अभिषेक कुमार

जब मानव सभ्यता इस पृथ्वी पर प्रफुल्लित हो रही थी तो उसके साथ-साथ मानव अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट करने तथा प्रकृति को समझने के प्रयत्न कर रहा था। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ उस समय जिन तीन विषयों का भी विकास हुआ उनमें साहित्य, गणित और दर्शन थे। मानव की विवेकशीलता जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे प्राचीन दर्शन अलग-अलग विषयों में विभाजित होते गए। विज्ञान का दर्शन इतना पुराना है कि उस पर प्लेटो और अरस्तू ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। मानव जाति के विकास में विज्ञान के दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। शायद इसलिए जब सत्रहवीं शताब्दी के आसपास पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रान्ति चल रही थी तब विज्ञान को विकास का पर्यायवाची माना गया। विज्ञान विषय पर एक आम चर्चा जो उस समय भी थी और आज भी होती है कि आखिर हम विज्ञान किसे कहेंगे, क्या अवलोकन करना अथवा किसी चीज़ के बारे में तार्किक जानकारी रखना विज्ञान है? शायद मैं भी इसका उत्तर खोजने में लगा हुआ हूँ।

रिचर्ड फाइनमेन कहते हैं कि “हर उस बात पर सन्देह करना जो बात अतीत से बहकर हम तक पहुँची है - एक अनुभूत सत्य का जामा पहने - और फिर ठेठ शुरुआत से अपने ही अनुभव के बूते उस सत्य को परखना। बजाय इसके कि पहले के अनुभव पर ज्यों-का-त्यों विश्वास कर लिया जाए, शायद यही विज्ञान है।” उन्होंने विज्ञान के इस दृष्टिकोण को अपने बचपन के अनुभव के आधार पर प्रस्तुत करने की कोशिश की है। उनका मानना था कि हमें विज्ञान दर्शन की अवधारणा के बारे में जानना चाहिए, न कि केवल एक परिभाषा को।

विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते एक बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि विज्ञान में अवलोकन तो होता है पर केवल अवलोकन  को  ही  विज्ञान  कहना नाइन्साफी होगी। गुरुत्वाकर्षण के नियम पढ़ाने के क्रम में शिक्षक प्रयोग के तौर पर कोई वस्तु पृथ्वी पर गिराकर विद्यार्थी को अवलोकित कराता है, बीज से पेड़ बनने की विधि को सबने देखा होगा पर इसके बनने की प्रक्रिया कितनों को पता होती है। जब भी हम विज्ञान की शुरुआत वैज्ञानिक शब्दावली के साथ करेंगे तो कहीं-न-कहीं हमारी वैज्ञानिक सोच उसी शब्दावली के आसपास दम तोड़ती नज़र आएगी।

विज्ञान शिक्षण का अवलोकन
सर फ्रांसिस बेकन (1561-1626) के अनुसार “विज्ञान बिना किसी पूर्वाग्रह के अवलोकनों को एकत्र करने का तरीका है।” हर विज्ञान एक कोरी कल्पना से शुरू होकर विभिन्न पड़ावों से गुज़रता हुआ एक सिद्धान्त की ओर  बढ़ता  है  जिसमें  सवाल, परिकल्पना, अवलोकन, प्रयोग, मन्थन, निष्कर्ष आदि छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण पड़ाव होते हैं।

