पारुल सोनी

जीवों में खुद को जीवित रखना खासा चुनौती भरा काम होता है। चाहे वे मनुष्य हों या जानवर, जैव-विकास के हज़ारों-लाखों सालों के सफर के दौरान खुद को ज़िन्दा रखने के लिए उनमें तरह-तरह के तरीके  विकसित  हुए  हैं।  इनमें छद्मावरण और मिमिक्री भी शामिल हैं। छद्मावरण शिकार या शिकारी से खुद को छिपाने की एक युक्ति है। जीव इस युक्ति का इस्तेमाल करते हुए अपना ठिकाना, अपनी पहचान और अपनी गतिविधियों को शिकारियों से छिपा पाते हैं। अपने परिवेश में घुल-मिल जाने के लिए अपना रंग या पैटर्न बदलना, छद्मावरण का सबसे सामान्य तरीका है। इससे शिकार को शिकारियों से बचने में मदद मिलती है और दूसरी तरफ छद्मावरण करके शिकारी जानवर अपने शिकार के आसपास ही खुद को छिपाए हुए अपनी नज़र शिकार पर रखे रहता है। दूसरी ओर, शिकारी को चकमा देने के लिए, किसी हानिकारक जीव के रंग की तरह खुद को रंग लेना, मिमिक्री कहलाता है। इस पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

छद्मावरण की युक्तियाँ   
छद्मावरण के कारण किसी भी जीव को उसके प्राकृतवास में पहचानना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। यहाँ देखते हैं कि विभिन्न जीवों में किस प्रकार की छद्मावरण युक्तियाँ पाई जाती हैं।

बैकग्राउण्ड मैचिंग
कुछ जानवरों का खुद का रंग-रूप ही छद्मावरण होता है अर्थात् उन्हें खुद को छिपाने के लिए अलग से कुछ करना नहीं होता। जैसे बर्फ में रहने वाले उल्लू और ध्रुवीय भालू सफेद रंग के होने की वजह से बर्फ से इतना मेल खाते हैं कि उनको पहचान पाना अत्यन्त मुश्किल होता है। हिरण भी इसी का एक उदाहरण है जो अपने रंग और पैटर्न की वजह से अपने आसपास के वातावरण में घुलमिल जाता है और शिकारी से खुद को बचाने में काफी हद तक कामयाब हो जाता है।

कुछ अन्य जीव ऐसे होते हैं जो अपने परिवेश की तरह दिखने के लिए खुद का रंग बदल सकते हैं। अपनी पृष्ठभूमि के रंग या आकार की तरह दिखते हुए खुद को छिपाए रखने को ‘बैकग्राउण्ड मैचिंग’ कहते हैं। इसमें जब जीव का रंग और उसकी पृष्ठभूमि का रंग एक-सा हो तो जीव अपनी पहचान छिपाने के लिए अपनी पृष्ठभूमि के पास बने रहते हैं। जैसे स्टोन फिश अपने आसपास की रेत और पत्थरों की तरह दिखने के लिए अपना रंग बदल सकती हैं। वे समुद्र के निचले तल पर   बिना हिले-डुले ऐसे पड़ी रहती हैं मानो  पत्थर रखे हुए हों।

काउण्टरशेडिंग   
बैकग्राउण्ड मैचिंग का एक और तरीका होता है जिसे काउण्टरशेडिंग कहते हैं। अधिकतर जानवर ऊपर से गहरे रंग के होते हैं और निचली सतह पर हल्के रंग के। चूँकि गहरे रंग में रोशनी समाहित हो जाती है इसलिए जब उनके ऊपर सूरज की रोशनी पड़ती है तब वे काउण्टरशेडिंग की वजह से कम दिखते हैं। शार्क में इस तरह का छद्मावरण देखने को मिलता है। शार्क की ऊपरी सतह गहरे रंग की होती है। जब उनके ऊपर रोशनी पड़ती है तो उन्हें तलाश कर पाना मुश्किल होता है जिस वजह से वे मछुआरों का शिकार होने से बच जाती हैं। इनकी निचली सतह हल्के रंग की होने की वजह से, वे पानी की हल्के रंग की सतह में भी आसानी-से नहीं दिख पातीं। इस वजह से शार्क के शिकार को शार्क की मौजूदगी का एहसास तब तक नहीं होता जब तक कि वो अपने शिकार के एकदम पास न आ जाए।

