सतीश ओगले

लेजर किरणों के बारे में सुनने को तो बहुत मिलता है परन्तु यह जानकारी कि दरअसल लेजर किरणें सामान्य प्रकाश से अलग कैसे हैं, और इसे प्राप्त कैसे किया जाता है, अक्सर उपलब्ध नहीं होती। वहां से शुरू करके नोबेल पुरस्कार का कारण बने परमाणु लेज़र तक का सफर है इस लेख में।

हाल ही में एक विज्ञान पत्रिका में एक लेख पढ़ा। यह लेख इलेक्ट्रॉनिक इंटिग्रेड सर्किट चिप पर फिट किए जा सकने वाले एक ना! तरह के लेज़र के संबंध में था। खबर में उल्लेख था कि वैज्ञानिकों को परमाणुओं का लेज़र बनाने में सफलता मिल गई है। पढ़कर काफी आश्चर्य हुआ - परमाणु का लेज़र और वो भी इतनी छोटी चिप पर। इम विपय में और पढ़ने-जानने की जिज्ञासा बढ़ी। इस बारे में जो कुछ पढ़ा और समझा उसे यहां संक्षेप में बताने की कोशिश कर रहा हूं। इस नए शोधकार्य के बारे में बताने से पहले लेज़र के बारे में थोड़ा जानना जरूरी लगता है।
लेज़र के बारे में मोटे तौर पर सभी लोग इतना तो जानते हैं कि यह एक अनूठी प्रकाश किरण है। अनूठी इस मायने में कि मीलो-मील चलने के बाद भी इस प्रकाश पुंज की किरणें एकदम समान्तर चलती रहती हैं, आजू-बाजू में फैलती नहीं हैं। और सिर्फ इतना ही नहीं, लेज़र की चमक तेज़ व बरकरार बनी रहती है। सामान्य बिजली के बल्ब में निकलने वाली किरणों को लेंस की सहायता से समान्तर बनाने की कितनी भी कोशिशें की जाएं, किरणें आजू-बाजू में थोड़ी फैल ही जाती हैं, ज्यादा दूरी तक

चित्र 'अ' असुसंगत प्रकाश किरण में अलग-अलग तरंगदैर्ध्य यानी तरंग लम्बाई की किरणें होती हैं जिसकी वजह से वे एक-दूसरे की दोलन स्थितियों (phase) से तालमेल नहीं बैठा पाती। चित्र 'ब' एक जैसी तरंग लंबाई की तरंगें भी दोलन स्थिति (phase) के मामले में एक-दूसरे में फर्क या अमुर्मगत हो सकती हैं। चित्र 'स' लेज़र किरणें समान लंबाई की होने के साथ-साथ दोलन स्थिति के मामले में भी एक जैसी होती है, यानी वे सुसंगत होती हैं।

एकदम समान्तर नहीं रह पाती। इससे इस बात का पता चलता है कि लेजर किरणों में कोई वाम गुण है जिसे सिर्फ किरणों की समान्तरता से नहीं समझाया जा सकता। इस विशेष गुण को सुसंगतता (coherence) कहा जाता है। विद्युत चुंबकीय तरंगों की भाषा में बात करें तो यह कहा जा सकता है। कि लेज़र किरणों में समस्त तरंगों की दोलन स्थिति (phase) पूरी तरह सुसंगत होती है। एक और बात कि लेजर किरणें पैदा होते समय तरंगें एक बार सुसंगत हो जाने के बाद, वे आसानी से असुसंगत नहीं हो पातीं। या दूसरे शब्दों में सुसंगतता से पहचानी जाने वाली लेज़र किरणों की समांतरता को बिगाड़ पाना आसान नहीं है। यदि लेज़र किरणें हवा में से होकर गुज़र रही हों, तो हवा में मौजूद अणु-परमाणु किरणों के मार्ग में आने के बावजूद किरणों के बिखराव यानी स्केटरिंग की संभावना एकदम हीं न्यून है। जबकि रौशन बिजली के बल्ब के सामने लेंस लगाकर किरण पुंज को समान्तर किया जाए तो इस किरण पुंज की किरणें एक-दूसरे के साथ सुसंगत नहीं होतीं और वे आसानी से बिखर सकती हैं।