एक बार की बात है, मैं कक्षा-6 के विद्यार्थिओं को पौधों का वर्गीकरण समझा रहा था। अध्याय पढ़ाते समय बच्चों के साथ एक खेल खेलने का सोचा जिसमें मैंने बच्चों को तीन समूह में बाँट दिया और उनसे कहा कि वे जाकर विद्यालय प्रांगण में मौजूद सारे पेड़-पौधों को देखें और उनकी एक-एक पत्ती तोड़कर लाएँ। ऐसा प्रत्येक समूह को तब तक करना है जब तक नई पत्तियाँ मिलना बन्द न हो जाएँ और ध्यान देना है कि पहले जिन पत्तियों को तोड़ चुके हैं, उन्हें दोबारा न तोड़ें। अब मानो बच्चों में होड़-सी लग गई। करीब एक घण्टे की मशक्कत के बाद बच्चे पेड़-पौधों की कुल संख्या का एक मोटा-मोटा अनुमान लगाने में सफल रहे। इसके दौरान वे समूह में कार्य करना, गहन अवलोकन, औसत निकालना आदि की अवधारणा सीख रहे थे। अब मैंने बच्चों से इन पत्तियों को अपने आधार पर वर्गीकृत करने को कहा। बच्चों ने वर्गीकरण का जो तरीका चुना, वह था पत्तियों का आकार। तत्पश्चात् मैंने उनसे कहा, “अब जाओ और देखो कि जो पत्तियाँ जिस पेड़ से तोड़ी गई हैं, वह देखने में कैसा है।” अवलोकन के बाद बच्चों ने बताया कि लगभग सभी छोटे पौधों की पत्तियाँ छोेटी हैं, कुछ-एक को छोड़कर और बड़े पेड़ों के लिए इसका उल्टा है। इसके बाद मैंने उन्हें सरल और संयुक्त पत्तियों के बारे में बताया और फिर से उन्हीं पत्तियों को इस आधार पर वर्गीकृत करने को कहा। मुझे पता नहीं कि मैं विज्ञान सिखा रहा था या कुछ और, पर एक बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस गतिविधि से बच्चों को अवलोकन करने, प्रयोग करने तथा गहन चिन्तन करने का भरपूर मौका मिला। मेरे विचार से सीखने के शुरुआती दौर में बच्चों के अन्दर विभिन्न कौशल के विकास के लिए इस तरह की गतिविधियाँ बेहद ज़रूरी हैं ताकि विषय की अवधारणा को समझने में उनकी रुचि उत्पन्न हो। और एक गहरी समझ बन पाए।

विज्ञान शिक्षण को लेकर हमारी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 सुझाती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए। यह सिद्धान्त किताबी ज्ञान की उस विरासत के विपरीत है जिसके प्रभाववश हमारी व्यवस्था आज तक स्कूल और घर के बीच अन्तराल बनाए हुए है। नई राष्ट्रीय पाठ्यचर्या पर आधारित पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें, इस बुनियादी विचार पर अमल करने का एक प्रयास है। इस प्रयास में हर विषय को एक मज़बूत दीवार से घेर देने और जानकारी को रटा देने की प्रवृत्ति का विरोध शामिल है। इस दस्तावेज़ को बनाने के पीछे यह उद्देश्य था कि हर विषय की अवधारणा के अनुरूप पठन-पाठन के लिए एक सर्वमान्य दिशा-निर्देश दिए जा सकें। अब तक के विभिन्न विद्यालयों के अवलोकन से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि विज्ञान शिक्षण में प्रयोग के नाम पर केवल कुछ चार्ट एवं मॉडल बनवाकर खानापूर्ति की जाती है। इससे न तो बच्चों का बौद्धिक विकास सम्भव है और न ही विषय की अवधारणा को समझने में मदद मिलती है।

अभी हाल ही में बच्चों की परीक्षा के दौरान मैंने एक प्रश्न देखा था -गुड़हल के फूल का सचित्र वर्णन करें। मेरी नज़र जाती है बच्चों के द्वारा बनाए चित्रों पर। हरेक चित्र एक से बढ़कर एक, पर जब मैंने बारीकी से चित्रों का अवलोकन किया तो पाया कि चित्र में जो एक आम खामी थी, वह फूल की पंखुड़ियों को लेकर थी। लगभग सारे चित्रों में पंखुड़ियों की संख्या अलग-अलग थी। किसी में चार, किसी में पाँच तो किसी में छ: जबकि एक परिवार के फूलों में पंखुड़ियों की संख्या समान होती है। फिर भी इतनी विविधता क्यों? क्योंकि कक्षा-कक्ष के दौरान जब हम ‘फूल’ पढ़ा रहे होते हैं तो केवल मौखिक जानकारी दे देते हैं और अगर कभी अवलोकन कराते भी हैं तो सिर्फ एक-दो फूलों का और उसी के माध्यम से पूरा पाठ समाप्त कर देते हैं।

