इयान मेक इवान

उस बड़ी और बिखरी बिखरी-सी रसोई में एक दराज़ थी। हालांकि वहां और भी कई दराज़ थीं लेकिन जब कोई यह कहता कि 'धागा रसोई की दराज़ में है' तो सब समझ जाते कि किस दराज़ की बात की जा रही है। मगर धागे का उस दराज़ में न होना भी लगभग तय था। वैसे बना वो ऐसी ही सब रोज़मर्रा के इस्तेमाल होने वाली चीज़ों के लिए था, जैसे स्कुड्राइवर, कैंची, टेप, पिन, पेंसिल वगैरह-वगैरह। लेकिन ये वहां कभी नहीं होती थीं। अगर आपको इनमें से कोई एक चीज़ चाहिए होती तो सबसे पहले आप इस दराज़ में देखते, उसके बाद और कहीं ढूंढते। अब अगर उस दराज़ में ये सारी जरूरी चीजें नहीं थीं तो उसमें था क्या - यह बता पाना खासा मुश्किल मसला है - वो तमाम चीजें जिनकी कोई तयशुदा जगह नहीं थी, वो तमाम चीजें जिन्हें अभी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था लेकिन उन्हें फेंका भी नहीं जा सकता था, या वे चीजें जिन्हें किसी दिन ठीक किया जा सकता था जैसे - बैट्रियां जिनमें अभी भी थोड़ी-बहुत जान बची थी, बगैर बोल्ट के नट, महंगी केतली का अभागा हैंडल, बिना चाबी वाला ताला या गोपनीय नंबर वाला ताला जिसका गुप्त नंबर अब सबके लिए गुप्त हो गया था; घिसेपिटे रंगहीन कंचे; विदेशी सिक्के, बिना बल्ब का टॉर्च; अपनी मौत से पहले दादी द्वारा प्यार से बुने गए दस्ताने का शेष बचा एक नग; गर्म पानी की बोतल का स्टॉपर; एक चटका हुआ जीवाश्म ..... लगता था जैसे कोई जादुई उलट-फेर हुआ हो और हमेशा काम में आने वाली ज़रूरी चीज़ों के लिए बने इस दराज़ में चुन-चुनकर एकदम बेकार या गैर-ज़रूरी चीज़ों ने जगह पा ली हो। भला आप जिग्सॉ के एक टुकड़े का क्या कर सकते हैं? लेकिन उसे फेंक कर तो देखिए .... हिम्मत नहीं होगी।

फिर भी ऐसा नहीं था कि चीजें यहां आ गई तो बस आ ही गई। मां अक्सर इस दराज़ की सफाई करती और तमाम बेकार चीजों को कूड़ेदान का रास्ता दिखा आतीं। उसके बाद दराज़ कुछ दिनों के लिए फिर से धागे, टेप, कैंची... से सज जाता। लेकिन कुछ दिनों के लिए ही। कुछ दिनों बाद कबाड़-शबाड़ को फिर से पैठ बनाता देख ये ज़रूरी चीजें दराज़ से कूच कर अपना विरोध जता देती थीं।
कभी-कभी बोरियत भरे क्षणों में पीटर इस दराज़ को खोलकर बैठ जाता। इस उम्मीद के साथ कि वहां पड़ी चीजों से उसे कोई आइडिया या खेल ही सूझ जाए। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं। कोई चीज़ किसी में फिट नहीं होती, किसी का किसी से कोई जुड़ाव नहीं होता। इस दराज़ के बारे में मज़ाक में ऐसा कहा जाता था कि लाखों बंदर, लाखों साल तक इस दराज़ को हिलाते रहें तो मुमकिन है कि ये तमाम चीजें मिलकर एक रेडियो बन जाए। लेकिन यह भी एकदम पक्का था कि वो रेडियो बजेगा कभी नहीं और न उसे कभी फेंका जाएगा।