क्या है लेज़र का मतलब  
सच तो यह है कि सुसंगतता और लेज़र के बारे में गहराई से जानने के लिए क्वांटम थ्योरी की कुछ मोटी-मोटी बात समझ लेना फायदमद रहग क्वांटम थ्योरी के मुताबिक हरेक परमाणु के भीतर धन आवेशित कणों वाले परमाणु केन्द्रक के चारों ओर ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन कुछ खास ऊर्जा अवस्थाओं पर ही टिके रह सकते हैं। इसलिए इन ऊर्जा अवस्थाओं में किसी भी किस्म के बदलाव होने की स्थिति में, ऊर्जा बंडल/पैकेट के रूप में नी या छोड़ी जा सकती है। ऐसे विद्युत चुंबकीय ऊर्जा के बंडल को फोटॉन कहते हैं।
यानी ऊर्जा परिवर्तन के माध्यम मे फोटॉन जन्म लेता है या नष्ट हो जाता है। यदि बाहर से आने वाले फोटॉन को किसी परमाणु में मौजूद इलेक्ट्रॉन ने अवशोषित कर लिया तो इलेक्ट्रॉन ऊपर की ऊर्जा स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन वह इलेक्ट्रॉन इस उच्च ऊर्जा स्थिति में ज्यादा देर टिक नहीं पाता और इसलिए कुछ देर बाद एक फोटॉन का उत्सर्जन करके फिर से अपनी पहले वाली ऊर्जा स्थिति पर लौट आता है। जितने समय तक इलेक्ट्रॉन उच्च स्थिति या उत्तेजित अवस्था में बना रहता है, उसे उत्तेजित अवस्था की जीवन अवधि कहते हैं। अलग-अलग ऊर्जा स्थितियों के लिए यह जीवन अवधि भी फर्क होती है।

मान लीजिए हमने कोई गैस, तरल या ठोस पदार्थ लिया है जिसमें ढेर सारे परमाणु मौजूद हैं। इस पदार्थ को बाहर से ऊर्जा दी जाए (यहां बाहर से ऊर्जा देने के लिए प्रकाश किरणों की बौछार करना या उच्च तापमान देना हो सकता है), तो पदार्थ में मौजूद अलग-अलग परमाणुओं के इलेक्ट्रॉन उस ऊर्जा का शोषण करते हैं और कुछ देर बाद अनियत अंतराल से फोटॉन के रूप में ऊर्जा को बाहर फेंकते हैं। ऊर्जा के इस उत्सर्जन में किसी भी प्रकार की सुंसगतता (coherence) या लय नहीं होती। बाहर आने वाली किरणों के दोलनों में भी कोई परस्पर संबंध नहीं होता।
किसी बिजली के बल्ब में टंगस्टन की वायर गर्म होने के बाद जो प्रकाश किरणें निकलती हैं उनकी भी यही स्थिति होती है। इन प्रकाश किरणों को लेंस की मदद से समान्तर करने की कितनी भी कोशिश की जाए, सवाल यह है कि उनके दोलनों को एक लय कैसे दी जा सकती है? इस संबंध में आइंस्टाइन द्वारा की गई एक खोज ने आगे चलकर लेज़र की खोज की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी।
 
आइंस्टाइन ने बताया कि किसी परमाणु में यदि इलेक्ट्रॉन निचली ऊर्जा स्थिति 'अ' से उत्तेजित होकर ऊर्जा स्थिति 'ब' पर गया है। तो अब अगर इन दो ऊर्जा स्थितियों के अंतर के बराबर ऊर्जा (Eh - Ea) उसे बाहर से आपतित फोटॉन के जरिए दी जाए, तो वो इलेक्ट्रॉन तुरंत निचले ऊर्जा स्तर पर लौट आता है और एक फोटॉन उत्सर्जित करता है। बाहर से आने वाले फोटॉन ने इलेक्ट्रॉन को ऊर्जा उत्सर्जित करने के लिए प्रेरित किया इसलिए इसे उत्तेजित या उद्दीप्त उत्सर्जन (stimulated emission) कहते हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इलेक्ट्रॉन द्वारा बाहर फेंके गए फोटॉन की ऊर्जा और स्थिति (फेज) बाहर से आने वाले यानी आपतित फोटॉन से पूरी तरह सुसगंत होती है। इस प्रक्रिया में यहां एक जैसे गुणधर्म वाले दो सुसंगत फोटॉन बनते हैं।

