कहानी

मार्क ओ’सुलीवान

“तुम्हारे डैडी अब फरिश्तों के साथ हैं, सिएन,” अन्तिम संस्कार के बाद माँ मुझसे लगातार कहती रहती थी। “जन्नत के एक फरिश्ते।”
मैं दस साल का था - इतना बड़ा कि मेरे लिए फरिश्तों में विश्वास करना मुश्किल था। फरिश्ते छह फुट लम्बे नहीं होते थे। उनके सिर पर लम्बे झबरीले बाल नहीं होते थे, इतने लाल कि लगभग नारंगी रंग के दिखते। फरिश्तों की रेत के रंग की मूछें या भूरी आँखें नहीं होती थीं, न ही वे इतने ज़ोर-से हँसते थे कि लगता जैसे वे गा रहे हों।
“एक दिन आएगा जब हम सब जन्नत में मिलेंगे,” उसने कहा था। दिये की रोशनी में उसके बाल उलझे और महीन रेशों जैसे लग रहे थे। उसके गालों पर आँसू बह रहे थे। उसे देखकर लगता था जैसे वह कहीं तेज़ बारिश में फँसी रही हो।

“नहीं, हम नहीं मिलेंगे। मैं अब उन्हें फिर कभी नहीं देख पाऊँगा,” मैंने ज़ोर देकर कहा। “मैं तो अब उन्हें अपनी कल्पना में भी नहीं देख पाता। मैं उनके चेहरे को याद ही नहीं कर पाता।”
और यह बात सही थी। कुछ महीनों पहले जब हम डॅन लाओगेरी में रहने आए थे तो हमारे परिवार के सारे-के-सारे फोटोग्राफ न जाने कहाँ बिला गए थे। उनके बिना उनका चेहरा मेरे सामने आता ही नहीं था। मैं उनकी कल्पना करने के लिए अपनी आँखें कसकर बन्द कर लेता। मुझे सिर्फ खाली धुँधलका ही दिखाई देता, उस गहरी धुन्ध की तरह जो हमारे समुद्री कस्बे पर छा जाया करती थी।
एक लम्बी, धीमी खामोशी में कई हफ्ते गुज़र गए। हर रोज़, हमारे उस छोटे-से मकान में दिन भर दीया जलता रहता था। बाहर धुन्ध दुकानों और मकानों के सामने के हिस्सों के, सड़क से गुज़रते ताँगों के घोड़ों के, यहाँ तक कि लोगों के चेहरों तक के रंगों को चाटती रहती। सिर्फ काली परछाइयाँ और स्याह छायाएँ भर बची रह जातीं।
हर रोज़, मैं दिन भर अपने सोने के कमरे की खिड़की पर बैठा याद करने की कोशिश करता रहता कि डैडी कैसे दिखते थे। एक बार मैंने नीचे सड़क से गुज़रते एक आदमी को देखा। वह डैडी जितना ही लम्बा था और उन्हीं की तरह उसके चौड़े कन्धे थे, लेकिन मैं उसका चेहरा नहीं देख सका क्योंकि वह धुँधलके में खो गया था। डैडी के बारे में भी मुझे ऐसा ही लगता था। वे दूर चले जा रहे थे और मुड़ नहीं रहे थे कि मैं उनका चेहरा देख सकता।

मैं आँखों को अक्सर कसकर बन्द करता रहता था, और उनसे लगातार आँसू बहते रहते थे, जिनकी वजह से मेरी आँखें कमज़ोर हो गई थीं। जब भी मैं उन्हें खोलता, मुझे अपने कमरे के रंग पहले से और भी फीके दिखाई देते। आखिर एक सुबह जब मैं जागा तो मैंने पाया कि मैं कोई भी रंग नहीं देख पा रहा था।
मेरे बिस्तर के बगल की मेज़, और मेरी कीमती चीज़ों से भरा लाल डिब्बा गन्दे काले रंग का हो गया था। परदों के पीले और नीले रंग उड़ चुके थे। मेरी दीवार पर लगी तस्वीर का इन्द्रधनुष अब धूसर रंगों का धनुष बनकर रह गया था, जिसकी पट्टियों का धूसरपन क्रमश: गहरा होता गया था।
मेरी उदासी खौफ में बदल गई। मैं माँ को पुकारने दरवाज़े की ओर भागने को हुआ। लेकिन फिर मैंने खुद को रोक लिया। मैं माँ को इन अजीबो-गरीब बदलावों के बारे में कैसे बताता? वह पहले ही इतनी उदास और परेशान थी। कभी-कभी मेरे मन में यह खयाल आता जैसे वह किसी बच्ची में बदल गई हो, जो बोलने की बजाय रोती और आहें भरती रहती थी। नहीं, मुझे ये बातें अपने तक ही रखनी होंगी।

