जय शंकर चौबे

बातचीत एक ज़रिया है जिसके माध्यम से बच्चों की कल्पनाओं, सोच आदि को विस्तार दिया जा सकता है। बातचीत से बच्चों को अभिव्यक्ति के मौके तो मिलते ही हैं, साथ ही उनके अन्दर आत्मविश्वास भी बढ़ता है। पढ़ने-लिखने के लिए भी एक ज़मीन तैयार होती है। बच्चों के पूर्व अनुभवों को कक्षा में तवज्जो मिलने पर सीखने की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है। सीखने का एक सरल-सा मतलब यह भी होता है कि उनके अनुभवों का विस्तार हो।

यह  निर्विवाद  सत्य  है  कि  भाषा का ज्ञान मौखिक उच्चारित भाषा से ही प्रारम्भ होता है और बच्चा इसे सुनकर-बोलकर सीखता है। हम अपने दैनिक जीवन में मौखिक भाषा का ही अधिकाधिक प्रयोग करते हैं। स्कूली दिनचर्या में प्रवेश के समय हर बच्चे के पास मौखिक भाषा के रूप में एक अनुभवजनित पूँजी होती है। यानी यह स्पष्ट होना चाहिए कि भाषा शिक्षण की कक्षा में बातचीत की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना अत्यन्त उपयोगी होगा ताकि बच्चे विवेकपूर्ण रूप से सुन सकें और प्रभावी रूप से अपनी बात रख सकें। बातचीत, पढ़ना-लिखना सीखने के बुनियादी कौशलों को आधार देती है। साथ ही हमारे सोचने के तरीकों में भी धार लाती है।

शैशवावस्था के दौरान लर्निंग यानी सीखने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया होता है, बातचीत। बातचीत के ज़रिए अपने आसपास की चीज़ों को बारीकी एवं गहराई से जानने का प्रयास लगातार जारी रहता है। यहाँ हम बच्चों के साथ भाषा की कक्षा के लिए उपयुक्त बातचीत की प्रक्रियाओं व ज़रूरतों को साझा करने की कोशिश करेंगे।

कक्षा में बातचीत का उद्देश्य
कक्षा में औपचारिक बातचीत का मतलब किसी निश्चित उद्देश्य के साथ बातचीत करना होता है।
बातचीत के ज़रिए बच्चों को अभिव्यक्ति के मौके दिए जाते हैं और इससे उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है, साथ ही पढ़ना-लिखना सीखने के लिए एक ज़मीन भी तैयार होती है।
बातचीत के ज़रिए बच्चों में पढ़ने-लिखने के कौशल के विकास की गुंजाइश उभरती है। धीरे-धीरे इस बातचीत से लेखन भी विकसित होता है।

कक्षा में बातचीत को प्रधानता देने का एक और फायदा है कि इससे शिक्षक व बच्चे के बीच की दूरी कम होती है। शिक्षक व छात्र के रिश्ते को  प्रगाढ़ बनाने में कक्षा में बातचीत एक आवश्यक प्रक्रिया के रूप में दिखाई देती है। इससे शिक्षक को बच्चों के बारे में नज़दीक से जानने के मौके भी मिलते हैं।   
इसके अलावा बातचीत आकलन का एक अच्छा टूल (उपकरण) भी है। यानी बातचीत के दौरान सामने वाले की प्रतिक्रिया से, उसके सोचने-समझने के बारे में पता चलता है -- उसके तर्क क्या हैं, सोचने की दिशा क्या है,  बातचीत के साथ वह कैसे जुड़ पा रही है इत्यादि।

बातचीत के बारे में मान्यताएँ
शिक्षक साथियों से चर्चा के दौरान अक्सर सुनने को मिलता है कि बातचीत तो बच्चे आपस में करते ही रहते हैं, ज़रूरत है ध्यान-से पढ़ाई करने की। अक्सर बातचीत को शोरगुल या गप का पर्याय माना जाता है। शायद इसीलिए कक्षाओं में ‘बातचीत’ को तवज्जो नहीं मिल पाती है। दूसरी ओर, बातचीत के बारे में ऐसी मान्यताएँ भी हैं कि बच्चों में सुनने व बोलने की दक्षता प्राकृतिक रूप से मौजूद है। इस पर काम करने या ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। यह स्वत: विकसित होती रहेगी।

