कमलेश चन्द्र जोशी

बच्चों के लिए पढ़ना सीखना एक महत्वपूर्ण कौशल हासिल करना है और सोचने वाली बात यह है कि हमारे स्कूलों के अधिकतर बच्चे पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी समझकर पढ़ने का कौशल हासिल नहीं कर पाते। इसका परिणाम यह होता है कि वे आगे की कक्षाओं में अन्य विषयों में भी पिछड़ जाते हैं। वे कक्षा के अनुरूप अकादमिक क्षमताएँ हासिल नहीं कर पाते और इसके चलते कई तो बिना पढ़ाई पूरी किए ही स्कूल से बाहर हो जाते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जिसमें बच्चों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, स्कूल में पढ़ना सिखाने के तरीके, शिक्षक की भूमिका आदि महत्वपूर्ण हैं।

वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य में यह आवश्यक लगता है कि इस पहलू पर प्राथमिक कक्षाओं में सुनियोजित ढंग से काम किया जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि कक्षाओं में पढ़ने का माहौल हो, पढ़ने के लिए उपयुक्त सामग्री हो व नियमित रूप से पढ़ने के मौके हों। साथ ही शिक्षक बच्चों के पढ़ने में सहयोगी की भूमिका निभाए। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऊधमसिंह नगर के कुछ स्कूलों में बच्चों के स्तर पर काम करने के लिए उनके स्तर की कुछ सुरुचिपूर्ण सामग्री इकट्ठी की गई। कुछ स्कूल में उपलब्ध सामग्री जैसे, एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा विकसित बरखा पुस्तकमाला की पुस्तकें, पुस्तकालय की कुछ अन्य पुस्तकें आदि के साथ काम की योजना बनाई गई। इस सम्बन्ध में कई शिक्षकों से भी बात की गई। इसी उद्देश्य को लेकर कुछ स्कूलों में बच्चों के साथ पढ़ने को लेकर हुए अनुभवों को इस आलेख में साझा किया जा रहा है।

सितारगंज ब्लॉक के एक प्राथमिक विद्यालय में तीसरी, चौथी व पाँचवीं के बच्चों के साथ कक्षा में बातचीत व उनकी पढ़ने की प्रकियाओं में देखने को मिला कि कुछ बच्चे तो एक भी शब्द नहीं पढ़ पा रहे थे। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पाँचवीं कक्षा में पाँच-छ: बच्चों को अक्षरों को पहचानने में भी दिक्कत आ रही थी। कुछ बच्चों को पढ़ने की सामग्री दी गई तो उन्होंने केवल चित्र देखकर ही बताया, “बन्दर की पूँछ पर गिलहरी झूला झूल रही है।” जब उनसे पूछा कि यह कहाँ पर लिखा है तो वे कुछ भी बताने में असमर्थ रहे। इससे एहसास हुआ कि ये बच्चे पढ़ने की बहुत शुरुआती पायदान पर ही हैं। यहाँ तक कि एक बच्ची ने पूछा, “यह कहानी कहाँ से शु डिग्री हो रही है?” बच्चों के पढ़ने के दौरान यह भी देखने को मिला कि जो बच्चे अटक-अटक कर पढ़ते हैं उनका पूरा ध्यान पढ़े जाने वाले शब्दों पर ही रहता है। पढ़ते समय बच्चों का ध्यान चित्रों पर बिलकुल भी नहीं होता। इसका कारण यह भी हो सकता है कि उन्हें कभी इस तरह के अनुभव ही न मिले हों जिसमें चित्रों के साथ पाठ को देखने की बात होती हो। बच्चों को बातचीत के दौरान यह सुझाव दिया गया कि पाठ पढ़ते हुए वे चित्रों को भी देखें कि उनमें क्या-क्या बना हुआ है, क्या-क्या हो रहा है और उन्हें पाठ से जोड़ने की कोशिश करें।

सन्दर्भ में पढ़ना
शुरुआती पाठकों के लिए यह भी ज़रूरी नहीं कि वे हर शब्द को वैसा ही पढें जैसा पाठ में लिखा गया है। पढ़ने के दौरान वे अर्थ बनाने के उद्देश्य से अपने आप शब्द भी जोड़ लेते हैं जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि पढ़ना एक सक्रिय व अर्थवान प्रक्रिया है जिसमें पाठक पाठ का अर्थ बनाने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए रोशनी बरखा पुस्तकमाला की पुस्तक ‘रानी भी’ किताब को पढ़ते हुए ‘रमा ने चप्पल पहन ली’ की बजाए ‘रमा ने चप्पल पहनी’ पढ़ रही थी। त्रिकान्त ‘लालू पीलू’ को पढ़ते हुए ‘मुर्गी के दो चूज़े हैं’ की बजाए, ‘मुर्गी के दो बच्चे हैं’ पढ़ रहा था। ‘फूली रोटी’ किताब में एक बच्चे ने ‘जमाल रोटी बेलने लगा’ की जगह ‘जमाल रोटी बनाने लगा’, ‘रोटी बना रही है’ की जगह ‘रोटी पका रही है’, ‘खूब आटा लगाया’ की जगह ‘खूब आटा डाला’ पढ़ा।