उस खौफनाक, बेरंग सुबह, मैं जिन नंगी सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, वे महज़ अँधेरी नहीं थीं। वे मुझे काजल से पुती दिखाई दे रही थीं। मैंने रसोई का दरवाज़ा खोला, तो मुझे हर चीज़ पर वही कालिख जमी हुई दिखाई दी। यहाँ तक कि माँ का चेहरा भी। उसकी चमड़ी जीर्ण और गन्दी दिख रही थी। मैं उसे छूने की कल्पना भी नहीं करना चाहता था। मेज़ पर रखी दूध की बोतल राख से भरी लग रही थी।
“मैं उनका चेहरा नहीं देख पा रही हूँ,” वह चिल्लाई। “मैं याद नहीं कर पा रही हूँ कि वे कैसे दिखते थे।”
माँ भी नहीं, मैंने सोचा। मुझे वहाँ से हट जाना पड़ा। मेरे लड़खड़ाते पैर मुझे गलियारे के दरवाज़े की ओर ले गए। मेरे पीछे माँ की सिसकियों से शोकगीत फूट रहा था। मैं बाहर धुन्ध में डूबी सड़क पर भाग आया।

***
उस भयावह साल के जून में हम डॅन लाओगेरी नामक उस सुन्दर समुद्री कस्बे में रहने आ गए थे। डैडी को वहाँ रंग बेचने वाली एक दुकान में नई नौकरी मिल गई थी। उन्हें यह काम बहुत पसन्द आता था - तरह-तरह के रंगों को आपस में मिलाना और बेचना। मकानों के अन्दर और बाहर पोते जाने वाले पेण्ट; कलाकारों के ऑयल कलर और वॉटरकलर। और मुझे वह कस्बा बहुत अच्छा लगता था। पूरी गर्मियों-भर समुद्र पर बना वह पुल छुट्टियाँ मनाने वालों और सैलानियों से भरा रहता था। धूप समुद्र की लहरों को दूर-दूर तक सुनहरा कर देती और मैं बर्फ के मीठे, गुलाबी रेशों जैसे गुड़िया के बालों को अपनी जीभ पर चुभलाता रहता। समुद्र के सामने के पूरे हिस्से में ऐसी आलीशान इमारतें खड़ी हुई थीं जैसी मैंने पहले कभी नहीं देखी थीं। उनके ढलवाँ बगीचे फूलों से लहलहाते रहते थे।
अगस्त में एक दिन जब हम उस समुद्री पुल पर ‘पंच एण्ड जूडी’ का शो देखने उन मकानों के बगल से होकर गुज़र रहे थे, तो मैंने डैडी से पूछा, “आपका पसन्दीदा रंग कौन-सा है?”
“तुम्हारा कौन-सा है?” उन्होंने अपनी रेतीली मूँछों पर हमेशा की तरह मज़ेदार ढंग से हाथ फिराते हुए पूछा।
“लाल!” मैंने तपाक-से जवाब दिया; उस वक्त मेरा मुँह जीभ पर घुलते मीठे गुड़िया के बालों से भरा हुआ था।
उन्होंने माँ की ओर मुड़कर मज़ाकिया अन्दाज़ में अपनी बाँह उनकी कमर में डाल दी।
“और गोरी मैम की पसन्द क्या होगी?”

