सवालीराम

पिछली बार अभिजीत सराठे ने सवालीराम से एक सवाल पूछा था कि गाय, भैंस, बकरी, घोड़ों की तरह हम भी घास खाकर जिंदा क्यों नहीं रह पाते?

जवाबः दुनिया में पेड़-पौधों, घास आदि की भारी तादाद को देखते हुए घास-पत्तियां, तने बगैरह खाकर जिंदा रहने वाले जानवरों की प्रजातियां काफी कम हैं। यही वह सोचने वाला बिन्दु भी है कि आखिर चक्कर क्या है - कुछ जानवर ही पत्तियां, घास क्यों पचा पाते हैं?
पहले तो यह देखा जाए कि किसी खाद्य पदार्थ को पचाने का क्या मतलब है। जब भी हम किसी चीज़ को खाते हैं तो उसे चबाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ते हैं। इस चबाए गए खाने पर बाकी का काम हमारा आमाशय करता है। कहने को तो खाना पेट में चला गया है लेकिन इस भोजन को हमारा शरीर ऐसे ही इस्तेमाल नहीं कर सकता। हमारा आहार तंत्र एक लंबी नली है जिसके दोनों सिरे खुले हैं। इस नली में पड़ा भोजन तभी हमारे काम आ सकता है जब इसे आहार नाल की दीवार सोख ले। मगर भोजन को सोखने से पहले भोजन में कई आवश्यक परिवर्तन ज़रूरी हैं। भोजन को उस रूप में बदलना होगा ताकि वह हमारी आहार नाल को पार कर सके। भोजन में यह परिवर्तन होते हैं रासायनिक क्रियाओं द्वारा।

वैसे तो हमारे भोजन में स्टार्च, वसा, प्रोटीन आदि कई पदार्थ होते हैं। परन्तु भोजन का एक प्रमुख हिस्सा मंड यानी स्टार्च है। स्टार्च आहार नाल की दीवार को पार नहीं कर सकता, इसलिए पहले स्टार्च को शक्कर में बदला जाता है; फिर इस शक्कर को आहार नाल की दीवार सोख सकती है और शरीर के अन्य अंगों को इसे उपलब्ध करवा सकती है।
स्टार्च को बदलने का काम हमारी छोटी आंत में होता है। वैसे तो स्टार्च में बदलाव का काम हमारे मुंह से शुरू हो जाता है। (याद कीजिए मुंह में सूखा पोहा रखकर चबाने पर मिठास का अहसास होने लगता है। स्टार्च से शक्कर बनने के लिए हमारी आंत की दीवार से कुछ खास रसायनों का रिसाव आहार नली में होता है। इन रसायनों को एंजाइम कहते हैं। स्टार्च को शक्कर में बदलने का काम एमाइलेज़ नामक एंजाइम करता है। इसी तरह प्रोटीन, वसा आदि को भी शरीर में सोखे जा सकने वाले पदार्थों में बदलने के लिए अलग-अलग एंजाइम होते हैं।

हमारे आहार तंत्र में स्त्रावित होने वाले एंजाइम में से कोई भी ऐसा नहीं है जो घास, पत्तियों आदि यानी सेल्यूलोज़ को ऐसे किसी पदार्थ में तब्दील कर पाए जिसे आहार नली में सोखा जा सके। घास-पत्तियां, लकड़ी यानी सेल्यूलोज़ का पाचन करने के लिए सेल्युलेसेज़ (Cellulases) नामक एंजाइम की ज़रूरत होती है। सिर्फ इंसान ही क्यों, किसी भी बहुकोशिकीय जीव के पास सेल्युलोज को शक्कर में तब्दील करने की क्षमता नहीं है। यहां अपवाद स्वरूप सिल्वर फिश (पुरानी किताबों में अक्सर पाया जाने वाला सफेद चमकीला कीट), केंचुआ और लकड़ी में छेद करने वाले एक मोलस्का का नाम ही याद आता है।
पेड़-पौधों की कोशिकाओं और जंतुओं की कोशिकाओं में एक बड़ा अंतर यह है कि वनस्पति कोशिकाओं की दीवार सेल्यूलोज़ नामक पदार्थ से बनी होती है। दरअसल पेड़-पौधे के कुल बज़न का एक बड़ा हिस्सा सेल्यूलोज़ ही है। घास मूलतः सेल्यूलोज़ ही होता है और इसे हम पचा नहीं सकते।
यदि गाय, भैंस, बकरी, भेड़ जैसे पशु घास खाकर उसे पचा पाते हैं तो इसकी वजह है उनके पाचन तंत्र में ऐसे सूक्ष्मजीवों यानी बैक्टीरिया और प्रोटोजोआ की मौजूदगी जो सेल्यूलोज़ को पचाने की क्षमता रखते हैं। जो विकसित जीव घास, पत्ती, लकड़ी वगैरह खाकर जिंदा हैं वे इन सूक्ष्म-जीवों से प्रेम बनाकर रखते हैं। यानी यहां मामला सहजीविता यानी सिम्बायोसिस का ही है।
 
