बच्चों के बनाए चित्रों को लेकर आमतौर पर काफी सारी गलतफहमियां हम बड़े पाल लेते हैं। जहां एक ओर बच्चों द्वारा बनाए चित्रों को हम काफी हल्के तौर पर लेते हैं वहीं दूसरी ओर बाल चित्रकला को लेकर हमारी काफी सारी जिज्ञासाएं भी होती हैं। लेकिन हमारी इन शंकाओं का समाधान कैसे हो? पालकों व शिक्षकों की ऐसी ही कई जिज्ञासाओं के जवाब दिए हैं प्रसिद्ध कलाधर्मी देवीप्रसाद जी ने।


धीरे-धीरे सधते हाथ। इंसानी आकार के साथ हाथ-पांव की अंगुलियां भी नज़र आ रही हैं।

चित्र बच्चों के
सवाल: बच्चों को आमतौर पर गहराई का बोध नहीं होता। दूर, नज़दीक का भान भी उनके चित्रों में अक्सर नहीं होता है। क्या उनको इसका ज्ञान करा देना ठीक होगा? क्या बच्चे यह सीखना चाहते हैं?
जवाब: गहराई का बोध, जिसे 'पर्सपेक्टिव' कहते हैं, बच्चों के चित्र में न रहना ही स्वाभाविक है। किन्तु दूर और नज़दीक का भान बच्चों को अपने ढंग से होता ही है। उनका पर्सपेक्टिव चाक्षुष नहीं, मानसिक होता है। ठीक उम्न आने पर बच्चों को स्वयं चाक्षुष पर्सपेक्टिव की आवश्यकता महसूस होती है। वह उम्र दस ग्यारह साल के बाद ही आती है। उस समय मामूली सुझाव के तौर पर वह ज्ञान दिया जा सकता है। इसे ज़बरदस्ती सिखाने की जरूरत नहीं। बाद में चलकर सिखाने से वह चीज़ स्वाभाविक बनकर आएगी।

सवालः बच्चों के चित्रों में कोई-कोई अंग क्यों असलियत से ज्यादा बड़े होते हैं। जैसे, बच्चों के ज्यादातर चित्रों में सिर करीब-करीब शरीर जितना ही बड़ा रहता है, यह क्यों होता है?
जवाब: बन्ने बाह्य असलियत का चित्र नहीं बनाते। वे तो उनके मन के अंदर जो असलियत है, उसका चित्र बनाते हैं। बच्चे, जो दिखता है उसका चित्र नहीं बनाते, बल्कि जो जानते हैं उसका चित्र बनाते हैं। जिस अंग ने अधिक ध्यान खींचा हो, वह बड़ा बन जाता है। प्राचीन चित्रों में भी यह बात मिलती है। अजंता में देखिए। चित्र के जिस पात्र या अंग का अधिक महत्व होता है, उसे बड़ा बनाया गया है। कहीं-कहीं तो साधारण व्यक्तियों के चित्रों से बुद्ध भगवान के चित्र को दस गुना अधिक बड़ा भी बना दिया है। वह बाह्य असलियत नहीं, अंदरूनी असलियत है।

सवाल: बच्चों को थोड़ा पर्सपेक्टिव ड्राइंग के तरीके बताना क्या अच्छा नहीं होगा? उससे क्या वे ज्यादा अच्छे चित्र नहीं बना सकेंगे?
जवाबः जिसे आप ज्यादा अच्छा कहते हैं, वह आपका ज्यादा अच्छा है, बच्चे का नहीं। बच्चे की दृष्टि से तो वही ज्यादा अच्छा है, जिसमें पर्सपेक्टिव ड्राइंग के तरीके का अभाव हो। यही बच्चों के चित्रों का चरित्र है।

सवाल: क्या पर्सपेक्टिव की आवश्यकता हर-एक बच्चे को महसूस होती है?
जवाब: नहीं, सच बात तो यह है कि अगर कला-बोध का मापदंड ऊंचा होगा, तो बिना पर्सपेक्टिव के भी ऊंची रुचि के और ऊंचे स्तर के चित्र बनेंगे। संसार की अधिकतर प्राचीन कला-शैलियों में इस तरह के पर्सपेक्टिब का अक्सर अभाव देखा जाता है।
अगर कला-शिक्षा का तरीका ठीक हुआ और सयानों के कला - स्टैंडर्ड भी ऊंची कला की बुनियाद पर हुए, तो बच्चे भी यह ज़रूरी नहीं कि किशोर-अवस्था आने पर पर्सपेक्टिव या वास्तविकता की तरफ झुकें।

