मार्गरेट के. टी.

अनुभव, शिक्षक के धैर्य की परीक्षा का .....

ये अनुभव कर्नाटक में काम करने वाली एक शिक्षक प्रशिक्षिका के हैं। वे उस समय रायचूर की 'समूह' नाम की संस्था के साथ। काम कर रही थीं। शिक्षक-प्रशिक्षण के अलावा वे स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए अतिरिक्त या पूरक-स्कूल व कुछ अनौपचारिक-स्कूल भी चला रही थीं। अतिरिक्त-स्कूल उन बच्चों को शिक्षा में मदद देने के लिए हैं जिनके घर पर यह मदद सम्भव नहीं है।

कुण्टीग्रामा बंगलौर के पास एक झोपड़पट्टी है। यहां एक अनौपचारिक स्कूल है। प्रशिक्षिका रायचूर की शिक्षिकाओं-को वहाँ प्रशिक्षण के लिए ले गई। इस केन्द्र पर आने वाले बच्चे ऐसे परिवारों से हैं जिनमें पढ़ने लिखने का लम्बा इतिहास नहीं है। उनमें से कई खुद भी स्कूल जाना छोड़ चुके हैं और उन्हें जितनी इच्छा सीखने के खेलों में शामिल होने की है उतनी ही तीव्र इच्छा मनमानी करने की है।

वैसे भी कक्षा में बच्चों को कितनी स्वतंत्रता देना चाहिए और कितनी दी जा सकती है, जैसे सवाल बहुत उलझे हुए होते हैं। मार्गरेट के. टी. की इस रिपोर्ट में इस उलझन के बारे में एक राय हमारे सामने आएगी और यह बात भी कि बच्चे कच्चे घड़े नहीं होते और न ही बहुत सरल। वे अपने अनुभवों के अनुसार ढले होते हैं। उनके साथ काम करने का मतलब है - आपके सुझबूझ व धैर्य की अपूर्व परीक्षा। पर सीखना तो तभी होता है जब बच्चों को खुलेपन व मजे का असास हो। खैर बाकी बातें रिपोर्ट पढ़कर देखते हैं।

कुष्टीग्रामा स्कूल

यहां छोटे-बड़े मिलाकर कुल 25 बच्चे हैं। स्कूल चलाने का काम वृथा और थाय्यमा करती हैं। बच्चों में स्कूल आने और सीखने में रुचि दिखी। वृथा और थाय्यमा बच्चों पर ध्यान देती हैं, मेहनत से काम करती है और बच्चों के प्रति संवेदनशील हैं। ये दोनों समय-समय पर बच्चों के घर भी जाती हैं, उनके माता-पिता से बातचीत करती हैं और जो बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं आते उन्हें ले करं आती हैं। इस स्कूल में आने वाले बच्चों के परिवार ऐसी जगह रहते हैं जहां आसपास के घरों का कचरा फेंका जाता है। ये इलाका चट्टानों वाला है और इन परिवारों के पास मकान तो क्या ठीक-ठाक झोपड़ियां भी नहीं हैं। सब लोग टेंट जैसे घरों में रहते हैं। घर में फर्श नाम की कोई चीज नहीं है, बस एक मोटा-सा कपड़ा बिछा है, जिसके ऊपर बांसों से टिकी टीन की छत है।

ये लोग ज्यादातर बाल्टियों की मरम्मत करते हैं और कचरा बीनते हैं। कचरे में से बीन-बीन कर कुछ हद तक उपयोगी चीजें निकाल कर ये अपना गुजारा करते हैं। पहले ये लोग एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे। लेकिन अब यहां स्थाई रूप से बस गए हैं। उनके बच्चे किसी और स्कूल में नहीं जाते दिन भर घूमते हैं, कचरा बीनते हैं और भीख मांगते हैं। वैसे, बच्चे काफी होशियार और उद्यमी हैं।