शरीर के आकार द्वारा छद्मावरण
छद्मावरण का एक और तरीका होता है जिसमें जीव अपने शरीर की डिज़ाइन के पैटर्न द्वारा अपनी पहचान छिपा सकते हैं। इस वजह से शिकारी अपने शिकार को देखते हुए भी उसे पहचान नहीं पाते। बहुत-से जानवर खासकर छोटे जीवों में छद्मावरण न हो तो शिकारी द्वारा उनको आसानी-से पहचान लिया जाएगा।

कुछ ऐसे जीव होते हैं जिनका भेष पत्ती के जैसा होता है। इसमें जब तक वॉकिंग लीफ के छद्मावरण की बात न हो तब तक बात अधूरी रहती है। दक्षिण एशिया से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक पाया जाने वाला यह कीट बिलकुल पत्ती की तरह दिखने की वजह से अपने शिकारी को अच्छा चकमा देता है। वॉकिंग लीफ पत्ती की तरह हरा होता है और इसका शरीर, पंख और टाँगें बेडौल होती हैं। इसके शरीर के किनारे को देखकर ऐसा लगता है मानो किसी इल्ली ने पत्ते को कुतरा हो। इतना ही नहीं, जब यह हिलते हुए चलता है तो लगता है कि पत्ता हवा में हिल रहा है। कुल मिलाकर, यह पत्ती से इस कदर मेल खाता है कि उसे पहचानना लगभग असम्भव-सा होता है।

कुछ अन्य छद्मावरण 
कुछ तरह के जीव रंग बदलकर छद्मावरण नहीं करते बल्कि अपने आसपास की प्राकृतिक चीज़ों को खुद के ऊपर चिपका लेते हैं ताकि वे अपने शिकार व शिकारियों से बचकर रह सकें। रेगिस्तान में रहने वाली कई मकड़ियाँ इस तरह के छद्मावरण को अपनाती हैं। वे अपने परिवेश में घुलमिल जाने के लिए अपने शरीर पर रेत चिपका लेती हैं। इस वजह से उनके करीब आ रहा शिकार अपनी शिकारी मकड़ी को नहीं पहचान पाता और उसका भोजन बन जाता है।

 

कुछ जीवों में रंगों का प्रदर्शन खुद को छिपाने के लिए नहीं बल्कि खुद को विशिष्ट रूप से दर्शाने के लिए  होता है। इसको ‘एपोसेमेटिज़्म’ कहते हैं, मतलब शिकारी को चेतावनी देने के लिए भड़कीले रंगों का खास प्रदर्शन। ये रंग शिकारी को शिकार के ज़हरीले होने का संकेत देते हैं। जैसे मोनार्क तितली के केटरपिलर के शरीर पर मौजूद भड़कीला पीला, काला व सफेद रंग और वयस्क के शरीर पर नारंगी, काला व सफेद रंग यह दर्शाता है कि वे ज़हरीले हैं। मोनार्क तितली के केटरपिलर सिर्फ मिल्कवीड की पत्तियाँ ही खा सकते हैं और इनका ज़हर मोनार्क तितली के शरीर में बना रहता है। इसलिए मोनार्क तितली और उनके केटरपिलर अपने शिकारी पक्षियों के लिए ज़हरीले होते हैं। पक्षी इनको खाने से मरते तो नहीं हैं पर उनको उल्टी ज़रूर हो जाती है।

