उमा सुधीर

मुझे हमेशा से अपने वैज्ञानिक मिज़ाज पर गर्व रहा है - मैं हर चीज़ पर सवाल उठाती हूँ, और किसी कथन को स्वीकार करने से पहले खुद आज़माकर देखना चाहती हूँ। और जिन चीज़ों को मैं अन्य लोगों के अन्धविश्वास मानती हूँ, उन्हें मैं काफी बेरहमी से खारिज करती हूँ। मुझे हाल ही में इस बात ने चौंका दिया कि खुद मेरे अन्धविश्वास हैं और कई ऐसे विश्वास हैं जिन पर मैं कभी सवाल नहीं उठाती। कहते हैं न, गर्व को हमेशा गर्त मिलता है!

तो वे कौन-सी चीज़ें हैं जिन पर मैं सवाल नहीं उठाती, बल्कि आँख मूँदकर उन्हें मानती हूँ? जो लोग मुझे जानते हैं, उन्हें तो ये बातें पता ही होंगी - मैं वैज्ञानिक सिद्धान्तों और नियमों को लगभग आस्था की तरह स्वीकार करती हूँ। थोड़ा विस्तार से बताती हूँ। मुझे लगता है कि मुझे वैज्ञानिक ज्ञान की सीमाएँ पता हैं। मैं मापन के दौरान होने वाली त्रुटियों के प्रति भी जागरूक हूँ और जानती हूँ कि वैज्ञानिक ज्ञान अस्थायी (आज़माइशी) होता है। लेकिन मैं शिद्दत-से महसूस करती हूँ कि वैज्ञानिक ज्ञान की आज जो भी अवस्था हो, वह फिलहाल हमारे पास किसी भी प्राकृतिक परिघटना की सर्वोत्तम व्याख्या होती है। अलबत्ता, हो सकता है कि कल उसका स्थान कोई बेहतर व्याख्या ले ले।

किन्तु कुछ माह पहले मुझे यह जानने का मौका मिला कि गलत व्याख्या भी नए ज्ञान को जन्म दे सकती है और मैं इस तरह की खोजबीन से कटी रही थी क्योंकि कई चीज़ें ऐसी थीं जिनकी जाँच के बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं था। खैर, कम-से-कम एक क्षेत्र में मुझे समझ में आ गया है कि मेरी खोजबीन कितनी सतही थी, और मैं नहीं जानती कि कितनी अन्य चीज़ों से मैं अनभिज्ञ हूँ।
बात प्रतिबिम्ब निर्माण की है। और मैं चाहती हूँ कि मेरे पाठक यह समझ पाएँ कि चल क्या रहा है। इसलिए पहले मैं सरल चीज़ों से शुरू करूँगी। हो सकता है कि जो लोग इन बातों से परिचित हैं, उन्हें थोड़ी बोरियत महसूस हो लेकिन मेरा दावा है कि लेख के अन्त तक जानकार लोगों को भी कुछ नया सीखने को मिलेगा।

चित्र-1: प्रकाश का नियमित व अनियमित परावर्तन - मान लीजिए प्रकाश की कई समान्तर किरणें किसी दर्पण या चिकनी धातुई सतह पर पड़ती हैं तो ज़्यादातर किरणें परावर्तन का एक निश्चित पैटर्न दिखाती हुई परावर्तित होती हैं जिसकी वजह से स्पष्ट बिम्ब बनता है। दर्पण के विपरीत किसी दीवार-फर्श की चिकनी व समतल दिखाई देने वाली सतह से टकराने वाली किरणें भी परावर्तन के नियमों के मुताबिक व्यवहार करती हैं लेकिन काफी सारी किरणें अलग-अलग दिशाओं में बिखर जाती हैं। इसलिए इस सतह से किसी तरह का स्पष्ट बिम्ब नहीं बन पाता। यहाँ दिखाए दोनों चित्रों में काले तीर वाली रेखाएँ आपतित किरणों और धूसर तीर वाली रेखाएँ परावर्तित किरणों को दर्शा रही हैं। बिना तीर वाली धूसर रेखाएँ अभिलम्ब प्रदर्शित करती हैं।