17 मई 1991

प्रार्थना बहुत अच्छी हुई। उसके बाद बच्चों को खेलने का सामान देकर छोड़ दिया। इसको लेकर काफी गड़बड़ हुई क्योंकि बच्चों को कोई विशेष निर्देश नहीं दिए गए थे कि उन्हें सामग्री का उपयोग कैसे करना है और उसके साथ क्या करना है। यह सामान ऐसा था जिसमें बच्चे खेलते भी और खेलने के साथ-साथ सीखते भी। इस तरह उन्हें खेलने की पूर्ण स्वतंत्रता तो थी पर यह स्वतंत्रता देने का एक गलत तरीका था। शिक्षिकाएं बच्चों के व्यवहार को संतुलित नहीं बना पा रही थीं। उन्हें जो चाहे करने से भी नहीं रोक रही थीं। यह स्वतंत्रता नहीं उद्दण्डता थीखिलौने तोड़े जा रहे थे। किसी को मालूम नहीं था उनसे खेलना कैसे है। बड़े बच्चे छोटे बच्चों पर रौब मार रहे थे। शिक्षिकाओं को मालूम नहीं था कि उनका क्या करें। अगर उन्हें सज़ा दें तो वे छोटे बच्चों का स्कूल आना भी बंद कर देते थे। उनसे डर कर शिक्षिकएं। उन्हें जो चाहे वह करने दे रही थीं।

मैं बैठकर कुछ देर तक देखती रही और सोचती रही - इतनी गड़बड़ है, कहां से शुरू करूं? मेरे साथ रायचूर की आठ शिक्षिकाएं भी आई हुई थीं। उनका हाल भी मेरे जैसा था। मेरे पूछने पर अच्चपा ने कहा कि कक्षा को नियंत्रित करने की ज़रूरत है लेकिन वे स्पष्ट रूप से नहीं बता पाई कि यह सब कैसे करें। कक्षा में बाल्टियां, चटाई आदि थीं जिनका कोई उपयोग नहीं हो रहा था, वे बस कक्षा में यूं ही बिखरी पड़ी थीं

मैंने सब से पहले तो बच्चों को खाने के लिए घर भेज दिया और फिर बिखरी चीज़ों को हटाया, जिससे घिचपिच कम हो गई और जगह खुल गई। इसके बाद हम सब ने मिलकर अलग-अलग गतिविधियों के लिए अलग-अलग स्थान तय किए। गुड़िया से खेलने, ब्लॉक से खेलने, चित्र बनाने व रंगने, पढ़ने-लिखने आदि के लिए अलग-अलग जगह। इन स्थानों को पर्यों से अलग-अलग बांट दिया गया। हमने कई तरह से विभाजन किया और कमरे में लगे आलों वगैरह को देखकर हर गतिविधि के लिए उपयुक्त जगह चुन ली। इस तरह 6 कमरे बनाए गए

  1. छोटे बच्चों के खेलने के लिए गुड़िया वगैरह।
  2. छोटे बच्चों के लिए खिलौने बनाने की चीजें।
  3. थोड़े बड़े बच्चों के लिए चीजें बनाने के खिलौने और ब्लॉक।
  4. बड़े बच्चों के लिए चीजें बनाने के खिलौने।
  5. बड़े बच्चों के लिए पढ़ने-लिखने की सामग्री, थोड़े छोटे ब्लॉक आदि।
  6. बाहर के इलाके में रेत का गड्ढा ( सैंड पिट ) जिसमें छोटे बच्चे रेत से खेल सकें, रेत से चीजें बना सके और बड़े ब्लॉक चीजें बनाने के लिए ( रेत का गड्ढा बनाया जाना था और ब्लॉक खरीदे जाने थे )।

जगह को व्यवस्थित करने के बाद खिलौनों को देखा। वहां ज़रूरत से ज्यादा खिलौने रखे गए। सामग्री के बंटवारे से बच्चों को समूहों में बांटने का भी हमें आधार मिल गया। जब बच्चे खाना खाकर वापस आए तो उन्हें मैदान में खड़ा होने को कहा गया और कुछ भी शुरू करने से पहले उनसे नियमों की बातचीत की गई।