“मुझे इस तरह बीच सड़क पर मत जकड़ो,” माँ ने दबी ज़ुबान हँसते हुए कहा और फिर हमारे ऊपर की ओर के बगीचों में फैले रंगों को देखा। “मेरा खयाल है, पीला। हाँ, वे जो ट्यूलिप हैं, उनके जैसा पीला।”
“इस तरह मामला तय हो गया,” डैडी ने कहा। “मेरा पसन्दीदा रंग है, नारंगी।”
“क्या, डैडी?”
“क्योंकि लाल तुम्हारा है और पीला तुम्हारी माँ का है। दोनों को मिला दो तो क्या बनेगा? सिर्फ नारंगी।”
“आपके बालों की तरह,” मैंने मज़ाक किया क्योंकि वे उन्हें सुनहरा कहते थे।
“तू तो शरारत करता रह, शैतान,” उन्होंने हँसते हुए कहा, और फिर अपनी बड़ी, कोमल हथेली से मेरे बाल झकझोर दिए।
लेकिन यह गर्मियों की बात थी। कड़ाके की सर्दियों के उस मौसम के पहले की बात जब डैडी की मृत्यु हुई थी, उससे पहले की बात जब उनका चेहरा मुझसे छिपा दिया गया था, उसके पहले की बात जब मेरे भीतर रंग मर गए थे।
***

उस दुखदाई सुबह, मैं धुन्ध के बीच चलता हुआ अपनी उस सड़क से बाहर निकल आया। मुख्य सड़क खिड़कियों और दरवाज़ों का एक कुहासा था जो अपने भीतर अँधेरे रहस्य छिपाए हुए था। धुन्ध के भीतर से, स्याह और अवास्तविक लगते लोग सहसा नमूदार होते, तो दिल की धड़कन थम जाती थी। मैं सड़क पर पटरी पार करने लगा, तो ट्राम की घण्टियाँ भुतहे ढंग से बज उठीं। कुहरे से पुती उसकी खिड़कियों के पीछे बैठे यात्री बिना चेहरों के प्रेतों जैसे लग रहे थे। डैडी की तरह।
समुद्र पर बने पुल पर पहुँचने के बाद आखिरकार मैं एकान्त पा सका। धुन्ध में छिपा हुआ। मुझे न तो अपने पीछे का समुद्र दिख रहा था, न अपने सामने के आलीशान मकान दिख रहे थे। मैं ठण्डी ज़मीन पर बैठ गया। बीच-बीच में खुद को गरमाने के लिए मैं दीवार की बगल में चलने लगता। एक बार तो मैं दौड़ तक पड़ा और उस दौरान जब मैं पूरी रफ्तार पर था, तो मुझे लगा जैसे मैंने डैडी को हँसते हुए सुना हो। मैं ठहर गया, तो वह हँसी गायब हो गई। मैं फिर से दौड़ पड़ा, लेकिन वह वापस नहीं लौटी। लगा कि अब डैडी के चेहरे को याद करने की कोशिश बेकार है। इसकी बजाय, मैंने खुद को पानी के एक गहरे डबरे में हिलते-डुलते पाया। मैंने उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा और गुस्से से पानी को बिलोकर उसे मिटा दिया।
तभी पुल के दूसरे सिरे पर एक हल्की-सी थाप सुनाई दी। धुन्ध के भीतर एक औरत की आवाज़ गूँज उठी।
“हाँ, तब भी उसे ज़ोर-से फेंक दो!”