सवालः वास्तविक चित्र बनाने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करने में क्या दोष है?
जवाब: जब बच्चे को अपने जगत में रहने का पूरा अधिकार नहीं होगा, तो आप ही समझिए कि उससे क्या नुकसान होगा। वास्तविक चित्र बनाने का मतलब यह हुआ कि बच्चे को उसके स्वभाव से पहले ही, उसके स्वभाव के खिलाफ सयाने का स्वभाव देने का प्रयत्न किया जा रहा है। बच्चे को सयाना बनाने से जो नुकसान है, वही नुकसान बच्चों को सयानों जैसा चित्र बनाना सिखाने से है। वास्तविक चित्र बनाना सयानों का स्वभाव है, बच्चों का नहीं।

सवाल: जब बच्चों के लिए चित्र वास्तविक नहीं बनते हैं, तो भी क्या बच्चे उनसे संतुष्ट होते हैं?
जवाब: बच्चे के अपने चित्र कभी भी वास्तविक नहीं होते और वह हमेशा अपने उन अवास्तविक चित्रों से ही संतुष्ट होता है।

कुछ मां-बाप के लिए
सवाल: बच्चों के मां-बाप अक्सर यही चाहते हैं, कि उनका बच्चा सयानों की तरह 'अच्छे' चित्र बनाए। इस विचार से बच्चों के चित्र को सुधारने का प्रयत्न भी वे करते हैं। उनसे बच्चों को कैसे बचाएंगे?
जवाब: यह काम प्रौढ शिक्षा का है। मां -बाप को यह सिखाना होगा कि बच्चों का स्वाभाविक कला-धर्म क्या है। और उनका विकास ठीक ढंग से, उनकी स्वाभाविक कला सीढ़ी के द्वारा ही हो सकता है।

सवाल: आप मानते हैं कि बच्चे अपनी कल्पना-शक्ति और अनुभव से चित्र बनाएं, तो ज्यादा अच्छा है। आप बड़ों के चित्रों के प्रभाव से उनको कैसे दूर रखेंगे?
जवाब: अपने ही अनुभव से चित्र बनाएं तो ज्यादा अच्छा है, ऐसी बात नहीं। केवल अपने ही अनुभव से चित्र बनाएं, ऐसा होना चाहिए। बड़ों के प्रभाव से दूर रखना आसान नहीं है। पहले तो बड़ों को यह समझना होगा कि बच्चे जो चित्र बनाते हैं, उनसे वैसे ही चित्र की अपेक्षा होनी चाहिए। अगर बड़ों ने बच्चों के चित्र समझने का प्रयत्न किया, तो आधा काम तो हो ही गया। अपनी ही कल्पना-शक्ति के चित्र बनाने की उन्हें पूरी छूट देनी चाहिए, बड़ों के बनाए हुए चित्र दिखाने का आग्रह नहीं करना चाहिए। बड़ों के मापदंड से उनके चित्रों को मापना नहीं चाहिए।
 
सवाल: आमतौर पर लोगों को बच्चों के चित्रों के प्रति निरादर की भावना होती है। उसका क्या कारण है?
जवाब: हमारे देश में बच्चों के चित्रों की बात तो छोड़ ही दीजिए, बच्चों के प्रति कितनी आदर की भावना है, यही ज़रा बताइए।

सवालः शिक्षा का काम ही बच्चों को ठीक रास्ते पर लाना है। आप उनकी गलतियों को सुधारेंगे ही नहीं, तो वह कैसे होगा?
जवाब: शिक्षा का काम बच्चों को ठीक रास्ते पर लाना है', आप जब ऐसा कहते हैं तो लगता है कि आपने मान लिया कि बच्चे गलत रास्ते पर हैं, जिसके बदले उन्हें ठीक रास्ते पर लाना है। गलती इस दृष्टि में ही है। बच्चे के जो रास्ते हैं, वहीं ठीक हैं। आज तो शिक्षा का काम यह होना चाहिए कि हम ऐसा किस तरह करें कि बच्चा अपने रास्ते पर ही रहे। बच्चे का रास्ता अभय का, निः संकोच का और सत्य का होता है। उसके चित्रों में ये तीनों चीजें रहती हैं। किन्तु हम उन्हें गलतियां कहते हैं; वे गलतियां नहीं, उसके अलंकार हैं।