सबसे पहले पूछा गया कि, वे स्कूल क्यों आए हैं? जवाब था - सीखने। उनसे कहा गया, अगर उन्हें सीखना है तो नियम मानने होंगे। मनमर्जी करने से झगड़े होंगे और वे सिर्फ लड़ना और चीजें तोड़ना सीखेंगे और खुश भी नहीं होंगे। ये सब उन्हें ठीक लगा और वे आगे की बात सुनने के लिए तैयार हो गए। मैंने उन्हें नियम बताएः

( क ) अगर तुम्हें सीखना है और मुझे सिखाना है तो तुम्हें वही करना होगा जो मैं कहूं।

( ख ) सभी बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में बांट देंगे, हर समूह की कक्षा में अपनी जगह होगी। हर बच्चे को व समूह को उनके लिए बनी

जगह पर ही रहना होगा।

(ग) हर समूह अपने उपयोग के लिए आवश्यक सामग्री लेगा व जहां से सामग्री लेगा उसे पुनः वहीं रख देगा।

यह बात बड़े बच्चों को अच्छी नहीं लगी पर क्योंकि उन्होंने कहा था बे सीखना चाहते हैं इसलिए वे कुछ कह नहीं सके। अब बड़े बच्चों को कक्षा में लाया गया व सब कुछ दिखाने के बाद उन्हें 4, 5 या 6 नंबर की जगह में से चुनने को कहा गया। इनमें चीजें, खिलौने, चित्र बनाने व रंग भरने का सामान व छोटे आकारों के ब्लॉक थे। उन्हें इन तीनों में से ही पसंद की गतिविधि चुननी थीपहले सबसे बड़े दोनों बच्चों ( प्रकाश और वेंकटेश ) ने कहा वे कुछ नहीं करना चाहते।

मैंने कहा यह तुम्हारी मर्जी है। अगर तुम कुछ नहीं करना चाहते तो मत करो। इस समूह के बाकी बच्चों में से दो ने चीजें बनाने वाले खिलौनों से और एक ने ब्लॉक से खेलना तय किया। इस पर बड़े बच्चों ने उनसे कहा कि वे भी न खेलें। मैंने उन्हें कहा कि अगर वे चाहें तो चुपचाप बैठ सकते हैं लेकिन उन्हें अन्य बच्चों को रोकने का कोई अधिकार नहीं है।

मैंने बाकी बच्चों से कहा कि वे चुने काम शुरू कर सकते हैं। पहले तो वे बच्चे हिचकिचाए, फिर धीरे-धीरे उन्होंने खेलना शुरू कर दिया। इससे प्रकाश और वेंकटेश काफी नाराज हो गए। कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, "आप कब जाओगी। मैंने कहा, "मैं रोज़ आऊंगी। थोड़ी देर तक दोनों सिर पकड़ कर बैठे हे, फिर वेंकटेश ने कहा, "अच्छा मैं चित्र बनाऊंगा'। मैंने कहा, "ठीक है, तुम्हें मालूम है कि सामान कहां से लेना है और कहां रखना है?'' उसने तन कर कहा, "हां मालूम है'।

जब प्रकाश ने वेंकटेश को भी चित्र बनाते देखा तो कुछ देर तो बैठकर सोचता रहा, फिर उठकर उसने भी कागज़ व क्रेयॉन उठाया और चित्र बनाने लगा। एक बार जब वेंकटेश ने चित्र बनाना शुरू किया तो वह उसमें रूचि भी लेने लगा। उसने पेड़ बनाए, घर बनाए, गाय आदि बनाए और शिक्षिका को चित्रों के बारे बताया, वह उनसे चीजों के नाम लिखने का आग्रह करने लगा। वहीं प्रकाश चुपचाप चित्र बनाता रहा।

