विपुल कीर्ति शर्मा
दिसम्बर को भरतपुर के केवलादेव नेशनल पार्क में प्रवेश लेते हुए सुबह के साढे ग्यारह बज रहे थे। इसके बावजूद सूर्य नदारद था। घने कोहरे के कारण चेन्नई से आई छह सदस्यीय फोटोग्राफर्स की एक टीम, पक्षियों के फोटो खींचने की बजाय अपना समय गप्पे मारने में लगा रही थी। एक घण्टे बाद धूप खिल गई परन्तु अधिकांश पक्षी पेट-पूजा कर घरौंदों में लौट गए थे और कुछ बचे-खुचे आराम फरमा रहे थे। मेरी निगाहें सड़क के दोनों ओर घनी झाड़ियों के बीच कुछ और ही खोज रही थीं। तभी मैदान जैसे खुले हिस्से में कुछ हलचल दिखी। ठण्डे बिलों में दुबके अजगर धूप खिलते ही धूप का मज़ा लेने बिलों से बाहर आने लगे थे।
भरतपुर बर्ड सेंक्चुरी या केवलादेव नेशनल पार्क या घाना नेशनल पार्क राजस्थान में स्थित यूनेस्को द्वारा घोषित संरक्षित इलाका प्रवासी पक्षियों के लिए स्वर्ग है। अक्टूबर से फरवरी माह तक प्रवासी पक्षियों की चार सौ से भी ज़्यादा प्रजातियों को यहाँ देखा जा सकता है। फरवरी के अन्तिम सप्ताह तक अधिकांश प्रवासी पक्षी विदा ले लेते हैं, परन्तु अनेक स्थानीय पक्षियों को आप फिर भी यहाँ साल भर देख सकते हैं।
यद्यपि केवलादेव नेशनल पार्क, पक्षियों के लिए ज़्यादा प्रसिद्ध है, परन्तु यहाँ 25 प्रकार के स्तनधारी, 23 प्रकार के सरीसृप, 5 प्रकार के उभयचर एवं अनेक प्रकार की मछलियाँ और कीट-पतंगे भी पाए जाते हैं। आप अगर भाग्यशाली हुए तो सर्दियों की दोपहर में आपको धूप सेंकते हुए अजगर भी मिल जाएँगे। और यदि आपका भाग्य कुलांचे भर रहा हो तो अजगर को शिकार करते हुए भी देख पाएँगे। 2017 में केवलादेव नेशनल पार्क में अजगरों पर किए गए एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि यहाँ अजगरों की आबादी कम-से-कम 80 है। 29 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल वाले नेशनल पार्क के लिए यह बेहद अच्छी खबर है।
ये कौन-से अजगर हैं?
केवलादेव नेशनल पार्क में पाए जाने वाले अजगर का वैज्ञानिक नाम पायथन मोलुरस है। सामान्य रूप से इन्हें भारतीय अजगर या इण्डियन रॉक पायथन या एशियन रॉक पायथन भी कहते हैं। यह एक बड़े आकार का साँप है। केवलादेव नेशनल पार्क में 10-12 फीट के अजगर देखने को मिलते हैं। पी. मोलुरस पूरे भारत में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों ने भौगोलिक और कुछ शारीरिक लक्षणों के आधार पर इन्हें दो उप-प्रजातियों में बाँटा है। पी.मोलुरस भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल में पाए जाते हैं जबकि कुछ बड़े आकार की उप-प्रजाति पायथन मोलुरस बिविटेटस या बर्मिस पायथन कहलाती है जो म्यांमार, चीन तथा इण्डोनेशिया में पाई जाती है।
पी. मोलुरस हल्के रंग के अजगर होते हैं जिनका औसत वज़न 90 कि.ग्रा. तक होता है। ये पेड़ पर चढ़ने या पानी में तैरने में भी माहिर होते हैं। प्रजनन काल के दौरान ही ये जोड़े में दिखते हैं वरना इन्हें अकेले रहना ही पसन्द है।
