कमलेश चन्द्र जोशी
विगतदशक के शिक्षकों के साथ विभिन्न प्रशिक्षणों में बच्चों के पढ़ना सीखने के उद्देश्यों में शुद्ध उच्चारण की मान्यता में बदलाव आया है और पढ़ने का मतलब ‘समझना’ से भी जोड़ा जाने लगा है। ये बातें शिक्षकों के साथ चर्चाओं में ज़रूर उभरकर आती हैं पर इन चर्चाओं में अभी यह स्पष्टता नहीं है कि पढ़कर समझने में कौन-कौन-सी बातें शामिल हैं, इसके लिए कक्षा में बच्चों के बीच किस तरह का माहौल बनाने की ज़रूरत है और कक्षा की प्रक्रियाओं में क्या बदलाव किए जाने चाहिए। शिक्षकों के साथ चर्चाओं में इस बात की ओर ध्यानाकर्षण भी ज़रूरी है कि पढ़कर समझने में सामाजिक जागरूकता, पर्यावरण बोध, संवेदनशीलता और भाषायी सौंदर्यबोध जैसी बातें भी शामिल हैं।
पढ़ने-लिखने को समग्रता में समझने की ज़रूरत है। इसके लिए कक्षा में ज़रूरी है बच्चों से नियमित बातचीत हो, उन्हें अपने अनुभवों को साझा करने का मौका मिले, अपने आसपास के परिवेश के बारे में सोचने का मौका मिले। बच्चों के बीच पढ़ने का माहौल बनाने के लिए उन्हें पाठ्यपुस्तकों के इतर अन्य बालपुस्तकों को भी नियमित रूप से पढ़ने का मौका मिलना चाहिए। इन पुस्तकों पर उनसे बातचीत हो और वे अपने अनुभवों को भी लिखें। इस सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए, इस आलेख में एक कक्षा के अनुभवों को साझा कर रहा हूँ।
कुछ समय पूर्व एक स्कूल में जाना हुआ। यह स्कूल मुख्य सड़क से थोड़ा हटकर है। स्कूल में अभी बारह बच्चे ही नामांकित हैं जिनमें अधिकतर बच्चे थारू जनजाति के हैं। ये बच्चे अलग-अलग कक्षाओं में हैं और इनमें से अधिकांश अभी पढ़ना सीख रहे हैं। स्कूल की शिक्षिका हमारे शिक्षक प्रशिक्षणों में आती रहती हैं। स्कूल में उन्होंने बच्चों के लिए एक किताबों का कोना बना रखा है जहाँ बरखा सीरीज़ की कुछ किताबें और कुछ सर्वशिक्षा अभियान द्वारा दी गई पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। शिक्षिका बच्चों को किताबें पढ़ने को भी देती हैं। वे पिछले प्रशिक्षण में अपने अनुभव साझा करते हुए बता रही थीं कि किताबें देने से बच्चों की पढ़ने की क्षमता में सुधार हुआ है और उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता भी बढ़ी है। वे चित्र बनाते हैं और लिखने की कोशिश भी करते हैं।
