सुशील जोशी  

भाग-1 
पृथ्वी कब बनी थी, किस रूप में बनी थी, क्या सदा से ऐसी ही रही है या बदलती रहती है, कब इस स्वरूप में आई कि जीवन को सहारा दे सके, और जीवन के आगमन के बाद पृथ्वी के रूप में कैसे-कैसे परिवर्तन हुए - ऐसे कई सारे सवाल इन्सान पूछते रहे हैं और जवाब खोजते रहे हैं। इन सवालों और जवाबों का और सवाल से जवाब तक पहुँचने की यात्राओं का इतिहास बहुत दिलचस्प है। यह हमें वैज्ञानिकों के काम करने के ढंग के बारे में काफी कुछ बता सकता है। तो मेरा ख्याल है कि आप भी इस यात्रा में शरीक हों, इसका मज़ा लें। मज़ा लेने का तरीका यह होगा कि इस बात की ज़्यादा चिन्ता न करें कि जवाब क्या मिला, कितना सही या गलत था, बस यह देखें कि जवाब की ओर कदम कैसे बढ़ाए गए।

जाँच की विधि
पृथ्वी की उम्र एक विशेष श्रेणी का सवाल है। कोई भी यह उम्मीद तो कर ही नहीं सकता कि वह एक बार फिर इस प्रक्रिया को शुरू करवाएगा और फिर देखता/गिनता रहेगा कि वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितने साल लगते हैं। आपके पास जो कुछ है वह पृथ्वी की आज की स्थिति है। हाँ, यह सही है कि आपके पास कुछ नियमों, कुछ प्रक्रियाओं की समझ भी मौजूद है। तो आप कोशिश कर सकते हैं कि इन नियमों को लागू करके पृथ्वी की उम्र का अन्दाज़ लगाएँ। मगर आपको मानना होगा कि ये नियम, ये प्रक्रियाएँ अतीत में भी ऐसी ही थीं। यानी आपको मानना होगा कि आज जो नियम लागू होते हैं, वे सुदूर अतीत में लागू होते रहे होंगे।
विज्ञान में नियमों और प्रक्रियाओं की इस एकरूपता को सिद्धान्त रूप में व्यक्त करने का काम जेम्स हटन, चार्ल्स लायल वगैरह ने किया था। इस नियम का आशय यह है कि आज जो भी नियम लागू होते हैं वे अतीत पर भी उसी तरह लागू किए जा सकते हैं। इसे एकरूपतावाद कहा गया। इसका एक अतिवादी स्वरूप यह था कि आज प्रकृति में जो प्रक्रियाएँ चल रही हैं, वे उसी ढंग से अतीत में भी चलती रही होंगी। आगे चलकर हम देखेंगे कि नियमों की एकरूपता तो जायज़ साबित हुई है मगर प्रक्रियाओं की एकरूपता पर कई सवाल हैं। दरअसल पृथ्वी की उम्र का पता लगाने में यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु रहा है।

दूसरी बात यह है कि आपको यह पता नहीं है कि आज की पृथ्वी किस स्थिति से शुरू करके यहाँ तक पहुँची है। यानी न्यूटन के तरीके को लागू करना मुश्किल है क्योंकि उस तरीके का आग्रह होता है कि आपको प्रारम्भिक स्थिति पता होना चाहिए, तब आप नियमों को लागू करके वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में लगा समय बता सकेंगे। मगर हमें तो प्रारम्भिक स्थिति की भनक तक नहीं है। तो आप कुछ अन्दाज़ लगाएँगे कि शुरुआत में पृथ्वी कैसी रही होगी। फिर आजकल के मान्य नियमों को लागू करके गणना करेंगे कि शुरुआती परिस्थिति से आज की परिस्थिति तक पहुँचने में कितना समय लगा होगा। तो पृथ्वी की उम्र पता लगाने की किसी विधि में --
* आज की किसी परिस्थिति का अवलोकन करना होगा,
* कोई तर्कसम्मत मान्यता लेनी होगी कि शुरुआत में परिस्थिति कैसी रही होगी,
* इस परिस्थिति में परिवर्तन का नियम पता करना होगा,
* और नियम को लागू करके गणना करनी होगी कि शुरुआती परिस्थिति से चलकर हम आज की परिस्थिति तक कैसे व कितने समय में पहुँचे।