गाय का आहार तंत्र: गाय का पेट कुछ खास बनावट लिए होता है जिसमें मोटेतौर पर चार हिस्से होते हैं। इनमें से रुमेन और रेटिकुलम में भारी तादाद में सूक्ष्मजीव निवास करते हैं। गाय अपने भोजन को सबसे पहले रुमेन और रेटिकुलम में पहुंचाती है, जहां इस भोजन के साथ सूक्ष्मजीव क्रिया करते हैं। यहां से भोजन दोबारा गाय के मुंह में पहुंचाया जाता है जिसे गाय आराम से चबाती है। आराम से चबाया गया भोजन पेट के ओमेसम हिस्से में पहुंचता है जहां इस भोजन से पानी सोख लिया जाता है। इस भोजन को अब एबोमैसम में पहुंचाया जाता है, यहां हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की मौजूदगी से सूक्ष्मजीवों का खात्मा हो जाता है। सेल्यूलोज़ को जिन सरल रूपों में बदला गया है उनका अवशोषण छोटी आंत में होता है। गाय सिर्फ घास-फूस ही नहीं कागज़, सूती कपड़ा आदि भी खाकर पचा सकती है क्योंकि इनमें भी सेल्यूलोज़ होता है।

पूरी प्रकिया समझने के लिए गाय को बतौर उदाहरण लेते हैं। गाय और अन्य कई पशु जुगाली करते हैं। जुगाली करने वाले प्राणियों का पेट बड़ा ही विचित्र होता है। इनके पेट में चार भाग होते हैं। रुमेन, रेटिकुलम, ओमेसम और एबोमैसम। इनमें से पहले। तीन आहार नाल के विकसित रूप हैं। एबोमैसम को ही सही मायने में आमाशय कहना चाहिए। रुमेन और रेटिकुलम में भारी तादाद में अनऑक्सी सूक्ष्मजीव निवास करते हैं। इनमें बैक्टीरिया और मिलिएटेड प्रोटिस्ट प्रमुखतः से होते हैं।
पाचन में बैक्टीरिया का सहयोगः गाय के रूमेन के भीतर का एक दृश्य। यहां बैक्टीरिया के चारों ओर अधपका भोजन दिखाई दे रहा है। रुमेन में बैक्टीरिया द्वारा छोड़े गए एंजाइम में भोजन का पाचन शुरू होगा। यह वातावरण बैक्टीरिया की वृद्धि के लिए एकदम भी है। चित्र के बीच वाले हिस्से में एक बैक्टीरिया, एक से दो होने की तैयारी में है।

जब गाय घास खाती है तो उसे बिना चबाए रुमेन और रेटिकुलम में पहुंचा देती है, यहां सूक्ष्मजीव सेल्यूलोज़ को तोड़ते हैं और मेटाबोलाइज़ कर उन्हें सरल वसा अम्लों में तब्दील कर देते हैं। फिर इसे वापस गाय के मुंह में पहुंचाया जाता है। अब गाय इसे आराम से चबाती है। इसे जुगाली कहते हैं। जुगाली के समय वह इस लुगदीनुमा पदार्थ को महीन पीस देती है। तत्पश्चात इसे ओमैसम में पहुंचा दिया जाता है और वहां से एबोमैसम में।
गाय के पेट के रुमेन और रेटिकुलम में अनगिनत जीव पलते हैं जो प्रमुखतः दो तरह के होते हैं - बैक्टीरिया और प्रोटोज़ोआ। जुगाली करने वाले जीवों में ही प्रोटोजोआ की तकरीबन 30 प्रजातियां पाई गई हैं। यदि गाय के पेट से एक ग्राम पदार्थ निकालें तो उसमें लगभग 10 लाख सुक्ष्मजीव मिलेंगे।
 