ऐसा आभास होता है कि एक शिक्षक के रूप में हम किसी भी विषय में निर्णयात्मक तरीके अपनाने के आदी हैं। कई बार यह भी लगता है कि चीज़ों को सही रूप में उभारने के लिए बच्चों के समक्ष सही सवाल रखना ज़रूरी होता है। अमूमन सवाल किसी मसले को समझने में या बातचीत को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं। हम अक्सर पारिभाषिक शब्दावली या सुविचारित अर्थ की कसौटी पर खरा उतरने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। इससे भी कक्षा में बातचीत को उचित स्थान नहीं मिल पाता है। जब शिक्षक भाषा सिखाने की बात करते हैं तो पढ़ना-लिखना सिखाना यानी प्रतीकों की पहचान या प्रतीकों-लिपि को लिखने का अभ्यास एक मुख्य चुनौती के रूप में उभरकर सामने आता है। सरकारी स्कूल हों या तथाकथित अच्छे स्कूल की उपाधि प्राप्त प्राइवेट स्कूल, बातचीत की औपचारिक प्रक्रिया कक्षा-शिक्षण में शामिल कम ही दिखती है।

हमें यह भी समझना होगा कि कक्षा में  बच्चों के साथ बातचीत और अन्य परिवेश में होने वाली बातचीत में थोड़ा फर्क है। आम तौर पर कक्षा के  बाहर  होने  वाली  बातचीत अनौपचारिक होती है। इसमें सामान्यत: एक तरह की बातचीत में दूसरी बात भी शामिल होती रहती है जिससे एक विषय-वस्तु पर व्यवस्थित बातचीत कम हो पाती है। पर इसकी भी अपने-आप में महत्ता है। यदि हम सहजता के साथ अपने आसपास बच्चों के बीच होने वाली बातचीत का अवलोकन करें या मिसाल के तौर पर साहित्य में जैसे ईदगाह कहानी में हामिद और उसके दोस्तों के बीच वार्तालाप पर गौर फरमाएँ, तो इसके बेहतर उदाहरण  सुनने-पढ़ने को मिल सकते हैं। दूसरी तरफ कक्षा में बातचीत का मतलब भाषा शिक्षण की दृष्टि से एक व्यवस्थित एवं सायास प्रयास से है। इसमें किसी विषय-वस्तु के ज़रिए भाषा शिक्षण के कौशलों को विकसित करने का प्रयास होता है। लेख में आगे प्रस्तुत सांकेतिक उदाहरणों के ज़रिए दो तरह की परिस्थितियों में फर्क एवं सम्भावनाओं को उभारने की कोशिश की गई है।

कक्षा में बातचीत की झलक
उदाहरण 1- प्राार्थना सभा के बाद बच्चे दौड़कर या लाइनों में अपनी-अपनी कक्षा में प्रवेश करते हैं। बच्चे खुश व उत्साहित नज़र आ रहे हैं। लगभग सभी स्कूलों की तरह यहाँ भी भाषा (हिन्दी) शिक्षण पहले पीरियड से ही शुरू होता है। एक कक्ष में 16 बच्चे मौजूद हैं। कक्षा पहली व दूसरी में बोर्ड पर लिखे अक्षर पहचानने व लिखने का काम शुरू होता है। दूसरे कक्ष में तीसरी, चौथी व पाँचवीं के 15 बच्चे एक साथ बैठे हैं। इन्हें तीसरी कक्षा की भाषा पाठ्य-पुस्तक से इमला लेखन करवाया गया और बाद में बच्चों को पाठ्यपुस्तक में दिए प्रश्नों के उत्तर लिखने का काम दिया गया।

कक्षा एक में अक्सर बच्चों के शोरगुल के बीच कई बार एक ही आवाज़ सुनाई देती है। “बच्चों... शान्त हो जाओ...”, “अच्छे बच्चे कैसे होते हैं?” फिर सभी बच्चे अपने-अपने मुँह पर अंगुली रखते हैं। कक्षा में कुछ देर तक सन्नाटा छा जाता है। बच्चे अपनी-अपनी कॉपी निकालते हैं। ब्लैक बोर्ड पर कुछ अक्षर/शब्द लिखने का काम होता है। फिर कुछ शोर होता है। पुन: बच्चों को शान्त होने के लिए कहा जाता है। फिर बच्चे अपनी कॉपी में लिखते हैं। लिखे हुए को जाँचा जाता है। इसके बाद शिक्षिका द्वारा एक कविता भी करवाई जाती है।

