इयान मेक इवान

यह दरअसल पीटर की ख्याली उड़ानों के कई किस्से बयान करने वाली एक किताब की भूमिका है। इस भूमिका में उन सब कहानियों के प्रमुख पात्र पीटर  का परिचय देने के बहाने लेखक ने ‘बाल हृदय की गहराईयों’ को टटोलने की कोशिश की है।
10 साल के पीटर के लिए यह ' एक अबूझ पहेली थी कि ये बड़े (हो चुके) लोग उसे 'नकचढ़ा क्यों समझते हैं। वह तो बिल्कुल अड़ियल या जिद्दी नहीं। उसने कभी कांच की बोतलों को दीवारों पर नहीं दे मारा, न ही कभी टमाटर के सॉस को माथे पर पोत चोट का नाटक ही किया, कभी अपनी दादी की बांहटांग पर चाकू की धार नहीं आजमाई। हां, कभी-कभार ऐसा करने का ख्याल ज़रूर कुलबुलाया करता।

आलू, मछली, अंडे और पनीर के सिवा कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे देख वो नाक भौं सिकोड़ता है। और जितनों को भी वह जानता है वह उनसे ज्यादा शोर नहीं मचाता; ज्यादा गंदा नहीं रहता, उनसे ज्यादा बेवकूफ नहीं है। उसका नाम बोलने में जीभ-तालू को वर्जिश नहीं करनी पड़ती। उसके पीले और अस्त-व्यस्त चेहरे को याद रखना आसान है। वह दूसरे बच्चों की तरह हर रोज़ बिना किसी बहानेबाज़ी या ज़िद के स्कूल जाता है। अपनी बहन से वह उतनी ही बदमाशी करता है जितनी वह उसके साथ करती। न ही कभी ऐसा हुआ कि किसी पुलिस वाले को उसका दरवाजा खटखटाना पड़ा, न ही किसी सफेद कोटधारी डॉक्टर ने उसे पागलखाने ले जाने की धमकी ही दी।

कुल मिलाकर यह कि नाम से लेकर काम-धाम तक सबमें पीटर काफी सुलझा हुआ अच्छा बच्चा है। फिर विचित्र, नकचढ़ा ये विशेषण क्योंकर उसके साथ जड़े जाते हैं?
वो तो बहुत बाद में, बड़ा होने पर पीटर को समझ आया कि माजरा क्या है? उसे विचित्र दरअसल उसका चुप रहना बनाता था। यह बात लोगों को बहुत अखरती। दूसरा यह कि उसे अपने आप में खोए रहना अच्छा लगता। हमेशा नहीं...हर रोज़ भी नहीं। बस कभी-कभार एक-आध घंटे के लिए कहीं चले जाना उसे भाता। वह उसका कमरा, कोई पार्क, कुछ भी हो सकता था। उसे अकेले रहना और सोचते रहना बहुत सुहाता।

सब गड़बड़ की जड़ यही थी। बड़ों को इस सोच में बड़ी शांति मिलती कि उन्हें खबर है कि एक 10 साल के बच्चे के अन्दर क्या चल रहा है। लेकिन, अगर बच्चे बोलें नहीं तो पता कैसे चले कि वे क्या सोच रहे हैं? लोग बस इतना ही देख पाते कि पीटर गर्मी की दोपहर में पीठ के बल लेटा, घास का तिनका चबाता आसमान निहार रहा है। आप आगे बढ़कर कई बार नाम पुकारते और पूछते कि वह क्या सोच रहा है तो वह अचकचाकर बैठ जाता ..."नहीं..नहीं... कुछ भी नहीं''। बड़े इतना तो समझ जाते कि इसके दिमाग में कुछ चल रहा है पर वे उसे न देख पाते, न सुन पाते, न महसूस कर पाते। वे पीटर को यह भी नहीं कह सकते कि "भैया ऐसा मत करो।" क्योंकि वे जानते ही नहीं थे कि वह कर क्या रहा है। हो सकता है कि वह अपने स्कूल में आग लगा रहा हो या अपनी बहन को मगरमच्छ के हवाले कर रहा हो या गर्म गुब्बारे में बैठ दुनिया की सैर पर निकल गया हो; उन्हें तो बस यही दिखाई देता कि एक बच्चा एकटक आसमान निहारे जा रहा है, जिसका नाम पुकारो तो भी उसे सुनाई नहीं देता।

