मो. उमर

आज की इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में बच्चों को सब कुछ जल्दी-से-जल्दी सिखलाने की होड़ मची है। नतीजतन बच्चों की उम्र और समझ के स्तर पर ध्यान दिए बगैर शुरुआती कक्षाओं में ही वह सब कुछ भर दिया जा रहा है जिसे कम-से-कम चौथी या पाँचवीं कक्षा में बताया जाना चाहिए था।
ऐसी ही एक गतिविधि मध्य प्रदेश के एक निजी स्कूल की पहली कक्षा की गणित की पाठ्य पुस्तक में दी गई है। इसमें गणक के सिद्धान्त के आधार पर संख्याओं के अंकों को उनके स्थानीय मान के अनुसार दर्शाने के लिए खड़ी लकीरों में पिरोए गए मोतियों के चित्र का सहारा लिया गया है। बच्चे मोतियों को गिनकर नीचे बने खाली डिब्बे में संख्या लिखते हैं। बच्चों को स्थानीय मान की अवधारणा सिखाने के लिए ये अच्छी गतिविधि हो सकती है, लेकिन क्या यह पहली कक्षा के लिए उपयुक्त है?

मेरे पड़ोस में रहने वाले रोहित और अनुराग दोनों भाई हैं, उनकी दोस्त है महिमा। रोहित कक्षा एक में पढ़ता है, अनुराग दो में और महिमा कक्षा तीन में। ये बच्चे अक्सर मेरे घर के सामने ही खेला करते हैं। कभी-कभी मैं इनसे खेल-खेल में ही गणित के मौखिक सवाल करता रहता हूँ। घरों में रोज़मर्रा के उपयोग में आने वाले सामान जैसे साबुन, माचिस, मोमबत्ती आदि तो अक्सर अनुराग और महिमा ही पास की दुकान से खरीदकर लाते हैं। शायद इसीलिए मेरे सवालों के जवाब वे काफी हद तक सही दे पाते हैं। इनसे की गई बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि इनकी गणित की समझ ठीक-ठाक है।
एक रविवार की सुबह रोहित अपनी पहली कक्षा की गणित की किताब हाथ में लेकर आया और मुझसे बोला, “अंकल जी, ये वाले सवाल करा दीजिए।” उसके पीछे-पीछे महिमा और अनुराग भी आ गए।
रोहित की किताब का जो पन्ना खुला था उसमेें कई गणक बने थे। प्रत्येक चित्र में नीचे बने खाली डिब्बे में संख्या लिखनी थी। रोहित किताब में बने सभी खाली डिब्बों में संख्याएँ भर चुका था। उसकी शिक्षिका ने इसी से मिलता-जुलता सवाल उसकी कॉपी में घर पर करने को दिया था। किताब के अभ्यास से उलट इसमें शिक्षिका ने कुछ संख्याएँ लिख दी थीं, जिनके लिए रोहित को चित्र बनाना था।
मेरे पास आने से पहले ही रोहित अपनी कॉपी में एक सवाल कर चुका था। उसने अपनी कॉपी में सैंतालिस को इस तरह से दर्शाया था।
मैंने पूछा, “ये कितना है?”
वह बोला, “फोरटी सेवन।”
“कैसे?”
“फोर के लिए फोर गोले बना दिए और सेवन के लिए सेवन गोले बना दिए,” कॉपी में किए गए काम को दिखाता हुआ वह बोला।
रोहित फोरटी सेवन का मतलब जानता है या नहीं इसका पता लगाने के लिए मैंने उससे इतने ही कंकड़ ले कर आने को कहा, “अच्छा, अगर फोरटी सेवन कंकड़ लाना है तो क्या तुम ला सकते हो?”
“हाँ,” वह बोला।
“ले कर आओ।”
वह दौड़कर बाहर गया और कुछ देर बाद अपनी मुट्ठी में कई कंकड़ दबाकर लौटा।
ज़मीन पर एक-एक करके चार कंकड़ रखने के बाद उसने थोड़ा स्थान छोड़कर सात कंकड़ रख दिए।
मैंने पूछा, “कितने कंकड़ हो गए?”