अब मान लीजिए हम एक-दूसरे से समानता रखने वाले परमाणुओं के इलेक्ट्रॉन एक निश्चित ऊर्जा स्थिति स्तर पर ले जाएं और फिर उन परमाणुओं के समूह से उत्तेजित उत्सर्जन करवाया जा सके। ऐसे खास ऊर्जा वाले फोटॉन उनपर दागे जाएं तो क्या होगा? सबसे पहले तो एक परमाणु के उत्तेजित उत्सर्जन से दो सुसंगत फोटॉन बनेंगे, वे दोनों दो और परमाणुओं से टकराएंगे और उनसे चार फोटॉन निर्मित होंगे, उन चार से आठ, आठ से सोलह... इस तरह सुसंगत फोटॉन का काफी विशाल उत्तेजित उत्सर्जन निर्मित होने की वजह से और भी सुसंगत फोटॉन्स के बाहर निकलने की संभावना बढ़ जाती है।
यहीं है लेज़र पुंज के निर्माण की प्रक्रिया। इस तरीके को एम्पलिफिकेशन या आवर्धन कहा जाता है। उत्तेजित उत्सर्जन के ज़रिए आवर्धन करते हुए सुसंगत प्रकाश किरणों के स्रोत को निर्मित करने वाली इस प्रक्रिया यानी Light Amplication by Stimulated Emission of Radiation में से पहले अक्षर लेकर लेजर (laser) शब्द बनाया गया है।
सुसंगतता एक खास गुणधर्म है। और ये स्थिर व्यतिकरण (interference) को दिखाता है। उदाहरण स्वरूप पानी पर उठने वाली लहरों के मार्फत इसे समझाया जा सकता है। मान लीजिए हम एक शांत तालाब के किनारे खड़े हैं। तालाब का पानी एकदम स्थिर है, हवा की वजह से भी पानी की ऊपरी सतह पर लहरें नहीं उठ रही हैं। अब मान लीजिए एक व्यक्ति तालाब के किनारे बैठकर लकड़ी से एक समान गति से पानी को पीट रहा है। पानी की इस पिटाई की वजह से पानी की ऊपरी सतह पर तरंगें निर्मित होंगी, जो पानी पर फैलती जाएंगी। यदि लाठी को एक लय से चलाया जाए तो पानी पर बनने वाली लहरों में भी एक लय दिखाई देगी।

अब तालाब के दूसरे किनारे पर एक दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह रिदम में (लय में) पानी को लाठी से पीटने लगे तो वहां से भी तरंगें निर्मित होंगी। इन हालात में हमें दिखाई देगा कि पानी की सतह पर दोनों ओर से निर्मित तरंगों का एक-दूसरे में व्यतिकरण होकर एक स्थिर, और देखी जा सकने वाली आकृति या पैटर्न बन रही हैं।
दोनों किनारों में समान गति व लय से पानी पर लाठी चलाई जाती रही तो बनने वाला पैटर्न भी स्थिर रहेगा। समान लय से निर्मित सुसंगत लहरों की वजह से ऐसे पैटर्न बना पाना संभव है। इसी तरह दो लेजर किरणों से भी ऐसा स्थिर पैटर्न बनाया जा सकता है। ऐसा कर पाना आसान हैं और इससे उनकी (किरणों की) सुसंगतता भी साबित होती है। अब एक बार फिर तालाब वाले उदाहरण की ओर लौटते हैं। यदि पानी पर लाठी मारने वाले दोनों व्यक्ति अपनी-अपनी लाठियां आड़ी-तिरछी, बीच में रोककर या बेताल तरीके से चलाने लगे तो क्या होगा? पानी की ऊपरी सतह ऊपर-नीचे होती हुई ज़रूर दिखेगी लेकिन असमान दोलनों की तरह। कहीं भी कोई स्थिर आकृति (पैटर्न) नहीं दिखेगी। दो बिजली के बल्बों से निकलने वाली प्रकाश किरणों के मामले में भी यही हालात होते हैं। प्रकाश किरणों में सुसंगतता या लय न होने की वजह से उनके व्यतिकरण में स्थिर आकृति निर्मित नहीं होती।