 

वस्तु दर्पण में कैसे दिखती है?
कोई वस्तु या तो स्वयं प्रकाश उत्सर्जित करती है या वह उस पर पड़ने वाले प्रकाश को परावर्तित कर देती है। हालाँकि, हम प्रकाश के व्यवहार को समझने के लिए कुछ ही किरणों का सहारा लेते हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वस्तु से निकला प्रकाश कई दिशाओं में फैलता है। यदि इस वस्तु से उत्सर्जित अथवा परावर्तित प्रकाश हमारी आँखों तक पहुँचता है तो वह वस्तु हमें दिखाई देगी (बशर्ते कि हम ध्यान दे रहे हों)।

चित्र-2: परावर्तन के नियमों की पड़ताल -  आम तौर पर माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी दो दर्पण के टुकड़ों और पेंसिल-स्केल की मदद से किए जाने वाले प्रयोग से परावर्तन, अभिलम्ब आदि समझते हैं। एक दर्पण पट्टी पर कागज़ लपेटकर एक पतली झिर्री से प्रकाश की लकीर या ‘किरण' दूसरे दर्पण पर डालते हैं। और इस ‘किरण' के परावर्तन को देखते हैं। थोड़ा अभ्यास होने पर आपतन कोण व परावर्तन कोण को भी माप लेते हैं। खास बात यह है कि इस दौरान बच्चे दोनों दर्पण को थोड़ा हिला-डुलाकर क्या होता है, यह भी जानने की कोशिश करते हैं। जिसकी वजह से परावर्तित किरण में आने वाले बदलाव को भी देख पाते हैं। 

जब हम वस्तुओं को दर्पण में देखते हैं, तब क्या होता है? वस्तु से उत्सर्जित या परावर्तित प्रकाश किरणों को दर्पण द्वारा परावर्तित होकर हमारी आँखों तक पहुँचना चाहिए। पहले देखते हैं कि समतल दर्पण में यह कैसे होता है और फिर अन्य स्थितियों पर विचार करेंगे। समतल दर्पण उस पर पड़ने वाले अधिकांश प्रकाश को परावर्तित कर देता है। और इस पर पड़ने वाली समान्तर किरणें परावर्तन के बाद भी समान्तर रहेंगी। (परावर्तन के नियम याद कीजिए  - नियम नं. 1 आपतित किरण अभिलम्ब के साथ जितना कोण बनाती है, परावर्तित किरण भी अभिलम्ब के साथ उतना ही कोण बनाएगी। नियम नं. 2 आपतित किरण, अभिलम्ब और परावर्तित किरण एक ही तल में होते हैं। दर्पण की सतह के किसी भी बिन्दु पर लम्बवत रेखा को उस बिन्दु पर अभिलम्ब कहते हैं। बॉक्स 1 भी देखिए।)

बॉक्स-1: किरणें, अभिलम्ब व तल
एक ही तल में होने का मतलब यह है कि दर्पण के किसी भी बिन्दु पर आपतित किरण और अभिलम्ब मिलकर एक तल को परिभाषित करते हैं और परावर्तित किरण भी इसी तल में रहेगी। यदि हम दर्पण को थोड़ा घुमा दें तो अभिलम्ब की दिशा बदल जाएगी। अब यदि आपतित किरण वही रखें, तो आपतित किरण और अभिलम्ब मिलकर एक नया तल बनाएँगे। परावर्तित किरण को इस नए तल में आगे बढ़ना होगा। इस वजह से परावर्तित किरण एक अलग रास्ते पर जाएगी।