“फोरटी सेवन।”
“सब गिनो।”
उसने गिनना शु डिग्री किया, “एक, दो, तीन, चार... पाँच... छ:... सात... आठ... नौ... दस... ग्यारह।”
मैंने फिर पूछा, “कितने हैं?”
“ग्यारह।”
“तुम तो फोरटी सेवन लाए थे न, कहाँ हैं फारटी सेवन?”
उसने फिर से गिना, “एक... दो... तीन... चार, एक... दो... तीन... चार... पाँच... छ:... सात।”
असल में वह 47 के 4 और 7 के साथ संगति बिठाते हुए कंकड़ों को भी अपने चित्र में बने गोलों के अनुरूप ही देख रहा था।
सामने जमाए गए कंकड़ों की ओर इशारा करते हुए मैंने पास बैठी महिमा से पूछा, “कितने हैं महिमा?”
“ग्यारह,” मन ही मन गिनकर वह बोली।
“रोहित को कितने कंकड़ लाने थे?”
“फोरटी सेवन”
“क्या तुम बता सकती हो कैसे लाना चाहिए था?”
“पहले फोरटी लाना था, फिर सेवन और ...” कुछ देर सोचकर वह बोली।
रोहित की समझ को थोड़ा और टटोला जाए यह सोचकर मैंने उसकी कॉपी में कुछ सवाल लिखना शुरु किए।
रोहित की कॉपी में 30 लिखकर मैंने पूछा, “ये कितना है?”
वह बोला, “तीस।”
मैंने कहा, “तीस कंकड़ लेकर आओ।”
पहले ही लाए गए कंकड़ वहीं पास ही रखे थे, सो रोहित ने उनमें से ही कुछ कंकड़ उठा लिए।
मेरे सामने तीन कंकड़ बिछाते हुए बोला, “तीन।”
“कैसे पता चला कि तीन कंकड़ लेकर आना है?”
“ये देखिए, तीन और मैंने तीन ला दिए, ज़ीरो का मतलब तो कुछ नहीं ...” कॉपी में लिखे 30 के अंक 3 और 0 की ओर इशारा करते हुए वह बोला।
रोहित ने तीस दर्शाने के लिए एक खड़ी लकीर में तीन मोती बनाए थे। यदि वह 30 को इस तरह दर्शा रहा है तो 3 को कैसे दर्शाएगा, यह सोचकर मैंने उसकी कॉपी पर 3 लिख दिया।
“ये कितना लिखा है?” 3 की ओर इशारा करते हुए मैंने फिर पूछा।
“तीन।”
“तीन कंकड़ लाओ।”
इस बार फिर उसने बड़े ही सहज भाव से तीन कंकड़ उठाकर मेरे सामने रख दिए।
“कैसे पता चला?” मैंने पूछा।
“तीन देखकर ...” वह बोला।
तीस और तीन दोनों को ही दर्शाने के लिए उसने तीन कंकड़ रखे थे। मैं देखना चाहता था कि तीन सौ के लिए भी वह ऐसा ही करता है या कुछ और, सो मैंने अपनी जाँच जारी रखी।
कॉपी पर 300 लिखकर पूछा, “ये कितना लिखा है?”
“थिरी हंड्रेड,” वह बोला।
“इसके लिए भी कंकड़ ले कर आओ।”
“ये तीन कंकड़... और... ज़ीरो तो कुछ होता ही नहीं... तो कुछ नहीं...।”
मुझे जिस बात का अन्देशा था वैसा ही हो रहा था। रोहित ने 3, 30 और 300 के लिए तीन-तीन कंकड़ ही रखे थे।
इसी बात की ओर ध्यान दिलाने के लिए मैंने कहा, “थ्री के लिए भी तीन कंकड़ और थ्री हंड्रेड के लिए भी तीन कंकड़?”