कुलदीप जो अभी पढ़ना सीख रहा है, उसके घर में पंजाबी भी बोली जाती है। वह ‘फूली रोटी’ किताब में ‘लोई’ शब्द को ‘पेड़ा’ पढ़ रहा था व ‘कटोरी’ को ‘कोली’ पढ़ रहा था। इसी तरह ‘तोता’ वाली किताब में ‘काजल ने पानी और अमिया वहाँ सरका दिए’ की जगह ‘काजल ने पानी और अमिया वहाँ रख दिए’ पढ़ा। इन उदाहरणों से इस बात का एहसास मिलता है कि बच्चों के इस तरह पढ़ने से उन्हें अर्थ बनाने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। बच्चे अनुमान लगा रहे थे और यह भी पता चल रहा था कि पढ़ने की साइकोलिंग्विस्टिक प्रक्रियाएँ काम कर रही हैं। इसमें बच्चे अर्थ निर्माण के लिए पुस्तक में लिखे शब्दों को अपने घर-परिवेश के शब्दों से जोड़कर पढ़ने की कोशिश करते हैं।

बच्चों के साथ हुई बातचीत से यह भी एहसास हुआ कि कक्षा में बच्चों को किस तरह पढ़ाया जाता है। शायद बच्चों से यह अपेक्षा रहती है कि वे शब्दों को ज्यों का त्यों याद कर लें। तीसरी कक्षा के बच्चों से ‘बरखा सीरीज़’ की पुस्तकों के सम्बन्ध में बात चल रही थी। जब उनसे बोला गया कि जो किताब पढ़ी है उसके बारे में बताएँ तो बच्चों का कहना था, “पूरी किताब सुनानी है? पूरी याद नहीं है।” इसके साथ यह भी पता चलता है कि बच्चों से पाठ या किताब पर बहुत ज़्यादा बातचीत नहीं की जाती।

पाठ्य को बच्चों के अनुभव से जोड़ना
एक अन्य स्कूल में कक्षा के अवलोकन के दौरान यह देखने को मिला कि वहाँ बोर्ड पर पोस्टर लगाकर ‘ऊँट चला भई ऊँट चला’ कविता पर बातचीत हो रही थी। शुरुआत में बच्चों के पूर्व-अनुभव से जोड़ कर बातचीत की गई। कविता गाई गई पर जब कविता के अन्त में बच्चों से पूछा गया कि इस कविता में क्या बताया जा रहा है तो बच्चों का कहना था, “पढ़ना है, उतारना है, लिखना है” आदि। बच्चों के जवाब से यह समझ में आया कि कविता को माध्यम बनाकर भी बच्चों के साथ सिर्फ अत्यन्त सीमित प्रक्रिया ही की जाती है। उस पर कोई बातचीत नहीं होती और न ही इस पर समझ बनाने जैसे काम किए जाते हैं।

इसके विपरीत यह भी देखने को मिला कि बच्चों को सोचनेे के मौके देने पर वे समझने का प्रयास करते हैं। कक्षा-3 के बच्चों को बरखा सीरीज़ की किताब ‘तोता’ पढ़ाने के दौरान जब पूछा गया कि तोता क्यों डर गया था, तो एक बच्चे ने कहा, “तोते को चोट लग गई थी।” आगे जब पूछा गया कि चोट कैसे लगी होगी (इसका सन्दर्भ किताब में नहीं था) तब बच्चे सोच में पड़ गए। कुछ देर बाद एक बच्चे ने कहा, “इसको किसी ने मारा होगा।” दूसरा बच्चा बोला, “गुलेल से मारा होगा। लोग गुलेल से चिड़िया मारते हैं।” फिर एक बच्चे ने कहा, “जी, इसका भाई भी गुलेल चलाता है।” इस चर्चा का उल्लेख करने का आशय है कि कक्षा में इस तरह के मौके देने से ही बच्चे किताब को समझ के साथ पढ़ने की कोशिश करते हैं। इस तरह के प्रयासों के लिए किताब के सन्दर्भ को बच्चों के अनुभवों से जोड़ना पड़ता है। इसे और उदाहरणों से समझ सकते हैं- कक्षा-3 में पढ़ने वाले त्रिकान्त ने बरखा सीरीज़ की किताब ‘छुपन-छुपाई’ पढ़ते हुए बताया कि इस किताब में ‘बारी आने’ की बात कही गई है, इसे हम चोर बनना कहते हैं। इसी तरह किताब में ‘धप्पा’ कहा गया है इसे हम ‘धप्पी’ या ‘टीप’ कहते हैं। इसके बाद जब उससे और बात हुई कि तुम भी यह खेल खेलते हो तो उसने कहा, “हाँ, अभी छुट्टी के बाद खेलेंगे।” फिर आगे उसने यह भी बताया कि एक बार खेलने के दौरान मैं मकान की छत पर छुप गया था और मुझे कोई नहीं ढूँढ़ पाया।

