गंगानंद झा
कुछ ऐसे सवाल हमारे अवचेतन में बने रहते हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मालूम। फिर भी हम परेशान नहीं रहते। कोई किताब पढ़ते वक्त या लोगों की बात सुनते वक्त जब इन सवालों के जवाब उभर आते हैं तो हम चमत्कृत हो उठते हैं।
करीब 30 साल पहले छात्रों के साथ विकासवाद और प्राकृतिक वरण की चर्चा के दौरान एक सवाल उठा। सारे स्तनधारियों के शिशु मां का दूध पीना छोड़ने के बाद जल्दी ही अपने भोजन के लिए खुदमुख्तार हो जाते हैं, लेकिन मनुष्य के शिशु मां का दूध छोड़ने के बाद भी कई सालों तक भोजन तथा सुरक्षा के लिए मां-बाप पर निर्भर बने रहते हैं। इस अवधि में उनकी परवरिश न हो तो उनके जीवित रहने की संभावना बहुत ही कम रहती है। मानव शिशु अपने हाथ पांव पर नियंत्रण हासिल करने में ही साल भर से अधिक वक्त लगाता है। उसके बाद भी उसे देखभाल, प्रशिक्षण, शिक्षा और परवरिश के लिए दो दशकों से अधिक की अवधि की दरकार होती है। देखा जाए, तो मानव शिशु असहाय होता है।
क्या यह अटपटा नहीं लगता? इसको कैसे समझा जा सकता है? अपने विद्यार्थियों, साथियों और सहकर्मियों से पूछा पर कोई सुराग नहीं मिला। अनेक सवालों की तरह यह भी खो गया।
मानव जीवन का एक और प्रमुख लक्षण है: लगभग सभी जीवों की आयु उनकी प्रजनन-आयु के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है, किंतु मनुष्य इसके बाद भी काफी समय तक जीवित रहता है।
अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का स्थानांतरण किसी भी जीव की अभिप्रेरणा होती है। अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का संचरण प्रजनन सफलता कहलाती है। माता-पिता द्वारा संतान की सघन परवरिश अगली पीढ़ी में उन संतानों के जीन्स के स्थानांतरण और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। ऐसी परवरिश अतिरिक्त उत्तरजीविता संभव बनाती है। मनुष्य ने यह गुण प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में पाया है।
कई साल बीत गए। मैं सेवानिवृत्त हो गया। फिर एक किताब पढ़ने को मिली - जेरेड डायमंड लिखित दी थर्ड चिम्पैंज़ी (The Third Chimpanzee)। इस किताब में और मुद्दों के साथ-साथ इस सवाल पर भी चर्चा की गई है। इसमें एक सुझाव दिया गया है कि मानव शिशु की असहायता ने मानव परिवार और समाज की उत्पति एवं विकास की बुनियाद रखी।
शिशु के जीवित रहने में परवरिश की भूमिका निर्णायक होती है। लंबी अवधि तक चौबीस घंटे निगरानी की ज़रूरत के कारण मां-बाप के बीच सहयोग अनिवार्य हो जाता है। परवरिश में मां के साथ भागीदारी के ज़रिए संतान का पिता अपने जीन्स का अगली पीढ़ी में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है। मां तो जानती है कि वह अपनी ही संतान की परवरिश कर रही है, लेकिन पिता को अपनी मादा के साथ घनिष्ठ भागीदारी के ज़रिए ही यह आश्वस्ति मिल सकती है। अन्यथा वह किसी अन्य पुरुष के जीन्स की पहरेदारी करता रह जाएगा। इस ज़रूरत ने परिवार नामक संस्था की नींव रखी। संतान की परवरिश में लंबे समय तक पुरुष-स्त्री के बीच भागीदारी ने इनके बीच श्रम विभाजन को ज़रूरी बनाया। परिवार के बाद कबीला, कबीले के बाद समाज के विकास के साथ तब्दीलियों का सिलसिला चलता जा रहा है।
लेकिन अभी भी एक गुत्थी बनी हुई थी। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में ऐसा क्यों हुआ? मानव शिशु असहाय क्यों होता है? जवाब नहीं मिल रहा था।
कई सालों के बाद एक किताब देखी - युवाल नोआ हरारी लिखित सैपिएंस (Sapiens) जिसमें जवाब मिला।
प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में चौपाया प्राइमेट पूर्वज से दो पांवों पर चलने वाले मनुष्य का विकास हुआ। इन चौपाया पूर्वजों के सिर तुलनात्मक रूप से छोटे हुआ करते थे। इनके लिए दो पांवों पर सीधे खड़ी स्थिति में अनुकूलित होना काफी कठिन चुनौती थी, खासकर तब जबकि धड़ पर अपेक्षाकृत काफी बड़ा सिर ढोना हो।
दो पांवों पर खड़े होने से मनुष्य को अधिक दूर तक देखने और अपने लिए भोजन जुगाड़ करने की सुविधा हासिल हुई लेकिन विकास के इस कदम की कीमत मनुष्य को चुकानी पड़ी है। अकड़ी हुई गर्दन और पीठ में दर्द की संभावना के साथ रहने को बाध्य हुआ है वह।
औरतों को और भी अधिक झेलना पड़ा है। सीधी खड़ी मुद्रा के कारण उनके नितम्ब संकरे हुए। इसके नतीजे में प्रसव मार्ग संकरा हुआ। दूसरी ओर, शिशु के सिर के आकार बढ़ते जा रहे थे। फलस्वरूप प्रसव के दौरान मौत का जोखिम औरतों की नियति हो गई। यदि प्रसव समय से थोड़ा पहले होता, जब बच्चे का सिर छोटा और लचीला रहता है, तो प्रसव के दौरान मृत्यु का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता था। जिसे हम आजकल निर्धारित समय पर प्रसव कहते हैं वह वास्तव में जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समय-पूर्व ही है। बच जाने वाली औरतें और बच्चे प्रसव कर पातीं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण में समय पूर्व प्रसव को प्राथमिकता मिली। हकीकत है कि दूसरे जानवरों की तुलना में मनुष्य का जन्म उसके शरीर की अनेक महत्वपूर्ण प्रणालियों के पूर्ण विकसित होने के पहले ही होता है। बछड़ा जन्म के तुरंत बाद उछल-कूद कर सकता है, बिल्ली का बच्चा कुछ ही सप्ताह में मां को छोड़कर अपने भोजन का इंतज़ाम करने निकल पड़ता है। लेकिन मनुष्य का बच्चा भोजन, देखभाल, हिफाज़त और प्रशिक्षण के लिए अपने से बड़ों पर सालों तक निर्भर रहता है। गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे सुरक्षा की ज़रूरत रहती है।
एक शिशु को मनुष्य बनाने में पूरे समाज का सहयोग रहता है। चूंकि मनुष्य जन्म से अविकसित होता है, उसे शिक्षित करना, दूसरे जानवरों की तुलना में अधिक सहज है। उसे सिखाया जा सकता है कि अन्य जीवों के साथ कैसे सम्पर्क बनाया जाए।
यह तथ्य मनुष्य की असामान्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्षमता की बुनियाद में है। उसकी अनोखी समस्याओं के लिए भी यही तथ्य ज़िम्मेदार है। (स्रोत फीचर्स)