स्टार्च और सेल्यूलोज़ की बनावट: स्टार्च और सेल्यूलोज़ में वैसे तो काफी समानता है। लेकिन सिर्फ एक बंध (Bnd) में फर्क से सारा मामला ही बदल जाता है। जिन बंधों की वजह से सेल्यूलोज़ स्टार्च जैसा नहीं है उसे गोला लगाकर दिखाया गया है।
आमतौर पर गाय, बकरी आदि पशु जिन घास, पत्तियों को खाते हैं उनमें प्रोटीन की मात्रा काफी कम होती है लेकिन इनमें अकार्बनिक नाइट्रोजन (अमोनियम, नाइट्रेट और नाइट्राइट आयन के रूप में) काफी होती है। सूक्ष्मजीव इस अकार्बनिक नाइट्रोजन का संश्लेषण कर अपने लिए अमीनो अम्ल और प्रोटीन का बंदोबस्त करते हैं।
गाय के आहार तंत्र में जुगाली के बाद भोजन रुमेन से ओमैसम में आता है जहां भोजन में से पानी को सोख लिया जाता है, और उसके बाद भोजन को ओबेमैसम में पहुंचा दिया जाता है। ओबेमेसम में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन में मौजूद सूक्ष्मजीवों को मार देता है और वहां भौजूद एंजाइम सूक्ष्मजीवों को पचा लेते हैं। एक मोटा अनुमान है कि गाय को रोज़ तकरीबन 100 ग्राम प्रोटीन तो इन सूक्ष्मजीवों । से ही मिल जाता है। आप सोच रहे होंगे कि सूक्ष्मजीव इसी तरह खत्म होते रहे तो रुमेन में सूक्ष्मजीव बचेंगे कैसे? खैर, इस ओर से निश्चित रहिए क्योंकि रुमेन में सूक्ष्मजीवों में गुणन की दर इतनी ज्यादा है कि काफी सारे सूक्ष्मजीव मारे जाने के बावजूद वे न केवल अपने नुकसान की भरपाई कर लेते हैं, बल्कि गाय के साथ सहजीविता वाले संबंध को भी कायम रखते हैं।
 
मलभक्षी खरगोश
गाय में सूक्ष्मजीवों का वास आहार नाल के शुरू में होता है मगर खरगोश, चूहा आदि (रोडेंट) में ये सूक्ष्मजीव उसकी आहार नाल के अंतिम हिस्से अंधनाल (Caccum) को अपना घर बनाकर रहते हैं। ये सूक्ष्मजीव वहां सेल्युलोज़ को पचाते हैं, लेकिन चूंकि यह वहां अवशोषित नहीं हो सकता, इसलिए यह पचा हुआ सेल्यूलोज़ मल के रूप में निकल जाता है। परन्तु खरगोश, रोडेंट वगैरह अपने मन को फिर से खा लेते हैं। इस तरह वो पचा हुआ सेल्यूलोज़ उनके काम आ जाता है। इसे मलभक्षण या कोप्रोफेज़ी कहते हैं। मलभक्षण की बात सुनकर हो सकता है आप नाक-मुंह सिकोड़े लेकिन चूहों के बारे में यह देखा गया है कि यदि वे अपना मन न खा पाएं तो उनमें विटामिन की कमी के लक्षण उभरने लगते हैं।

लकड़ी खाती दीमक  
खरगोश का तरीकाः खरगोश, रोडेंट वगैरह की अंधनाल (Caccum) में सूक्ष्मजीव रहते हैं। अंधनाल में सेल्युलोज सरल पदार्थों में बदलने के बावजूद, वहां इसका अवशोषण नहीं हो सकता; इसलिए खरगोश इन्हें पाने के लिए दूसरा रास्ता अख्तियार करते हैं।
 
अब दीमक की ओर चलते हैं। अधिकांश दीमक का भोजन लकड़ी, सड़ी-गली पत्तियां वगैरह हैं जो मुख्यतः सेल्यूलोज़ ही है। दीमक की स्थिति भी जुगाली करने वालों जैसी ही है। दीमक खुद सेल्यूलोज़ को पचा नहीं सकती इसलिए उसे भी सूक्ष्मजीवों की मदद लेनी होती है। दीमकों की आंत के पिछले हिस्से में सुक्ष्मजीव पलते हैं। वहां पर ये इतनी बड़ी संख्या में होते हैं कि कई दीमकों का तो एक तिहाई वज़न इन सूक्ष्मजीवों से बनता है। इसी तरह के सूक्ष्मजीव एक लकड़ी - भक्षी तिलचट्टे यानी कॉकरोच में भी पाए जाते हैं। जुगाली करने वाले जीवों और दीमक में पाए जाने वाले ये सूक्ष्मजीव बिना ऑक्सीजन के ही जीं पाते हैं। यदि दीमक को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन वाले वातावरण में रखा जाए तो ये सूक्ष्मजीव और साथ में दीमक भी मारी जाती है।