परमाणुओं का लेज़र  
लेजर के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल करने के बाद अब हम उस विषय की ओर आ सकते हैं जहां से हमने शुरुआत की थी। प्रकाश लेजर की चर्चा करते हुए हमने सुसंगत फोटॉन की बात की थी। सुसंगतता पर चर्चा करते समय विद्युत-चुम्बकीय तरंगों की एक समान दोलन स्थिति (फेज), तरंग लंबाई, कम्पन गति जैसे गुणों के बारे में बताना आसान होता हैं, लेकिन परमाणु के लेजर में सुसंगतता का क्या मतलब होगा? दो परमाणु सुसंगत हैं इसका क्या अर्थ निकाला जाए? यदि आम बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो दोलन स्थिति यानी फेज़ और गति के मामले में दो परमाणुओं के गुणधर्म एक-दूसरे से मेल खाते हों तो उन्हें सुसंगत परमाणु (coherent atom) कहा जा सकता है। कई बार फेज़ के बारे में बताते समय तरंगों की मदद से समझने में आसानी होती है। तरंग के किसी एक जगह, एक ही समय के दोलन को ही फेज़ यानी दोलन स्थिति कहते हैं। |
परमाणुओं के बारे में भी ऐसी 'तरंग कल्पना अस्तित्व में है। पिछली शताब्दी के शुरुआती वर्षों में क्वार्टम थ्योरी का विकास होने लगा था। इस संबंध में उस वक्त ‘लुई द ब्रोग्ली' ने अपने विचार प्रस्तुत किए थे। उस समय परमाणु की संरचना के बारे में जितनी भी जानकारी उपलब्ध थी उसके आधार पर उसने कहा कि प्रत्येक कण या पदार्थ के साथ एक तरंग होना स्वाभाविक है। ब्रोग्ली ने इन तरंगों को पदार्थ तरंग (matter wave) कहा।

परमाणु संरचना के बारे में और जानकारी प्राप्त होने के बाद कई बार ऐसा महसूस होता था कि परमाणुओं से संबंधित अनेक घटनाओं/अनुभवों पर तरंगों का गणित एकदम फिट बैठता है। अगर परमाणुओं को एक कण के रूप में देखा जाए तो कई बार अनेक घटनाओं/अनुभवों की व्याख्या करना या उन्हें समझ पाना बहुत ही मुश्किल होता है। इन्हीं सब बिन्दुओं पर अपने विचार रखते हुए श्रोडिंगर ने अपना प्रसिद्ध समीकरण प्रस्तुत किया जिसे श्रोडिंगर का 'तरंगे समीकरण' भी कहते हैं।
आगे चलकर तरंगों का गणित क्वांटम थ्योरी में समाहित हो गया। इस बाबत और गहराई में जाकर चर्चा न करते हुए यहां सिर्फ इतना ही कहना उचित होगा कि जिस तरह प्रकाश किरणों की सुसंगतता के बारे में हमने विद्युत चुम्बकीय तरंगों की भाषा में बात की थी, उसी तरह परमाणुओं की सुसंगता के बारे में बात करते हुए हम ‘पदार्थ तरंगों' की भाषा में बात करेंगे।
अमरीका के मैसेच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के 43 वर्षीय नोबेल पुरस्कार विजेता वुल्फगन्ग केटर्ली ने परमाणु से लेज़र विषय पर हाल में काफी मौलिक शोध किया है।
आज से लगभग 80 साल पहले सत्येन्द्र नाथ बोस और आइंस्टाइन ने सन 1924 में परमाणुओं के संबंध में एक भविष्यवाणी की थी जिसे बोस आइंस्टाइन संघनन (condensation) सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत के प्रस्तुतिकरण के 70 साल बाद 1995 में केटर्ली ने इसे एक प्रायोगिक जामा पहनाया: जिसके लिए केटर्ली, कार्वन और वीमन को सन् 2001 में नोबल सम्मान दिया गया। इसी खोज का इस्तेमाल केट ने ‘परमाणुओं से लेज़र' परिकल्पना के लिए भी किया।