होमियोस्टेसिस यानी समस्थिति
राजस्थान की सर्दियाँ और गर्मियाँ भीषण होती हैं। यहाँ साल के अधिकांश समय दिन और रात के तापमान में बहुत ज़्यादा अन्तर होता है। वातावरण का तापमान कैसा भी हो, मानव शरीर का तापमान 98.6°F या 37.0°C होता है। अपेक्षाकृत स्थिर या नियत आन्तरिक वातावरण को बनाए रखने की प्रवृत्ति को होमियोस्टेसिस (समस्थिति) कहते हैं। शरीर में अनेक ऐसे कारक हैं जिनकी मात्रा को नियत रखना बेहद आवश्यक होता है, उसमें से तापमान केवल एक कारक है। उदाहरण के लिए हमारे रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा, आयनों की सान्द्रता तथा pH का सामान्य होना कार्यिकी के लिए बेहद आवश्यक है। सामान्य क्रिया-कलापों के दौरान भी शरीर में स्थिति बदलती रहती है। जब हम सामान्य भोजन भी करते हैं तो पाचन के पश्चात् कार्बोहाइड्रेट सरल शर्करा में बदलकर रक्त वाहिनियों में पहुँचकर रक्त में शर्करा की सान्द्रता को बढ़ा देते हैं। इसी प्रकार व्यायाम करने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है। इन बदलावों से वापिस स्थिर स्थिति में आने के लिए आम तौर पर शरीर नकारात्मक प्रतिक्रिया (नेगेटिव फीडबैक) लूप अपनाता है। अर्थात यह क्रिया प्रारम्भ करने वाली संवेदनाओं के विपरीत ही कार्य करता है। अगर आपके शरीर का तापमान जॉगिंग के दौरान बहुत अधिक हो जाता है तो नकारात्मक प्रतिक्रिया लूप द्वारा शरीर का तापमान 98.6°F या 37.0°C की ओर नीचे लाने का प्रयास किया जाता है।
कैसे रखते हैं तापमान सामान्य?
यह जानने के लिए हमें मानव शरीर की ताप नियमन की कार्यिकी को समझना पड़ेगा। सबसे पहले उच्च तापमान का पता शरीर के सेंसर्स द्वारा लगाया जाता है, जो मुख्य रूप से त्वचा पर पाई जाने वाली संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। इनमें संवेदनाओं को ग्रहण करने के लिए मस्तिष्क से तंत्रिकाएँ आती हैं। तंत्रिकाओं से मस्तिष्क में स्थित तापमान नियामक नियंत्रण केन्द्र (हाइपोथेलेमस) को सन्देश भेजा जाता है जो शरीर का तापमान नीचे गिराने के लिए त्वचा की रक्त वाहिनियों को फैला देता है तथा पसीने को निकालता है।
इसके विपरीत जब ठण्डे मौसम में आप गर्म कपड़ों के बगैर निकलते हैं, तो मस्तिष्क में तापमान केन्द्र (हाइपोथेलेमस) को उन प्रतिक्रियाओं को प्रारम्भ करना पड़ता है जो शरीर को गर्म रख सकें। ऐसी परिस्थितियों में आपके रोंगटे (बाल) खड़े हो जाते हैं जिससे हवा को बालों के बीच कैद करके, त्वचा की गर्मी को बाहर निकलने से बचाया जा सके। इसी प्रक्रिया में त्वचा में रक्त का प्रवाह भी कम हो जाता है। ठण्ड में काँपना भी मांसपेशियों द्वारा अधिक गर्मी पैदा कर शरीर के तापमान को बढ़ाने का एक तरीका है।