मैं मन-ही-मन मुस्कराया। मैं अन्त्येष्टि के बाद से हँसा नहीं था और इसलिए यह अजीब-सा लगा। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि धुन्ध के भीतर से एक सन्तरा धीरे-धीरे लुढ़कता आ रहा था। वह डबरे में जा गिरा। मैं उसे वहाँ तैरता हुआ देखता रहा। मैं चकित था कि मुझे उसका रंग दिख रहा था। मुझे लगा कि मेरे स्याह-सफेद दुस्स्वप्न समाप्त हो चुके हैं।
मैं उत्तेजना से भरा हुआ उस दिशा में चल पड़ा जहाँ से वह सन्तरा आया था। घने कोहरे के बीच मुझे काली पोषाक पहने एक बूढ़ी औरत दिखी। शुरू में मुझे उसका चेहरा दिखाई नहीं दिया। वह बहुत ठिगनी और खुद पर बहुत झल्लाई हुई थी। उसका डोरीवाला थैला खुल गया था। उसने बेलोच ढंग से झुकते हुए गीले फुटपाथ से सरडाइन मछलियों से भरा एक डिब्बा और चाय का एक पैकेट उठाया।
“मैं आपकी मदद करता हूँ, मैम,” मैंने कहा। वह मुझे देखने के लिए मुड़ी। जब मैंने धूसरपन से बदशक्ल हुए एक और चेहरे को देखा, तो मेरा दिल बैठ गया। मैंने उस फल को देखा जिसे मैंने अपने हाथ में ले रखा था। वह एक धूसर, फुंसियों के निशानों से भरी चीज़ थी।
“तुम भले आदमी हो,” उसने कहा। काले दस्तानों से ढँके उसके हाथ काँप रहे थे। या हो सकता है वे दस्ताने नीले या शायद लाल भी रहे हों। मैं कैसे समझ सकता था?
“मैं आपका थैला उठाकर ले चलूँगा,” मैंने पेशकश की। “कहाँ रहती हैं, आप?”
“यहीं सड़क के करीब,” उसने कहा। “उम्मीद है, मैं तुम्हें परेशानी में नहीं डाल रही हूँ।”

“नहीं, मैं वैसे भी कुछ नहीं कर रहा था।”
मैं उसके पीछे चलता हुआ समुद्र को ताकते उन आलीशान मकानों में से एक मकान के गेट तक जा पहुँचा। एक खम्भे पर लगी तख्ती पर लिखा हुआ था:
मिसेज़ कैथरीन फोगार्टी फोटोग्राफर: फोटोग्राफ्स की हाथ से रंगाई में विशेष दक्षता
“यह मैं हूँ,” बुढ़िया ने बताया। “पीतल की इस तख्ती को देखकर तुम्हें मेरा महत्व समझ में आया?”
लेकिन मैं सुन नहीं रहा था। मैं तो यह सोच रहा था कि हाथ से की जाने वाली रंगाई क्या चीज़ है। उलझन में पड़ा हुआ मैं उसके मकान की ओर जाने वाली खड़ी सड़क पर चढ़ने लगा। दरवाज़ा खोलने से पहले बुढ़िया चाभी के गुच्छे को खँगालती रही, फिर उसने दरवाज़ा खोलकर एक लम्बे, अँधेरे गलियारे में प्रवेश किया।
“आ जाओ, मैं तुम्हें देने के लिए छह पेन्स का सिक्का ढूँढ़ती हूँ,” उसने कहा।
“कोई बात नहीं,” मैंने उससे कहा। “आपको मुझे पैसा देने की कोई ज़रूरत नहीं है।”
“ठीक है, तब भी तुम अन्दर तो आ ही सकते हो,” उसने आग्रह किया। “मैं थोड़ी-सी गपशप ही कर लूँगी।” वह चली गई, और फिर घर की किसी अँधेरी गहराई से आती उसकी आवाज़ मुझे सुनाई दी, “दरवाज़ा बन्द कर दो, ठण्डी हवा के झोंके अन्दर मत आने दो।”

जिस पहले कमरे से होकर मैं गुज़रा, वह फोटोग्राफी का स्टूडियो था। तिपाये पर एक बड़ा-सा बॉक्स कैमरा रखा हुआ था। कमरे में एक लम्बा दीवान पड़ा था, और उसके पीछे स्याह समुद्र की पृष्ठभूमि में उभरे पुल का एक विशाल चित्र टँगा हुआ था। समुद्र के ऊपर धुँधला आसमान और एक विशाल, फीका चन्द्रमा था। दूसरा कमरा उससे छोटा था और उसमें कोई खिड़कियाँ नहीं थीं। उसके बीचों-बीच एक मेज़ रखी हुई थी जिसकी वजह से चलने-फिरने के लिए बहुत कम जगह बची हुई थी। ज़मीन से लेकर सीलिंग तक लकड़ी की ऊँची-ऊँची अलमारियों ने दीवारों को ढँक रखा था। हर अलमारी पर एक छोटी-सी सूचना-पट्टी चिपकी हुई थी। जिस दौरान बुढ़िया मेज़ से लगी एक कुर्सी पर जाकर गहरी साँस लेते हुए बैठ गई, मैंने उनमें से कुछ सूचना पट्टियों को पढ़ा:
परिवार: ‘ए’ से ‘सी’ तक। दम्पति: ‘के’ से ‘एम’ तक। अकेले मर्द: ‘पी’ से ‘टी’ तक।
मेज़ पर उन ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों का अम्बार लगा हुआ था जो बुढ़िया ने अपने स्टूडियो में खींचे थे। उसने अपने हैंडबैग से छह पेन्स का एक सिक्का निकाला और काँपते हाथ से मेरी ओर बढ़ाया। फिर उसने अपना हाथ वापस खींच लिया और मुझे विचित्र-सी नज़रों से देखने लगी।
“मैंने तुम्हारा चेहरा कहीं देखा है,” उसने कहा। “तुम्हारा नाम क्या है?” उसकी भेदती निगाहों की वजह से अब मैं असहज महसूस कर रहा था।
“सिएन,” मैंने चौकन्ने ढंग से जवाब दिया।