हमने देखा कि प्रकाश किरणों वाले लेज़र में क्रियाशील माध्यम को एक जगह-विशेष में फंसाकर रखते हुए, उत्तेजित अवस्था में ले जाकर उत्सर्जन के लिए बाध्य किया जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें से लेजर किरणें बाहर निकलती हैं।
परमाणु से लेजर बनाने के लिए केटर्ली ने भी इसी तरीके को अपनाया। उसने चुम्बकीय क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए परमाणुओं के समूह को एक छोटी जगह में बनाए/फंसाए रखा। परमाणुओं के इस समूह को प्रकाश लेजर का इस्तेमाल करते हुए बेहद ठंडा किया और बोस-आइंस्टाइन संघनन की परिस्थतियों को निर्मित किया गया। आखिर में इस संघनित पदार्थ को रेडियो फ्रिक्वेंसी का विद्युत चुम्बकीय झटका दे कर उसमें से सुसंगत परमाणुओं को बाहर निकाला गया।
बाहर निकले हुए परमाणु सुसंगत हैं, सिर्फ समान्तर चलने वाले परमाणु नहीं हैं यह साबित करना एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। परमाणुओं की सुसंगतता को साबित करने के लिए केटर्ली ने एक बार फिर व्यतिकरण यानी इंटरफेरेंस का सहारा लिया। उसने परमाणुओं के स्रोत का इस्तेमाल करते हुए सिर्फ व्यतिकरण से बन सकने वाली एक विशेष स्थिर आकृति को बनाकर दिखाया।

परमाणु से लेज़र किस तरह से बनाया गया 

अ: चुम्बकीय क्षेत्र में किया गया बोस- आइन्स्टाइन संघनन। सभी परमाणुओं की घूर्णन गति एक ही दिशा में है। घूर्णन अक्ष की दिशा चुंबकीय क्षेत्र के समांतर है।

ब: रेडियों तरंगों का इस्तेमाल करके घूर्णन अक्ष को झुकाया गया। 


स: प्रकाश गतिकी के हिसाब से का हुआ अक्ष, चुंबकीय बल की दिशा में और विपरीत दिशा में होने वाले घूर्णन का मिश्रण है। इन में से विपरीत दिशा में होने वाले घूर्णन का चुंबकीय क्षेत्र प्रतिरोध करता है। इसलिए परमाणु समूहों के दो हिस्से हो गए हैं। इनमें से एक हिस्सा जाल में फंस गया है तो दूसरा हिस्सा चुंबकीय क्षेत्र के प्रतिरोध की वजह से अलग हो गया है।
दः परमाणुओं के ऐसे कई समूह बाहर निकाले जा सकते हैं और गुरुत्वाकर्षण बल से उनमें गति भी दी जा सकती है।

जानकारी एवं रेखाचित्रः प्रो. केटर्ली (एम.आइ. टी.) के सौजन्य से

 

