्वपूर्ण है।
अरेबिएन्सिस की एक विशेषता यह है कि यह कई जंतुओं का खून पीकर काम चला सकती है - गाय-भैंस, भेड़, बकरी वगैरह। मगर हाल में एक अध्ययन में देखा गया है कि यह मुर्गियों का खून नहीं पीती। मलेरिया जर्नल नामक शोध पत्रिका में कासाहुन जलेटा और उनके साथियों ने अपने इस अध्ययन के निष्कर्ष प्रकाशित किए हैं। उनका मत है कि मुर्गियां अन्य कीटों के अलावा मच्छरों को भी खाती हैं। संभवत: इसीलिए मच्छरों में मुर्गियों को भांपने की रणनीति विकसित हुई है। अर्थात मुर्गियों से बचकर रहना इन मच्छरों के लिए जीवन-मरण का सवाल है और मुर्गियों की गंध से उनकी उपस्थिति को भांपना इनके चेतावनी तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
शोधकर्ताओं ने मुर्गियों के पंखों से एक रासायनिक पदार्थ पृथक किया और इस रसायन को मच्छरदानी में सोते एक व्यक्ति को लगा दिया। उन्होंने पाया कि इस मच्छरदानी के आसपास कम मच्छर मंडराए, संभवत: मुर्गियों की गंध से दूर भागने के चक्कर में।
शोधकर्ताओं का मत है कि मुर्गियों की गंध का यह रसायन एक अच्छा मच्छर-भगाऊ पदार्थ हो सकता है। मगर उनके मुताबिक बेहतर तो यह होगा कि आप मुर्गियां ही पाल लें। (स्रोत फीचर्स)