“क्या तुम हर रोज़ छह पेन्स कमाना चाहोगे, सिएन?”
मैंने कन्धे झिड़क दिए। “देखो, मेरे हाथ अब काँपने लगे हैं,” उसने समझाया। “और मेरे पास निपटाने के लिए ढेर-सारा काम पड़ा हुआ है। मैं तुम्हें हाथ से रंग भरना सिखा सकती हूँ।”
“हाथ से रंग भरना क्या होता है?”
“ऐसा है कि लोग अपनी तस्वीरों में कुछ रंग भरवाना चाहते हैं,” उसने कहा। “इससे वे तस्वीरें ज़्यादा वास्तविक, ज़्यादा सजीव लगने लगती हैं। इसलिए मैं समुद्र और आकाश और चेहरों में रंग...”
अचानक, मुझे गुस्सा आ गया। मेरा कुछ कहने का इरादा नहीं था लेकिन मेरे मुँह से निकल पड़ा। “अगर कोई चेहरा मर चुका है, अगर वह गुज़र चुका है और अब वापस आने वाला नहीं है, तो आप उसे जीता-जागता नहीं बना सकतीं,” मैं ज़ोर-से चिल्लाया। “जैसे डैडी का चेहरा।”
मैं उससे दूर भागने के लिए मुड़ा। तभी मेरी निगाह अल्मारियों के ऊपर एक सूचना-पट्टी पर पड़ी जिसकी ओर मेरा ध्यान पहले नहीं गया था। उस पर लिखा हुआ था, फरिश्ते। मेरी जिज्ञासा जागी लेकिन वहाँ से भाग जाने की मेरी इच्छा ज़्यादा प्रबल थी। मैं दरवाज़े की ओर भागा।
“रुको, सिएन। मुझे ठीक-ठीक पता है कि तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है,” बुढ़िया ने पुकारते हुए कहा, “वापस आ जाओ।”
मैं भागता हुआ सीधा घर जा पहुँचा। मैंने रसोई में माँ को रोते हुए देखा। मुझे लगा कि अब हम बाकी जीवन भर अकेले, उदास और धूसर ही बने रहेंगे।

***
कई हफ्ते बीत जाने के बाद ही मैं श्रीमती फोगार्टी के घर वापस लौटा। जिस दिन मैं उनके घर जा रहा था, उस दिन भी डॅन लाओगेरी धुन्ध से ढँका हुआ था। मेरी दुनिया अभी भी स्याह और सफेद ही थी, और डैडी का चेहरा अभी भी मुझसे छिपा हुआ था। और माँ से भी।
वह क्या चीज़ थी जो मुझे उस गुफानुमा मकान में वापस ले गई थी? क्या वह पोखर में तैरते उस सन्तरे की दूर की स्मृति थी? फरिश्तों का ऐलान करने वाली वह विचित्र-सी सूचना-पट्टी? उस बुढ़िया का यह दावा कि उसे ठीक-ठीक पता था कि मैं क्या महसूस कर रहा था? या बात शायद सिर्फ इतनी ही थी कि मैं उस समुद्री पुल पर अकेले बैठकर समुद्र की भुतैली फुसफुसाहटें सुनते-सुनते उकता चुका था।
जो भी वजह रही हो, लेकिन मैं वहाँ न सिर्फ एकबार गया बल्कि कई हफ्तों तक रोज़-रोज़ जाता रहा। श्रीमती फोगार्टी को निश्चय ही लगा होगा कि मुझसे ज़्यादा विचित्र लड़का उन्होंने दूसरा नहीं देखा, लेकिन वे इतनी भली थीं कि उन्होंने कभी ऐसा कहा नहीं। मैं हर रोज़ उनका दरवाज़ा खटखटाता और उनके साथ अन्दर चला जाता - और जब वे तस्वीरों को रंग रही होतीं, तो मैं एक भी शब्द नहीं बोलता था।