बड़ों को उसके अपने में डूबा रहने से दिक्कत होती। वैसे उन्हें बड़ों से भी ऐसा व्यवहार गंवारा न होता। आम तौर पर लोग उस सबमें शामिल होना चाहते हैं जो दूसरे सोच रहे हैं या कर रहे हैं। इस तरह वे एक-दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं। अगर आप इस प्रक्रिया में शामिल नहीं होते तो दूसरों का मज़ा किरकिरा करते हैं। पीटर सोचता कि यह जुड़ना-जुड़ाना तो सब ठीक लेकिन लोग ऐसा करते ही चले जाते हैं। भई, इस सबमें आप जितना समय खर्च करते हैं उससे कम में ही अगर आदमी यह सोचे कि वह फौ तो रहने के हिसाब से दुनिया ज्यादा अच्छी जगह बन सकती है और लड़ाई-झगड़े कुछ कम हो सकते हैं।

स्कूल में अक्सर वह अपने शरीर को एक जगह पर बैठा छोड़ खुद उड़ जाता। घर में भी हाल इससे कुछ अलग न था। एक दफा पिताजी क्रिसमस की झालरें टांग रहे थे। पीटर एक कोने में कुर्सी पर यूं ही बैठा था। पिता बोले, "पीटर मैं तुम्हारी कुर्सी पर चढ़ रहा हूं, उठना मत।'' पीटर तुरन्त बोला, “आप बेफिक्र होकर चढ़ जाएं।'' उधर पिता कुर्सी पर चढ़े और इधर पीटर ख्याली घोड़ों पर। यूं देखने में तो वह कुछ नहीं कर रहा था लेकिन दरअसल था बहुत व्यस्त। वह कपड़े टांगने वाले हैंगर और चीड़ के दो पेड़ों से बंधी तार के सहारे पहाड़ से उतरने का कोई मजेदार तरीका सोच रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप फिसलते रहें और बीच के पेड़ों से टकराएं भी नहीं।
वह पहाड़ी हवा का असर था या पीटर को अचानक लगी भूख का कि वो उठा और रसोई की ओर चल दिया। धड़ाम की आवाज़ और चीख ने ध्यान खींचा तो उसे पिता की याद आई। कुर्सी के पीछे से निकल रहा उनका सिर पीटर को कच्चा चबा जाने के अंदाज़ से घूर रहा था। कमरे के दूसरे कोने में मां मुंह पर हाथ रख हंसी के फव्वारे दबाने की कोशिश में लगी थी। "माफ करना पिताजी, मैं आपको भूल गया था', पीटर शर्मिदा था।

पीटर 10 साल का हुआ ही था कि उसकी झोली में एक जिम्मेवारी आ गई - सात साल की अपनी बहन कैट को स्कूल ले जाना-आना। कैट और पीटर एक ही स्कूल में जाते थे। स्कूल इतनी ही दूर था कि या तो 15 मिनट चल लो या फिर थोड़ी देर बस में बैठ लो।
वैसे तो स्कूल घर से केवल दो स्टॉप की दूरी पर था लेकिन उसके मां-बाप की इस विषय पर हो रही बातचीत से आभास होता ज्यों केट को उत्तरी ध्रुव ले जाना है। एक रात पहले ही निर्देशों-आदेशों का सिलसिला शुरू हो जाता। सुबह फिर वही समझाइशें। नाश्ते के दौरान तमाम बातें फिर से दोहराई जातीं। जैसे ही दोनों दरवाजे की तरफ बढ़ते मां जल्दी-जल्दी सारी हिदायतें, नियम गिना देतीं। पीटर को लगता सब मुझे बुद्ध समझते हैं। शायद मैं हूं भी। उसे पूरे वक्त केट का हाथ थामे रहने का आदेश बार-बार दिया जाता।
उन्हें बस में बीच वाली सीटों पर बैठना था; खिड़की के पास बहन बैठेगी; बुरे या आवारा किस्म के लोगों से बातें नहीं करना; पीटर बस-कंडक्टर को जोर से उस बस स्टॉप का नाम बताएगा जहां उतरना है; हां, ‘कृपया' बोलना बिल्कुल नहीं भूलना है; और निगाह बराबर रास्ते पर हो।