शुरुआती कक्षाओं में लिखना सिखाने पर ज़्यादा ज़ोर होता है। फिर भी यह किसी-न-किसी रूप में चुनौती के रूप में बना रहता है। ऐसा क्यों होता है? कहीं पढ़ना-लिखना सीखने   में   मददगार ‘बातचीत’ की प्रक्रिया को कक्षा में नज़रअन्दाज़ तो नहीं कर दिया जाता? आगे बातचीत में यह भी समझ में आया कि कभी-कभार कविताओं या कहानियों को बच्चों या शिक्षकों द्वारा कक्षा में सुनाने का काम तो किया जाता है पर इस पर पर्याप्त बातचीत नहीं हो पाती है।

उदाहरण 2- कक्षा एक व दो में  कुल 21 बच्चे हैं। शिक्षिका ने लालू और पीलू कहानी सुनाकर उस पर बातचीत की। लालू और पीलू एक मुर्गी व उसके दो चूज़ों की कहानी है जिसमें एक चूज़ा जिसका नाम लालू है, उसे लाल चीज़ें बहुत पसन्द हैं। एक दिन वह मिर्च के पौधे पर लगी लाल मिर्च खा लेता है। मिर्च खाने के बाद जैसा कि आम तौर पर सबके साथ होता है, लालू की भी जीभ जलने लगी। लालू रोने लगा। लालू की मुर्गी माँ दौड़ी आई। उसका भाई पीलू भी घर की ओर भागा और घर में से वह पीले-पीले गुड़ का टुकड़ा ले आया। लालू ने झट-से गुड़ खाया और उसकी जलन ठीक हो गई। अन्त में मुर्गी माँ ने लालू और पीलू को बहुत प्यार दिया।

इस कहानी पर बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार से हैं...
शिक्षिका: कहानी कैसी लगी?
बच्चे: अच्छीईईई...
शिक्षिका: कहानी में कौन-कौन था?
बच्चे: लालू-पीलू और मुर्गी।
शिक्षिका: मुर्गी कितने लोगों ने देखी है?
8 बच्चों ने हाथ खड़े किए।

एक बच्चा: मेरे घर पर आठ मुर्गे हैं। जब कोई लेने आता है तो पापा उसे बेच देते हैं। एक लाल मुर्गा भी है। पापा को उसे बेचने को मना किया है। जब उसे पकड़ने जाता हूँ तो वह कूँ-कूँ करके दौड़ता है। उसके साथ दौड़ने में मज़ा आता है।
शिक्षिका: लालू को खाने में क्या पसन्द था?
बच्चे: लाल चीज़ें।

शिक्षिका: लाल रंग की खाने की और क्या चीज़ें हो सकती हैं?
बच्चे: सेब, टमाटर, गाजर, अनार, तरबूज़, मिर्च, लीची, बालूशाही, मोतीचूर के लड्डू, कुल्फी, आइसक्रीम, जामुन, गुलाब जामुन, प्याज़, बेर, स्ट्रॉबेरी, जलेबी, इमरती, मक्का, इमली...।
शिक्षिका: पीले रंग की खाने की चीज़ों का नाम बताइए जो आपको पसन्द हैं।
बच्चे: सन्तरा, आम, केला, लड्डू, टॉफी, नमकीन, बिस्कुट, अंगूर, पपीता, पराठा।

शिक्षिका: क्या कभी आपको भी मिर्च खाने के बाद जलन हुई है? यदि हाँ, तो आपने क्या किया था?
कई बच्चों ने हाथ उठाए और अपने-अपने अनुभव सुनाने लगे। कई बच्चे बोले कि “मैम, पानी पी लिया, चीनी खाई, मम्मी ने दो कौर और खाना खिला दिया और ठीक हो गया” इत्यादि।
शिक्षिका बच्चों द्वारा बताए खाने की चीज़ों के उदाहरणों को सलीके-से बोर्ड पर लिखती गईं। शिक्षिका ने इन खाने वाली चीज़ों पर बाद में बात की। फिर कहानी से जुड़ा अपनी पसन्द का चित्र बनाने को कहा।