मैं जैसे ही उनके सामने की कुर्सी पर बैठ जाता, वे वॉटरकलर का अपना छोटा-सा साफ-सुथरा डिब्बा खोल लेतीं। उस डिब्बे में रंगों के सोलह चौखाने थे - ज़ाहिर है, वे सब मेरे लिए तरह-तरह के धूसर रंग ही थे। वे धीरे-धीरे काँपते हाथ से आकाश और बादलों में रंग भरतीं। फिर समुद्र, पुल और चन्द्रमा। उसके बाद वे कपड़ों पर आतीं - सूट और कमीज़ें, पोशाकें और टोप। फिर, वे बहुत सावधानी के साथ हाथों में रंग भरतीं। तमाम दूसरी चीज़ों पर काम हो चुकने के बाद ही वे चेहरे पर रंग भरना शुरू करतीं। और चेहरा हमेशा ही बहुत लम्बा समय लेता था। कभी-कभी वे बहुत कोमल स्वर में बोलने लगतीं और वह हमेशा ही चेहरों के बारे में कोई अनूठी सीख होती। एक दिन उन्होंने पूछा, “क्या तुमने कभी लियोनार्दो द विंची का नाम सुना है?”
मैंने सिर हिला दिया। मैंने उसके बारे में स्कूल में पढ़ा था; वह कलाकार और आविष्कारक था।
“उसका कहना था कि दुनिया में दो सौ छप्पन किस्म की नाकें हैं,” उन्होंने कहा। “ज़रा कल्पना करो, सीएन।” मैंने न सुनने का बहाना किया लेकिन मुझे उन विचित्र बारीकियों के बारे में सुनने में आनन्द आ रहा था। उन्होंने मुझे बताया कि नाक और ऊपरी होंठ के बीच के घाटी-नुमा गड्ढे को फिल्ट्रम कहा जाता है। मनुष्य अकेले प्राणी हैं जिनकी ठुड्डियाँ होती हैं। लोग एक मिनिट में लगभग पन्द्रह बार पलक झपकाते हैं।
“क्या यह अच्छी चीज़ नहीं है!” उन्होंने कहा। “क्या यह आश्चर्य की बात है कि मेरी कमज़ोर आँखें पलक झपकाते-झपकाते थक गई हैं, हा हा!”
जब वे एक तस्वीर पूरी कर लेतीं, तो इस कदर थककर टिक जातीं, कि मुझे लगता वे सो जाएँगी। फिर एक दिन वे सचमुच ही सो गईं। उसी दिन से मैंने रंगना शुरू किया।