कक्षा में बच्चों से पिछले दिनों पढ़ी किताबों के बारे में बातचीत हो रही थी। “आप लोगों ने अभी तक कौन-कौन-सी किताबें पढ़ी हैं?” बच्चे बरखा सीरीज़ की किताबों का नाम ले रहे थे - फूली रोटी, जीत की पीपनी, मीठे-मीठे गुलगुले, गिल्ली-डण्डा, शरबत, पका आम, चावल, चाय, मज़ा आ गया, गोलगप्पे, मिली का गुब्बारा, झूला, लुका-छिपी। बच्चों से पूछा, “किताब में आपको क्या बात अच्छी लगी?” उन्होंने बताया, “फूली रोटी में जमाल रोटी बनाता है तो अच्छा लगता है। छुपन-छुपाई में बच्चे कई जगहों पर छिपते हैं तो अच्छा लगता है। मीठे-मीठे गुलगुले में आटा गीला हो जाता है तो वे उसके गुलगुले बनाते हैं, यह अच्छा लगता है।” बच्चों को चिंटू चला नाना के घर किताब पढ़ने में थोड़ी कठिन लगी।
फिर बच्चों से पूछा कि उन्होंने पिछले महीने से अभी तक कितनी किताबें पढ़ ली होंगी, तो बच्चे अपनी उंगलियों से गिनते हुए किताबों के नाम से हिसाब लगाने लगे। पावनी अपनी कॉपी में बच्चों का नाम लिखकर, उसके आगे पढ़ी किताबों की संख्या लिखते हुए एक सूची बना रही थी। यह देखकर मैंने बच्चों से कहा कि आगे से वे अपनी कॉपी में पढ़ी हुई किताबों के नाम, तारीख, किताब कैसी लगी आदि नोट भी कर सकते हैं ताकि उन किताबों के बारे में फिर कभी बात हो तो वे आसानी-से अपनी किताबों का ब्यौरा दे सकें।
फिर मैंने बच्चों से पूछा, “किताब पढ़ने से आपके ‘पढ़ने’ में क्या फर्क पड़ा है?” बच्चे कहने लगे, “पहले हम धीरे-धीरे पढ़ पाते थे, अब तेज़ी-से पढ़ पाते हैं।” एक बच्चा कह रहा था, “पहले बारहखड़ी पढ़ी थी। अब किताब पढ़ लेता हूँ।” कुछ और बच्चे कह रहे थे, “किताब पढ़ने से हम धीरे-धीरे पढ़ना सीख रहे हैं।” यह पूछने पर कि उन्हें किताब पढ़ने का मौका कब मिलता है, बच्चों ने बताया कि जब मैडम का मन करता है तब वे किताबें पढ़ने को देती हैं।
इस पूरे सन्दर्भ में देखें तो बच्चों में पढ़ने के प्रति रुझान बनाने के लिए इस तरह की बातचीत करना ज़रूरी है जिससे बच्चों को महसूस हो कि उनके द्वारा किताब पढ़ने का महत्व है और यह कक्षा-शिक्षण का ही हिस्सा है। इसके साथ ही एक शिक्षक को यह समझने की ज़रूरत भी है कि बच्चे किस तरह की किताबें पढ़ रहे हैं, वे किताबों के बारे में क्या सोच रहे हैं, किन बच्चों में किताबों के प्रति रुचि बन रही है आदि।
इसके बाद बच्चों को बरखा सीरीज़ की एक किताब मुनमुन और मुन्नू पढ़कर सुनाई और बीच-बीच में उस पर बातचीत भी चलती रही। चित्रों की ओर भी ध्यान दिलाया गया जिसका उद्देश्य था कि बच्चे पढ़ते समय किताब के चित्रों पर भी ध्यान दें और अनुमान लगाएँ। जब बात हुई कि किताब पढ़कर उनकी समझ में क्या बात आई तो बच्चे किताब की कुछ घटनाएँ बताने लगे, “कबूतर आते हैं, रमा व रानी बिल्ली को दूध पिलाती हैं।” अंकित ने अपनी समझ को ठीक से बताने का प्रयास किया, “रमा और रानी बिल्ली का ध्यान अण्डों से भटकाना चाहती थीं जिससे वह कबूतर के अण्डे न खा पाए, इस बारे में कहानी है।”