सवाल: अगर बच्चे की सारी जिंदगी पर असर डालना है या कहिए, गलत असर से उसे बचाना है, तो क्या मां-बाप और शिक्षक की शिक्षा बच्चों की शिक्षा से भी ज्यादा जरूरी नहीं है?
जवाब: इसमें कोई शक नहीं। किन्तु ऐसा नहीं कर सकते कि योजना ऐसी बनाएं कि पहले मां-बाप और शिक्षकों को पढ़ा लें और जब वे पूरे-पूरे तैयार हो जाएं, तब बच्चों के प्रश्न को हाथ में लें। दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। बड़ों की शिक्षा का माध्यम बच्चों की शिक्षा होना चाहिए।

सवाल: बच्चों के मां-बाप उनकी कला-प्रवृत्तियों में क्या मदद कर सकते हैं?
जवाबः उनका आदर करें और इस प्रवृत्ति के लिए प्रोत्साहन दें।

सवाल: मेरी तीन साल की लड़की कागज़ पर रंग छिड़क देती है। कोई चित्र नहीं बनाती। तो क्या यह ठीक है? क्या उसको किसी जानवर या वस्तु इत्यादि के आकार का बोध नहीं करा देना चाहिए।
जबाबः जिसे आप रंग छिड़कना कहते हैं, वहीं बच्चे का चित्र है। वही 'जानवर' है और वही उसकी 'वस्तु' है। अगर आपने उसका स्वाभाविक विकास होने दिया, तो वही रंग छिड़कने की प्रक्रिया विकसित होकर ऐसी हो जाएगी कि वस्तु भी बन जाएगी और जानवर भी।

कुछ विशेष सवाल
सवाल: बच्चों के चित्रों का अभिप्राय बहुत दफे मुझे समझ में नहीं आता है, तो क्या वह बच्चों से पूछ लेना ठीक है?
जवाब: हां, जो चित्र बच्चे ने बनाया, अक्सर वह उसका मौखिक वर्णन करना भी पसंद करता है। मैंने अक्सर पाया है कि अपने चित्र पर या उससे संबद्ध किसी विषय पर साथ-साथ लेख लिखना कुछ बच्चों को खूब अच्छा लगता है, इसलिए चित्र का अभिप्राय पूछ लेने में कोई नुकसान नहीं है। किंतु उसके ऊपर आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो प्रकट करना था वह तो उसने अपने चित्र से ही कर दिया, अगर कुछ बचा होगा तो उसे कह सकेगा। शिक्षक को बच्चे कि भाषा, उसका मन समझना चाहिए। जितना शिक्षक का अनुभव बढेगा, उतना ही वह बिना पूछे बच्चों के चित्रों का अभिप्राय स्वयं समझने में समर्थ होता रहेगा। मनोवैज्ञानिक तो बच्चों के चित्रों से केवल चित्रों का अभिप्राय ही नहीं, उनके मन की गहराई की बातें भी समझने का प्रयास करते हैं।

सवाल: बच्चों ने रंगों का गलत उपयोग किया, तो उन्हें सुधारना चाहिए?
जवाब: गलत माने क्या? क्या कपड़ों पर लगा लिया, जमीन पर बिखेर दिया या एक-दूसरे के मुंह पर या कपड़ों पर लगा दिया? अगर ऐसा हो, तो जरूर बच्चों को इसके बारे में प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। किन्तु अगर चित्र के अंदर उसने अपने ढंग से रंगों का उपयोग किया, तो उसे आप गलत कैसे कह सकते हैं?