मनुष्यों के समान सभी जन्तु अपने शरीर के तापमान को एक सीमा तक सीमित नहीं रख सकते हैं। फिर भी प्रत्येक जन्तु को वातावरण में बदलाव के अनुसार शरीर के तापमान को कुछ हद तक नियंत्रित करना ही पड़ता है, नहीं तो बेहद ठण्ड के दौरान शरीर का पानी बर्फ में बदल जाएगा या बेहद ज़्यादा गर्मी से एंज़ाइम नष्ट होकर कार्यिकी को बिगाड़ देंगे।
जन्तु अपने शरीर के तापमान को कैसे नियंत्रित रखते हैं, के आधार पर उन्हें मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है - एण्डोथर्म (होमियोथर्म) और एक्टोथर्म (पाइकिलोथर्म)।
मनुष्य, शेर-चीते, ध्रुवीय भालू, पेंगुइन, चील-कौए मतलब सभी स्तनधारी एवं पक्षी एण्डोथर्मी होते हैं। ये सभी अपने शरीर का तापमान एक जैसा बरकरार रखने के लिए शरीर की आन्तरिक व्यवस्था पर निर्भर रहते हैं। ये ठण्ड के दिनों में शरीर का तापमान नियत बनाए रखने तथा शरीर में गर्मी की क्षति-पूर्ति के लिए चयापचय से गर्मी उत्पन्न करते हैं। इसलिए एक एण्डोथर्म जन्तु के शरीर का तापमान, पर्यावरण के तापमान से स्वतंत्र या काफी हद तक अप्रभावित रहता है। एक सामान्य नियम के रूप में यह भी ध्यान रखें कि एक्टोथर्म की तुलना में एण्डोथर्म में चयापचय की दर हमेशा ज़्यादा होती है। इन्हें शरीर का तापमान एक जैसा बनाए रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है, बाहर का तापमान कम हो या ज़्यादा, इसलिए उन्हें हमेशा भोजन खोजते देखा जा सकता है।
इसके विपरीत अजगर, छिपकली (सरीसृप), मेंढ़क (उभयचर), मछलियाँ और अकशेरुकी जन्तु एक्टोथर्म होते हैं। इनके शरीर का तापमान मुख्यतः बाहरी ताप स्रोतों (सूर्य का प्रकाश) पर निर्भर करता है। जब भी वातावरण का तापमान बढ़ता या घटता है, इनके शरीर के तापमान में भी वैसे ही बदलाव आते हैं। ऐसा नहीं है कि एक्टोथर्म चयापचय से गर्मी उत्पन्न नहीं करते हैं, परन्तु विशिष्ट आन्तरिक तापमान बनाए रखने के लिए एक्टोथर्म गर्मी के उत्पादन को बढ़ा नहीं सकते हैं। चूँकि वे शरीर से ज़्यादा गर्मी उत्पन्न नहीं कर सकते इसलिए आदतन उनके व्यवहार में धूप सेंकना या छांव, पानी या बिलों में चले जाना आदि शुमार होता है।
विषम परिस्थितियों में रहने वाली कुछ जन्तुओं की प्रजातियों ने एण्डोथर्म और एक्टोथर्म के बीच की विभाजन रेखा को धुँधला कर दिया है। शीत निद्रा (हाइबरनेट) करने वाले ध्रुवीय भालू जब सक्रिय बने रहते हैं तो एण्डोथर्मिक होते हैं, किन्तु जब वे शीत निद्रा में जाते हैं तो एक्टोथर्म से मिलते-जुलते व्यवहार को प्रदर्शित करते हैं।
ज़रूरी है शरीर का तापमान बनाए रखना
अधिकांश जन्तुओं के लिए एक सीमा तक ही तापमान में बदलाव सहने योग्य होता है। एक ओर बेहद ठण्डे प्रदेशों में 32°F या 0°C तापमान पर पानी जमकर बर्फ बन जाता है तो कोशिका के अन्दर बर्फ जमने पर सामान्य तौर पर कोशिका झिल्ली नष्ट हो जाती है। दूसरी ओर जब शरीर का तापमान 104°F या 40°C पर पहुँचता है तो कोशिका में पाए जाने वाले प्रोटीन एवं एंज़ाइम की संरचना में विकृति आ जाती है। वे सामान्य कार्य नहीं कर पाते हैं। एण्डोथर्मल जन्तुओं और मानव में तो शरीर का तापमान एक बेहद संकीर्ण दायरे में ही बना रहता है।
