पिछले कुछ महीनों में कई समूहों ने इस संदर्भ में कई दिलचस्प शोध प्रकाशित किए हैं कि संगीत मन/मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है।
पहला शोध पत्र है 1 मार्च को अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के एक समूह द्वारा प्रकाशित अध्ययन। इसमें बताया गया है कि गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को संगीत की मदद से सन्निपात (डेलिरियम) से उबारा जा सकता है (https://doi.org/10.4037/ajcc2020175)। सन्निपात ग्रसित मरीज़ तीव्र मानसिक अशांति, वाणि सम्बंधी दिक्कत और मतिभ्रम का सामना करते हैं। शोधकर्ताओं ने ऐसे 117 रोगियों पर गैर-औषधीय उपचार के रूप में संगीत को आज़माया। उन्होंने इन 117 मरीज़ों में से आधे मरीज़ों को, या तो स्वयं उनके द्वारा चुना गया उनका पसंदीदा संगीत (पीएम), या सुकूनदायक मंद गति का संगीत (एसटीएम) सुनाया। इस प्रायोगिक समूह को एक हफ्ते तक दिन में दो बार एक-एक घंटे के लिए संगीत सुनाया गया और उनके सुधार को दर्ज किया गया। इसकी तुलना उन्होंने तुलना के लिए रखे गए समूह (कंट्रोल समूह) के मरीज़ों से की जिन्हें कोई संगीत नहीं सुनाया गया था।
पाया गया कि जिन मरीज़ों को संगीत (पीएम या एसटीएम, दोनों में से कोई भी) सुनाया गया था उनमें बेहोशी में बड़बड़ाने (सन्निपात) में कमी आई थी। वहीं जब संगीत की बजाय ऑडियो-किताबें सुनाई गर्इं तो इनसे किसी तरह की मदद नहीं मिली! शोधकर्ताओं ने जो सुकूनदायक संगीत (एसटीएम) चुना था वह या तो 60-80 बीट्स प्रति मिनट वाला शास्त्रीय संगीत था, या मूल अमेरिकी बांसुरी की धुन, या सुकूनदायक पियानो का संगीत था। संगीत का चयन बोर्ड-प्रमाणित संगीत चिकित्सक द्वारा किया गया था। नतीजों के आधार पर उन्होंने पाया कि गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों के लिए संगीत एक उपयोगी गैर-औषधीय मदद है।
इससे कुछ समय पहले चेन्नई के एसएसएन कॉलेज की डॉ. बी. गीतांजलि और उनके सहयोगियों ने करंट साइंस में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था ‘उच्च रक्तचाप में संगीत सुनने के असर का मूल्यांकन’। उन्होंने उच्च-रक्तचाप के 200 रोगियों की बेतरतीबी से जांच की, जिसमें उनकी ह्मदय गति, श्वसन दर और औसत रक्तचाप मापे गए। एक महीने तक संगीत सुनाने के बाद मरीज़ों की ह्मदय गति, श्वसन दर, और औसत रक्तचाप में कमी देखी गई। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने संगीत के साथ-साथ नियमित उपचार जारी रखा था। और राग मालकौंस सुनाया गया था जो कि ओढ़व जाति का राग है (यानी वह राग जिसमें पांच सुर होते हैं), यह शांति का एहसास कराने वाला और मधुर संगीत था। (जैसा कि हम सभी अपने अनुभव से जानते हैं ऊंचा या तेज़ संगीत और ताल जोश-भरी होती हैं और उत्तेजित करती हैं)।
लगभग इसी समय हैदराबाद के जाने-माने संगीत चिकित्सक राजम शंकर ने एक पठनीय व अच्छे शोध पर आधारित मोनोग्राफ, ‘संगीत की चिकित्सा शक्ति’, तैयार किया है। इस मोनोग्राफ में चिकित्सा के लिए इस्तेमाल किए जा सकने वाले रागों का विवरण और कर्नाटक संगीत के 35 से अधिक जाने-माने रागों की विस्तार में जानकारी और कुछ केस स्टडी हैं। इनमें से कुछ राग हिंदुस्तानी संगीत में भी मिलते हैं।
एकरूप रसास्वादन
इस बात पर गौर करें कि अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में शामिल ‘पश्चिमी’ सभ्यता के मरीज़ों को वह संगीत सुनाया जिससे वे परिचित थे, और चेन्नई के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में मरीज़ों को वह संगीत सुनाया जिससे दक्षिण भारत के लोग परिचित थे। तो सवाल यह उठता है कि क्या भावनाओं को जगाने की संगीत की क्षमता सांस्कृतिक अंतर के परे जा सकती है? मानेसर स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर की मस्तिष्क विज्ञानी नंदिनी चटर्जी सिंह ने अपने अध्ययन में इसी सवाल का जवाब खोजने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन के नतीजे छह महीने पहले प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित हुए थे (विस्तार से पढ़ने के लिए देखें https://doi.org/10.1371/journal.pone.0222380)।
