लेखक : विक्रम व्यास
अनुवाद: सुशील जोशी
यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि भौतिकी जगत का एक बड़ा हिस्सा एक प्रयोग के परिणामों का इन्तज़ार कर रहा है। यह प्रयोग अगस्त 2008 में शु डिग्री हुआ था लेकिन तकनीकी गड़बड़ी के चलते इसे बीच में ही रोक देना पड़ा। खामियों को दूर करते हुए यह पार्टिकल एक्सलरेटर शायद जनवरी-फरवरी 2010 में फिर से काम करना शुरु देगा। स्विटज़रलैण्ड में जिनेवा के समीप स्थापित इस उपकरण का नाम है लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर या संक्षेप में एल.एच.सी.।
यह इन्सानों द्वारा आज तक किए गए प्रयोगों से कहीं बड़ा प्रयोग होगा। इसके अन्तर्गत प्रोटॉन्स के दो अत्यन्त ऊर्जावान पुंजों को आपस में टकराया जाएगा। प्रोटॉन्स और न्यूट्रॉन्स वे कण हैं जो परमाणु के केन्द्र में स्थित केन्द्रक का निर्माण करते हैं। अपने तईं प्रोटॉन और न्य़ूट्रॉन भी कुछ बुनियादी कणों से बने होते हैं जिन्हें क्वार्क्स और ग्लुऑन्स कहते हैं। क्वार्क्स और ग्लुऑन्स से बने विभिन्न कणों को हैड्रॉन्स कहते हैं। प्रोटॉन्स एक प्रकार के हैड्रॉन्स हैं, इसीलिए इस उपकरण का नाम हैड्रॉन कोलाइडर है।
इस तरह का निहायत महंगा उपकरण बनाने तथा भौतिकी जगत द्वारा इतनी उत्सुकता से इस प्रयोग के नतीजों की प्रतीक्षा करने का कारण यह है कि इसकी मदद से हम एक सरल से सवाल का जवाब पाने की उम्मीद करते हैं - इलेक्ट्रॉन और क्वार्क्स में जो संहति होती है, वह क्यों होती है? इस सवाल के महत्व को समझने के लिए इस बात पर गौर करें कि हम कहते हैं कि हमारे आस-पास जो भी चीज़ें दिखाई देती हैं, वे सब अणुओं से मिलकर बनी हैं और ये अणु, परमाणुओं से मिलकर बने हैं। सारे परमाणु तीन निर्माण-इकाइयों से बने हैं - इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन।
तो इस पत्रिका के कागज़ से लेकर आपके हाथ की त्वचा तक सारी चीज़ें इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के अलग-अलग सम्मिश्रण से बनी हैं। इन कणों में संहति होती है। प्रोटॉन व न्यूट्रॉन के मुकाबले इलेक्ट्रॉन की संहति नगण्य ही होती है। नतीजतन परमाणु की संहति उस परमाणु में उपस्थित प्रोटॉन्स व न्यूट्रॉन्स की संहति का योग होती है। प्रोटॉन्स और न्यूट्रॉन्स मिलकर केन्द्रक बनाते हैं, जिसके आस-पास इलेक्ट्रॉन वितरित रहते हैं। जैसा कि हम देख ही चुके हैं, प्रोटॉन्स व न्यूट्रॉन्स स्वयं क्वार्क्स और ग्लुऑन्स से बने होते हैं।