धूप सेंकना कई जन्तुओं में आराम करने की बजाय, एक बेहद आवश्यक व्यवहार है जो उनकी सामान्य कार्यिकी को बनाए रखता है। विशेष तौर पर ज़मीन पर पाए जाने वाले सरीसृपों में धूप सेंकना बेहद ठण्डे वातावरण में खुद को बचाने का तरीका है क्योंकि वे हमारे समान अपने शरीर का तापमान नियत करने में असमर्थ होते हैं।
तबाही में अजगरों की भूमिका
अमेरिका के फ्लोरिडा में दक्षिणी छोर पर विशालकाय दलदली भूमि पर एवरग्लेड्स नेशनल पार्क स्थित है। दलदली भूमि सैकड़ों प्रकार के जीव-जन्तुओं का ठोर-ठिकाना है। इनमें से कुछ जन्तु प्रजातियाँ तो स्थानीय हैं और केवल एवरग्लेड्स में ही पाई जाती हैं। बर्मिस पायथन बड़ी संख्या में फ्लोरिडा (अमेरिका) के एवरग्लेड्स नेशनल पार्क में भी पाए जाते हैं। पिछले 40 वर्षों में एवरग्लेड्स में बर्मिस अजगर ने तबाही मचा रखी है। बाह्य प्रजाति (इन्वेज़िव स्पिशीज़) होने के बावजूद बर्मिस पायथन को एवरग्लेड्स बहुत रास आया है और मार्श रेबिट, रेकून्स, ओपोस्सम जैसे छोटे स्तनधारी जन्तु लगभग दिखना बन्द हो गए हैं क्योंकि अजगरों ने 90-99 प्रतिशत आबादी को अपना आहार बना लिया है। ऐसा माना जाता है कि विदेशी पालतू जन्तुओं का व्यापार करने वालों ने दक्षिण-पूर्व एशिया से बर्मिस पायथन को मँगाया होगा और फ्लोरिडा में बेच दिया होगा। इनमें से कुछ ने इन्हें एवरग्लेड्स नेशनल पार्क में छोड़ दिया होगा। अब ये अजगर नेशनल पार्क में बहुत फल-फूल रहे हैं और वहाँ के स्थानीय छोटे स्तनधारियों की आबादी को सफाचट करके ईकोतंत्र को तबाह कर रहे हैं।
सन् 2009 दिसम्बर से जनवरी 2010 के बीच एवरग्लेड्स में कड़ाके की और लम्बी अवधि तक ठण्ड पड़ी। उसी दौरान अजगरों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि दक्षिण एशिया के बर्मिस अजगर जो आम तौर पर गर्म मौसम के अनुकूल होते हैं, वे एवरग्लेड्स में दिसम्बर एवं जनवरी के दौरान 0°C के तापमान पर भी ज़िन्दा रह जाते हैं। ये 16°C से कम तापमान पर पाचन बन्द कर देते हैं और तापमान जैसे ही 0°C के नीचे जाता है तो मर जाते हैं। ठण्ड में फ्लोरिडा का औसत तापमान 12°C हो जाता है और अजगर धूप सेंकने के लिए बिलों से बाहर आ जाते हैं जैसा कि वे दक्षिण एशियाई देशों में आदतन करते हैं। परन्तु तेज़ बहती ठण्डी हवा में तापमान तेज़ी-से गिरता है और इस वजह से ठण्ड की चपेट में आकर 2010 में अनेक अजगर मारे गए। जो बच गए थे, उन्होंने पेशियों में कम्पन और घर्षण द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करके स्वयं एवं अण्डों को वैसे ही बचाया जैसे हम ठण्ड में अक्सर हाथ रगड़कर गर्मी उत्पन्न करते हैं। अनेक अजगर जिन्होंने गहरे बिलों में गर्मी वाले स्थानों को खोज लिया, वे बच गए और ठण्ड के जाते ही फिर से दलदली भूमि पर राज करने लगे। 2013 में रेडियो ट्रान्समिटर लगाकर छोड़े गए मार्श रेबिट का समूह एक वर्ष बाद घटकर 33 प्रतिशत ही रह गया जो यह दर्शाता है कि 2010 के प्रकोप के बाद अजगरों की संख्या में फिर से वृद्धि हो गई थी।