बच्चों के पढ़ने की समझ पर गौर करते हुए यह भी समझ में आया कि किसी भी पाठ्य पर बच्चे अपने-अपने ढंग से सोचते हैं। ‘मुनमुन और मुन्नू’ वाली किताब को पढ़ते हुए उनसे पूछा गया, “बिल्ली को दूध क्यों दिया गया?” तो उसने कहा, “बिल्ली को अण्डों से दूर रखने के लिए दूध दिया गया।” रोशनी ने कहा, “बिल्ली को भूख लगी थी। यदि दूध नहीं दिया जाता तो वह अण्डों पर झपट पड़ती।” हालाँकि वे दोनों समझ ठीक ही रहे थे लेकिन दोनों ने उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग ढंग से की। इससे यह समझ में आता है कि केवल पाठ को पूरा करने का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। इसके लिए यह ज़रूरी है कि कक्षा शिक्षण के दौरान कुछ ऐसे काम हों जिसमें उन्हें पाठ्य से अपने अनुभवों को जोड़ने का मौका मिले। उस पर बातचीत हो। और क्या पढ़ा, क्या बात समझ में आई, तुम्हें क्या लगता है आदि प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए।

खटीमा ब्लॉक के एक विद्यालय में तीसरी-चौथी कक्षाओं के बच्चों के साथ भी ऐसा ही अनुभव हुआ। उन्हें पढ़ने को एक कहानी दी गई लेकिन पहली बार बच्चों को कहानी कुछ समझ में नहीं आई। तब उनसे कहानी को दोबारा-तिबारा पढ़ने को कहा गया। ऐसा करने से वे कहानी का अर्थ बताने में समर्थ हुए। साथ ही बच्चों के साथ छोटे-छोटे समूह में बैठकर पढ़ने के मौके प्रदान किए गए। यहाँ भी एक बच्ची ‘लालू पीलू’ किताब को पढ़ते हुए, ‘मुर्गी के दो चूज़े हैं’ की बजाए ‘मुर्गी के दो बच्चे हैं’ पढ़ रही थी। पढ़ने की पारम्परिक विधि में हम सोचते हैं जो पाठ में लिखा है उसे ही सही पढ़ें तब पढ़ना माना जाएगा। शायद मुद्दा यह भी है कि हमें बच्चों की पढ़ने की प्रक्रियाओं का पर्याप्त भान नहीं है। जबकि एक शिक्षक होने के नाते हमें बच्चों की पढ़ने की प्रक्रियाओं पर गौर करना चाहिए और इन प्रक्रियाओं को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए।

पढ़ने की अपनी लय
बच्चों को पढ़ते हुए देखकर कभी-कभी लगता है कि वे जल्दी-जल्दी क्यों नहीं पढ़ लेते। पढ़ने के दौरान उन्हें बता देने की हमें कभी-कभी जल्दी हो जाती है। शायद यह बेहतर हो कि पढ़ने के दौरान कोई क्लूू या संकेत दिया जाए ताकि उन्हें पढ़ने में आसानी हो जाए। ये संकेत किताबों में चित्रों के माध्यम से भी दिए जा सकते हैं। जैसे कि एक बच्ची ‘रानी भी’ किताब पढ़ रही थी। उसे ‘फ्रॉक’ शब्द पढ़ने में दिक्कत आ रही थी। जब उससे कहा गया, “चित्र में देखें रानी ने क्या पहना हुआ है?” तब उसने सही पढ़ा। त्रिकान्त ‘गुदगुदी’ को बार-बार ‘गुदागुदी’ पढ़ रहा था तब उसे ‘गुदगुदी’ बताना पड़ा। बच्चों को पढ़ते हुए देखें तो इस बात का एहसास होता है कि वे किस तरह पढ़ना सीखने के दौरान जूझते हैं। इसके लिए हमें धैर्य रखना होता है। बच्चों की मदद करनी होती है। इसके लिए कहानी के मुख्य शब्दों को ब्लैकबोर्ड पर लिखना, उनसे पढ़वाना, उसी ध्वनि के और शब्द उनसे पूछना, शब्दों को लेकर नए वाक्य लिखना, पैराग्राफ लिखना, कहानी को अपने मन से लिखने का मौका देना आदि काम करवाए जा सकते हैं।