इलेक्ट्रॉन्स और क्वार्क्स और कई अन्य कण पदार्थ के निर्माण की इकाइयाँ हैं। ये आपस में अन्तर्क्रिया करते हैं और अन्य निर्माण-इकाइयों के साथ भी अन्तर्क्रिया करते हैं। यह अन्तर्क्रिया कम-से-कम चार बलों के रूप में होती है। ये चार बल हैं, हमारे सुपरिचित गुरुत्वाकर्षण बल और विद्युत-चुम्बकीय बल तथा दो अपेक्षाकृत अनजाने बल जिन्हें दुर्बल अन्तर्क्रिया व शक्तिशाली अन्तर्क्रिया कहते हैं। यहाँ हमारा ज़्यादातर सरोकार दुर्बल बल या दुर्बल अन्तर्क्रिया से रहेगा। यह बल न्यूट्रॉन के विघटित होकर प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन तथा एक अन्य कण एंटी-न्यूट्रिनो बनने के लिए जवाबदेह होता है। दुर्बल अन्तर्क्रिया के फलस्वरूप कई तत्व अन्य तत्वों में परिवर्तित हो सकते हैं। ये परिवर्तन न्यूट्रॉन के प्रोटॉन में तबदील होने के कारण या प्रोटॉन के न्यूट्रॉन में तबदील होने के कारण हो सकते हैं।
शक्तिशाली बलों का सम्बन्ध क्वार्क्स को परस्पर बाँधे रखकर प्रोटॉन्स व न्यूट्रॉन्स के निर्माण से है और यही बल प्रोटॉन्स को केन्द्रक में एक साथ बाँधे रखता है। इसे ऐतिहासिक कारणों से शक्तिशाली बल कहते हैं क्योंकि केन्द्रक के अन्दर प्रोटॉन्स के बीच आकर्षण का बल उन्हीं प्रोटॉन्स के बीच लगने वाले विद्युतीय विकर्षण बल से कहीं अधिक शक्तिशाली है। गौरतलब है कि प्रोटॉन्स धनावेशित होते हैं और समान आवेशों के बीच विकर्षण होता है।
उपरोक्त प्रत्येक बल से जुड़ा एक कण होता है। हालाँकि गुरुत्वाकर्षण बल सबसे जाना-पहचाना है मगर छोटी दूरी पर इसे सबसे कम समझा जा सका है। अलबत्ता अपेक्षा है कि इस बल से जुड़ा एक कण होगा। इसे ग्रैविटॉन नाम दिया गया है।
इसी प्रकार से एक कण है फोटॉन जो विद्युत-चुम्बकीय बल से सम्बन्धित है। फोटॉन के पुंज को ही हम प्रकाश कहते हैं। इसके बाद दुर्बल बलों के साथ तीन कण जुड़े हैं -W+ W– और Z0 बोसॉन्स।
और अन्तत: शक्तिशाली बलों के साथ जुड़े कण हैं ग्लुऑन्स। ये सारे बुनियादी कण मिलकर एक मॉडल बनाते हैं जिसे कण भौतिकी (पार्टिकल फिज़िक्स) का स्टैण्डर्ड मॉडल कहते हैं।
स्थानीय सममिति
ब्रह्माण्ड के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि यह चन्द समरूप कणों से मिलकर बना है। यहाँ समरूप शब्द महत्वपूर्ण है। हर बुनियादी कण को कुछ संख्याओें से पहचाना जाता है। इनमें से कुछ संख्याएँ सुपरिचित गुणों से निकलती हैं। जैसे एक इलेक्ट्रॉन की एक निश्चित संहति होती है, इसका एक निश्चित विद्युत आवेश भी होता है।
हमारे ब्रह्माण्ड की एक और मूलभूत इकाई फोटॉन नामक कण है - यह प्रकाश का एक कण है। विश्व के सारे फोटॉन एक जैसे होते हैं, सबमें शून्य संहति और शून्य आवेश होता है। इनमें एक अतिरिक्त गुण होता है जिसे ध्रुवीकरण या हेलिसिटी कहते हैं। हेलिसिटी कण की फिरकी गति (spin) व रैखीय गति (linear motion) का मिला-जुला रूप है। कोई फोटॉन वाम ध्रुवीकृत हो सकता है या दक्षिण ध्रुवीकृत। एक वाम ध्रुवीकृत फोटॉन की कल्पना इस रूप में की जा सकती है कि वह अपनी रैखीय गति के विपरीत दिशा में स्पिनकर रहा है। दूसरी ओर दक्षिण ध्रुवीकृत फोटॉन अपनी गति की दिशा में ही स्पिन करता