कुछ देर सोचने के बाद तीन कंकड़ों के आगे दो कंकड़ और बिछाते हुए वह बोला, “ये दो ज़ीरो लग गए।”
। । ।
अब तक अनुराग और महिमा भी हमारी बातचीत में रुचि लेने लगे थे। वे बार-बार मुझसे कह रहे थे कि ये वाले सवाल तो उन्हें आते हैं। सो मैंने कुछ बातचीत इनके साथ भी की।
पहले अनुराग की कॉपी पर 1 लिखकर मैंने पूछा, “ये कितना है?”
“वन है सर,” वह बोला।
“इसके लिए चित्र कैसे बनाएँगे?”
उसने एक डण्डा और उसमें एक गोला बना दिया।
“ये क्या बनाया है?” मैंने पूछा।
“वन का डण्डा और ज़ीरो” अपनी उँगली से चित्र दिखाते हुए वह बोला।
“ये डण्डा एक का डण्डा है?” मैंने फिर से पूछा।
“हाँ।”
“और ये ज़ीरो है?”
“हाँ।”
सीधी-खड़ी लकीर को वह ‘वन का डण्डा’ कह रहा था और मोती के लिए बने गोले को ‘ज़ीरो’ कह रहा था।
अपने सवाल जारी रखते हुए मैंने कहा, “एक कंकड़ दो।”
उसने एक कंकड़ उठाकर मेरे सामने रख दिया।
“अब दो कंकड़ दिखाओ,” मैंने कहा।
“ये एक है... ये दो है,” ज़मीन पर एक-एक कर दो कंकड़ जमाते हुए वह बोला।
जो गलती रोहित कर रहा था, क्या वैसी ही अनुराग भी करता है, यह जानने के लिए इस बार मैंने कॉपी पर 10 लिखकर उससे पूछा, “ये कितना है?”
“टेन”
“टेन कैसे लिखते हैं?”
“इंगलिश में... टी...इ...एन... टेन” स्पेलिंग बताते हुए वह बोला।
“नहीं... इसे नम्बर में कैसे लिखते हैं?”
“पहले एक बनाते हैं... फिर ज़ीरो बनाते हैं।”
दस के लिए चित्र बनाने को कहने पर उसने वही बनाया जो एक के लिए बनाया था।
चित्र में दिख रहे गोले की ओर इशारा करते हुए मैंने पूछा, “ऊपर कितनी चीज़ें दिख रही हैं?”
वह बोला, “वन।”
“कैसे?”
“वन का वन... ज़ीरो के लिए कुछ नहीं।”
हम देख सकते हैं कि यहाँ पर उसके लिए 0 का अर्थ बदल रहा है। पहले उसने जब “वन का डण्डा और ज़ीरो” कहा था तब वह गोले को 0 मान रहा था लेकिन अब वह उसे 1 के लिए दर्शाई जा रही वस्तु मान रहा है। यह सब बातें इशारा करती हैं कि वह भ्रम और तुक्के के बीच जूझते हुए उत्तर दे रहा है।
मैंने फिर पूछा, “ज़ीरो क्या होता है?”
“कुछ नहीं होता।”
“ये किसने बताया?”
“हम ट्यूशन जाते हैं... ज़ीरो से कुछ भी नहीं... कुछ नहीं... वो तो ऐसे ही लिख देते हैं।”
“सौ में जो ज़ीरो होते हैं वो क्यों होते हैं?”
“कुछ नहीं...”
“तो फिर क्यों लिखते हैं?”