शनिवार की उस गर्म दोपहरी में पीटर कुछ बनाना चाहता था, कोई खोज करना चाहता था। लेकिन उसे कोई भी काम की चीज़ नहीं मिल रही थी और इस काम में शेष परिवार उसकी कोई मदद नहीं कर सकता था। वे तो बस बाहर घास पर अलसाए से पड़े रहना चाहते थे..... मानो सो रहे हों। पीटर इस सबसे तंग हो चुका था। उसे ऐसा लगता था कि उसके परिवार के साथ जो भी गड़बड़ियां हैं, उसकी झलक इस दराज़ में देखी जा सकती हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि वो कुछ भी ठीक-ठाक, सीधे-सीधे नहीं सोच पा रहा था। अगर वो अपने आप से जी रहा होता तो उसे मालूम होता कि कहां स्कू-ड्राइवर है और कहां धागे रखे हैं। तब उसे यह भी मालूम होता कि वो चाहता क्या है। मगर ऐसे में जब उसके मां-बाप और बहन उस पर अव्यवस्थाओं का पहाड़ लादे रहते हैं तो उससे ऐसी महान खोजों की अपेक्षा कैसे की जा सकती थी जो दुनिया बदल दे।

शनिवार की इस दोपहर को पीटर उस दराज़ के अंधेरे कोनों में गहरे, और गहरे धंसता जा रहा था। उसको एक हुक की तलाश थी, हालांकि उसे मालूम था कि इस दराज़ में उसको पाने की उम्मीद करना बेवकूफी होगी। उसने अपने हाथ को और आगे बढ़ने दिया। उसकी उंगलियां एक छोटे चिप-चिपे स्प्रिंग को छू गईं जो शायद पेड़-पौधों की टहनियों को काटने वाले कटर से अलग हुआ था। उसके पीछे थे बीजों के कुछ पैकेट जिसके बीज बोने के लिहाज़ से काफी पुराने हो चुके थे, मगर इतने पुराने नहीं कि फेंक दिए जाएं।
दराज के पीछे, एकदम पीछे हाथ बढ़ाते हुए पीटर सोचने लगा - क्या परिवार है उसका! क्यों हम और लोगों जैसे न हुए, जिनके घर की हर चीज़ में बैटरी होती है, जिनके खिलौने चलते हैं; जिनके यहां जिग्सों के सभी टुकड़े और ताश के सभी बावन पत्ते एक साथ होते हैं और सभी चीजें अलमारी में करीने से रखी होती हैं। अचानक उसने अपनी मुट्ठी में कोई ठण्डी-सी चीज़ महसूस की। हाथ बाहर निकाला तो देखा एक छोटी-सी गहरे नीले रंग की शीशी थी जिस पर काला ढक्कन था। उस पर चिपकी सफेद पर्ची पर लिखा था 'वैनिशिंग क्रीम'। उसकी आंखें देर तक उन शब्दों पर चिपकी रहीं, उसका अर्थ सोचती, खोजती रहीं।

शीशी में सफेद गाढ़ी क्रीम थी। एकदम ऊपर तक भरी हुई यानी उसे आज तक एक बार भी इस्तेमाल नहीं किया गया था। उसने अपनी तर्जनी के सिरे को उसमें घोंप दिया। क्रीम ठण्डी थी लेकिन बर्फ सरीखी ठण्डी नहीं, बल्कि मुलायम गुदगुदाहट भरी ठण्डक। उसने अपनी उंगली बाहर निकाली और अचरज से कराह उठा। उसकी उंगली का सिरा गायब था। पूरी तरह नदारद। उसने उस शीशी के ढक्कन की चूड़ियां कसी और झटपट ऊपर अपने कमरे की ओर दौड़ पड़ा। आले में उस शीशी को रखकर उसने कपड़ों और खिलौनों को एक तरफ फेंका ताकि कुछ देर बिस्तर से पीठ टिका कर ज़मीन पर बैठ सके। वो सोचना चाहता था।
सबसे पहले उसने अपनी उंगली को देखा-परखा। वो लगभग अंगूठे जितनी हो गई थी। उसने उस खाली जगह को भी महसूस किया जहां उसकी बाकी की उंगली होनी चाहिए थी। वो सिरा पूरी तरह से गायब हो चुका था।

लगभग आधे घण्टे के शांत मनन के बाद पीटर ने खिड़की से बाहर झांका। यहां से घर के पीछे का बगीचा दिखाई देता था। लॉन, रसोई की दराज़ का आउटडोर संस्करण लग रहा था। वहां उसके मां-पिताजी औंधे लेटे थे, अधजगे-अधसोए, धूप सेंकते। बीच में थी उसकी बहन केट जिसके लिए धूप सेंकना बड़े होने की निशानी थी। उन तीनों के आसपास बिखरा था शनिवार दोपहर का कचरा - चाय की प्यालियां, केतली, अखबार, अधखाए सैंडविच, संतरे के छिलके....। उसने अपने परिवार पर एक गुस्से से। भरी निगाह डाली। इन लोगों का आप कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अफसोस कि आप उन्हें फेंक भी नहीं सकते।
या फिर, ठीक है, शायद उसने एक गहरी सांस ली। फिर उस छोटीसी नीली शीशी को जेब में रखा और सीढ़ियां उतरने लगा।