अजगर से सीखें बहुत कुछ
“अजगर करे न चाकरी” कहकर हमने अजगरों को बदनाम कर दिया है। जहाँ शेर-चीते अचानक हमला करके या तेज़ी-से पीछा करके शिकार दबोच लेते हैं, अजगर की रणनीति वातावरण में छुपकर बैठने और इन्तज़ार करके शिकार को अपने पास आने पर दबोचने की होती है। किन्तु वैज्ञानिक अजगर की जिस खूबी पर फिदा हैं, वह है अंगों को फिर से बना सकने की क्षमता। अक्सर अजगरों को महीनों तक भूखा रहना पड़ता है। फिर अचानक शिकार मिल जाता है और अजगर ऐसे मौके को हाथ से जाने नहीं देते। वे अपनी मज़बूत पेशियों से शिकार का दम घोंट देते हैं और अपने मुँह के आकार से भी बड़े जन्तु को निगल जाते हैं।
शिकार मिलने के पूर्व भूखे अजगर की आँत सिकुड़कर खाली पाईप के समान हो जाती है। शिकार मिलते ही अजगर के अंगों को नया जीवन मिलता है और विस्फोटक गति से अंगों का पुनर्निर्माण होता है। एक ही दिन के अन्दर आँत की दीवारें मोटी हो जाती हैं तथा पाचन रस बनाने की ग्रन्थियाँ कार्यरत हो जाती हैं। पचे भोजने के अवशोषण के लिए आँत में बड़ी-बड़ी विलाई (चुन्नटें) दिखने लगती हैं। यकृत, अग्नाशय, हृदय और गुर्दे आकार में डेढ़ गुना होकर कार्य करने लगते हैं। फिर खाने के चार दिनों के भीतर ही पुनः भूख के दौर जैसे हालात बनने लगते हैं, और दो सप्ताह में ही वे अंग फिर से सिकुड़ जाते हैं। वैज्ञानिकों ने पाया है कि जब भोजन प्राप्त होने पर अजगर की गतिविधियाँ नाटकीय रूप से बढ़ जाती हैं तो सभी तंत्र में जीन की सक्रियता भी बेहद तेज़ हो जाती है।
खाना मिलने व खाने के दौरान वैज्ञानिकों ने अजगर के अंगों की क्रियात्मकता का तुलनात्मक अध्ययन किया। अनेक प्रकार के जीन अंगों की वृद्धि करने के लिए उत्तरदायी पाए गए। कुछ वैज्ञानिकों की दिलचस्पी उन जीन्स में थी जो अक्सर तनाव के समय कोशिका की रक्षा करते हैं। इन जीन्स को पहले केवल कैंसर और बुढ़ापे से जोड़कर देखा जाता था। तनाव के समय सक्रिय जीन को बन्द करके तथा अंगों की वृद्धि करने वाले जीन्स को चालू रखने पर अंगों को फिर से सिकुड़ने वाली प्रक्रिया में जाते देखा गया है। वैज्ञानिकों को लगता है कि उन्हें इस प्रक्रिया को समझकर कशेरुकियों में अंगों के पुनर्जन्म और निर्माण प्रारम्भ करने का स्विच मिल गया है।
अब प्रश्न उठता है कि इतने बड़े परिवर्तन को नियंत्रित कौन करता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि अजगर के रक्त में वह शक्ति है जो अंगों को पुनःनिर्माण करने पर मजबूर कर देती है। शिकार निगलने के तुरन्त बाद अजगर के रक्त से निकाले गए पानी जैसे रंगहीन प्लाज़्मा को पृथक कर प्रयोगशाला में सम्वर्धन के लिए रखी गई चूहे की कोशिकाओं को दिया जाता है तो वे भी अचानक वृद्धि करने लगती हैं। चूहे की कोशिकाओं में भी