आप देख ही सकते हैं कि पूरा मामला चन्द नियमों, चन्द प्रक्रियाओं की समझ और चन्द मान्यताओं पर टिका है। यदि ये मान्यताएँ सही हैं तो आप सही निष्कर्ष पर पहुँचने की उम्मीद कर सकते हैं। मगर आपको पता कैसे चलेगा कि आपकी मान्यताएँ सही हैं?
पृथ्वी की उम्र की खोज की कथा इसी सवाल के जवाब पर टिकी है - जो मान्यताएँ आप लेकर चलते हैं, उनके सही या गलत होने का फैसला कैसे करें।

मैं यहाँ विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में लगाए गए अनुमानों या गणनाओं में नहीं जा रहा हूँ क्योंकि वहाँ हमें न तो यह मालूम होता है कि उन गणनाओं के पीछे आधार क्या थे, और न ही यह मालूम होता है कि वे लोग किन मान्यताओं को लेकर आगे बढ़े थे। तो हम बात करेंगे आधुनिक विज्ञान में किए गए प्रयासों की। इन प्रयासों से एक बात और उजागर होती है -- वैज्ञानिक लोगों के सामने जब कोई सवाल आता है (या जिसे वे एक सवाल मानते हैं) तो वे उस सवाल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिलने का इन्तज़ार नहीं करते। वे तो उपलब्ध जानकारी के आधार पर परिकल्पनाएँ विकसित करते हैं और किसी निष्कर्ष तक पहुँचते हैं और फिर चुनौतियों का इन्तज़ार करते हैं।

पहला प्रयास
तो शुरु करते हैं पहले-पहल किए गए एक व्यवस्थित प्रयास से। दरअसल, इस प्रयास में से जो जवाब निकला था वह जल्दी ही गलत साबित हो गया था मगर इस प्रयास की एक विशेषता यह थी कि इसने आगे के रास्ते खोल दिए थे। यह प्रयास किया था विलियम थॉमसन ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में (1862)। विलियम थॉमसन को लोग प्राय: लॉर्ड केल्विन के नाम से जानते हैं। आइए देखें कि केल्विन कैसे आगे बढ़े और कहाँ पहुँचेे।
केल्विन ने पृथ्वी की उम्र पता करने के लिए ऊष्मा का सहारा लिया था। उन्होंने माना कि पृथ्वी और सूरज साथ-साथ ही बने थे। यानी हमारी पृथ्वी शुरुआत में रक्त-तप्त नहीं बल्कि श्वेत-तप्त और पिघली हुई अवस्था में थी। उसके बाद यह ठण्डी होने लगी। मान्यता तो ठीक-ठाक ही लगती है।

वर्तमान में पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से लेकर सतह तक तापमान का एक क्रमिक पैटर्न (ग्रेडिएन्ट) है (चित्र-2)। तो श्वेत-तप्त तरल स्थिति से वर्तमान क्रमिक पैटर्न तक पहुँचने में इसे कितने साल लगे होंगे? इसकी गणना के लिए आपको पता होना चाहिए कि पृथ्वी को ऊष्मा कहाँ-कहाँ से और कितनी मिल रही है (यानी ऊष्मा के स्रोत) और पृथ्वी से ऊष्मा का ह्रास किस-किस विधि से हो रहा है। इसकी गणना करने के लिए आपको पता होना चाहिए कि पृथ्वी के अन्दरूनी भाग से सतह तक ऊष्मा का स्थानान्तरण किस दर से होता है। फिर आपको यह पता होना चाहिए कि सतह का क्षेत्रफल कितना है और उससे ऊष्मा का ह्रास किस दर से होगा। और यह भी ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी को सूरज से लगातार ऊष्मा मिलती रहती है।