“ताकि सौ हो जाएँ... एक ज़ीरो में दस होगा, दो ज़ीरो में सौ बन जाएगा।” अपनी उँगलियों के इशारे से उसने मुझे बताया।
मैंने कहा, “दस कंकड़ लाकर दिखाओ।”
अपने दोनों हाथों से बनी अंजुरी में सारे कंकड़ समेटते हुए महिमा बोली, “चल तू मेरे हाथ से कंकड़ उठा ले।”
अनुराग ने गिनती गिनते हुए महिमा की अंजुरी से कंकड़ उठाए “एक... दो... तीन... चार... पाँच... छह... सात... आठ... नौ... दस।”
“ये कितने हैं?” मैंने पूछा।
“टेन... अपन को दस कंकड़ तो उठाना है, लेकिन कॉपी में एक लिखेंगे .... 0 का तो कुछ नहीं है न ...” हाथ हिलाते हुए वह बोला।
“महिमा के हाथ में से कितने कंकड़ उठाए? फिर से गिनो।” मैंने दोबारा कहा।
“एक... दो... तीन... चार... पाँच... छ:... सात... आठ... नौ... दस।”
“चित्र में क्या बनाया है?”
“दस में एक है... तो एक डण्डा खींच कर उसमें एक गोला बना दिया... 0 तो कुछ नहीं, हो गया आनसर।”
यहाँ दस चीज़ों के समूह की अवधारणा प्रयोग हो रही है पर बच्चे के मन में इसका अनुभव नहीं बना है। उसने ठोस चीज़ों को दस-दस के समूह में गिनकर विभिन्न क्रियाएँ की होतीं तो कुछ समय बाद वह अपने मन में यह ज्ञान निर्मित कर लेता कि 10 में एक और ज़ीरो का क्या अर्थ होता है।
मैंने एक कागज़ में 2, 3, 5, 20 और 200 लिखकर उनके लिए चित्र बनाने को कहा। कुछ देर में जब उसने अपना काम करके कॉपी दिखाई तो यहाँ भी 20 और 200 दोनों को ही एक डण्डा खींचकर उसमें दो गोले बना कर दर्शाया था।
बीस के लिए बने चित्र को दिखाकर मैंने पूछा, “ये क्या है?”
“टोअन्टी बनाया है,” वह बोला।
“कैसे?”
“इस 2 के लिए डण्डा बनाकर दो गोले... और ज़ीरो के लिए कुछ नहीं।”
“और 200 में क्या बनाया है?”
“हमने 2 लिखे... और 0 का कुछ नहीं।”
“अगर दो सौ कंकड़ दिखाने हैं तो...?” मैंने पूछा।
अनुराग ने महिमा के हाथों से दो कंकड़ उठाते हुए कहा, “ये लो।”
“तुमने बीस और दो सौ, दोनों के लिए चित्र एक ही बनाया है।”
“क्योंकि ज़ीरो का मतलब तो कुछ होता ही नहीं... होता ही नहीं,” थोड़ा खीझते हुए वह बोला।
। । ।
अब बारी थी महिमा से बात करने की। उसने वह पर्चा मेरे हाथों में दिया जिसमें उसने मेरे द्वारा दिए गए सवाल किए थे।
“ये कितना है?” 13 के लिए किए गए काम की ओर इशारा करते हुए मैंने पूछा।
“थरटीन,” वह बोली।
“तेरह कंकड़ दिखाओ।”
“वन और थिरी,” पास रखे कंकड़ों से पहले एक, फिर तीन उठाते हुए वह बोली।
“वन और थ्री थरटीन बन गया?” मैंने पूछा।
“यस।”
“गिनो।”
“एक... दो... तीन... चार,” उसने गिना।
“होने कितने चाहिए?” मैंने फिर से पूछा।
“थरटीन, वन और थिरी।”
“ये फोर है कि थरटीन है?”
“वन और थिरी।”
अगले सवाल में एक सौ तीस था। उस पर उँगली दिखाते हुए मैंने पूछा, “इसमें क्या बनाया है?”
“वन और थिरी... ज़ीरो का कुछ नहीं।”
“ज़ीरो माने क्या?”
“कुछ नहीं....।”
“अगर 130 में 0 हटा दें तो...?”
“तो... थरटीन बन जाएगा।”
“और 0 लगा दें तो...?”