इसके बाद बच्चों से अण्डों के बारे में बात शुरू हो गई। “आपने किस-किस जीव के अण्डे देखे हैं?” बच्चों ने बताया कि उन्होंने मुर्गी का अण्डा देखा है और चिड़िया का अण्डा देखा है। एक बच्चे ने कहा, “बतख का अण्डा देखा है। बड़ा होता है।” एक और बच्चे ने कहा, “मैंने चींटी के अण्डे देखे हैं। बहुत छोटे होते हैं। चींटी लेकर चलती है।” इस तरह बच्चों से अण्डों के बारे में बात होती रही। इसी क्रम में एक बच्चा बताने लगा कि उसके दादा (बड़े भाई) मछली मारने जाते हैं। एक दिन तालाब में मछली मारने में उनकी बंसी में एक कछुआ फँस गया और वे उसे घर ले आए। “उसका एक भाग तो हम लोगों ने खा लिया और उसका खोल हमने घर के ऊपर लगा दिया,” बच्चे ने बताया। मैंने पूछा, “उसको घर के ऊपर लगाने से क्या होता है?” तो पावनी ने कहा, “उससे नज़र नहीं लगती है।” मैंने पूछा, “नज़र लगना क्या होता है?” पावनी बताने लगी, “हमारी नानी बताती हैं कि नज़र लग जाती है।” मैंने पूछा, “नज़र कैसे लगती है?” पावनी कहने लगी, “जैसे कोई अच्छा दिख रहा हो तो कोई कह दे कि तुम अच्छी लग रही हो तो नज़र लग जाती है और वह बीमार पड़ जाता है।”
मैंने पूछा, “क्या तुमने किसी को नज़र लगते हुए देखा है?” तो एक बच्ची कहने लगी, “जैसे इस स्कूल को नज़र लग गई है। पहले यहाँ ज़्यादा बच्चे थे, अब बच्चे कम हो गए हैं।” मैंने कहा, “इसका कारण तो यह हो सकता है कि गाँव के पास में दूसरा स्कूल खुल गया है (एक प्राइवेट स्कूल खुला था जिससे इस स्कूल के कुछ बच्चे वहाँ चले गए थे), वह स्कूल बच्चों के घर से नज़दीक पड़ता हो, हो सकता है स्कूल में ज़्यादा सुविधाएँ हों आदि। इस तरह के कई कारण हो सकते हैं स्कूल बदलने के। इसमें नज़र लगने की बात कहाँ से आ गई?” मैंने समझाया, “इस तरह की बहुत-सी बातें हमें अपने आसपास सुनने को मिलती हैं और हम इनको सही भी मान लेते हैं परन्तु हमें उन पर सवाल भी पूछना चाहिए कि क्या वास्तव में ऐसा ही होता है।”
एक और स्कूल की घटना ध्यान में आती है। तीसरी कक्षा में शिक्षिका एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्यपुस्तक की मन करता है नामक कविता पढ़ाने के बाद, उसके अभ्यास-कार्य करवा रही थीं। शिक्षिका ने बच्चों से कहा, “जैसे हमने मन करता है कविता पढ़ी, अब वैसे ही तुम लोगों का क्या मन करता है -- उस बात को ध्यान में रखकर कविता बनाओ। उसकी लय इसी कविता की तरह रख सकते हो।” कुछ बच्चों ने अपने मन से तुकान्त कविता बनाने का प्रयास किया, परन्तु दो बच्चों की कविताओं ने चौंका दिया। एक बच्चे ने अपनी कविता में लिखा था:
मन करता है तोता बनकर
मीठे-ताज़े फल खाऊँ,
मन करता है फौजी बनकर
पाकिस्तान को मार डालूँ
और दूसरे बच्चे ने भी कुछ ऐसा ही लिखा --
मन करता है कमांडो बनकर
पाकिस्तान को मार डालूँ...