वही जीन वृद्धि के लिए उत्तरदायी पाए गए हैं जो साँपों में पाए जाते हैं। वृद्धि का सन्देश कोई भी दे रहा हो, अजगर एवं स्तनधारियों में असर एक जैसे ही प्रतीत होते हैं। अंगों की वृद्धि करने से शायद हमें कोई फायदा न हो परन्तु जीन्स कैसे वृद्धि को पुनः रोकते हैं, यह कैंसर की वृद्धि को रोकने का तरीका हो सकता है। भोजन करने के बाद हमारी कार्यिकी में क्या परिवर्तन होता है, यह अजगरों से बेहतर समझा जा सकता है और इससे मधुमेह और मोटापे का इलाज खोजा जा सकता है।
सरीसृपों का जीवन-इतिहास और उनके तौर तरीके परिवेश के तापमान में उतार-चढ़ाव से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिए विकसित हुए हैं। कई सरीसृप प्रजातियों में प्रजनन गतिविधि गर्म मौसम में सम्पन्न होती है क्योंकि ज़्यादा तापमान सन्तति के विकास में सुविधा देता है। इनके अण्डे देने के स्थान का तापमान सन्तति के शरीर के आकार, संरचना, गति और सीखने की क्षमता को निर्धारित करता है। जब मादा सरीसृप अण्डे देती हैं तो वे इस बात का ध्यान रखती हैं कि बच्चों को उपयुक्त तापमान उपलब्ध हो। एक व्यापक जलवायु वाले क्षेत्र में रहने वाले सरीसृप घोंसले की गहराई में परिवर्तन करके, घोंसले के ऊपर धूप और छाया बहुत ही चतुराई से नियंत्रित करते हैं जिससे तापमान एक जैसा बना रहे। तापमान में अप्रत्याशित बदलाव नवजात बच्चों में महत्वपूर्ण परिवर्तन ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक गर्म घोंसले में अण्डों से बच्चे जल्दी निकलेंगे, वे ज़्यादा चंचल होंगे व जल्दी-से वृद्धि करेंगे जबकी एक ठण्डे घोंसले में छोटी, धीमी व कमज़ोर सन्तान पैदा होंगी। तापमान में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव की स्थितियों के कारण कछुओं और मगरमच्छों में एक और अनुकूलन हुआ है, तापमान आधारित लिंग निर्धारण।
आधुनिक सरीसृप करोड़ों वर्षों के परिणाम हैं। भरतपुर में जब भीषण गर्मी पड़ती है तो वेटलैण्ड पूरी तरह से सूख जाता है, फिर भी अजगर बच जाते हैं। वैश्विक गर्माहट, आवास का नष्ट होना और प्रदूषण के कारण जैव-विविधता तेज़ी-से घट रही है। आशा है कि इस सबके बावजूद अजगर अपना अस्तित्व बरकरार रख पाएँगे।
विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाश्म का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाश्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने उनके सम्मान में इस प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। प्राणीशास्त्र में पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर। वे विज्ञान पर आधारित फिल्मों के लेखक, निर्माता और निदेशक भी हैं। वर्ष 2018 व 2019 में भारत सरकार द्वारा आयोजित इनकी फिल्मों ‘प्रिडेटिंग द प्रिडेटर’ तथा ‘वॉन्टेड ब्राइड’ को क्रमश: आठवें और नवें नेशनल साइंस फिल्म फेस्टीवल ऑफ इंडिया में ‘गोल्डन बीवर अवॉर्ड’ से नवाज़ा गया है।