है। एक काफी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सारे संहति-विहीन कणों के लिए उनकी हेलिसिटी एक अन्तर्निहित गुण है। इसका मतलब है कि चाहे कोई भी उस कण का अवलोकन करे, सब लोग इस बात पर एकमत होेंगे कि वह कण वामपन्थी है या दक्षिण-पन्थी। संहतिशुदा कणों का स्पिन अन्तर्निहित गुण नहीं होता। जो लोग एक-दूसरे के सापेक्ष गति कर रहे हैं, वे आमतौर पर एक ही संहतिशुदा कण की हेलिसिटी अलग-अलग बताएँगे।
हमारा ब्रह्माण्ड एक जैसे फोटॉन्स से बना है, जिन्हें निर्मित किया जा सकता है और नष्ट किया जा सकता है। ऐसे ब्रह्माण्ड के वर्णन के लिए एक अलग ढंग की गणितीय भाषा की ज़रूरत होती है। इस भाषा का नाम है क्वांटम फील्ड सिद्धान्त। फोटॉन से सम्बद्ध क्वांटम फील्ड यानी क्षेत्र को इस रूप में समझ सकते हैं कि यह ब्रह्माण्ड के किसी भी बिन्दु पर किसी भी समय एक फोटॉन के निर्माण की सूचना का वाहक है। इसका मतलब है कि अन्तरिक्ष के हर बिन्दु के साथ और समय के हर क्षण के साथ हम संख्याओं का एक सेट सम्बद्ध करते हैं। हम प्रत्येक बिन्दु के साथ कितनी संख्याएँ सम्बद्ध करते हैं?
फोटॉन के मामले में हमें हर स्थान-समय (स्पेस-टाइम) के लिए दो विशिष्ट संख्याओें की ज़रूरत होती है। दो संख्याएँ इसलिए चाहिए क्योंकि कोई भी फोटॉन दो तरह से ध्रुवीकृत हो सकता है। हमारे विवरण के लिए एक और बहुत ज़रूरी चीज़ है। क्वांटम क्षेत्र का उपयोग करते हुए हम प्रकृति के जो नियम लिखें वे सारे प्रेक्षकों के लिए एक जैसे होने चाहिए, चाहे वे एक-दूसरे के सापेक्ष गति कर रहे हों। यह सापेक्षता का नियम है। वैसे तो स्थान-समय के हर बिन्दु के फोटॉन के लिए हमें दो ही संख्याएँ चाहिए, मगर हमारा नियम सापेक्षता का सम्मान करे, इसके लिए हम एक ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं जिसमें स्थान-समय के हर बिन्दु के लिए चार संख्याओं की ज़रूरत होती है (इसके कारण गणितीय हैं; मैं यहाँ उनमें नहीं जा रहा हूँ)। लिहाज़ा हमारे विवरण में कुछ व्यर्थता (रिडंडेेंसी) होती है अर्थात् स्थान-समय के हर बिन्दु के लिए हमारे पास चार संख्याएँ होती हैं जिनमें से दो व्यर्थ या अतिरिक्त हैं। इस व्यर्थता का अर्थ है कि एक स्थानीय सममिति (local symmetry) मौजूद है।
स्थानीय सममिति से क्या आशय है? सममिति का मतलब होता है कि हम किसी चीज़ पर कोई ऐसी क्रिया करें कि उस क्रिया के बाद भी वह चीज़ पहले जैसी ही नज़र आए। एक पर्फेक्ट गोला घुमा दिए जाने के बाद भी वैसा ही नज़र आता है। तो हम कहते हैं कि गोला एक सममित वस्तु है। हमारे वर्तमान प्रसंग में सममिति का मतलब है कि हम किसी दिए गए क्षेत्र में व्यर्थ संख्याएँ जोड़ सकते हैं और उसके बाद भी सम्बन्धित क्षेत्र वही स्थिति दर्शाएगा जो मूल क्षेत्र दर्शा रहा था। इसके अलावा ये संख्याएँ स्थान-समय के अलग-अलग बिन्दु पर अलग-अलग हो सकती हैं। इसलिए हम कहते हैं कि सममिति स्थानीय है।