सवालः एक बच्चा चित्र बनाता है, उसका कोई अर्थ नहीं दिखता। तो क्या उससे पूछना नहीं चाहिए कि क्यों भाई, क्या सोच के चित्र बनाया?
जवाबः पूछने में कोई हर्ज नहीं। अच्छा ही है। इससे उसका चिंतन विकसित हो सकता है। किन्तु जोर नहीं देना चाहिए।

सवाल: अगर बच्चे गलत रंग का इस्तेमाल करते हैं, जैसे पेड़ को बैंगनी या लाल बनाया, तो क्या उसे ठीक करने के लिए नहीं कहना चाहिए?
जवाबः प्रकृति का पेड़ अलग होता है और कलाकार के मन का पेड़ अलग। और फिर बच्चों का तो बिल्कुल ही अलग। इसमें आनंद की ही बात होनी चाहिए। यह उनकी कवि-कल्पना होती है। उसे कौन सुधार सकता है?

सवालः अगर किसी बच्चे को चित्र बनाने का कोई विषय नहीं सूझता हो तो क्या करना चाहिए?
जवाब: उसे विषय सुझाकर, कहानी बताकर, कुछ प्रत्यक्ष अनुभव देकर प्रोत्साहन देना चाहिए।

सवाल: महान कलाकारों की कृतियों से सीखने और उनके अनुभवों से लाभ उठाने का मौका आप बच्चों को नहीं देते हैं। क्यों?
जवाब: आमतौर पर सयानों का प्रभाव बच्चों की कला पर पड़े, तो उनकी स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। महान कलाकारों की कृतियों से सीखने के लिए और उनके अनुभव से लाभ उठाने के लिए बहुत समय है। चार-पांच साल के बाद जब सयानों के जगत में बच्चा प्रवेश करता है, तब अगर उसे यह अनुभव मिलें, तभी वह स्वाभाविक माना जाएगा। हां, कला-बोध की दृष्टि से ये कृतियां देखने को मिलती रहें, तो कोई नुकसान नहीं।

सवाल: कुछ बच्चे ऐसे होते हैं, जो आलंकारिक भांत (पैटर्न) बनाना अधिक पसंद करते हैं। क्या उन्हें ऐसा करने के लिए पूरी छूट होनी चाहिए?
जवाब: पैटर्न ही केवल बनाते रहें, यह ठीक नहीं है। उन्हें चित्र बनाने के लिए भी उत्साहित करना चाहिए। ऐसे कुछ अपवाद हो सकते हैं, जबकि बालक हमेशा नए-नए पैटर्न बनाने वाला हो। ऐसी हालत में उसी प्रवृत्ति का विकास करना अच्छा होगा।

सवाल: किस उम्र तक बच्चों को अपने ही मन से चित्र बनाने देना चाहिये?
जवाबः इसका कोई नियम नहीं बनाया जा सकता। कुछ बच्चे तो छोटी उम्र में ही सुझाव की आवश्यकता महसूस कर सकते हैं और कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं, जो बड़े होकर भी अपनी मर्जी से चित्रकला करते-करते आगे बढ़ सकते हैं।

कला के मायने सिर्फ चित्रकला तक ही सीमित नहीं है कागज़ ,पट्टियों और कपड़े की चिंदीयों की मदद से भी आकार बनाए जा सकते है।

छुक-छुक गाड़ी
सवालः मेरा चार साल का लड़का हमेशा आ कर कहता है कि इंजन का चित्र बना दो। वह छोड़ता ही नहीं, जब तक मैं उसे छुक-छुक गाड़ी का चित्र नहीं बना देती हूं, तो क्या ऐसा चित्र बना देना ठीक होगा? उसके अपने चित्रों पर इसका क्या असर होगा?
जबाबः कभी-कभी बना देने में कोई नुकसान नहीं, किंतु उसे छुक-छुक गाड़ी का चित्र खुद बनाने के लिए उत्साहित करना चाहिए। हो सके, तो पहले वह बनाए।

सवाल: मेरे दोनों बच्चे जब कभी छुक-छुक गाड़ी देखने का मौका मिलता है, तो बड़े गौर से उसके इंजन के सब हिस्सों को देखते हैं। और घर आकर चित्र बनाते हैं। एक-दूसरे के चित्रों में कमियां बताते हैं, उन्हें सुधारते हैं। लेकिन ये सब वस्तुओं को इतने ध्यान से। देखते हों, ऐसी बात नहीं है। क्यों, इसका क्या कारण है?
जवाब: उन्हें जो चीज़ आकर्षित करती है, उस चीज़ को वे देखते हैं और उसी को बनाते हैं। दोनों में जो देखने में फर्क हुआ होगा, उसी को लेकर एक-दूसरे की समालोचना करते हैं। जो चीज चित्र में बच्चे नहीं बनाते हैं और अगर उस पर आपका ध्यान गया हो, तो आप सोचते हैं कि बच्चों की गलती हुई। यह आपकी गलती है।