1899 में प्रकाशित पर्चे में केल्विन की दो प्रमुख मान्यताएँ थीं:
1. कि पृथ्वी में ऊष्मा का अपना कोई स्रोत नहीं रहा है। यानी एक बार बनने के बाद पृथ्वी पर जितनी भी ऊष्मा थी वह सिर्फ बिखरती गई है। सूरज से थोड़ी-बहुत ऊष्मा आती थी, बस।
2. कि पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से सतह तक ऊष्मा का स्थानान्तरण संचालन विधि से होता रहा है।
ये सब हिसाब-किताब करके उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि पृथ्वी कम-से-कम 2 करोड़ वर्ष पुरानी है और अधिक-से-अधिक 40 करोड़ वर्ष। यानी उनके अनुसार पृथ्वी की उम्र 2 से 40 करोड़ वर्ष के बीच ठहरती थी।
उन्होंने तो यह भी अनुमान लगाया था कि सूरज 10 करोड़ से लेकर 50 करोड़ वर्ष पहले से अस्तित्व में है। उनका कहना था कि सूरज 50 करोड़ वर्ष से अधिक पुराना तो हो ही नहीं सकता। सूरज की उम्र निकालते वक्त उन्होंने यह ध्यान दिया था कि सूरज की गर्मी का स्रोत क्या है। उन्होंने माना था कि सूरज की गर्मी गुरुत्वाकर्षण की वजह से है। सूरज गैस का गोला है जो अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ रहा है। जब गैस सिकुड़ेगी तो उसका तापमान बढ़ेगा। अर्थात् केल्विन की गणना का आधार यह था कि सूरज में गुरुत्वाकर्षण के कारण गर्मी पैदा हो रही है और विकिरण के रूप में बिखर रही है। इन दो प्रक्रियाओं की दरों के आधार पर केल्विन का निष्कर्ष था कि सूरज, बहुत हुआ तो, 50 करोड़ वर्ष पुराना होगा।

लगभग इसी समय भौतिक शास्त्री हर्मैन फॉन हेल्महोल्ट्ज़ (1856) और खगोल शास्त्री साइमन न्यूकॉम्ब (1892) ने भी अपने-अपने आँकड़े उछाल दिए। इन दोनों की गणना का आधार यह था कि सूरज गैसों के एक बादल से पैदा हुआ था। तो उस बादल से शु डिग्री करके इसे वर्तमान साइज़ का चमकीला गोला बनने में कितना समय लगा होगा? हेल्महोल्ट्ज़ का आँकड़ा 2.2 करोड़ वर्ष और न्यूकॉम्ब का आँकड़ा 1.8 करोड़ वर्ष का था।

आजकल हम मानते हैं कि पृथ्वी लगभग 420 करोड़ वर्ष पुरानी है। यानी इन लोगों के आँकड़े वर्तमान में मान्य आँकड़े से 100 गुना तक अलग थे। और जल्दी ही इनकी मान्यताओं में गलती पहचान ली गई। पहली गलती तो केल्विन ने एक ऐसी चीज़ के बारे में की थी जिसके बारे में पता था मगर केल्विन ने सोचा नहीं था कि यह इतनी महत्वपूर्ण हो सकती है। और दूसरी गलती पहचानने का काम किसी अन्य विषय में हुई खोज का परिणाम था। कहने का मतलब है कि केल्विन ने जिस समय गणना की थी उस समय एक ऐसी चीज़ के बारे में जानकारी ही नहीं थी जिसका असर उनकी गणनाओं पर पड़ने वाला था। यह प्रक्रिया थी परमाणुओं के विखण्डन की जिसका पता उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में चला था।