1950-60 दशक में कई भौतिक शास्त्रियों ने पहचान लिया था कि स्थानीय सममिति के विचार को फोटॉन क्षेत्र के अलावा अन्य क्षेत्रों मेें भी फैलाया जा सकता है। इस तरह एक सरलतम विस्तार फोटॉन जैसे तीन कणों का विवरण देता है; ये कण फोटॉन जैसे इस अर्थ में हैं कि ये संहति-विहीन हैं और इनमें दो तरह का ध्रुवीकरण सम्भव है। यह पता चला कि जिस ढंग से ये तीन कण इलेक्ट्रॉन और क्वार्क्स के साथ अन्तर्क्रिया करते हैं, उससे उनके बीच की दुर्बल अन्तर्क्रिया की सटीक व्याख्या हो जाती है। उस समय ये कण काल्पनिक ही थे और इन्हें ज़्अ, ज़्- और झ्0 नाम दिए गए थे। मगर इस विवरण में एक असाध्य कठिनाई थी। इस कठिनाई का सम्बन्ध दो कणों के बीच दूरी बढ़ने के साथ बल में आने वाली गिरावट से था।
विद्युत-चुम्बकीय अन्तर्क्रिया को हम दूरगामी (long range) अन्तर्क्रिया कहते हैं। दो आवेशित कणों के बीच लगने वाला बल उनके बीच की दूरी बढ़ने पर काफी धीमे-धीमे - दूरी के वर्ग के अनुपात में - कम होता है। यानी बल का मान दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती है। यह सुपरिचित कूलम्ब बल है। क्वांटम फील्ड सिद्धान्त में विद्युत-चुम्बकीय बल की दूरगामी प्रकृति इस बात का परिणाम है कि फोटॉन संहति-विहीन कण हैं।
प्रकृति में हम देखते हैं कि इलेक्ट्रॉन व क्वार्क्स के बीच की दुर्बल अन्तर्क्रिया दूरी बढ़ने के साथ कूलम्ब बल की अपेक्षा कहीं अधिक तेज़ी से घटती है। ऐसी लघुगामी अन्तर्क्रिया के लिए ज़रूरी है कि ज़् और झ् बोसॉन्स संहति-युक्त कण हों। मगर स्थानीय सममिति का तकाज़ा है कि ये संहति-विहीन कण हों। इस स्थिति में हमारा पहला विचार यह होता है कि हमें दुर्बल अन्तर्क्रिया की व्याख्या में स्थानीय सममिति को तिलांजलि दे देनी चाहिए। मगर स्थानीय सममिति का विचार बहुत आकर्षक है। खास तौर से इसलिए कि इससे पता चलता है कि विद्युत-चुम्बकीय बल और दुर्बल अन्तर्क्रिया गणितीय रूप से समान हैं और शायद ये एक ही बुनियादी बल - विद्युत-दुर्बल बल - के दो अलग-अलग भौतिक रूप हों।
इस मुकाम पर कई भौतिक शास्त्रियों ने कुछ ज़बर्दस्त शोध किए। इस विचार की मूल बात यहाँ से उभरी थी कि सुपरिचित कूलम्ब बल उस स्थिति में व्युत्क्रम वर्ग के नियम का पालन नहीं करता जब आवेशित कण अन्य आवेशित कणों से बने माध्यम से घिरे हों। इसका सहारा लेकर भौतिक शास्त्रियों ने एक दिलेर परिकल्पना प्रस्तुत की कि पूरा ब्रह्माण्ड एक माध्यम - या एक फील्ड - में डूबा हुआ है जो ज़् और झ् बोसॉन्स के लिए एक आवेशित माध्यम जैसा है मगर फोटॉन के लिए उदासीन है। जब संहति-विहीन ज़् और झ् बोसॉन्स इस फील्ड में विचरते हैं तो वे संहतिशुदा कणों की तरह व्यवहार करते हैं, और तब वे दुर्बल अन्तर्क्रिया और उसकी लघुगामी प्रकृति की सटीक व्याख्या कर सकते हैं।