बच्चों को साधन-सामग्री कैसी दें?
सवालः छोटे बच्चों को एक साथ ज्यादा रंग देना ठीक है क्या, बच्चों को किस तरह की कूचियां देनी चाहिए?
जवाबः अक्सर देखा गया है कि अधिक रंग देने पर भी बच्चे दो तीन ही इस्तेमाल करते हैं, इसलिए सबसे अच्छा यह होगा कि उन्हें पांच-छह रंग ही दिए जाएं। साधारण ब्रश बच्चों के लिए काफी होते हैं। बहुत बारीक का कोई उपयोग नहीं होता बल्कि उनसे बच्चों का हाथ खुलता नहीं। इसलिए मध्यम और मोटे ब्रश देने चाहिए। बड़े कागज़ पर चित्र बना रहे हों, तो बड़े ब्रश की अधिक जरूरत पड़ सकती है।

सवाल: बच्चों को चित्रकला के साधन ब्रश इत्यादि क्या अच्छे-से- अच्छे श्रेणी के देने चाहिए?
जवाब: नहीं कोई जरूरत नहीं। किन्तु बच्चों की आवश्यकता की दृष्टि से वे अच्छे-से-अच्छे होने चाहिए। अच्छे-से-अच्छे का अर्थ है, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला और उपलब्धि की दृष्टि से व्यावहारिक।

सवालः गुरू-शुरू में क्या यह ठीक नहीं होगा कि बच्चे केवल पेंसिल से अभ्यास करें ?
जवाबः नहीं। बच्चे प्रकृति के नजदीक होते हैं, इसलिए प्रकृति के जितने भी गुण-रंग इत्यादि होते हैं, वे सब उन्हें मिलने चाहिए, और शुरू से ही।

शिक्षकों के लिए
सवालः बच्चे आपसे कभी चित्र बनाने में मदद मांगते हैं?
जवाबः शुरू-शुरू में थोड़ी मदद मांगते हैं, किन्तु वे जब समझ लेते हैं कि मुझसे सीधी-सीधी मदद नहीं मिलती, तो वे नहीं मांगते।

सवाल: पत्रिकाओं में जो चित्र आते हैं, क्या उनकी नकल करने से बच्चे कुछ नहीं सीखेंगे?
जवाब: नहीं, बल्कि उससे उन्हें नुकसान ही होगा।

सवाल: आजकल अंग्रेज़ी ढंग की कुछ ऐसी पुस्तकें आती हैं, जिनमें रेखा-चित्र बने हुए रहते हैं और बच्चों को उनमें रंग भरने का अभ्यास करने के लिए कहा जाता है। क्या यह ठीक है? कागज, धागा, ऊन, रंगीन कपड़े के टुकड़ों का इस्तेमाल करके बनाया गया एक चित्र जो बच्चों की कल्पना शीलता को बढ़ावा देता है।
जबाबः ऐसा करना गलत है। हालांकि आज के वातावरण में काफी बच्चे ऐसा करना पसंद करते हैं। उन्हें अपने ही चित्र बनाने चाहिए।

सवालः शिक्षकों के लिए क्या ज्यादा ज़रूरी है, चित्रकला की पद्धतियों का ज्ञान या बच्चों की मनोवृत्ति को समझना?
जवाब: बच्चों को चित्रकला का अनुभव देने के लिए यह जरूरी नहीं कि शिक्षक कला पद्धतियों में निपुण हो, बल्कि मैंने तो यह पाया है कि जो शिक्षक बच्चों की मनोवृत्ति, उनके कला अनुभव आदि को जानता है, उनके साथ सहानुभूति का अनुभव करता है; वह अच्छे कलाकार की अपेक्षा, जो बच्चों को नहीं समझता है, कहीं अच्छा शिक्षक सिद्ध होता है।