***
मैं श्रीमती फोगार्टी को काम करते हुए बहुत बारीकी-से देखता रहता था। मुझे ठीक-ठीक मालूम था कि वे हर चीज़ - आकाश, समुद्र, चन्द्रमा - को रंगने के लिए वॉटरकलर के किस खाने में अपना ब्रश डुबाती थीं और मिलाती थीं। हालाँकि मुझे सारे रंग धूसर ही दिखते थे, लेकिन मुझे हर बार यह पता होता था कि ठीक-ठीक किस धूसर रंग की ज़रूरत है। उन्होंने मुझे इतने लम्बे समय तक खामोश बैठे रहने की छूट दी थी कि मैं खुद को उनके प्रति ऋणी महसूस करता था। मैंने उनके लिए फुर्ती-से तीन तस्वीरों के रंग भर दिए। यह मैंने बहुत आसानी-से कर लिया। अलावा हाथों और चेहरे के, जिन्हें रंगने में मुझे इतना वक्त लगा कि मुझे यकीन था कि वे जाग जाएँगी और मुझे पकड़ लेंगी।
श्रीमती फोगार्टी जल्दी ही हरकत में आ गईं। उन्होंने उन तस्वीरों की ओर देखा। मुझे डर था कि मैंने उन्हें बिगाड़ दिया होगा, लेकिन उनकी मुस्कराहट से ही मैं समझ गया कि मैंने वैसा कुछ नहीं किया था। मैं इतना खुश महसूस कर रहा था कि जो सवाल पूछने की मेरी बड़ी तमन्ना थी, वह मेरी ज़ुबान से फिसल गया।
“श्रीमती फोगार्टी, वह अलमारी क्या है, जिसपर फरिश्ते लिखा हुआ है?”
“ओह, मेरे फरिश्ते, उन पर काम करना सबसे ज़्यादा मुश्किल है,” उन्होंने कहा। “सीएन, मेरे फरिश्ते उन लोगों की तस्वीरें हैं जो गुज़र चुके हैं।” उनके धूसर, झुर्रीदार हाथ ने मेरा कन्धा छुआ। मैं सँकुचाया नहीं।

“और जानते हो, सिएन?” उन्होंने कहा। “तुम्हारा हाथ इतना सध चुका है कि तुम अब फरिश्ते का चेहरा रंग सकते हो।”
मेरा दिल धड़क उठा। मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल सके। जब वे उठकर फरिश्तों वाली अलमारी तक गईं, तो मेरी आँखें उनका पीछा करती रहीं। वे मुड़ीं। उनके एक हाथ में एक आदमी की तस्वीर थी; दूसरे हाथ में, एक छोटा-सा सपाट, लकड़ी का डिब्बा था।
***
“याद है, जब मैं तुमसे पहली बार मिली थी और मैंने कहा था कि मैंने तुम्हारा चेहरा कहीं देखा है?”
मैंने सिर हिलाया।
“ऐसा इसलिए था क्योंकि तुम्हारा चेहरा तुम्हारे पिता से बहुत मिलता है,” उन्होंने कहा।
मेरा सिर इस कदर चकरा रहा था कि लगता था मैं बेहोश होकर गिर पड़ूँगा।
“दरअसल, मैं उनसे अपने लिए रंग खरीदती थी,” उन्होंने कहा। “और एक दिन वे मेरे लिए कुछ नए रंग लेकर यहाँ आए थे और मैंने उनकी तस्वीर खींच ली थी। मुझे कभी मौका ही नहीं मिल सका कि मैं यह तस्वीर उनको दे पाती। अब यह तुम्हारी है। और वे रंग भी। मैंने उनका इस्तेमाल कभी नहीं किया।”
उन्होंने वह तस्वीर मेरे सामने रख दी। मैं उसकी ओर देख नहीं सका क्योंकि मुझे लग रहा था कि जब मैं डैडी को देखूँगा तो मेरा दिल फट पड़ेगा। उन्होंने वॉटरकलर्स का वह नया डिब्बा खोला।
“मैं नहीं कर सकता,” मैंने कमज़ोर लहज़े में कहा।

“दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिससे डरा जाए,” उन्होंने कहा। “सुनो, सिएन, हमारी आँखें महज़ कैमरा नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि हम जिन लोगों से प्यार करते हैं उनकी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरें उतार लेते हों और उन्हें अपने दिमाग की किसी अलमारी में बन्द करके रख देते हों और जब उन्हें याद करने का हमारा मन हुआ तो उन तस्वीरों को निकालकर देख लेते हों। नहीं, जब याद करने का अवसर आता है, तो हम सब कलाकार होते हैं जो अपनी स्मृतियों की तस्वीर गढ़ लेते हैं। हम रंगों, ध्वनियों, अनुभूतियों का इस्तेमाल करते हैं। अपनी आँखें बन्द करो, सिएन।”
लग तो अजीब-सा रहा था, लेकिन मैंने वही किया जो उन्होंने कहा था। मैं उनकी आवाज़ सुन रहा था, समुद्र की मर्मर की तरह कोमल आवाज़।
“गर्मियों के एक सुन्दर दिन की कल्पना करो, सिएन। अपनी पीठ पर धूप की तपिश महसूस करो। तट से आती हँसने और पानी के छपछपाने की आवाज़ें सुनो। तट पर पड़ी कुर्सियों के रंगों को देखो, नीले और पीले और हरे। ‘पंच एण्ड जूडी' बूथ की लाल और सफेद पट्टियों को देखो।” अब वे और भी हल्के स्वर में बोल रही थीं, उनका हर शब्द तट पर फेन छोड़ती लहर की तरह एक उच्छवास जैसा था। “महसूस करो। सुनो। देखो। याद करो। अपनी खुद की यादें रचो, सीएन, अपने डैडी की अपनी यादों में रंग भरो। इस तरह तुम उन्हें कभी नहीं खोओगे।”