बाहर लॉन में आकर वह मां के बगन में घुटने टेककर बैठ गया। मां अलसाए अंदाज में कुछ बुदबुदाई। "आपको तेज़ धूप में नहीं लेटना चाहिए, मां। आपकी चमड़ी जल सकती है। क्या मैं आपकी पीठ पर थोड़ी-सी क्रीम लगा दें?" पीटर ने हौले से, प्यार भरे लहजे में पूछा।
मां कुछ बुदबुदाई जो 'हां' जैसा कुछ था।
पीटर ने जेब से शीशी निकाली। गायब हुई उंगली से ढक्कन खोलना थोड़ा मुश्किल था। रसोई पास से गुजरते वक्त उसने दस्ताना उठा लिया था जिसे उंगली कटे हाथ पर चढ़ा लिया। उसकी मां की सफेद पीठ सूरज की रोशनी में चमक रही थी। माहौल बिल्कुल उसके अनुकूल था।

पीटर के मन में इसे लेकर कोई संशय नहीं था कि वो अपनी मां को बहुत चाहता था और यह भी कि मां भी उसे बहुत प्यार करती थीं। उन्होंने उसे टॉफी बनाना सिखाया, उसे पढ़ना-लिखना सिखाया। एक दफा वो हवाई जहाज़ से पैराशूट लगाकर कूद पड़ी थीं। जब वो बीमार पड़ता था तो वो उसकी देखभाल करती थीं। उसकी नज़र में वो अकेली ऐसी मां थीं जो अपने सर के बल बगैर किसी सहायता के खड़ी हो सकती थीं। लेकिन पीटर ने फैसला कर लिया था - उसकी मां को जाना ही होगा। उसने दस्ताने वाली अंगुली को शीशी के अंदर गोल घुमाया और ढेर सारी क्रीम बाहर निकाल ली। दस्ताना गायब नहीं हुआ यानी जादू केवल सजीव चीजों पर ही चलता था। उसने क्रीम के उस लोंदे को मां की पीठ पर ठीक बीचो-बीच गिरने दिया। आह! मां ने धीमे से ठण्डी सी कराह भरी; आवाज़ में नाराजगी कतई न थी।

पीटर ने क्रीम को पीठ पर फैलाना शुरू किया; और उसकी मां एकदम से गायब होने लगी। बीच में एक नागवार पल तब आया जब उनका सिर और पांव तो घास पर ही थे लेकिन बीच का भाग पूरा गायब हो चुका था। उसने एक और उंगली भर क्रीम ली और मां के सिर और टखने पर भी फटाफट पोत दी।
अब वो गायब हो चुकी थीं। वो जगह जहां मां लेटी थीं, सपाट थी; यहां तक कि रोएं सरीखी घास भी खड़ी होने लगी थी।
उसके बाद पीटर वो नीली शीशी लिए अपने पिता के पास गया और हौले से बोला, "लगता है आपकी पीठ जलने लगी है। क्या मैं इस पर क्रीम लगा दूं?" बिना आंखें खोले पिता बोले "नहीं''।
लेकिन तब तक पीटर क्रीम का एक अच्छा खासा बड़ा लौदा निकालकर पिता के कंधों पर फेरने लगा था। मां के बाद इस पूरी दुनिया में अगर पीटर किसी को चाहता था तो वो थे उसके पिता। और यह बात भी सूरज की चमकती रोशनी की तरह साफ थी कि उसके पिता भी उसे उतना ही प्यार करते थे। उन्होंने अभी भी अपने गैराज में 500 सी.सी. की एक मोटरसाइकिल रखी थी जिस पर वे पीटर को घुमाया करते थे। यह मोटर साइकिल भी एक चीज थी जिसे फेंका नहीं जा सकता था। उन्होंने पीटर को सीटी बजाना सिखाया था, उसे एक खास तरह से जूतों की लेस बांधना सिखाया और यह भी सिखाया कि किसी को अपने सर के उपर से उठा कर ज़मीन पर कैसे पटका जाता है।