सवाल: मैं सातवीं कक्षा (चौदह वर्ष के बच्चों का) का शिक्षक हूं और इस समूह को चौथे वर्ग से सातवीं कक्षा तक लाया हूं। मेरा अनुभव यह रहा कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए, वैसे उनके चित्रों में प्राण की कमी होती गई। आपकी क्या राय है इसके बारे में?
जवाब: बच्चे किशोर-अवस्था में प्रवेश करने के समय सयानों की भांति देखना प्रारंभ करते हैं। यह उनके बदलने का काल होता है। आज समाज की धुंधली परिस्थिति में यह चीज़ बच्चों को कमजोर बना देती है। उसी का यह असर है। किंतु स्वाभाविक वातावरण बनाने की अगर कोशिश की जाए, तो यह किशोर-अवस्था का संक्रमण-काल बच्चों के लिए बड़ा सृजनात्मक सिद्ध हो जाता है।

सवालः बच्चों के लिए चित्रित पुस्तकों के बारे में आपका लेख हमारे स्कूल के सब शिक्षकों ने पढ़ा। क्या आप सोचते हैं कि इस तरह का चित्रित साहित्य बड़े पैमाने पर तैयार किया जा सकेगा? और यह किस उम्र के बच्चों के लिए होगा?
जवाब: आमतौर पर बच्चों के लिए साहित्य जितना स्थानीय हो, उतना ही अच्छा। शाला के बच्चे अपने से छोटे बच्चों के लिए इस तरह का साहित्य तैयार करें। वह परंपरा अगर बन गई, तो शाला में ही काफी साहित्य तैयार हो जाएगा। जो साहित्य बड़े पैमाने पर तैयार किया जाता है, उसमें यह दृष्टि रखना कोई अव्यावहारिक स्टेंसिल वर्क के द्वारा भी स्वयं को अभिव्यक्त किया जा सकता है। स्टेंसिल वर्क का यहां एक उदाहरण है। चीज नहीं होगी, बल्कि उसमें पैसे की दृष्टि से भी बचत हो सकती है। चित्रों के चुनाव की भी खूब गुंजाइश होगी। इस तरह का साहित्य सब उम्र के बच्चों के लिए होना चाहिए।

सवाल: आप ऐसे ज़माने की कल्पना करते हैं, जब बच्चों के द्वारा चित्रित साहित्य ही छोटी कक्षाओं में पाठ्यपुस्तकों की पूरी -पूरी जगह ले लेगा? तो उससे क्या लाभ होगा?
जवाब: आज खासतौर पर नई तालीम में पाठ्यपुस्तक कहकर कोई चीज़ नहीं है। हां, बच्चों के लिए अनेक पुस्तकें होनी चाहिए। उनमें जितनी भी हो सकें, चित्रित हों और उन्हें बनाने में जितना भी बच्चों के चित्रों का उपयोग किया जा सके, उतना ही अच्छा होगा। इसका मतलब यह नहीं कि सभी पुस्तकें इस तरह बनेंगी। हमने कहा कि प्राकृतिक दृश्य अच्छे फोटो द्वारा दिए जा सकते हैं। ऊंची कला के नमूने इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इन सबमें मैं बच्चों के द्वारा चित्रित पुस्तकों को अधिक महत्व देता हूं।

सवाल: बच्चों के काम की परीक्षा आप कैसे करते हैं?
जवाब: हम परीक्षा लेने वाले कौन? पर्चे लिखाकर या ड्राइंग कराकर परीक्षा लेने में कोई सार नहीं होता। बच्चों का रोज़ का काम ही उनकी परीक्षा है। अगर वे खुश हैं और हमेशा नए नए चित्र बनाने के लिए उत्सुक रहते हैं, तो वहीं उनकी परीक्षा में सफलता है।

सवाल: अगर किसी बच्चे ने अच्छा चित्र बनाया, तो वह क्या पूरी कक्षा को दिखाना चाहिए?
जवाब: सभी चित्र कक्षा के समस्त बच्चों को दिखाने चाहिए। किसी बच्चे को ऐसा भान नहीं कराना चाहिए कि वह वर्ग में विशेष स्थान रखता है।