बोस-आइंस्टाइन संघनन 
बोम और आइंस्टाइन ने 1924 में सैद्धांतिक परिकल्पना प्रस्तुत की कि कणों के ऐसे समूह को जिसमें पूर्णाक घूर्णन (integer spin) हो, यदि काफी ठंडा कर दिया जाए तो एक खास तापमान के नीचे उस समूह के काफी सारे कण सबसे कम ऊर्जा स्थिति (lowest possible energy State) में जमा हो जाने चाहिए। जिस तरह भाप से पानी की बूंद बनती है, उपरोक्त प्रक्रिया उसी तरह की होने की वजह से इसे भी संघनन कहा गया।
लेकिन वास्तव में ऐसा होगा या नहीं यह मुद्दा कणों के घूर्णन से जुड़ा है। इलेक्ट्रॉन का घूर्णन 1/2 होता है। ऐसे 1/2 या 3/2 किस्म के अर्ध-घूर्णन (half integer spin) वाले कणों में बोस-आइंस्टाइन संघनन संभव नहीं है। परंतु परमाणु में कई इलेक्ट्रॉन होते हैं और उनके घूर्णन एक-दूसरे के समान्तर या एक-दूसरे के विरुद्ध पाए जाते हैं। इन घूर्णनों का जोड़-घटा करके कुछ परमाणु पूर्णाक घूर्णन पा सकते हैं। इस तरह के पूर्णाक घूर्णन वाले कण सिद्धांततः बोस-आइंस्टाइन संघनन दर्शा सकते हैं। ऐसे परमाणु समूहों का सचमुच में संघनन संभव है, इस बात को केटर्ली, कॉर्नेल और वीमन ने प्रायोगिक रूप में सिद्ध करके दिखाया।

इस प्रयोग की एक मजेदार बात तो यह थी कि परमाणुओं को ठंडा करने के लिए इन लोगों ने प्रकाश लेजर का इस्तेमाल किया। लेजर से परमाणु को गरम करने की बजाए ठंडा किस तरह किया गया होगा यह भी जिज्ञासा का बिंदु हो सकता है। काफी संक्षेप में बताएं तो यदि सुसंगत लेजर को एक बिन्दु पर फोकस किया जाए तो वहां कणों के लिए एक किस्म का विद्युत चुंबकीय जाल (trap) बन जाता है। यहां-वहां घूमने वाला कोई परमाणु उस बिन्दु के पास आ जाए तो वो उस जाल में फंस जाता है।
इस तरह परमाणु को विद्युत चुंबकीय क्षेत्र में फंसाकर उसकी गतिज ऊर्जा धीरे-धीरे कम करते हुए ठंडा किया जाता है। एक-एक करके कई परमाणुओं को उस बिन्दु के जाल में फंसाया जा सकता है। केटर्ली और उनके साथियों ने यही किया। ऐसे ठंडे किए गए परमाणुओं के समूह को जब और ठंडा किया गया तो एक खास तापमान पर 'बोस-आइंस्टाइन संघनन' भी घटित हुआ। इम काम के लिए केटल और साथियों को नोबल सम्मान भी मिला।
‘परमाणु से लेजर' इस लेख के लिहाज से संघनित अवस्था में सब के सब परमाणु, सभी प्रकार से एक ही स्थिति में होना सबसे महत्वपूर्ण है। केटल ने सोचा कि यदि संघनित परमाणुओं की एक किरण बनाई जा सके तो सुसंगत परमाणुओं का स्रोत बना पाना संभव होगा। और यही उसने करके भी दिखाया।

लेज़र-लेज़र में फर्क  
यहां तक आते-आते आप भी सोचने लगे होंगे कि प्रकाश किरणों के लेज़र और परमाणुओं के लेज़र में आखिर फर्क क्या है? वैज्ञानिक हलकों में तो यहां तक सवाल उठने शुरू हो गए थे कि सुसंगत परमाणुओं के स्रोत को लेज़र कहना उचित भी होगा या नहीं? खैर हम वैज्ञानिक बहसमुबाहिसों में न जाकर इन दोनों लेज़र में आसानी से समझे जा सकने वाले फर्क देखेंगे।
प्रकाश वाले लेज़र में पदार्थ की उत्तेजित स्थिति में फोटॉन (विद्युत चुंबकीय तरंगें) नए सिरे से निर्मित होते हैं या अस्तित्व में आते हैं। लेकिन परमाणुओं के लेज़र में परमाणु निर्मित नहीं होते। वहां मौजूद परमाणुओं में में कई सारे परमाणु सबसे निचली ऊर्जा स्थिति (ground state) में लाए जाते हैं। और वहां से उन्हें प्रकाश लेज़र की तरह सुसंगत स्थिति में बाहर निकाला जाता है।
दुसरा प्रमुख अंतर है कि परमाणु एक-दूसरे की स्थितियों को प्रभावित कर सकते हैं इसलिए परमाणु का लेजर, प्रकाश लेज़र की तरह हवा में से होकर लंबी दूरी तय नहीं कर पाता।
इसी तरह परमाणु भारी होने की वजह से उन पर गुरुत्वाकर्षण बल का खासा असर पड़ता है इसलिए परमाणु लेज़र गुरुत्वाकर्षण की उपस्थिति में त्वरण दिखाता है।