अक्सर देखने को मिलता है कि स्कूल के शिक्षक कक्षा में बच्चों से कह रहे हैं कि वे मन ही मन पढें लेकिन बच्चे उच्च स्वर में ही पढ़ रहे हैं। यहाँ समझने की बात है कि बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं तो अभी वे ऐसा ही पढ़ेंगे। मौन रूप से पढ़ना कुछ समय बाद ही कर पाएँगे। कक्षा में जो बच्चे सहजता से पढ़ रहे हैं उनके साथ उन बच्चों को बैठाया गया जो केवल चित्र ही देख रहे थे। उनको वे बच्चे बोल-बोल कर पढ़ाने लगे। बच्चे केवल दोहरा रहे थे। इससे बच्चों को कितना फायदा मिलता है? या केवल दोहराने का काम ही हो रहा है? उन्होंने क्या पढ़ा और क्या समझा इस पर बातचीत होना ज़रूरी है। इसका अभ्यास शुरुआती कक्षाओं से ही होना चाहिए।

पाठ्य सामग्री का चयन
बच्चों के साथ काम में यह भी लगता है कि जब उन्हें अच्छी पठन सामग्री से परिचित कराया जाएगा तो बच्चों के बीच किताबों को पढ़ने का माहौल बनेगा। स्कूल की कुछ सीमित पुस्तकों में अगर बरखा सीरीज़ की पुस्तकों पर गौर करें तो छोटी कक्षाओं में बच्चों ने ‘मिठाई’, ‘फूली रोटी’ किताबों को खूब पसन्द किया। ‘मिठाई’ में एक दोहराव है व उससे खुद को जोड़ने के मौके हैं, इस कारण बच्चे इसे पढ़ना पसन्द करते हैं। इसी तरह ‘फूली रोटी’ में बच्चों के रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी घटना है इसलिए बच्चे उससे सम्बन्ध बैठाते हैं। कुछ बच्चों को ‘तोता’ कहानी पसन्द आती है, खास तौर पर उन्हें जो थोड़ा परिपक्व ढंग से किताब पढ़ पाते हैं।

कक्षा में कभी-कभी ऐसी सामग्री का उपयोग किया जाता है जिससे लगता है कि हम बच्चों का समय बिताने के लिए किताबें दे रहे हैं। किसी भी किताब से काम चल जाएगा। तात्पर्य यह है कि एक शिक्षक होने के नाते हमें इस बात पर पूरा विश्वास होना चाहिए कि बच्चों को स्वतंत्र रूप से किताबों को पढ़ने का मौका देने से वे पढ़ना सीखते हैं। उनकी भाषा समृद्ध होती है। बच्चों को अच्छी सामग्री की ज़रूरत होती है। इससे उनमें पढ़ने की आदत का विकास होता है। इसके अलावा किताबों को पढ़ने में बच्चों की मदद भी करनी चाहिए। अधिकतर ऐसा होता है कि बच्चों को हम किताब पढ़ने को दे तो देते हैं लेकिन उनसे कोई बातचीत नहीं करते। इससे जो बच्चे अटक-अटक कर पढ़ रहे होते हैं उनमें कोई उत्साह नहीं रह जाता। उन्हें पढ़ना नीरस कार्य लगता है। बच्चे पढ़ते रहें इसके लिए उन्हें प्रेरित करने की ज़रूरत पड़ती है।

बच्चों की पढ़ने में मदद दो तरह से हो सकती है। एक तो जो बच्चे अटक-अटक कर पढ़ने का प्रयास कर रहे हैं उनको शब्दों-वाक्यों को पढ़ने में मदद करना। दूसरा बच्चों की पाठ्य की समझ विकसित करने में मदद करना। इसके लिए पाठ्य को उनके आसपास के परिवेश, उनके पूर्व-ज्ञान व अनुभवों से जोड़ने के लिए बात करते हुए मदद करनी होती है।

अक्सर प्राथमिक कक्षाओं में यह देखा जाता है कि बच्चों से अधिकतर शिक्षकों की बातचीत यह होती है - कहानी में कौन-कौन था, उनके नाम क्या थे, वे कहाँ रहते थे आदि। यहाँ इस तरह के सवाल पूछे जाने चाहिए जिनमें उन्हें अपने अनुभव जोड़ने का मौका मिले, कहानी की समस्या पर नए ढंग से सोचने का मौका मिले, कहानी को अपने सन्दर्भ में रखकर सोच पाएँ। ऐसी प्रक्रियाएँ बच्चों के पढ़ने को प्रेरित और समृद्ध करेंगी।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।
सभी चित्र एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित बरखा सीरीज़ की पुस्तकों से साभार।