सवालः कला-वर्ग में ब्लैकबोर्ड रखना चाहिए?
जवाबः हां, कई ब्लैकबोर्ड रखने चाहिए और सफेद व रंगीन खड़िया भी, जिससे बच्चे खूब बड़ी-बड़ी ड्रॉइंग कर सकें।

सवालः चित्रकला-वर्ग का एक नियमित समय रखना अच्छा है क्या? या बच्चे अपनी इच्छा के अनुसार जाकर रंग, कूची का उपयोग जब कभी करें, तो अच्छा होगा?
जवाब: सबसे अच्छा तो यह होगा कि बच्चों को पूरी-पूरी स्वतंत्रता हो। जब चाहें जाकर चित्र आदि बनाएं और अगर वातावरण में इस प्रवृत्ति की अहमियत का भान होगा, तो बच्चे ऐसा करेंगे ही। चित्रकला-वर्ग का नियमित समय रखना चित्रकला का कोई भी समय न रखने से तो अच्छा है ही।

सवालः कला-वर्ग में शिक्षक इन सिद्धांतों के अनुसार काम करता है, ऐसा मान लीजिए। उसका कला-वर्ग आदर्श रूप से चलता है, फिर भी बच्चे की बाकी 23 घंटे की जिंदगी पर उसका क्या असर होगा?
जवाब: शिक्षा का काम तो है चौबीस घंटे का। किन्तु जहां यह नहीं होता और केवल एक ही घंटे उचित शिक्षा का मौका मिलता है, वहां उसी परिमाण में उसका लाभ होगा। किन्तु कला-शिक्षा चूंकि बच्चे के आंतरिक जीवन के साथ घनिष्ठ संबंध रखती है, इसलिए उसका वह असर भी हो सकता है, जो ऐसी किसी दवाई का होता है जो बहुत कम मिकदार में दी जाती है।

अस्वाभाविक चित्र?
सवाल: एक बच्चे ने ऐसा चित्र बनाया कि एक आदमी को फांसी पर लटका रहे हैं। आप क्या समझते हैं, उसके पीछे क्या भावना काम कर रही थी?
जवाबः उस विचार ने ज़रूर बच्चे के मन पर कुछ छाप डाली है। इसके पीछे करूणा भी हो सकती है और बदले की हिंसात्मक भावना भी।

सवाल: बच्चों को इस तरह के अस्वस्थ ढंग के चित्र (फांसी इत्यादि के) बनाना ठीक है क्या? उनको कैसे रोका जा सकता है?
जवाब: उनको अगर इस तरह के चिंतन से बचाना है, तो इस तरह के जितने भी चित्र बच्चे बनाना चाहें, बनाने दीजिए। इन भावनाओं का निकास अगर चित्रकला आदि विषयों के द्वारा नहीं हुआ, तो किसी ऐसे ढंग से होगा, जो समाज का और व्यक्ति का नुकसान करेगा। मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी यह प्रवृत्ति अत्यंत उपयोगी होती है।

सवाल: आपका खुद भी अनुभव है कि सब बच्चे चित्रकला नहीं करना चाहते, वे कला-वर्ग के समय भागकर पेड़ पर चढ़ते हैं, तो आप क्या करते हैं?
जबाबः मेरा अनुभव ऐसा नहीं है। किन्तु जब कभी-कभी, जो कि बहुत कम होता है, बच्चे जाकर पेड़ पर चढ़ना पसंद करते हैं, तो मैं उन्हें जाने देता हूं और कभी-कभी तो मैं खुद भी जाकर पेड़ पर चढ़ जाता हूं।


देवी प्रसादः शिक्षाविद व कलाविद। रवीन्द्रनाथ के स्कूल शान्ति-निकेतन से स्नातक की उपाधि ली। सेवाग्राम की आनंद-निकेतन शाला में कला विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते हुए देवी प्रसाद जी ने बालकों के साथ हुए अपने अनुभवों के आधार पर सन् 1958 में एक पुस्तक तैयार की - शिक्षा का वाहन कला'। नेशनल बुक ट्रस्ट ने 1999 में इसे हिन्दी में प्रकाशित किया (पृष्ठ 138, मूल्य 50 रुपए)। उपरोक्त लेख इसी पुस्तक में लिया गया है।