प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट
कमलेश चंद्र जोशी

बच्चों के लिए पठन सामग्री बुनना एक कठिन काम है। अक्सर हम बच्चों की जो सामग्री पढ़ते हैं, उसके 'फन्दे' बिखरे-बिखरे से मिलते हैं। इन 'फन्दों में बच्चों की सोच के वे सब 'पैटर्न' जो उनके वास्तविक अनुभवों, कल्पना या फेन्टेसी से आते हैं, हमें देखने को ही नहीं मिलते। इसलिए अक्सर अधिकतर सामग्री ढीली-ढाली व उद्देश्य-विहीन नज़र आती है।
बच्चों के लिए सार्थक व उद्देश्यपूर्ण सामग्री तैयार करने के लिए हमें बच्चों की आम ज़िन्दगी के अनुभवों को महसूस करना होता है, उनके काल्पनिक संसार को समझना होता है। इसे समझने के लिए जरूरी है कि हम बच्चों की अच्छी सामग्री पकें, उसे आत्मसात करें। इसके साथ उस सामग्री की बुनावट में इस्तेमाल किए गए कुछ पैटन को पहचानें। जब हम इन्हें पहचानेंगे तभी हम खुद बच्चों के लिए कुछ अच्छा बुन पाएंगे व बच्चों की अच्छी सामग्री को समझ पाएंगे। यही समझ बनाने के लिए हाल ही में छपी पुस्तक 'दादी ने की बुनाई' को पढ़ा जाए और उसके पैटर्न' को पकड़ने की कोशिश की जाए।

यह मूलतः कविता पुस्तक है जिसमें कहानी समाई हुई है। इस कविता में कहानी की शुरुआत होती है दादी के शहर आने से। यहां यह जानना जरूरी है कि हालांकि है दादी, हम कह सकते हैं बुढ़ी दादी, लेकिन दादी की कल्पना अद्भुत है; बिल्कुल बचपना लिए हुए। जबकि हम जवान होते ही बच्चों पर अपना 'बुढापा' बघारने लगते हैं---
'यह मत करो, वह मत करो। जैसा करोगे, वैसा भरोगे। पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नबाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब।' और पता नहीं क्या-क्या? लेकिन यह दादी बच्चों को समझने के मामले में बहुत ‘मैच्योर' है। वह बच्चों जैसी कल्पना के पैटर्न बुनती है। इन पैटन के चटख काल्पनिक रंग किताब को सबके लिए पठनीय बनाते हैं।
वापस कहानी की शुरुआत पर लौटते हैं....... तो दादी शहर पहुंचती है, इसका वर्णन कविता में सुनना है तो सुनिए---
दादी एक दिन शहर को आई,
चारों तरफ नज़र दौड़ाई।
एक छड़ी और एक ही झोला
दो सलाइयां, ऊन का गोला,
साथ यही बस लेकर आई।

हमें ताज्जुब इस बात का है कि दादी के पास सामग्री बहुत कम है, ज्यादा ताम-झाम नहीं है, लेकिन तब भी वह बच्चों के लिए बढ़िया सामग्री बुनती है। दादी क्योंकि अकेली होती है, थकी होती है, नंगे पैर सूज गए होते हैं इसलिए वह सबसे पहले अपने लिए चप्पल बुनती है। हम समझें चप्पल बिल्कुल निर्जीव है, बेजान। लेकिन बच्चों की कल्पना इन चप्पल जैसी बेजान चीजों में भी अपने प्राण फूकती है। याद करें, बच्चों की संजोई टूटीफूटी चीजें, जिनका उनके लिए अत्यन्त गहरा अर्थ होता है। वे इन चीजों की जोड़-तोड़ से बहुत-कुछ बनाते हैं।
सबसे पहले दादी चप्पल बुनती है। फिर टाट, चटाई बुनती है....... कविता में आगे बुनी गई चीजों की लम्बी लिस्ट है। इसके साथ उस बुनावट में कसावट है और इस बुनावट में हमें 'पैटर्न' खिलता हुआ दिखता है, बच्चों की कल्पना के रंग बिखेरता हुआ।
कविता में कहानी है और कल्पना की ओट कल्पना है, लेकिन यह हमें बांधे रखती है। कहानी में 'टर्न' आता है, जब दादी अपने पोता-पोती को बुनती है और उन्हें स्कूल भेजना चाहती है। लेकिन टीचर कहते हैं --
“बच्चे ये ऊन के,
आ नहीं सकते हमारे स्कूल में
लिखा यही रूल में।''

यहां कल्पना टकराती है यथार्थ से। आगे की कहानी में कहीं कल्पना हावी है तो कहीं यथार्थ। यथा - दादी का बच्चों का दाखिला न होने पर मेयर के पास जाना, हवाई जहाज़ बुनना, राष्ट्रपति के पास जाना आदि। इस कल्पना व यथार्थ के मिश्रण में कहानी 'रिवर्स' होती है और दादी की बुनाई उधड़ती है। बच्चों का कल्पना संसार उधड़ता है लेकिन तब भी बाकी रहता है एक भीनी-भीना अनुभव जो हमारे लिए अजीब-सी अकुलाहट पैदा करता है और हमें लगता है कि अभी भी सब कुछ होना बचा रहेगा।'' हां जी, दादी ने अभी बुनाई नहीं छोड़ी है। यह बच्चों के लिए आशा है, सांत्वना है - कहानी के खुशी-खुशी समाप्त होने की। देखें -

ढूंढ वह लेगी, जल्दी ही नई जगह,
बुनती थी जैसे वह फिर से बुनेगी।
पहले बुनेगी अपने पोता-पोती,
हंसेंगे, वे खेलेंगे, बिखरायेंगे मोती।
वे जो भी चाहेंगे, दादी बुनेगी,
उनकी हर बात वह खुश हो सुनेगी।
लोग होंगे वहां भले बहुत सारे,
ऊन के बुने बच्चे लगेंगे उन्हें प्यारे।
दादी को रहेगा न कोई मलाल,
बैठेगी प्रेम से डेरा वहीं डाल।
बुनेगी-बुनेगी बैठी वहां दादी,
इसी से खुश वह सीधी-सादी।

कुछ बातें और--- 'दादी ने की बुनाई' की कहानी को कविता में बुना है, मूलतः हिब्रू भाषा में उरी ओरलेव ने। यहां इसका प्रयाग शुक्ल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद, जो इडी लिविंस्टीन के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है, बेहतरीन है। हमें कहीं से नहीं लगता कि हम कुछ अनुदित पड़ रहे हैं। वैसे भी प्रयाग शुक्ल हिन्दी के अच्छे कवि और कला समीक्षक हैं। बच्चों के लिए भी निरंतर कविताएं लिखते रहे हैं, इन्हें हम सब 'धम्मक-धम्मक आता हाथी' कविता से अच्छी तरह जानते हैं। उन्हें बढ़िया अनुवाद के लिए धन्यवाद। चित्रों की बात किए बिना हमारी बात भी अधूरी है। ओरा एटन के बनाए हुए पेन्सिल के रेखांकन बच्चों के लिए 'नेचुरल' टच लिए हुए हैं। जैसे - टेढ़ी-मेढ़ी कार, हेलीकॉप्टर, हंसते हुए ऊन के बच्चे आदि, जिन्हें हम देखें बार-बार।
अंत में, नेशनल ट्रस्ट को बधाई, जो एक और बढ़िया किताब उपलब्ध कराई।


कमलेश चंद्र जोगी: लखनऊ की नालंदा संस्था में कार्यरत हैं। बच्चों के साध गतिविधियां करवाने में विशेष रुचि।