एक लाइलाज रोग है विटिलैगो। इसमें चमड़ी के कुछ हिस्सों से रंग उड़ जाता है और यह सफेद दाग के रूप में नज़र आता है। एक समय था जब इसे कोढ़ माना जाता है मगर अब स्पष्ट हो चुका है कि सफेद दाग आम तौर पर एक हानिरहित स्थिति है। मगर सवाल है कि पशुओं की चमड़ी से इसका क्या सम्बंध है।
पशुओं में यह रोग बहुत कम होता है। मगर जब होता है तो उनकी चमड़ी की कोशिकाओं में रंगीन पदार्थ का अभाव हो जाता है और चमड़ी पर चकत्ते नज़र आने लगते हैं। मनुष्यों में फिलहाल इस रोग के इलाज के लिए पराबैंगनी किरणों से उपचार करने के प्रयास होते हैं मगर इसकी सफलता संदिग्ध है। साथ में समस्या यह है कि पराबैंगनी किरणों से बार-बार का संपर्क कैंसर की आशंका को बढ़ाता है। वैसे जब तक यह रोग बहुत न फैले तब तक कदापि हानिकारक नहीं है। अभी भी हम यह नहीं जानते कि विटिलैगो होता क्यों है। माना जाता है कि आत्म-प्रतिरक्षा की इसमें कुछ भूमिका हो सकती है। आत्म-प्रतिरक्षा से मतलब यह होता है कि जब आपका प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं आपके शरीर के कुछ हिस्सों के खिलाफ काम करने लगे।
अभी तक इस रोग पर अनुसंधान में एक समस्या यह थी कि इसके लिए कोई उपयुक्त जंतु मॉडल नहीं था। अब वैज्ञानिकों को एक ऐसा मॉडल मिल गया है: भैंस। चार वर्ष पहले नई दिल्ली के कुछ शोधकर्ताओं ने एक सामाजिक कार्यकर्ता से एक किस्सा सुना था। भारत के कुछ गांवों में लोग चकत्तेदार चमड़ी वाली भैंसों को नापसंद करते हैं। शोधकर्ता ऐसी पांच भैंसें अपनी प्रयोगशाला में ले आए। चमड़ी की बायोप्सी में पता चला कि इन भैंसों की सफेद दाग वाले हिस्से की चमड़ी और विटिलैगो से ग्रस्त मनुष्यों की चमड़ी में काफी समानता है। मनुष्यों के समान ही इन भैंसों के सफेद चकत्तों में भी रंजक युक्त कोशिकाओं - मिलेनोसाइट - का अभाव था। इनमें भी रंजक बनाने वाले जीन की अभिव्यक्ति कमतर हो रही थी।
टीम के निष्कर्ष शोध पत्रिका पिगमेंट सेल एंड मेलेनोमा रिसर्च में प्रकाशित हुए हैं। नई दिल्ली की टीम को यह समझते देर न लगी कि ये भैंसें इस रोग को समझने के लिए अच्छा मॉडल हो सकती हैं। अब शोधकर्ता एक नए रसायन का परीक्षण यह पता लगाने के लिए कर रहे हैं कि क्या भैंसों में एक बार यह स्थिति बन जाने पर आगे बढ़ने से रोकी जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - July 2016
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