पीटर ने मां के सामने सब दोहराया और बहन का हाथ पकड़कर चल दिया। दरअसल उसे यह भाता क्योंकि उसे केट बहुत अच्छी लगती थी। वह बस यही मन्नत मांगता रहता कि स्कूल का कोई साथी न देख ले कि वह एक लड़की का हाथ थामे जा रहा है। बस आई और वे उसमें बैठ गए। बस में हाथ थामे बैठना वैसे ही अजीब-सा था और ऊपर से आसपास स्कूल के बच्चों का जमघट। उन्होंने हाथ छोड़ दिए। पीटर को अपने आप पर काफी गर्व हो रहा था कि वह अपनी बहन का ख्याल रख सकता है .... हर जगह। और केट भी उस पर विश्वास कर सकती है। अगर कभी वे किसी पहाड़ी रास्ते पर अकेले हों और सामने से भेड़ियों का झुण्ड आ जाए तो उसे मालूम है क्या किया जाना है। यह ध्यान रखते हुए कि उसे जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना है, वह केट का हाथ पकड़े धीरे-धीरे पीछे होता जाएगा, जब तक कि उन दोनों की पीठ एक बड़ी चट्टान से न लग जाए। अब भेड़िए उन्हें घेर नहीं सकते।
इसके बाद वह अपनी जेब से दो जरूरी चीजें निकालेगा। उसने याद से इन्हें जेब में रखा था - शिकारी चाकू और माचिस की डिबिया। वह चाकू को म्यान से निकालकर घास पर रख देता है ताकि भेड़ियों के आने पर बिना वक्त गंवाए उन पर हमला कर सके। भेड़िए करीब आते जा रहे हैं। वे इतने भूखे हैं कि उनके मुंह से लार टपक रही है। वे गुर्रा रहे हैं। केट सहमी, आतंकित-सी रो रही है। लेकिन उसे चुप नहीं कराया जा सकता। उसे अपनी योजना से डिगना नहीं है। ठीक उसके पैरों के पास सूखी पत्तियां और टहनियां बिखरी पड़ी हैं। पीटर जल्दी-जल्दी उन्हें इकट्ठा करता है। भेड़िये बढ़ते ही आ रहे हैं। उससे कोई गलती न होने पाए। डिबिया में सिर्फ एक तीली बची है।

भेड़िये अब काफी करीब आ गए हैं। उनके नथूनों से सड़े मांस की गंध आ रही है। वह धीरे से झुककर हाथों का गोला बनाकर माचिस जलाता है। हवा के झोंके से लौ कांप जाती है। लेकिन पीटर उसे ढेर के पास रखे रहता है। पहले एक पत्ती, फिर दूसरी, तीसरी पत्ती और पूरी टहनी जल उठती है। इसी के साथ पत्तियों का ढेर धू-धू कर जल उठता है। वह इस ढेर में और ज्यादा सुखी पत्तियां, टहनियां और लकड़ियां डालता जा रहा है। केट भी अब उसके आइडिया को भांप कर पत्तियां इकट्ठा करने में उसकी मदद कर रही है। भेड़िये पीछे हट रहे हैं। जंगली जानवर आग से डरते हैं और हवाएं धुएं को उनके लार टपकाते नथुनों में घुसाए जा रही है। अब पीटर अपना शिकारी चाकू उठा लेता है। और ....।
उफ ...., अगर वो थोड़ा सजग न होता तो इन सपनों के चलने ठीक समय पर उतर न पाता। बस रुक चुकी थी। स्कूल के बच्चे बस से उतर रहे थे। वह झटके से उठा और किसी तरह बस से कूद पड़ा। तब तक बस सरकना शुरू हो गई थी। अभी कोई 20-30 कदम आगे बढ़ा कि उसे लगा कि वह कुछ भूल गया है। थैला तो नहीं? नहीं..नहीं... ओह अपनी बहन.... उसे भेड़ियों के मुंह से तो बचा लिया लेकिन वहीं बस में ही छोड़ आया।