जो बच्चे ब्लॉक से खेलने के लिए गए, उन्हें मालूम नहीं था कि शुरू कैसे करें। वे बेतरतीब ढंग से सभी ब्लॉकों को एक साथ पटक देते थे। यह देख एक शिक्षिका उनके साथ बैठकर खेलने में मदद करने लगी। इसी तरह चीजें बनाने वाले खिलौनों में मदद के लिए एक शिक्षिका बैठ गई।

इसके बाद बीच की उम्र के समूह को बुलाया और उन्हें भी नियम बताए गए। इन छह बच्चों में से प्रत्येक ने अपने पसंद की जगह चुनी। इन्हें भी अपने पसंद के खिलौनों से खेलने में मदद की गई। इसके बाद सबसे छोटे बच्चों के समूह - जिसमें 8,10 सदस्य थे - को अंदर लाया गया। बच्चे धीरे-धीरे मजे से अपनी-अपनी चुनी गतिविधि करने लगे। पहले तो शिक्षिका कुछ चीजें देखना भूल गई, धीरे-धीरे उसे समझ में आ गया कि उसे क्या करना है।

वेंकटेश के चित्रों पर शिक्षिका ने उसे फीडबैक दिया और उसे बाहर ले जाकर चीजों को देखकर चित्र बनाने को कहा। इससे उसके चित्रों में कुछ सुधार हुआ।

ये सब गतिविधियां एक घन्टे के बाद रोक दी गई। बच्चों ने कहने पर सभी सामग्री को ठीक जगह पर रख दिया।

फीडबैक

जब बच्चे चले गए तब हम सब चर्चा करने के लिए बैठे। शिक्षिकाओं ने कहा - हमारे लिए स्वतंत्रता का अर्थ कुछ और था। इसके बाद स्वतंत्रता का मतलब क्या है"पर चर्चा हुई - स्वतंत्रता में अनुशासन, एकाग्रता व निरन्तर काम शामिल हैं। मैंने कहा, "सीखने के लिए उपयुक्त माहौल चाहिए। माहौल में सृजनात्मकता के लिए, व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार तय करने का अधिकार तो होना चाहिए, परन्तु एक सीमा में, एक दायरे में।"

अपनी जगह व दायरे में जब व्यक्ति अपनी ज़रूरत चुनने लगता है और अनुशासन के साथ काम करता है तभी वह सीख पाता है। और एक बार वह सीख गया तो दायरा बढ़ाया जा सकता है और धीरे -धीरे उसे पूरा दायरा भी दिया जा सकता है। अब वह इस दायरे में उथल-पुथल नहीं मचाएगा और अपने सीखने के लिए उपयुक्त काम को पहचानने लगेगा। उसे तब किसी और से अपने जीवन के नियोजन की आवश्यकता नहीं होगी। उसे डांटने, मारने या सजा देने की बात नहीं है। जब धीरे-धीरे वह समझेगा तो वह अनुशासित, आत्मविश्वासी तथा सहयोगी भावना से भरपूर होगा।

यह बात भी हुई कि बच्चों को अपनी-अपनी रुचि के आधार पर आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए। उदाहरण के लिए वेंकटेश की रुचि चित्र बनाने में है। चित्र बनाने से शुरू करके वह उसके बारे में बताना चाह रहा था,फिर अपनी बताई बात को और अपने नाम को लिखने की इच्छा उसमें आई।

जब तक अनुशासन व स्वतंत्रता का सही संतुलन नहीं होगा तब तक कुछ नहीं सीखा जा सकता - वास्तव में शिक्षण कार्य का एक बड़ा हिस्सा बच्चों में स्वतंत्र अनुशासन बनाने के लिए होना चाहिए। ऐसा अनुशासन जिसमें बच्चे को चुनने, एकाग्रता से कार्य करने और काम को पूरा करने का मौका हो। अनुशासन का मतलब यह नहीं है कि सभी बच्चे स्तब्ध व शान्त बैठे और शिक्षक को सुनें और न ही स्वतंत्रता का मतलब है कि हर बच्चा वह करे जो उसका मन कहता है।