मिमिक्री   
मिमिक्री में हानिरहित जीव शिकारी से खुद को बचाने के लिए किसी ज़हरीले, हानिकारक या गंदे स्वाद वाले जीव की तरह नकल करने लगते हैं। इस तरह का छद्मावरण तितली, पतंगे और साँपों में देखा जा सकता है। जैसे वाइसरॉय तितली खुद को शिकारियों से बचाने के लिए ज़हरीली मोनार्क तितली के आकार और आकृति की नकल करती है।

इसके अलावा बहुत-सी तितलियों के पंखों के ऊपर गोल आँखों के आकार के धब्बे होते हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ये किसी बड़े जीव की आँखें हैं। ये धब्बे इन तितलियों के शिकारी को भ्रमित कर देते हैं और तितलियाँ शिकार होने से बच जाती हैं।
इस तरह जीव विभिन्न प्रकार से मिमिक्री करके खुद को शिकार होने से कई बार बचा लेते हैं।

कैसे होता है छद्मावरण?  
जीवों में छद्मावरण कई तरीकों से होता है। कुछ जीवों में बायोक्रोम नाम के सूक्ष्म रंजक होते हैं जो लाइट की कुछ खास तरंगों को सोख लेते हैं और बाकी की तरंगों को प्रतिबिम्बित कर देते हैं। जिन जीवों में बायोक्रोम होते हैं वे जीव अपने शिकार और शिकारियों से बचने के लिए अपना रंग बदल सकते हैं।

इसके अलावा कुछ जीवों में ऐसी सूक्ष्म संरचनाएँ होती हैं जिससे रोशनी प्रतिबिम्बित भी होती है और फैलती भी है। इस वजह से वह रंग उत्पन्न होता है जो इस तरह का छद्मावरण कर रहे जीव के रंग से भिन्न होता है।

ध्रुवीय भालू का दिलचस्प उदाहरण देखते हैं। ध्रुवीय भालू के फर यानी शरीर के बाल पारभासी होते हैं। जब चमकते सूरज की रोशनी बर्फ की सतह पर पड़ती है तो बर्फ अधिकतर रोशनी को प्रतिबिम्बित कर देती है जिस वजह से बर्फ सफेद दिखती है। इसी प्रकार जब ध्रुवीय भालू पर रोशनी पड़ती है तो उनके बाल बर्फ की तरह ही सूरज की रोशनी को प्रतिबिम्बित करते हैं और ध्रुवीय भालू सफेद दिखते हैं। इस तरह के छद्मावरण से ध्रुवीय भालू अपने बर्फीले सफेद परिवेश में मिल जाते हैं जिस वजह से उनको शिकारियों से बचने में मदद मिलती है।