लेकिन पीटर अपने पिता को गायब करने का निर्णय ले चुका था। इस बार उसने एक मिनट से भी कम समय में क्रीम को सिर से पैर तक पोत दिया। कुछ देर बाद घास पर पिताजी का पढ़ने वाला चश्मा ही बच गया था।
अब केवल केट बची थी। गायब हो चुके माता-पिता के बीच वो सुकून से औंधी पड़ी थी। पीटर ने शीशी में देखा। अभी भी एक छोटे बच्चे को गायब कर पाने जितनी क्रीम बची हुई थी। उसे यह बात स्वीकारने में थोड़ा वक्त लगता कि वो अपनी बहन को प्यार करता था। लेकिन अब बहन है तो है ही, आप चाहो या न चाहो। फिर भी जब वो अच्छे मूड में होती तो उसके साथ खेलने में बहुत मज़ा आता था; और उस पर उसका चेहरा ऐसा था कि बस उससे बातें करना अच्छा लगता था। और शायद यह सच था कि वो उसे दिल से प्यार करता था और वो भी उसे चाहती थी। लेकिन बावजूद इसके वो मन बना चुका था और अब केट को भी जाना ही था।

वो जानता था कि केट से यह पूछना बेवकूफी होगी कि क्या वो अपनी पीठ पर क्रीम लगवाना चाहती है। वो तुरंत ही समझ जाती कि कुछ गड़बड़ है। बड़ों की बनिस्बत बच्चों को झांसा देना ज्यादा मुश्किल होता है। उसने शीशी के पेंदे में अपनी उंगली फेरी, क्रीम निकाली और केट की पीठ पर उसे लगाने ही वाला था कि केट ने अपनी आंखें खोल दीं। उसकी निगाह पीटर के दस्ताने वाले हाथ पर पड़ी। "ये क्या कर रहे हो तुम.... !" वो चीखी। पीटर के हाथ को झटकती हुई वो तेज़ी से उछली तो उसकी पीठ पर लगने को तैयार क्रीम छिटककर उसके सिर पर जा गिरी। वो खड़ी हो गई और अपने सिर पर लगी क्रीम को हाथ से पोंछने लगी।"मां.... पिताजी.... उसने मेरे ऊपर कीचड़ डाल दिया है" उसने रोना-पीटना मचा दिया।
"ओ नहीं!" पीटर बोला। केट का सिर और हाथ दोनों गायब हो रहे थे। और अब वो पुरे बगीचे में अपनी छोटी हो चुकी बाहों को हवा में लहराते हुए गोल-गोल भाग रही थी - सिर कटी मुर्गी की तरह।

अगर उसके पास मुंह होता तो ज़रूर वो चीख भी रही होती।"ओह यह तो बुरा हुआ!'' पीटर बोला और उसके पीछे भागा। “केट, सुनो ... रुको ...।" लेकिन केट के कान कहां थे। वो भागती रही... गोल-गोल..., जब तक कि वो बगीचे की दीवार से टकराकर पीटर की बाहों में गिर न गई। वाह, क्या परिवार है! पीटर बची-खुची वैनिशिंग क्रीम को केट पर मलते हुए सोच रहा था।
अंतत: जब केट भी गायब हो गयी तो कितना सुकुन मिला बयान नहीं किया जा सकता। अब बाग में चारों तरफ शांति थी।

सबसे पहले वो उस जगह को साफ सुथरा देखना चाहता था। उसने इधर-उधर फैला कबाड़ इकट्ठा किया और कूड़ेदान में डाल दिया - केतली, कप और बाकी का सब सामान भी। इससे वह उनकी सफाई करने से भी बच गया। अब से घर बढ़िया तरह से चलेगा। उसने एक बड़ी सी पॉलिथीन ली और अपने सोने के कमरे में गया। वहां बाहर पड़ी तमाम चीजें उसने उस पॉलिथीन में डाल दीं। जो कुछ भी उसे इधर-उधर बिखरा पड़ा मिला उसने उसे कचरा करार दिया और पॉलिथीन में भरता गया - ज़मीन पर पड़े कपड़े, बिस्तर पर बिखरे खिलौने, जूतों की एक अतिरिक्त जोड़ी। उसने घर में गश्त लगाई और गंदे दिखने वाले सभी सामानों को इकट्ठा करता रहा। अपनी बहन और मां-बाप के कमरों की सफाई की परेशानी से बचने के लिए उसने उन कमरों को बाहर से बन्द कर दिया। लेकिन बैठक की अच्छी सफाई हुई। दीवार पर लगी फोटो, आले में रखी किताबें, सजावट का सामान, कुशन, आदि सभी चीजें पॉलिथीन बैगों में जाती रहीं।
अब रसोई की बारी थी। पहले प्लेट्स, फिर पाकशास्त्र की किताबें, फिर अचारों की बर्नियां सभी पॉलिथीन बैग में समा गए। दोपहर बाद जब उसका काम खत्म हुआ तो कूड़ेदान के पास ग्यारह पॉलिथीन बैग लाइन में लगे थे।