मैंने अपनी आँखें खोलीं। जैसे ही धूसर रंग में डूबे ब्रश ने तस्वीर को छुआ वैसे ही वह रंग आसमानी नीले की अपनी सम्पूर्णता में चमक उठा। मैं उत्तेजना से भरकर रंग भरता जा रहा था। चमकीले, सफेद बादल में लाल का पुट था। नीले समुद्र की तरंगें गहरे पीले की आभा लिए हुए थीं। और आसमान का बड़ा गोला अब चन्द्रमा नहीं था। वह चमकीला नारंगी सूरज था। जब मैं डैडी के हाथों में रंग भर रहा था, तो मेरा दाहिना हाथ इस कदर काँप रहा था कि मुझे उसको अपने बाँएँ हाथ से कसकर पकड़ना पड़ा। हल्के धूमिल लाल रंग के हर आघात के साथ मैं उनके दृढ़ किन्तु कोमल स्पर्श को महसूस कर सकता था।

यादें तेज़ी-से वापस लौटने लगीं, उस दिन की यादें जब हमने अपने-अपने पसन्दीदा रंगों के बारे में बात की थी। सजीव स्मृतियाँ जिन्हें मैं महसूस कर सकता था, देख सकता था, सुन सकता था। मैंने अपने बालों पर उनके हाथ की रगड़ को और गुड़िया के बालों के उस स्वाद को महसूस किया जो इतना वास्तविक था कि मेरे मुँह में पानी आ गया। मैंने बालों के उस बड़े और बिखरे हुए झुरमुट को देखा जो इतना लाल था कि लगभग नारंगी लगता था। मैंने उनकी रेतीली मूँछें देखीं और उनकी नाचती हुई भूरी आँखों को देखा। जब मैं वह तस्वीर लेकर माँ के पास घर की ओर भाग रहा था, तो मुझे उनके ज़ोरदार अट्टहास से झरता गीत सुनाई दे रहा था। और एक विशालकाय नारंगी सूरज ने डॅन लाओगेरी और हमारी धूसर ज़िन्दगियों पर छाई धुन्ध को उड़ा दिया।


मार्क ओ’सुलीवान: इनकी इच्छा संगीतकार और चित्रकार बनने की थी। फिर, अगर वे इनमें से कुछ भी बन पाते, तो वे लेखक भी बनना चाहते थे। बहरहाल, यही सुली (जो उनका फुटबॉल के पुराने दिनों का उपनाम हुआ करता था) आपके सामने हैं। उन्होंने छह उपन्यास बच्चों के लिए लिखे हैं, और ढेरों कहानियाँ और कविताएँ उन विचित्र अजनबियों के लिए लिखी हैं जो खुद को वयस्क कहते हैं।   
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मदन सोनी: आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय वरिष्ठ हिन्दी लेखक व अनुवादक। इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इन्होंने उम्बर्तो एको के उपन्यास द नेम ऑफ दि रोज़, डैन ब्राउन के उपन्यास दि द विंची कोड और युवाल नोह हरारी की किताब सेपियन्स: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड समेत अनेक पुस्तकों के अनुवाद किए हैं।
सभी चित्र: हरमन: चित्रकार हैं। दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट, नई दिल्ली से फाइन आर्ट्स (चित्रकारी) में स्नातक और अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर। भटिंडा, पंजाब में रहती हैं।