मौसम बदला, रंग बदला

कुछ जीवों में मौसम बदलने पर भी छद्मावरण होता है। इसका एक मज़ेदार उदाहरण है स्नो शू हेयर। उत्तरी ध्रुव के कठिन वातावरण में रहने वाला, खरगोश के कुल का एक जानवर। हेयर दिखने में खरगोश से थोड़े भिन्न होते हैं और खरगोश से बड़े भी होते हैं। कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी स्नो शू सुप्तावस्था में नहीं जाते बल्कि कुछ व्यवहारिक और शारीरिक रूपान्तरणों के साथ उस खतरनाक ठण्ड में भी जीवित रहते हैं। स्नो शू की अनूठी विशेषता यह है कि गर्मी और वसन्त ऋतु में ये भूरे-कत्थई रंग के होते हैं पर शीत ऋतु में ये सफेद रंग के हो जाते हैं। कान से शुरू होते हुए स्नो शू हेयर के फर ऊपर से नीचे की ओर सफेद होने लगते हैं और गर्मियों में यही प्रक्रिया उल्टी दिशा में होनी शुरू हो जाती है। लगभग दो महीनों में ये प्रक्रिया पूरी हो जाती है। लेकिन इतना बड़ा परिवर्तन होता कैसे है? ऐसा लगता है कि शायद दिन के छोटे और बड़े होने से इसका सम्बन्ध है। स्नो शू निशाचर जीव होते हैं तो इस हिसाब से वे सर्दियों में (जब रातें लम्बी होती हैं) गर्मियों की तुलना में (जब रातें छोटी होती हैं) ज़्यादा सक्रिय होते हैं। स्नो शू के रेटिना में मैलेनॉप्सिन नाम का एक प्रकाश संवेदी पिग्मेंट होता है जो उसके फर के बालों की कोशिकाओं में मैलेनिन उत्पन्न करता है जिससे स्नो शू को उसका कत्थई रंग मिलता है। जब दिन छोटे होते हैं मतलब सर्दियों में, तब उनकी आँखों पर कम समय के लिए रोशनी पड़ती है। रैटीना द्वारा यह जानकारी स्नो शू के दिमाग तक पहुँचती है। मैलेनॉप्सिन से युक्त कोशिकाओं द्वारा दिमाग में मैलेनिन का निर्माण करने वाली कोशिकाओं तक कम उत्तेजना प्राप्त होने की वजह से मैलेनिन का निर्माण धीमा हो जाता है। इस तरह स्नो शू का फर आवरण सफेद हो जाता है। जब दिन लम्बे होते हैं और रातें छोटी मतलब गर्मियों में, तो मैलेनॉप्सिन से युक्त कोशिकाएँ दिमाग में मैलेनिन का निर्माण करने वाली कोशिकाओं को उत्तेजित करती हैं जिससे उनके फर कत्थई हो जाते हैं।

सर्दियों के दौरान, स्नो शू अपने सफेद आवरण की वजह से अपने परिवेश की बर्फ में घुल-मिल जाते हैं जिससे शिकारी से बचने में मदद मिलती है। और गर्मियों में उनके कत्थई रंग की वजह से उनका छद्मावरण पत्थरों के रंग की तरह हो जाता है।

अन्त में   
शिकारी को तब तक खुद को छिपाना है जब तक कि वो अपने शिकार को मारने के लिए पर्याप्त रूप से पास न पहुँच जाए। जब बहुत तरह के शिकारी एक ही तरह के जीव का शिकार करेंगे तो ज़ाहिर है कि लाभ उनको मिलेगा जिनको आसानी-से पहचाना न जा सके। इसके विपरीत, शिकार को खुद को अपने शिकारी द्वारा खाए जाने से बचाना है। जो जीव ज़्यादा साफ तरीके से दिखेगा, उसका शिकार पहले होने की सम्भावना होगी। मतलब जो खुद को छिपाने में कामयाब रहा, उसे एक दिन और जीने का मौका मिलेगा। और दोनों ही मामलों में, तब तक उनके द्वारा सन्तान उत्पत्ति भी होती रहेगी।

कुल मिलाकर शिकार और शिकारी, दोनों में ही छद्मावरण का इस्तेमाल होता है। हालाँकि, छद्मावरण कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसकी जीव इच्छा रखते हों, बल्कि उनको तो शायद मालूम भी न हो कि उनमें इतने विभिन्न तरह के छद्मावरण होते हैं। जैव-विकास की प्रक्रिया के दौरान जीवों में प्राकृतिक तौर पर पाई जाने वाली विविधता की वजह से कुछ जीवों में ऐसी क्षमताएँ विकसित हो जाती हैं। जो जीव ऐसी क्षमताओं के कारण ज़्यादा समय जीवित रहकर ज़्यादा सन्तान पैदा कर पाते हैं, उनके ज़रिए उस आबादी में ये क्षमताएँ बढ़ती जाती हैं। और इस तरह ऐसी क्षमताएँ किसी आबादी में फैलती जाती हैं।


पारुल सोनी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।