इतने काम के बाद उसने अपने लिए खाना बनाया - चीनी वाला सैंडविच। खाने के बाद प्लेट चम्मच भी कचरे में फेंक दिए गए। फिर उसने पूरे घर का एक चक्कर लगाया और हर खाली कमरे को प्रशंसा भरी निगाह से देखा। अब कम-से-कम वो सीधे-सीधे सोच तो पाएगा।
कम से कम वो अपनी ईजाद का काम तो शुरू कर पाएगा - बस एक कागज़ और पेंसिल मिलने की देर थी। लेकिन समस्या यह थी कि पेंसिल वगैरह जैसी इधर-उधर बिखरी रहने वाली तमाम चीजें उन ग्यारह में से किसी एक बैग में होंगी। ‘कोई बात नहीं', उसने सोचा। चलो इस कठिन काम से पहले कुछ पल टी.वी. के सामने गुज़ारे जाएं। ऐसा नहीं था कि पीटर के घर में टी.वी. देखने की मनाही थी, पर हां, उसे प्रोत्साहित भी नहीं किया जाता था। हर रोज़ एक घण्टे के हिसाब से टीवी, की खुराक मिलती थी। उस परिवार में बड़ों की यह मान्यता थी कि इससे ज्यादा टी.वी. दिमाग खराब कर देता है। लेकिन अपनी इस दलील की पुष्टि के लिए वे कोई चिकित्सकीय प्रमाण नहीं देते थे। शाम के करीब छह बजे पीटर कोल्डड्रिक की एक बड़ी बोतल, एक किलो टॉफी और एक स्पंज केक लेकर टी.वी. ३ सामने आरामकुर्सी पर जा विराजा।

उस रात उसने टी.वी. देखने का अपना सप्ताह भर का कोटा पूरा कर लिया। रात के करीब एक बजे वो लड़खड़ाते हुए खड़ा हुआ और अंधेरे में रास्ता ढूंढना शुरू किया। लड़खड़ाते कदमों पर टिकी उसकी लड़ खड़ाती आवाज़ निकली, “मां, मैं बीमार पड़ने वाला हूं।'' पेट देबाकर वो शौचालय गया, कुछ देर इंतजार में बैठा रहा लेकिन कोई राहत नहीं मिली। तभी ऊपर से एक अजीब-सी आवाज़ आई जिसे बयान नहीं किया जा सकता था - कर्कश, डोलते, पच्च-पच्च करते कदमों की आहट थी जैसे एक लिजलिजा प्राणी हरी जेली के विशाल लोंदे के आसपास चहलकदमी कर रहाहो। पीटर की बीमारी एकदम से गायब हो गई, उसकी जगह डर समा गया।
वो सीढी के पास जाकर खड़ा हुआ। बत्ती जलाई और पुकारा 'पापा' लेकिन जवाब नदारद।

नीचे सोने की कोशिश करने का कोई फायदा नहीं था, यहां कम्बल भी नहीं थे और सारे कुशन तो पहले ही फेंके जा चुके थे। वो धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ने लगा। उसके कदमों की चरमराहट उसके वहां होने का राज़ खोल रही थी। दिल की धड़कन कानों में बज रही थी। अचानक लगा कि उसने वो आवाज़ फिर से सुनी, लेकिन पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता था। वो। सांस रोके चुपचाप खड़ा हो गया। लेकिन उसे अपने दिल की धड़कन के अलावा कुछ भी सुनाई नहीं दिया। किसी तरह तीन सीढ़ियां और चढ़ीं। क्या पता केट अपने कमरे में गुड़ियों से बातें कर रही हो। ऊपरी मंजिल अब सिर्फ चार सीढ़ी दूर थी और वहां से उसके कमरे का दरवाज़ा सिर्फ चार छलांग के फासले पर था। उसने तीन तक गिना और तेज़ी से अपने कमरे की ओर दौड़ गया। अंदर पहुंचकर उसने तेजी से दरवाजा भिड़ाया, कुंडी लगाई और उससे पीठ टिकाकर खड़ा हो गया, इंतज़ार में।