इसी प्रकार से जल्दी ही यह पता चलने वाला था कि सूरज की गर्मी सिर्फ उसके गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से हो रहे संकुचन की वजह से नहीं है। एडिंगटन ने स्पष्ट किया था कि सूरज में गर्मी का प्रमुख स्रोत परमाणुओं का संलयन यानी आपस में जुड़ना है। हाइड्रोजन के दो परमाणु आपस में जुड़कर हीलियम नामक तत्व का निर्माण करते हैं और इस प्रक्रिया में प्रसिद्ध समीकरण कउथ्र्ड़2 के अनुसार ढेर सारी ऊर्जा निकलती है। जैसे ही सूरज की ऊष्मा और चमक के बारे में नई जानकारी मिली हेल्महोल्ट्ज़ और न्यूकॉम्ब के अनुमान भी ध्वस्त हो गए।
मगर तरीका तो ठीक ही था। और आगे चलकर भी इसी तरीके से पृथ्वी की आयु के अनुमान लगाए गए। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि हमारे पास इन प्रक्रियाओं के बारे में ज़्यादा जानकारी इकट्ठी होती गई और कुछ नए नियमों व नई प्रक्रियाओं के बारे में पता चलता गया।

अन्य कुछ विधियाँ
अलबत्ता, केल्विन के आँकड़े को मिली चुनौतियों पर नज़र डालने से पहले यह देखना मज़ेदार होगा कि उस समय अन्य किन विधियों को आज़माया गया था और क्या परिणाम मिले थे। इनमें से कई आँकड़े केल्विन के आँकड़े के काफी नज़दीक थे।
जैसे, चार्ल्स डारविन के सुपुत्र जॉर्ज डारविन ने यह माना कि चाँद और पृथ्वी अपने अस्तित्व के शुरुआती काल में ही टूटकर अलग-अलग हो गए थे और उस समय दोनों ही पिघली हुई अवस्था में थे। यानी ये दोनों एक ही पिण्ड के दो टुकड़े हैं। टूटने के बाद दोनों एक-दूसरे से दूर जाते गए। जॉर्ज डारविन ने यह गणना की कि चाँद के प्रभाव से जो ज्वार पैदा होता है उसके घर्षण की वजह से पृथ्वी का दिन-रात का चक्र 24 घण्टे का बनने में कितने साल लगे होंगे और चाँद को पृथ्वी से इतनी दूर जाने में कितना समय लगा होगा। मेरे ख्याल में उन्हें काफी गणितीय माथापच्ची करनी पड़ी होगी। सारी माथापच्ची के बाद जो आँकड़ा निकला वह 5.6 करोड़ वर्ष था। आप देख ही सकते हैं कि यह केल्विन के आँकड़े के काफी नज़दीक है।

मगर बाकी लोगों ने आँखों पर पट्टी नहीं बाँध रखी थी। केल्विन और हेल्महोल्ट्ज़ और न्यूकॉम्ब की मान्यताओं पर जल्दी ही सवाल उठने लगे। एक बात गौरतलब है जिसका ज़िक्र किए बगैर बात को आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं होगा।
पृथ्वी की उम्र वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं थी। क्या फर्क पड़ता है कि वह 10 हज़ार साल पुरानी है या 10 अरब साल। मगर उन्नीसवीं सदी में कई अवलोकन ऐसे होने लगे थे जिनकी व्याख्या के लिए पृथ्वी की उम्र से बहुत फर्क पड़ता था। और कई अवलोकन ऐसे भी थे जो बता रहे थे कि पृथ्वी बहुत-बहुत पुराने ज़माने से अस्तित्व में होनी चाहिए वरना यह आज जैसी है वैसी नहीं हो सकती।