मगर यदि ऐसा माध्यम है तो हमारे लिए इसमें लहरें पैदा करना सम्भव होना चाहिए और इन लहरों में जो ऊर्जा होगी वह क्वांटम यांत्रिकी के मुताबिक छोटे-छोटे क्वांटम में होगी। हर छोटा क्वांटम, और कुछ नहीं, एक कण ही होता है। अर्थात् प्रकृति में इस फील्ड के साथ सम्बद्ध एक कण होना चाहिए। इस कण को हिग्स कण कहा गया है और इस फील्ड को हिग्स फील्ड।
इन विचारों की एक बड़ी सफलता यह थी कि ज़् और झ् बोसॉन्स प्रायोगिक रूप से खोजे जा चुके हैं। ये दुर्बल अन्तर्क्रिया का विवरण देते हैं और ये सचमुच संहतिशुदा हैं। मगर अब तक हम हिग्स कण नहीं खोज पाए हैं। यही वह कण है जिसे खोजने की उम्मीद में एल.एच.सी. के परिणामों का इन्तज़ार है।
संहति का राज़
हिग्स कण में कई अन्य जादुई गुण भी हैं। हमारी मौजूदा समझ यह है कि ज़् और झ् बोसॉन्स ही नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन व क्वार्क्स को भी उनकी संहति हिग्स फील्ड की बदौलत ही मिलती है। इसका कारण भी सममिति में ही है। दुर्बल बल एकमात्र ज्ञात बल है जो बाएँ और दाएँ में भेद करता है। जैसा कि हमने देखा था फोटॉन में दो तरह के ध्रुवीकरण या हेलिसिटी हो सकती हैं। इसी प्रकार से संहति-विहीन इलेक्ट्रॉन व क्वार्क्स में भी दो हेलिसिटी हो सकती हैं।
फोटॉन के ही समान हम कल्पना कर सकते हैं कि एक वामपन्थी संहति-विहीन इलेक्ट्रॉन वह इलेक्ट्रॉन है जिसकी फिरकी गति उसकी रैखीय गति की दिशा में है। दक्षिणपन्थी इलेक्ट्रॉन की फिरकी गति उसकी रैखीय गति की विपरीत दिशा में होगी (आपने ताड़ ही लिया होगा कि ये शब्द पेंच व पेंचकस से आए हैं)। जहाँ तक विद्युत-चुम्बकीय और शक्तिशाली बलों का सवाल है, तो वे दाएँ-बाएँ सममित होते हैं। इसका मतलब यह है कि दो वामपन्थी इलेक्ट्रॉन्स के बीच विद्युत-चुम्बकीय अन्तर्क्रिया और दो दक्षिणपन्थी इलेक्ट्रॉन्स के बीच विद्युत-चुम्बकीय अन्तर्क्रिया हूबहू एक-सी होती है। दूसरे शब्दों में विद्युत-चुम्बकीय और सशक्त अन्तर्क्रियाओं को इलेक्ट्रॉन या क्वार्क्स की हेलिसिटी से कोई फर्क नहीं पड़ता।
दुर्बल अन्तर्क्रिया बहुत अलग ढंग की होती है। हम प्रयोगों से जानते हैं कि दो वामपन्थी इलेक्ट्रॉन्स और दो दक्षिणपन्थी इलेक्ट्रॉन्स के बीच दुर्बल बल भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिए दुर्बल अन्तर्क्रिया के विवरण के लिए हम संहति-विहीन इलेक्ट्रॉन या क्वार्क से शु डिग्री करते हैं, और वामपन्थी और दक्षिणपन्थी कणों को अलग-अलग दुर्बल आवेश प्रदान करते हैं। इस तरह से हम दुर्बल बल के दाईं-बाईं असममिति का वर्णन कर सकते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि इलेक्ट्रॉन और क्वार्क संहति-विहीन हों, क्योंकि हेलिसिटी सिर्फ संहति-विहीन कणों का निहित गुण है। यदि इलेक्ट्रॉन संहतिशुदा हुआ तो कोई इलेक्ट्रॉन जो मुझे वामपन्थी दिखता है, वह मेरे सापेक्ष गति कर रहे किसी अन्य प्रेक्षक को दक्षिणपन्थी नज़र आ सकता है।