इस संतुलन को प्राप्त करने के कई आयाम हैं। जैसे

—कक्षा की निश्चित व्यवस्था।

—कक्षा में उपलब्ध सामग्री को रखने की निश्चित व्यवस्था।

—बच्चों को छोटे समूहों में बांटना व उन्हें स्वतः संचालित गतिविधियां करवाना।

—उन्हें स्पष्ट रूप से बोलकर निर्देश देना जिन्हें बे समझ सकें-ब जिनके महत्व का अहसास उन्हें हो जाए।

—बच्चे सीखने के लिए प्रेरित होंगे तो मुश्किल होने पर भी सीखने की कोशिश करेंगे।

—निर्देशों को कई बार दोहराया जाना चाहिए, अगर आप थक जाएं तो भी।

—अगर बच्चे ने एक संदर्भ में सीख लिया और वह स्वतः अपने को अनुशासित कर पाया तो हर परिस्थिति में वह अनुशासन में रहकर काम कर सकेगा।

—एक बार में सीखने के एक ही बिन्दु पर ज़ोर हो, बहुत सारी बातों पर ज़ोर होने से बच्चा भ्रम में पड़ जाएगा।

बात यह भी है कि सिखाना सिर्फ पढ़ना-लिखना सिखाने तक नहीं रुकना चाहिए। हमें बच्चों को जिम्मेवारी लेने लायक व्यक्ति बनाना है। हम यह भी कोशिश करते हैं कि वह समस्याओं के सकारात्मक हल ढूंढे, उसमें खुशी हो, आत्मविश्वास हो, समझ हो, वह लोगों से प्यार करे व सच व इन्साफ के लिए खड़ा होकर लड़ सके।

कक्षा भी जीवन अनुभव का एक हिस्सा है और यदि शिक्षक ध्यान से व बारीकी से देख सके तो वह कक्षा की कार्यवाही में बहुत-सी बातें ढूंढकर इस सब के लिए उपयोग कर सकता है। बच्चों का व्यवहार, उनके द्वारा पूछे गए सवाल, उनकी आपसी बातचीत, उनकी क्रिया अथवा खेले गए खेल आपकी मदद करेंगे और आप बच्चों के लिए अगले दिन का जो कार्यक्रम बनाएंगे उसका आधार बनेंगे।

हमने इस दिन के अपने अवलोकनों और अपनी परिस्थिति के आधार पर अगले दिन का कार्यक्रम बनाया। हमने यह तय किया कि हम समूह 2 व 3 को वहीं करने का मौका देंगे जो उन्होंने आज़ किया। पहले समूह के लिए हमने कुछ इस तरह का कार्यक्रम सोचा

  1. कुछ इस तरह के अभ्यास जिनसे उनकी शारीरिक उर्जा अभिव्यक्त हो।
  2. अखबारों पर क्रेयॉन से चित्रकला।
  3. यदि वह निर्देशों के अनुसार कार्य कौन है यह,करें तो उन्हें सफेद कागज़ व ऑइल पेस्टल दिए जाएंगे।
  4. चित्रों के आधार पर वे विवरण लिखेंगे। उनमें से एक पैराग्राफ को लिखकर बोर्ड पर लगाना और उनके नीचे उस समूह के बच्चों के नाम लिखना।
  5. चूंकि वे ठीक तरह से रंग नहीं भरते थे इसलिए रंग भरने की रूप-रेखा बनाकर देना।
  6. इनाम स्वरूप ( उनके लिए जो पिछले दिन बताए नियमों का पालन करेंगे ) कागज़ काटकर चीजें बनाना।
  7. पेंट करने ( रंग भरने ) में भी एक नई गतिविधि कराना।
  8. इसके अलावा पिछले दिन की तीन गतिविधियां करना - चीजें बनाने वाले खिलौनों के साथ, ब्लॉक के साथ या फिर बाहर खेलना।

कल क्या होगा हमें मालूम नहीं था...।

कौन है यह, पहचानिए तो ज़रा !