भू-गर्भ वैज्ञानिकों यानी जियॉ-लॉजिस्ट ने पृथ्वी की अन्दरूनी संरचनाओं की खोजबीन सत्रहवीं सदी में शुरू कर दी थी। एक तो यह पता चला कि जैसे-जैसे पृथ्वी की गहराइयों में जाते हैं, हमें विभिन्न परतें मिलती हैं। और इन अलग-अलग परतों में जीवों की छापें (जीवाश्म) मिलती हैं। इनमें से कई जीव आजकल धरती पर नहीं पाए जाते। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि, हो न हो, धरती पर जीव परत-दर-परत प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं यानी धरती के इतिहास में जीवों का भी एक क्रमिक इतिहास है।
इन अध्ययनों के आधार पर इन परतों से सम्बन्धित कई सामान्य नियम विकसित हुए। जैसे एक नियम यह था कि सबसे ऊपरी परत सबसे नई है और नीचे जाते जाएँ तो एक के बाद एक जो परतें मिलती हैं वे ज़्यादा प्राचीन होती हैं।

परतों की संरचना और उनके बीच की संरचनाओं को देखकर यह निष्कर्ष भी निकाला कि ये परतें क्षैतिज स्थिति में बनती हैं और यदि कोई परत तिरछी है तो उसका तिरछापन बाद में हुई भूगर्भीय हलचल की वजह से पैदा हुआ होगा। इस तिरछेपन के आधार पर किसी भी परत की उम्र का अन्दाज़ लगाया जा सकता है।
यह भी अन्दाज़ लगाया गया कि यदि दो अलग-अलग स्थानों की चट्टानी परतों में एक-से जीवाश्म मिलते हैं तो यह सम्भव है कि वे परतें लगभग एक ही काल की होंगी।
इन परतों के अध्ययन के आधार पर भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की उम्र पता लगाने के कुछ प्रयास किए थे। जैसे एक प्रयास यह अन्दाज़ लगाने का था कि चट्टानों की एक पूरी परत जमने में लगभग कितना समय लगेगा। फिर परतों की गिनती करके आप एक मोटा-मोटा अनुमान लगा सकते हैं कि इतनी सारी परतें जमने में कितना वक्त लगा होगा।

दूसरा प्रयास भी उतना ही गौरतलब है। यह तो सभी जानते हैं कि समुद्र का पानी खारा होता है। यह भी लगभग सभी जानते हैं कि समुद्र में यह खारापन नदियों के ज़रिए आता है अर्थात् नदियाँ अपने प्रवाह के दौरान रास्ते से तमाम लवण घोलती हैं और इन घुलित लवणों को लाकर समुद्र में जमा कर देती हैं। तो आजकल नदियों द्वारा हर साल समुद्रों में लाए जाने वाले लवणों की मात्रा के आधार पर गणना की जा सकती है कि समुद्रों में आज जो लवणीयता है, उसे बनने में कितने साल लगे होंगे।

हालाँकि आगे चलकर परतों और समुद्रों की लवणीयता सम्बन्धी उक्त दोनों मान्यताएँ गलत साबित हुईं मगर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भूगर्भ वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बनने लगी थी कि पृथ्वी कम-से-कम 10 करोड़ वर्षों से अस्तित्व में है।
खास तौर से प्राकृतिक चयन द्वारा संचालित जैव-विकास का उल्लेख करना ज़रूरी है। जब डारविन ने सजीवों के क्रमिक विकास की अवधारणा प्रस्तुत की तो यह स्पष्ट था कि प्राकृतिक चयन की धीमी प्रक्रिया को कारगर होने के लिए काफी लम्बे समय की दरकार है। यानी पृथ्वी बहुत-बहुत-बहुत पुरानी होनी चाहिए।

इसका अर्थ यह लगाया जाने लगा था कि पृथ्वी हमारी कल्पना और धारणा से कहीं ज़्यादा पुरानी है। यह भी समझ में आने लगा था कि वे कौन-सी प्रक्रियाएँ होंगी जिनकी मदद से हमें पृथ्वी की प्राचीनता के बारे में और सुराग मिल सकते हैं। मगर अन्य विधियों की छानबीन करने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि केल्विन व अन्य लोगों के तरीके में क्या खामियाँ रहीं।

(...जारी)


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।