तो हम झमेले में फँस गए हैं। दुर्बल बल के वर्णन के लिए हमें संहति-विहीन इलेक्ट्रॉन और क्वार्क चाहिए मगर वास्तविक दुनिया संहतिशुदा इलेक्ट्रॉन और क्वार्क से बनी है। एक बार फिर हिग्स हमारा बचाव करते हैं। जब संहति-विहीन वामपन्थी इलेक्ट्रॉन हिग्स फील्ड में से गुज़रते हैं, तो वे इस फील्ड से अन्तर्क्रिया करते हैं और दक्षिणपन्थी इलेक्ट्रॉन में बदल जाते हैं और इससे उल्टा भी होता है। उलटफेर की यह प्रक्रिया चलती रहती है। उलटफेर की दर इस बात पर निर्भर करती है कि इलेक्ट्रॉन कितने शक्तिशाली ढंग से हिग्स फील्ड के साथ अन्तर्क्रिया करता है। जब हिग्स फील्ड न हो, तो एक संहतिशुदा इलेक्ट्रॉन का व्यवहार ऐसा होता है कि वह बाईं हेलिसिटी और दाईं हेलिसिटी के बीच पलटता रहता है और उलट -फेर की दर उसकी संहति से नियंत्रित होती है। यदि संहति शून्य हो, तो वह नहीं पलटता। इस तरह से हम संहति-विहीन इलेक्ट्रॉन व क्वार्क्स को संहति दे सकते हैं और फिर भी दुर्बल बल का विवरण दाएँ-बाएँ असममित रूप में कर सकते हैं। इलेक्ट्रॉन व क्वार्क्स की संहति इस बात पर निर्भर होती है कि वे हिग्स फील्ड से कितनी शक्तिशाली अन्तर्क्रिया करते हैं।
क्या एल.एच.सी. में हिग्स कण के मिलने से इस बात की पुष्टि हो जाएगी कि कण भौतिकी का स्टैण्डर्ड मॉडल ब्रह्माण्ड की निर्माण इकाइयों का अन्तिम विवरण है? बिलकुल नहीं। हमारी मौजूदा समझ में कई खामियाँ हैं। कुछ कमियों का सम्बन्ध सौन्दर्य बोध से है। जैसे हम हिग्स-क्रियाविधि का उपयोग करके किसी भी संहति के इलेक्ट्रॉन की बात कर सकते हैं। हम इलेक्ट्रॉन-हिग्स अन्तर्क्रिया की शक्ति का मान अपने हाथ से लिख सकते हैं ताकि प्रयोग से प्राप्त इलेक्ट्रॉन की संहति प्राप्त हो जाए। सही तरीका तो यह होगा कि हमारा सिद्धान्त हमें इलेक्ट्रॉन-हिग्स अन्तर्क्रिया की शक्ति बताए।
अन्य प्रमुख खामियाँ खगोलीय अवलोकनों से उजागर होती हैं। निहारिकाओं में तारों की गति से पता चलता है कि हमारे ब्रह्माण्ड में अन्य प्रकार के कण होना चाहिए जो गुरुत्व के माध्यम से अन्तर्क्रिया करते हैं मगर ये स्टैण्डर्ड मॉडल के अंग नहीं हैं। यह तथाकथित ‘अदृश्य पदार्थ’ है। लिहाज़ा हम जानते हैं कि स्टैण्डर्ड मॉडल अधूरा है। ब्रह्माण्ड में यकीनन ऐसी चीज़ें हैं जिनका विवरण स्टैण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत नहीं करता। हमें उम्मीद है कि एल.एच.सी. हमें उनका कुछ सुराग देगा।
विक्रम व्यास: सेंट स्टीफन्स कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हैं।
अँग्रेजी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में रुचि।