सुनने-सुनाने के मौके/गतिविधियाँ  
बातचीत के लिए ज़रूरी है सुनना। सुनना भी एक ध्यान-क्रिया है जिसे धैर्य के साथ करना होता है। कक्षाओं में अक्सर यह देखा गया कि जो बच्चा ध्यान से सुन रहा था, वह शिक्षिका के साथ बातचीत में भी शामिल हो रहा था। इसलिए ऐसा लगता है कि यदि हम सुनेंगे तो उस बात में या उस विचार के साथ संलिप्त भी होंगेे। बशर्ते कि केवल निष्क्रिय श्रोता बनकर न सुनना पड़े। सुनना सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि बड़ों के लिए भी ज़रूरी है। सुनने का धैर्य हम बड़ों में भी कम होता है। यही कारण है कि जब किसी कार्यशाला में हमें सुनने की ज़रूरत पड़ती है यानी लगातार ध्यान देना पड़ता है तो हम उस विचार के साथ नहीं जुड़ पाते।

बातचीत का मतलब सुनना और उस पर सोचकर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करना है। कक्षा में यह देखा गया है कि जो शिक्षक बच्चों के साथ पाठ्यपुस्तक के अलावा भी बातचीत करते हैं, उन कक्षाओं में शिक्षक व बच्चों के बीच एक आत्मीय सम्बन्ध की झलक दिखती है। यदि हम चाहते हैं कि बच्चों को अभिव्यक्ति के भरपूर मौके मिलें और उनमें आत्मविश्वास भी विकसित हो तो भाषा की कक्षा में कविता-कहानी  सुनाना,  उस  पर बातचीत करना या बच्चों के अनुभवों को सुनना, साथ ही आसपास की घटनाओं पर अपनी बात रखने के मौके देना ज़रूरी है। कुछ गतिशील भावयुक्त चित्र हों जिन पर पर्याप्त बातचीत की सम्भावना हो। बाल साहित्य को पढ़ने के मौके दिए जाएँ। कभी खुद किताब पढ़कर सुनाना, उस पर बातचीत करना इत्यादि के मौके भी हमें तलाशनेे होंगे। इसके लिए शुरुआती कक्षाओं में बातचीत का एक पीरियड भी रखा जा सकता है। इससे बच्चों को और नज़दीक से जानने-समझने का मौका मिलता है और उसके अनुरूप कक्षा में नए क्रियाकलाप सोचने और गढ़ने में मदद मिलती है।

निष्कर्ष
इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि स्कूल आने के पूर्व किसी भी बच्चे के  सीखने  का  महत्वपूर्ण  ज़रिया ‘बातचीत’ होती है। इस आधार को इस्तेमाल करते हुए कक्षा शिक्षण में आगे के सफर को कैसे गढा जाए, इस पर विचार करने की ज़रूरत है। बातचीत करके ही बातचीत करना भी सीखते हैं, और सोचना भी सीखते हैं। चीज़ेंें ऐसी क्यों हैं या किसी समस्या का समाधान कैसे होगा, इस बात को भी बातचीत के ज़रिए सहजता से उभारा जा सकता है या समझा जा सकता है। इससे बच्चों की जिज्ञासाओं को भी तवज्जो मिलती है। कक्षा में ऐसी गतिविधियों का आयोजन हो जो ‘अनुभव से सीखने’ की प्रक्रिया पर आधारित हों। बातचीत के दौरान बच्चों को अपने अनुभवों को प्रस्तुत करने के मौके मिल रहे हों। यदि बच्चों के अनुभवों का इस्तेमाल उनके सीखने में हो यानी उनकी सोच का विस्तार करने में हो तो ज़्यादा कारगर व स्वाभाविक  सीखने-सिखाने  की सम्भावना रहती है।


जय शंकर चौबे: सन् 2000 से विभिन्न संस्थाओं जैसे बाल अधिकार परियोजना, नालंदा व बोध शिक्षा समिति के साथ मिलकर काम करना शु डिग्री किया। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।

सभी चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं।

सन्दर्भ:

  1. ब्रिटन जेम्स (2006), भाषा और अधिगम, ग्रन्थ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली।
  2. एन.सी.ई.आर.टी. (2007), आकलन स्रोत पुस्तक, नई दिल्ली।