एक क्षण के लिए वह जड़ हो गया और दूर होती जा रही बस के पिछवाड़े को देखता रहा। फिर बुदबुदाया 'वापस आ जाओ'। उसके स्कूल के एक दोस्त ने उसे पीछे से थपकी दी - "क्या हुआ, कुछ भूल गए?" "नहीं, कुछ नहीं, मैं बस में कुछ भूल आया हूं।' 'वापस आ जाओ' और वह लगा बस के पीछे भागने। तब तक बस काफी आगे बढ़ गई थी और अगले स्टॉप के लिए धीमी हो गई थी। पीटर भागता गया। वह इतनी तेज़ी से भाग रहा था कि अगर अपनी बाहें फैला लेता तो यकीनन उड़ ही जाता। फिर पेड़ों के ऊपर से होता हुआ वह... नहीं ... नहीं। उसे फिर सपनों में नहीं खोना है। उसे अपनी बहन को पाना है। वह अब भी कहीं चीख-चिल्ला रही होगी।
कुछ यात्रियों को उतार बस ने फिर से सरकना शुरू कर दिया था। वह काफी करीब पहुंच चुका था। बस एक लॉरी के पीछे रेंग रही थी। अगर वह अपनी टांगों और छाती के दर्द को भुलाकर पूरे दमखम से भागे तो बस तक पहुंच सकता है। जब पीटर बस स्टॉप तक पहुंचा तो बस केवल आधा-एक फर्लोग आगे थी। तेज़ और, तेज़... वह खुद से बोला।

बस स्टॉप से गुजरते वक्त उसके फौ पीटर....पीटर। पीटर में सिर घुमाने की भी हिम्मत शेष न थी। वो हांफते हुए बोला, ".... नहीं, मैं नहीं रुक सकता।''
“पीटर रुको ... रुको, मैं केऽऽऽऽऽट" 
सीने को हाथों में थामते हुए पीटर केट के पैरों के पास घास पर गिर पड़ा।
"ध्यान से पीटर, कोई कुत्ता सुबहसुबह यहां कुछ कर गया है", केट बिना किसी उत्तेजना के बोली।
"चलो, जल्दी चलो नहीं तो देर हो जाएगी। और अगर तुम किसी मुश्किल में नहीं पड़ना चाहते तो कृपया मेरा हाथ थामे रहो।'' फिर दोनों हाथ में हाथ डाले स्कूल की ओर चल दिए।
उनके बीच समझौता हो गया था। घर पर इस घटना के बारे में कुछ नहीं बताने की कीमत के बतौर केट को पीटर का इस हफ्ते का जेबखर्च मिलने वाला था।

दरअसल दिन में सपने देखने वाले ऐसे लोग जो कम बोलते हैं, उन्हें शिक्षक मूर्ख समझने लगते हैं। खास तौर पर वे शिक्षक जो आपको ज्यादा नहीं जानते। अगर मूर्ख नहीं तो ढीलाडाला का तमगा तो आप पर चस्पा हो ही जाता है। जो आपके दिमाग में चल रहा है उस आश्चर्यलोक में कोई नहीं झांक सकता। खिड़की से बाहर झांकते हुए या कोरे कागज़ को एकटक निहारते पीटर को देख शिक्षक यही सोचता है कि या तो यह ऊब चुका है या फिर उत्तर की खोज में कहीं भटक गया है। लेकिन असली किस्सा तो कुछ और ही होता है।

उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ जब पीटर का गणित का पर्चा था। उन्हें बहुत बड़ी-बड़ी संख्याओं का जोड़ करना था और समय था मात्र बीस मिनट। जैसे ही पीटर ने पैंतीस लाख दो सौ पिच्चानवें को इतनी ही बड़ी दूसरी संख्या से जोड़ना शुरू किया तो खुद को विश्व की सबसे बड़ी संख्या को खोजते पाया। पिछले हफ्ते ही उसने एक अनोखे नाम वाली संख्या के बारे में पड़ा था - गूगल। गूगल यानी 1000 यानी 10 के बाद 100 शून्य। इससे भी विशाल एक संख्या है गूगलप्लेक्स, यानी 10 को 10 से एक गूगल बार गुणा करने पर मिलने वाली संख्या। क्या संख्या है, वाह!
पीटर ने अपने दिमाग को ढील दे दी। फिर क्या था शून्यों की लड़ी बुलबुलों की तरह आसमां की ओर चल निकली। पिताजी कहते हैं कि अंतरिक्ष यात्रियों ने गणना की है कि उनके विशाल टेलिस्कोप से दिखने वाले लाखों तारों के तमाम अणुओं को जोड़ें तो भी संख्या होगी 10"। यानी 1 गूगल से भी कम। और 1 गूगल तो 1 गूगलप्लेक्स के सामने धूल का एक महीन कण भर है। अगर आप किसी से चॉकलेट वाली 1 गूगल टॉफी मांगें तो उनको बनाने के लिए इस पूरे ब्रह्माण्ड के समस्त परमाणु भी काफी नहीं होंगे।

अपने हाथों पर सिर टिकाए पीटर ने लम्बी आह भरी .... कि मैडम ने ताली बजा दी। 20 मिनट खत्म। अब तक पीटर पहले सवाल की पहली संख्या का पहला अंक ही लिख पाया था। जबकि पूरी क्लास को सवालों पर फतेह पाए काफी देर हो चुकी थी। कागज़ को घूरते, कुछ नहीं लिखते और आहें भरते पीटर पर मैडम की शुरू से ही निगाह थी।
जल्द ही पीटर को उन बच्चों के बीच बिठा दिया गया जिन्हें 4, 6 जैसी छोटी संख्याओं को जोड़ने में भी भारी दिक्कत होती थी। पीटर की बोरियत और बढ़ गई। ध्यान देना और ज्यादा मुश्किल हो गया। शिक्षक को लगने लगा कि उसका गणित इतना कमज़ोर है कि इस विशेष कक्षा के लिए भी वह फिट नहीं है। अब क्या किया जाए?

हालांकि पीटर के माता-पिता और उसकी बहन जानते थे कि पीटर न तो बेवकूफ है, न आलसी और न ही ऊबा हुआ। कुछ शिक्षक भी ऐसे थे। जिन्हें यह अहसास हो गया था कि उसके दिमाग में तमाम तरह की मजेदार चीजें घट रही होती थीं। स्वयं पीटर ने बड़े होने के दौरान यह महसूस किया कि चूंकि लोग आपके दिमाग में चल रही फिल्म को देख नहीं पाते हैं इसलिए अगर आप चाहते हैं कि वे आपको जानें तो बेहतर होगा आप उन्हें सब कुछ बताते जाएं। यह जान जाने के बाद पीटर ने उन सब चीज़ों के बारे में कुछ-कुछ लिखना शुरू किया जो खिड़की से बाहर ताकते समय या घास पर लेटे आसमान निहारते समय घट जाती थीं। बड़े होने पर वह एक आविष्कारक और एक कहानीकार बना और मज़े से रहा। इस किताब में पीटर के दिमाग में उपजे ऐसे ही कुछ रोमांचक किस्सों को जस-का-तस लिखने की कोशिश की गई है।


मूल लेखक: इयान मेक इवान: अंग्रेजी साहित्य में अपनी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। कुछ उपन्यास भी निखे हैं।
अनुवाद: शशि समलोक: एकलव्य द्वारा प्रकाशित 'स्रोत फीचर सेवा' से संबद्ध। अनुवाद में रुचि।
सभी चित्रः स्मृति सिन्हाः कॉलेज में पढ़ाती हैं। शौकिया चित्रकार है।
यह कहानी 'डै ड्रीमर' किताब से साभार। प्रकाशकः विन्टेज पब्लिशर्स, लंदन।