वो सुरक्षित था। मगर उसका कमरा खाली और डरावना लग रहा था। वो कपड़े और जूते समेत बिस्तर में घुस गया; इस बात के लिए तैयार कि इधर वो दानव घुसा कि इधर मैं खिड़की से बाहर कूदा। उस रात पीटर सो नहीं पाया। वो बस भागता रहा। इस सपने से उस सपने में, गुंजते विशाल गलियारों में, पत्थरों और बिच्छुओं के रेगिस्तान में, बर्फ से ढकी ढलानों में, एक टपकती दीवारों वाली गुलाबी मुलायम ढलवां सुरंग में और यही वो वक्त था जब उसे अहसास हुआ कि कोई दानव उसका पीछा नहीं कर रहा है।
वो झटके से उठ बैठा। बाहर रोशनी थी, शायद सुबह हुए देर हो चुकी थी या फिर दोपहर होने में अभी कुछ ही देर बाकी थी। पता नहीं। उसने कुण्डी खोली और सिर निकाल कर बाहर झांका। शान्त, और खालीपन के अहसास ने उसका स्वागत किया। उसने अपने कमरे के पर्दे खींच लिए - रोशनी अंदर लुढ़क आई जिससे कुछ हिम्मत बंधी। बाहर चिड़ियों के सुरीले स्वर थे, गाड़ियों की चिल्लपों थी, घास काटने वाली मशीन की गड़गड़ाहट थी, लेकिन रात के समय राक्षस का फिर से आना लगभग तय था। सो ज़रूरत थीं एक ऐसे हथियार की जिसकी सहायता से उस राक्षस को धोखे से मारा जा सके।
इसके लिए ज़रूरत थी- बीस ड्रॉइंग पिन, एक टॉर्च, खंभे से बंधी रस्सी के सिरे पर टांगने के लिए कुछ भारी चीज़ आदि की।

यह सोचते हुए वह सीढ़ियां उतर कर नीचे रसोई तक आया। उसने दराज़ खोली। आधे जल चुके मोमबत्ती के एक पैकेट को इधर-उधर सरका ही रहा था कि अचानक उसकी निगाह अपनी उंगली पर गई। वो पूरी की पूरी थी। क्या वो फिर से उग आई? क्रीम का असर खत्म हो चुका था। इसका मतलब यह कि ...... वो आगे कुछ सोचता उससे पहले उसने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया।
राक्षस?
नहीं यह तो केट थी - पूरी, सिर से पांव तक पूरी केट!
"खुदा का शुक्र है तुम यहां हो।" पीटर बुदबुदाया, “मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। देखो मैं एक हथियार बना रहा हूं। इसके लिए मुझे .." लेकिन केट ने उसकी एक न सुनी और उसकी बांह खींचती रही, “हम कब से तुम्हें
आवाज़ दे रहे हैं। जाने कितनी देर से तुम खड़े-खड़े दराज़ को घूर रहे हो। आओ .... आओ देखो हम क्या कर रहे हैं। पापो को एक पुरानी घास काटने की मशीन का इंजिन मिला है। और हम उससे होवर-क्राफ्ट बना रहे
होवर-क्राफ्ट!!
पीटर बाहर की ओर लपका। वहां सब कुछ पहले जैसा था - कप, संतरे के छिलके, अखबार... और उसके मां-बाप।“इधर आओ..." मां बोली, "... आकर हाथ तो बटाओ।' पापा हाथ में स्पैनर लिए बोले, “हो सकता है तुम्हारा हाथ लगने से यह काम कर जाए।" अपने कुत्ते की तरफ दौड़ता हुआ पीटर सोचने लगा - यह कौनसा दिन है। क्या अभी भी शनिवार ही चल रहा है? ऊंह! जाने भी दो, क्या फर्क पड़ता है।


मूल लेखकः इयान मेक इवान: अंग्रेजी साहित्य में अपनी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। कुछ उपन्यास भी लिखे हैं।
अनुवादः शशि संघलोकः एकलव्य द्वारा प्रकाशित 'स्रोत फीचर सेवा' से संबद्ध। अनुवाद में रुचि। यह कहानी ‘डे ड्रीमर' किताब से साभार प्रकाशकः विन्टेन पब्लिशर्स, लंदन।
सभी चित्र: कैलाश दुबे: कैलाश स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करते हैं। भोपाल में रहते हैं।