दीमक में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव सेल्यूलोज़ का विघटन करके ग्लूकोज़ नहीं बनाते। वे कार्बन डाइऑक्साइड और ऐसीटिक अम्ल बनाते हैं। दीमक इस ऐसीटिक अम्ल का उपयोग अपने लिए करती है। दीमक वाले मामले में एक और बात थड़ी फर्क है, वह यह कि दीमक कभी भी सूक्ष्मजीवों को नहीं पचाती। दीमक इन सूक्ष्मजीवों पर इस तरह से निर्भर है कि पैदा होते ही शिशु दीमक प्रौढ़ दीमकों का मल खाकर खुद को सूक्ष्मजीवों से लैस कर लेती हैं। 
ऐसा नहीं है कि हमारी आंतों में सूक्ष्मजीव नहीं पाए जाते। हमारी आंतों में भी करोड़ों की संख्या में बैक्टीरिया होते हैं। ये कुछ विटामिन बनाते हैं। और हमारी ज़रूरत की पूर्ति करते हैं।लेकिन हमें सेल्यूलोज़ पचाने वाले बैक्टीरिया नहीं मिले हैं। यदि मिले। होते तो बात ही कुछ और होती?


यह जवाब चकमक पत्रिका के मई-जून 2001 के अंक में प्रकाशित लेख 'हम घास क्यों नहीं प्राते?" (लेखकः सुशील जोशी) पर आधारित है।


भोजन और आहार तंत्र की प्रकृति
भोजन के बारे में जब बात हो रही हो तो हमारे आहार तंत्र में छोटी आंत का महत्व किसी से छिपा नहीं है। अक्सर तुलना के लिहाज से यह कहा जाता है कि शाकाहारी प्राणियों की आंत काफी लंबी और घुमावदार होती है, जबकि मांसाहारी प्राणियों की आंत अपेक्षाकृत कम लंबी होती है, और सर्वभक्षियों की आंत की लंबाई इन दोनों के बीच की होती है। आंतों की लंबाई में पाए जाने वाले अंतर की वजह यह बताई जाती है कि प्राणी जो भोजन लेते हैं उसे पचाना जितना आसान होगा, उनकी आंतों की लंबाई उतनी ही कम होगी। लेकिन प्राणी अगर ऐसा भोजन लेते हों जिसे पचाने की प्रक्रिया काफी जटिल किस्म की हैं तो आंतों की लंबाई कुछ ज्यादा होगी। जैसाकि देखा गया है कि मांसाहारी प्राणी जो भोज्य पदार्थ खाते हैं उसे पचाना, और पाचन के दौरान बने हुए पदार्थों का अधिकतम अवशोषण करना काफी आसान होता है। जबकि शाकाहारी प्राणी जो पेड़-पौधे खाते हैं, उन्हें पचाने और उनसे बने पदार्थों का अधिकतम अवशोषण करने के लिए काफी लंबी आंत की जरूरत होती है।

आंतों की लंबाई पर से एक उदाहरण याद आया - टेडपोल और मेंढक का। टेडपोल जो मेंढक की शुरुआती अवस्था है, एक शाकाहारी जीव होता है। इस अवस्था में टेडपोल की छोटी आंत काफी लंबी और जलेबी जैसी घुमावदार होती है। टेडपोल जब वयस्क अवस्था में प्रवेश करता है यानी मेंढक बनता है तो वह मांसाहारी बन चुको होता है। इसलिए इसकी छोटी आंत की लंबाई पहले की अपेक्षा काफी कम हो जाती है, साथ ही घुमाव भी कम हो जाते हैं। (अगले पृष्ठ पर चित्र देखिए)।

इसी तरह कैलिफोर्निया क्वेल (California Quail) नामक पक्षी का मामला तो और भी विचित्र है। यह पक्षी गर्मी के मौसम में ज्यादातर कीट और बीज खाता है और ठंड के दिनों में पास वगैरह। मौसम के हिसाब से खानपान की वजह से क्वेल की आंतों की लंबाई ठंड के मौसम में थोड़ी बढ़ जाती है और गर्मी के मौसम में कुछ घट जाती है।
जहां आंतों के बारे में इतनी बात हो रही है तो यह भी बता देना उचित होगा कि फीताकृमि (टेपवर्म) जैसे जंतुओं में न मुंह होता है, न कोई पाचन तंत्र। फीताकृमि तो इंसानों या अन्य रीढ़धारियों की आंतों में निवास करते हैं जहां वे पचाए जा रहे भोजन के सागर में गोता लगा रहे होते हैं। फीताकृमि अपने शरीर की बाहरी दीवार से अपनी जरूरत का भोजन सीधे ग्रहण कर लेते हैं। इस तैयार भोजन को पचाने के लिए न किसी आमाशय की जरूरत है, न किसी आंत की।
                                                                                                                                              - विविध स्रोतों से संकलित