सारणी-1: श्वसन से सम्बन्धित पूछे गए प्रश्न और प्रतिभागियों द्वारा दिए गए उत्तर (ये सभी प्रश्न अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, उत्तराखण्ड की विज्ञान विषय की ग्रीष्मकालीन कार्यशाला के मॉड्यूल से लिए गए हैं)।

प्रयोगों द्वारा वैज्ञानिक समझ में बढ़ावा
प्रकाश-संश्लेषण और श्वसन पर एक कार्यशाला के दौरान मैंने पाया कि अभी भी बहुत-से छात्रों और शिक्षकों में इस विषय को लेकर समझ काफी कमज़ोर है। श्वसन के बारे में की गई बातचीत के दौरान -- कैसे श्वसन और साँस लेना एक-दूसरे से भिन्न हैं? क्या हम जो साँस लेते हैं उसमें ऑक्सीजन ही लेते हैं? कैसे पता करें कि हमारे द्वारा छोड़ी गई गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड होती है? -- इन विभिन्न प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने के लिए शिक्षकों ने तरह-तरह के प्रयोग सोचे तथा उन्हें प्रदर्शित किया गया। इस सत्र का प्रमुख उद्देश्य प्रतिभागियों द्वारा श्वसन की समझ विकसित करना था जिसके लिए उन्हें कुछ चर्चा-प्रश्न दिए गए। प्रतिभागियों द्वारा दिए गए जवाब सारणी-1 में संकलित किए गए हैं।

इस सारणी में दिए गए प्रश्नों तथा प्रतिभागियों की तरफ से आए उत्तरों पर गौर करें तो लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर में विविधता है लेकिन सबसे ज़्यादा मतभेद प्रश्न 1, 3, 7, 8 में देखने को मिले। इसके कारणों पर बात करें तो प्रकाश-संश्लेषण और श्वसन, दोनों प्रक्रियाओं का सम्बन्ध गैसों के आदान-प्रदान से है। आम तौर पर इस पाठ को पढ़ाते समय हमारे बीच इन दोनों के अन्तर पर गम्भीरतापूर्वक बात नहीं होती है। उच्च प्राथमिक स्तर पर विज्ञान पढ़ाने में प्रयोगों का ज़्यादा इस्तेमाल नहीं होता क्योंकि विज्ञान के बारे में एक गलत धारणा यह भी है कि इसको करने के लिए बहुत महँगे सामान एवं अच्छी प्रयोगशाला की ज़रूरत होती है जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है।

इस सारणी से यह प्रतीत होता है कि शायद लोग यह मानते हैं कि बीज तथा अण्डा निर्जीव हैं क्योंकि बीज पेड़ से अलग हो गया है। ऐसे ही शायद कुछ प्रतिभागियों ने अण्डों के बारे में भी सोचा होगा। प्रश्न-6 पर भी प्रतिभागियों के बीच मतभेद था। यह सही है कि रात में लगभग सभी पेड़ केवल श्वसन करते हैं जिसके कारण छोड़ी हुई वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन हम गैस के गुणों पर बात करें तो गैस का अपना कोई आयतन नहीं होता, उसे जितनी जगह मिलेगी उतने में फैल जाएगी। तो फिर पेड़ के नीचे नहीं सोने का यह कारण कुछ जमता नहीं है। इस प्रकार की भ्रान्तियाँ शायद इसलिए भी हैं क्योंकि विज्ञान को प्रयोग, खोजबीन और तर्क के आधार पर जिस तरह से कक्षा-कक्ष में पढ़ाया जाना चाहिए, उस तरह से अक्सर नहीं पढ़ाया जाता।