लेज़र का भविष्य  
1997 में केटर्ली का बनाया पहला परमाणु लेज़र और उसके बाद बनाए गए अन्य उपकरण काफी जटिल किस्म के थे। जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के जैकब रेशेल ने हाल में देखा कि यदि सुसंगत परमाणुओं का एक छोटा-सा गुच्छा इलेक्ट्रॉनिक चिप की ऊपरी सतह पर चिपकाया जा सके तो चिप में प्रवाहित होने वाली बिजली की मदद से इन सुसंगत परमाणुओं को नियंत्रित किया जा सकता है। यदि ऐसा कर पाए तो कई नए उपकरणों को बनाने के लिए संभावनाओं के द्वार खुल जाएंगे।
लेकिन संभावनाओं पर गौर करते समय यह समझ में आया कि यदि चिप काफी ठंडी हो जाए तो वो काम नहीं करती; और तैयार किया बोस-आइंस्टाइन संघनित द्रव यदि थोड़ा भी गर्म हो जाए तो उसमें सुसंगतता का गुण बचा नहीं रह पाता। इसलिए जैकब रेशेन और साथियों ने चिप में प्रवाहित होने वाली विद्युतधारा में निर्मित चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया। उन्होंने ठंडी, सुसंगत चिप के पृष्ठ भाग के थोड़ा ऊपर (0.1 मिलीमीटर, चिपक न सके इतना) चुंबकीय क्षेत्र रखा। इस तरीके में सुसंगतता बरकरार रही।
एक और प्रयोग के दौरान चिप के विद्युत प्रवाह में खास तरह के दोलन निर्मित करके परमाणुओं के गुच्छे को सतह पर यहां-वहां दौड़ाया, बीच में रोका, फिर से दौड़ाया। संक्षेप में कहा जाए तो उन्होंने सुसंगत-परमाणुओं के गुच्छे पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करके दिखाया।

इस प्रयोग की सफलता की वजह से इलेक्ट्रॉनिक चिप की तरह परमाणु चिप भी बनाई जा सकती है, जिसकी सतह पर परमाणु के गुच्छे यहां-वहां दौड़ सकते हैं। ये परमाणु गुच्छे सुसंगत होने की वजह से उनमें व्यतिकरण निर्मित किया जा सकता है, उन्हें किसी निश्चित जगह पर ले जाया जा सकता हैं: परमाणुओं के गुच्छे पर इलेक्ट्रॉन या फोटॉन छोड़कर उन्हें और भी कई तरह से काम में लाया जा सकता है। उम्मीद की जा रही है कि नेनो-टेक्नालॉजी में इसका खास इस्तेमाल हो सकेगा। त्रुटि रहित घड़ियां, आधुनिक मोटरकार, हवाई-जहाज़ आदि में परमाणु चिप का प्रयोग अपेक्षित है। जिस तरह ट्रांजिस्टर की खोज के बाद जब कई ट्रांजिस्टर एक छोटी चिप पर लगाए जाने लगे तो इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया ने एक नई करवट ली, उसी तरह यह परमाणु चिप भी एक क्रांति की पदचाप हो सकती है।


सतीश ओगले: पदार्थ वैज्ञानिक हैं। फिलहाल मेंटर फॉर सुपर कंडक्टिविटी रिसर्च, यूनिवर्सिटी ऑफ मेरी लैंड, कॉलेज पार्क, यू. एम. ए. में शोधकार्य कर रहे हैं।
मराठी से अनुवादः माधव केलकर
यह लेख शैक्षणिक संदर्भ (मराठी) के अंक 16, अप्रैल-मई 2012 से साभार।