“वन हंड्रेड थरटी बन जाएगा।”
“वन हंड्रेड थरटी कंकड़ दिखाओ।”
महिमा ने कंकड़ों को जमाना शु डिग्री किया। पहले उसने एक रखा फिर थोड़ी जगह छोड़कर तीन रखे और अन्त में एक और कंकड़ जमाते हुए बोली, “वन... थिरी... ज़ीरो।”
मैंने फिर कहा, “गिनो, कितने कंकड़ हैं?”
“एक... दो... तीन... चार... पाँच।”
“कितने कंकड़ हैं?”
“एक सौ तीस।”
“अगर हम तुमको एक सौ तीस टॉफी दे रहे हैं। पहले एक टॉफी दें, फिर तीन दें और फिर ज़ीरो दें तो क्या एक सौ तीस हो जाएँगी?” मैंने पूछा।
“नहीं,” वह बोली।
“तो एक सौ तीस टॉफी कैसे देंगे?” मैंने फिर से पूछा।
“पहले एक, फिर तीन, फिर ज़ीरो।” उसका जवाब पहले जैसा ही था।
“कितनी मिलीं?”
“चार।”
“लेकिन हम तो एक सौ तीस देने वाले थे।”
कुछ देर छत की ओर मुँह उठाकर सोचते हुए वह बोली, “आप हमें थरटीन दोगे... ज़ीरो का कुछ नहीं दोगे।”
हमारी बातचीत अभी चल ही रही थी कि अचानक बिजली आ गई और बच्चे “कार्टून देखना है, कार्टून देखना है” कहते हुए भाग गए।
। । ।
आज की इस बातचीत से मुझे काफी सीखने को मिला है। यह सब गड़बड़ जो ऊपर हुई है वह बच्चों के मन में संख्याओं को लेकर बनने वाली अपरिपक्व और खण्डित समझ का नतीजा है। बच्चा पहली लकीर में पिरोए तीन मोतियों के लिए डिब्बे में 3 लिख रहा है और फिर दूसरी लकीर में पिरोए पाँच मोतियों के लिए इसी डिब्बे में 5 लिख रहा है। इस तरह उसे स्वयं और हम सबको भी अन्तत: 35 लिखा हुआ ज़रूर दिखाई दे रहा है लेकिन 35 का मतलब क्या है यह उसे समझ में नहीं आ रहा है। तीन मोती गिनकर 3 लिखना और पाँच मोती गिनकर 5 लिखने की गतिविधि से न तो हम पैंतीस चीज़ों के होने का अहसास करा सकते हैं, और न ही स्थानीय मान समझा सकते हैं जो शायद इस गतिविधि को किताब में डालने का प्रमुख उद्देश्य रहा होगा। उल्टा ये सब बच्चों के मन में भ्रम और असमंजस को ज़रूर जन्म दे रहा है।
मुझे लगता है कि स्थानीय मान के सिद्धान्त थोड़ी ऊपर की कक्षाओं में ही बताए जाएँ तो बेहतर रहेगा। कक्षा एक या दो में तो हरगिज़ नहीं। हम देख सकते हैं कि जिस गतिविधि के प्रयोग से बच्चों में स्थानीय मान की समझ विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिए था, वह गतिविधि महज़ लकीरें खींच कर उसमें गोले बनाने भर तक सिमट कर रह गई है। गणित शिक्षण के तौर तरीकों पर किए जा चुके कई शोध यह बताते हैं कि शुरुआती कक्षाओं में बच्चों को पूर्ण संख्याओं से ही पढ़ाना चाहिए। वह भी ठोस वस्तुओं के उपयोग के साथ-साथ। इसके लिए गिनमाला या मोती माला का प्रयोग कर सकते हैं। जब बच्चा एक से लेकर पैंतीस मोती या पत्थर गिनते हुए अपने हाथों से महसूस करके देखता है और फिर 35 लिखता है तब वह वास्तव में, पैंतीस के अर्थ के साथ अपना रिश्ता बना पाता है।