चटर्जी सिंह ने अपने अध्ययन में भारत के विभिन्न शहरों के 144 लोगों और अन्य देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, युरोप, जापान, कोरिया) के 112 लोगों को हिंदुस्तानी संगीत के 12 रागों के कुछ टुकड़े ऑनलाइन सुनाए। इसमें उन्होंने सरोद पर रागों के आलाप और उसके बाद गत (जिसे बंदिश भी कहते हैं) सुनाई। (आलाप यानी ताल के बिना राग के सुरों और उसकी सप्तक का धीमी गति में परिचय, और गत यानी किसी ताल वाद्य (आम तौर पर तबला) की संगत पर इसी क्रम में राग के सुरों को तीव्र गति से बजाना)। अध्ययन में जब हंसध्वनि जैसे राग बजाए गए तो ‘भारतीय संस्कृति से परिचित’ भारतीय श्रोताओं और ‘भारतीय संस्कृति से अनजान’ विदेशी श्रोताओं, दोनों ने ‘आनंदित’ या ‘रोमांटिक’ महसूस किया, और जब राग मारवा बजाया गया तो दोनों समूहों ने ‘उदासी’ की भावना महसूस करना बताया।
संस्कृति से अपरिचित समूह के लोगों ने लयबद्ध हिस्से, गत, पर अधिक सरलता से प्रतिक्रिया दी। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये नतीजे कुछ अन्य अध्ययन रिपोर्ट से मेल खाते हैं जिनमें कहा गया है कि अमेरिकी प्रेक्षकों ने तब अधिक प्रतिक्रिया दी जब उन्होंने पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय नृत्य देखा। तो ऐसा लगता है कि ‘श्रवण’ के मामले में एक ‘सार्वभौमिकता’ है। वे आगे कहते हैं कि जब विदेशियों को जावानी लोगों का संगीत सुनने के लिए आमंत्रित किया गया था तब भी इसी तरह की प्रतिक्रिया मिली थी।
पैतृक उपहार
तो सवाल यह उठता है कि यह सार्वभौमिकता कैसे आई, और कैसे दुनिया भर के संगीत उन्हीं मूल सुरों और धुनों का उपयोग करते हैं। तो क्या यह डीएनए की तरह हमें जैव-विकास के उपहार स्वरूप मिला है? हम मनुष्यों में संगीत की उत्पत्ति का स्रोत क्या है?
1990 के दशक से ‘बायोम्युज़िकेलिटी’ नामक एक समूचा विषय उभरा है, जिसमें संगीत की उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। इसमें यह जानने की कोशिश की जाती है कि संगीत के प्रोसेसिंग में मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा शामिल होता है, और संगीत बनाने की जैविक लागत और उपयोग, और विभिन्न संस्कृतियों के संगीत की साझा विशेषताओं के बारे में पता लगाया जाता है। कुछ शोधकर्ता बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल के मनुष्य उस समय की उपयुक्त सामग्री से ड्रम बजाते थे, जिसे जैव विकास की प्रक्रिया में हमने अपने प्राइमेट बंधुओं से उधार लिया था। कुछ पुरातत्वविदों ने लगभग 4000-5000 साल पहले के प्रागैतिहासिक, पुरा-पाषाण युग के मनुष्यों (निएंडरथल) के संगीत की पड़ताल की है। प्रागैतिहासिक काल का पहला वाद्ययंत्र था बांसुरी जिसे एक युवा भालू की हड्डी से बनाया गया था; स्लोवेनिया में प्राप्त इस खोखली हड्डी से बनी बांसुरी में कम से कम तीन सुराख थे। हो सकता है, ज़्यादा सुराख रहे हों। एक और बांसुरी चीन के जियाहू क्षेत्र में मिली थी, जिसके आइसोटोप डेटिंग से पता चला था कि यह प्रागैतिहासिक काल की उक्त बांसुरी से भी अधिक पुरानी (7000-8000 साल पहले की) है। और जब शोधकर्ताओं ने इसे बजाया (शहनाई की तरह खड़ा रख कर) तो जो संगीत पैदा हुआ उसने उन्हें पारंपरिक डो, रे, पा, सो, ला, टी (या सा, रे, गा, मा पा..) की याद दिला दी!(स्रोत फीचर्स)