इन प्रतिभागियों के साथ श्वसन से सम्बन्धित कुछ छोटे-छोटे प्रयोग किए गए जिसके लिए उन्हें न तो प्रयोगशाला में जाने की ज़रूरत पड़ी और न ही महँगे सामान की, लेकिन इन प्रयोगों को करने के बाद उनके विचारों में ज़रूर परिवर्तन हुआ। उन्होंने श्वसन से सम्बन्धित ढेर सारे प्रश्नों का जवाब ढूँढ़ा और उसके तार्किक पहलुओं पर बातचीत भी की। विज्ञान की यही खूबसूरती है कि इसमें जो भी उत्तर हम देते हैं उसका पूरा तर्क मौजूद होता है, ज़रूरत है अपने उत्तर को तर्कों के तराज़ू पर तौलने की। विज्ञान की एक खूबी यह भी है कि इसमें कोई भी तर्क स्थाई नहीं है।

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में विज्ञान
हम अपने आसपास कितनी घटनाएँ रोज़ देखते हैं, पर क्या कभी उन पर गम्भीरतापूर्वक सोचा है कि ऐसा क्यों होता है, जैसे हाथ धोने वाले बेसिन में जो पानी निकलता है वह हमेशा घड़ी की सुई की दिशा में क्यों घूमने लगता है? घर की छत में उपयोग होने वाली सीमेंट की चादरें तिकोने आकर की क्यों होती हैं? किसी नदी पर बनने वाले पुल के खम्भे गोल ही क्यों होते हैं? पीपल, पाकर आदि मोटे तने वाले पौधे हमेशा हमारे घरों की दीवारों पर क्यों उग जाते हैं? इन प्रश्नों के अनुमानित जवाब अधिकतर विज्ञान के महारथी के पास भी नहीं होते हैं, क्योंकि हमारा विद्यालयी विज्ञान शिक्षण कक्षा-कक्ष में इन सब चीज़ों को उतना महत्व नहीं देता और क्योंकि परीक्षा प्रणाली इस बात की इजाज़त नहीं देती। अगर आप किसी बच्चे से पूछेंगे कि बल वितरण के नियम बताओ तो शायद वह सरलतापूर्वक उसका जवाब दे दे जो कि किताब का पुनरावर्ती हो, पर अगर इस नियम पर आधारित कोई उदाहरण पूछा जाए जो हमारी रोज़मर्रा ज़िन्दगी से जुड़ा हो तो शायद वह न बता पाए।

कई बार मुझे विज्ञान प्रदर्शनी का अवलोकन करने का मौका मिला है। बच्चों द्वारा बहुत सारे मॉडल बनाए जाते हैं। अगर आप बारीकी-से देखेंगे तो पाएँगे कि बच्चों की मेहनत का 80 फीसदी समय उस मॉडल को सुन्दर बनाने में गया है। जबकि किसी भी प्रदर्शनी का उद्देश्य यह होता है कि बच्चों के अपने स्वतंत्र विचार सबके सामने आएँ। लेकिन इस प्रतियोगिता को जीतने के फेर में वे इंटरनेट की मदद से इसे बनाते हैं जिससे न तो उद्देश्य की पूर्ति हो पाती है और न ही बच्चे कुछ सीख रहे होते हैं। शायद यही वजह है कि विज्ञान के कई क्रार्यक्रम चलाने के बावजूद आज भी हमारे पास नवोन्मेष एंव नवाचार का घोर अभाव है। इसलिए ज़रूरी है कि हम बच्चे को स्वतंत्र रूप से सोचने को बाध्य करें। उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रश्न करने के मौके दें और उन प्रश्नों के जवाब उन्हें खुद खोजने के लिए प्रेरित करें।


अभिषेक कुमार: वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है और विगत तीन वर्षों से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में विज्ञान विषय के रिसोर्स पर्सन के रूप में कार्यरत हैं।
सभी चित्र: निशित मेहता: महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातक। चित्रकार, लेखक और कला शिक्षक के रूप में काम किया है। वर्तमान में महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी से कला का इतिहास विषय में स्नातकोत्तर कर रहे हैं।