एक और बात जो मुझे खटक रही है कि हमारी प्रारम्भिक कक्षाओं में बच्चों को जिस तरीके से शून्य से परिचय कराया जाता है उसमें भी बहुत खामी है। अधिकांश शिक्षक बच्चों को ‘ज़ीरो माने कुछ नहीं’ कह कर आगे बढ़ जाते हैं। ज़ीरो की यह छवि कई बच्चों के दिमाग में इस हद तक रच बस जाती है कि वे हर जगह इसे लागू करने का प्रयास करते हैं। ये तीनों ही बच्चे 3 और 30 के फर्क को बहुत अच्छे से जानते-समझते हैं लेकिन फिर भी चर्चा के दौरान वे बार-बार कह रहे थे कि “ज़ीरो का मतलब कुछ नहीं, ज़ीरो तो ऐसे ही लिख देते हैं।” उनके स्कूल के शिक्षक या ट्यूशन वाले शिक्षक ने पता नहीं किस सन्दर्भ में यह बात कही होगी कि “ज़ीरो का मतलब कुछ नहीं” लेकिन बच्चों ने तो इस बात को गाँठ बाँध लिया है। उनके लिए अब कहीं भी किसी भी स्थान पर लिखे हुए शून्य का मतलब कुछ नहीं हो कर रह गया है।
पाठ्यपुस्तकों में शून्य
एनसीईआरटी तथा एससीईआरटी, मध्यप्रदेश की पहली कक्षा की गणित पाठ्यपुस्तक में क्रमश: शून्य और शून्य की समझ नामक पाठों में शून्य से बच्चों का परिचय कराने के लिए सुन्दर चित्रों के माध्यम से सतत् घटाने की क्रिया का प्रयोग किया है।
एनसीईआरटी की किताब में माला के पास टोकरी में पाँच आम रखे हैं। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं।
पाँच रसीले आम
टोकरी में रखे थे
माला ने खाया एक
कितने बच गए शेष?
कविता पढ़ने के बाद बच्चे सामने बनी टोकरी के आमों को गिनकर गोले में उत्तर लिखेंगे। अगले चित्र के लिए यही कविता इस प्रकार हो गई है।
चार रसीले आम
टोकरी में रखे थे
माला ने खाया एक
कितने बच गए शेष?

इस तरह हर बार एक आम कम होता जा रहा है और अन्तत: टोकरी खाली है। इस बार गोले में शून्य का चिन्ह 0 लिखा है। इसके बाद के अभ्यास में भी पिंजरे में बन्द तीन चूहे पिंजरे का दरवाज़ा खुलने से एक-एक कर भागे जा रहे हैं। प्रत्येक चित्र के साथ बने गोले में बच्चों को शेष बचे रह गए चूहों की संख्या लिखते जाना है। इसी क्रम में खाली पिंजरे के नीचे बने गोले में बच्चों से अपेक्षा है कि वे उसमें 0 भरें।
एससीईआरटी, मध्य प्रदेश की किताब में भी ऐसा ही किया जा रहा है। एक लड़के के हाथ में दो गुब्बारे हैं, नीचे बने खाने में 2 लिखा है। दूसरे चित्र में इसी लड़के के हाथ में एक गुब्बारा बचा है और सामने खाने में 1 लिखा है। तीसरे चित्र में लड़के का हाथ खाली है उसमें एक भी गुब्बारा नहीं है और सामने के खाने में 0 लिखा है। इसी तरह एक बेंच पर बैठे तीन बच्चे एक-एक कम होते जा रहे हैं अन्तत: खाली बेंच बची है। एक और अभ्यास में दो बन्दर डाली पर बैठे हैं और एक नीचे बैठा है। प्रत्येक चित्र में एक-एक बन्दर कम होता जा रहा है। बच्चे बन्दरों की संख्या गिनकर सामने बने गोलों में भरते जाएँगे। आखिरी चित्र में जहाँ खाली पेड़ दिख रहा है उसके सामने बने गोले में बच्चों को 0 लिखना है।