उनके लिखे हुए से समझ में आ रहा था कि पाकिस्तान को लेकर उनका तीव्र पूर्वाग्रह है और शायद यह पूर्वाग्रह उन्होंने अपने आसपास की बातचीत या टी.वी. की चर्चाओं को सुनकर बनाया होगा। ऐसा महसूस हुआ कि बच्चों से उनकी रचनाओं पर बात की जाए और पाकिस्तान के मुद्दे को समझने का प्रयास किया जाए। अगले दिन शिक्षिका के साथ मिलकर बच्चों की रचनाएँ सुनीं और उनसे बातचीत की, “आपने लिखने के अच्छे प्रयास किए हैं परन्तु कुछ बच्चों की कविताओं में पाकिस्तान की बात आ रही है। यह पाकिस्तान क्या है?” इस पर बच्चे बताने लगे, “कश्मीर की बॉर्डर पर पाकिस्तान से लड़ाई चलती रहती है। आतंकवादी हमला कर देते हैं, उसमें हमारे लोग और सैनिक मार दिए जाते हैं। इस कारण उनको भी मार देना चाहिए।” मैंने पूछा, “हमला वहाँ की सेना करती है या आतंकवादी करते हैं? पाकिस्तान में भी आतंकवादी एवं सेना के अलावा और बहुत-से लोग -- बच्चे, बूढ़े आदि रहते हैं। किसी हमले में उनका नुकसान भी हो सकता है। वे बेगुनाह हैं जैसे हमारे यहाँ के बहुत बेगुनाह मार दिए जाते हैं। तो क्या कोई मार दे तो उसे भी मार देना चाहिए या इसका कुछ और हल भी निकाला जा सकता है? हालाँकि, यह एक कठिन मुद्दा है पर इस पर विचार होना चाहिए।” गौर करने लायक बात यह थी कि ये सब बातें तीसरी कक्षा के बच्चों के साथ हो रही थीं।
विभिन्न स्कूलों में बच्चों के साथ बातचीत से ऐसा लगता है कि असल में हमारे स्कूलों में सामाजिक मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, विश्वासों व रूढ़ियों आदि को कक्षा-शिक्षण के दायरे में नहीं लाया जाता और इसे पाठ्यक्रम से बाहर ही देखा जाता है। लेकिन हमें समझने की ज़रूरत है कि अगर हम शिक्षा को बच्चों को ज़िम्मेदार व जागरूक नागरिक बनाने के रूप में देखते हैं तो इन मुद्दों को कक्षा में चर्चा के दायरे में लाना चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि बच्चों में पढ़कर समझ बनाने का भी यही मतलब है कि बच्चे पढ़ी हुई सामग्री को अपनी सोच व मान्यताओं से जोड़ते हुए, उस पर पुनर्विचार कर पाएँ।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा दस्तावेज़ 2005 यह कहता भी है कि हमारी शिक्षण प्रक्रिया में स्कूल के ज्ञान को बाहर के जीवन से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। इसके साथ ही अपनी पूर्व-मान्यताएँ जो हम अपने समुदाय से ला रहे हैं उन पर भी विचार करें और उन्हें चर्चा के दायरे में लाएँ और इसकी चिन्ता न करें कि हमें अन्तिम उत्तर दे देना है जिसे बच्चे जान लें। बहुत-से मुद्दों के कोई अन्तिम उत्तर नहीं होते। हम बच्चों में सोच-विचार का सिलसिला शुरू कर सकते हैं। शिक्षण का एक उद्देश्य यह भी है कि बच्चे प्रश्न पूछ सकें। समझ बनाने की प्रक्रिया में समय व सन्दर्भ के अनुसार बदलाव आते रहते हैं। कक्षा में प्रश्नों पर सोच-विचार करना और बच्चों से इनकी आगे पड़ताल करने के लिए कहना, शिक्षण प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है। इस प्रक्रिया में हम यह भी देख सकते हैं कि इस शिक्षण प्रक्रिया में विषय की सीमाएँ भी ढह जाती हैं और हमें चिन्ता ही नहीं रहती कि बच्चों को भाषा पढ़ा रहे हैं या पर्यावरण अध्ययन। दोनों के उद्देश्य आपस में जुड़ जाते हैं। यह बातें हमें शिक्षा के उद्देश्यों की भी याद दिलाती हैं।
कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।
सभी चित्र: निशित मेहता: महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातक। चित्रकार, लेखक और कला शिक्षक के रूप में काम किया है। वर्तमान में महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी से कला का इतिहास विषय में स्नातकोत्तर कर रहे हैं।