किताबें देखकर हम जान सकते हैं कि दोनों ही संस्थाएँ शून्य की अवधारणा को लेकर काफी गम्भीर हैं। दोनों ने ही एक से नौ तक की संख्याओं से परिचय करा चुकने के बाद ही शून्य से परिचय कराया है जो कि सही भी है। लेकिन इसके बाद शून्य एक नए सन्दर्भ - 10, 20, 90, 100, 105 या 130 के साथ बच्चों के सामने आता है। अब शिक्षक की ज़िम्मेदारी काफी बढ़ जाती है कि वो कंकड़, बीज, बटन, मोती, आदि के माध्यम से समूहीकरण की गतिविधियाँ अच्छे से कराएँ। इस दौरान बातचीत और सवाल-जवाब करने का बड़ा महत्व है: बच्चे न सिर्फ ठोस रूप में चीज़ों को गिनें बल्कि साथ-साथ संख्याओं को लिखते भी जाएँ। शिक्षक की मध्यस्थता बच्चों को यह बात समझाने में होनी चाहिए कि दस के लिए लिखे गए 10 को बच्चे सिर्फ एक और शून्य न समझें बल्कि अब यहाँ पुराने चिन्हों --1 और 0 के इस्तेमाल से एक नई संख्या जो दस को दर्शाएगी का निर्माण किया जा रहा है। यहाँ 10 के 1 को एक और 0 को कुछ नहीं मान लेने से गड़बड़ हो जाएगी। अब यह 1 दस वस्तुओं के एक समूह को दर्शा रहा है और 0 संकेत दे रहा है कि दस के समूहीकरण कर चुकने के बाद खुली इकाई एक भी नहीं है। इसी तरह 105 के लिए दस-दस के दस समूहों को मिलाकर सौ का एक बड़ा समूह बना लिया गया है। अब दस का कोई समूह नहीं है केवल पाँच खुली इकाइयाँ बची रह गई हैं। तो यहाँ पर 105 का 1, एक सौ के समूह को दिखा रहा है, 0 के मायने हैं कि 100 के ऊपर दस का एक भी समूह नहीं है और 5, पाँच खुली इकाइयाँ हैं। इस तरह हम देख सकते हैं कि अलग-अलग सन्दर्भों में स्थान के अनुरूप शून्य के मायने भी बदल रहे हैं। यदि इकाई के स्थान पर 0 है तो इसके मायने हैं कि एक भी खुली वस्तु नहीं है, सभी का समूहीकरण दस-दस में या सौ में किया जा चुका है, जबकि दहाई के स्थान पर लिखा 0 बता रहा है कि 100 में समूहीकरण के बाद एक भी समूह दस का नहीं है। तो हम देख सकते हैं कि किस प्रकार अलग-अलग परिस्थितियों में शून्य की भूमिका बदल रही है। इस पेचीदा हालात में शून्य माने कुछ नहीं कह देने भर से बच्चों की समझ विकृत हो जाने की सम्भावना है।
पहली कक्षा की इन दोनों ही किताबों में आगे चलकर माचिस की तीलियों की मदद से कई अभ्यास बताए गए हैं। इन अभ्यासों को बच्चों के साथ करते हुए ऊपर आ रही समस्याओं से काफी हद तक उबरने में मदद मिलेगी।

फिर भी इस पूरे मामले में जो जटिल, अमूर्त विचार हैं उनको आत्मसात करने में बच्चों को कई साल लगते हैं। शिक्षकों को इस चुनौती की जटिलता के प्रति पूरी तरह सचेत रहने की ज़रूरत है।


मो. उमर: एकलव्य, होशंगाबाद में गणित समूह में कार्यरत हैं। नाटक निर्देशन में विशेष रुचि।