तो फिर हमें वस्तु दर्पण में कैसे दिखती है? इस वस्तु पर कोई एक बिन्दु ले लीजिए। प्रकाश की किरणें इस बिन्दु से कई दिशाओं में निकलेंगी। (यदि वह वस्तु प्रकाश का स्रोत नहीं है, तो उसके हर बिन्दु पर पड़ने वाला प्रकाश कई दिशाओं में परावर्तित होगा)। इनमें से कुछ किरणें दर्पण से टकराएँगी और परावर्तित हो जाएँगी। और इन परावर्तित किरणों में से कुछ हमारी आँखों तक पहुँचेंगी। यदि उपरोक्त नियमों के अनुसार इन किरणों के मार्ग का चित्र बनाएँ तो आप देख ही सकते हैं कि ये परावर्तित किरणें एक-दूसरे से दूर जा रही हैं या अपसारी हैं - हमारा दिमाग यह व्याख्या कर लेता है कि ये किरणें दर्पण के पीछे किसी बिन्दु से आ रही हैं। इसीलिए हमें वस्तु दर्पण में दिखती है।

लगता तो ऐसा है कि वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण की सतह के ‘पीछे’ है, हम जानते हैं कि दर्पण के ‘अन्दर’ कोई जगह नहीं है कि हमें वह सारी गहराई दिखे जो हमें प्रतीत होती है। तो इसे आभासी प्रतिबिम्ब कहते हैं। यह प्रतिबिम्ब वस्तु की साइज़ का ही होता है, अर्थात यदि हम वस्तु को दर्पण के नज़दीक रखें तो उसका प्रतिबिम्ब उस स्थिति के मुकाबले बड़ा होगा जब वस्तु को दर्पण से दूर रखा जाएगा।

अवतल दर्पण से बनते प्रतिबिम्ब
जब हम अवतल दर्पण में देखते हैं तो क्या होता है? अवतल दर्पण की कल्पना एक खोखले गोले के हिस्से के रूप में की जा सकती है, जिसकी बाहरी सतह पर चांदी का पानी चढ़ाया गया हो। इसी वजह से हम खुद को इसकी अन्दर वाली चमकीली सतह में देखते हैं। लेकिन जब हम खुद को साधारण रूप से उपलब्ध किसी अवतल दर्पण में देखते हैं तो हमें जो प्रतिबिम्ब दिखता है, वह हमारे चेहरे की तुलना में बड़ा होता है। इसलिए ऐसे दर्पणों का उपयोग शेविंग मिरर या मेक-अप मिरर के रूप में किया जाता है। लेकिन वस्तु की तुलना में बड़ा प्रतिबिम्ब तभी दिखता है जब हम या वस्तु अवतल दर्पण के काफी पास में हों। ऐसा क्यों है कि इनमें कभी-कभी बड़ा प्रतिबिम्ब बनता है? यदि किरण-पथ चित्र  बनाएँ, तो देखेंगे कि वक्राकार सतह परावर्तित किरणों को थोड़ा अलग ढंग से मोड़ती है। हमारी आँखों और दिमाग की युगलबन्दी एक बार फिर यह व्याख्या कर लेती है कि ये किरणें दर्पण के पीछे कहीं से आ रही हैं। लेकिन इस बार हमें वस्तु उसकी वास्तविक साइज़ से बड़ी दिखाई पड़ती है। अलबत्ता, अभी भी प्रतिबिम्ब दर्पण के ‘अन्दर’ ही कहीं है। यानी इस बार भी हम जो देख रहे हैं, वह आभासी प्रतिबिम्ब है।

चित्र-3: समतल दर्पण एक आभासी छवि बनाता है जो सरसरी तौर पर ऐसी प्रतीत होती है मानो दर्पण के भीतर कहीं मौजूद हो। यहाँ दिए चित्र में एक वस्तु (पेंसिल का सिरा) से निकलने वाली किरणों से इस बात को समझाने की कोशिश की जा रही है। वस्तु से निकलने वाली किरणें दर्पण की चमकीली सतह से टकराकर परावर्तित हो रही हैं। चमकीली सतह पर अभिलम्ब, आपतित किरण व परावर्तित किरणों को रेखांकित किया गया है। परावर्तित किरणों को यदि पीछे बढ़ाया जाए तो वे किसी एक बिन्दु पर जाकर मिल रही हैं। यही वह जगह है जहाँ हमें प्रतीत होता है कि उस बिन्दु का प्रतिबिम्ब हम देख रहे हैं।   

अब यदि हम इस दर्पण को दूर, और दूर ले जाएँ, तो एक अवस्था ऐसा आएगी कि हम एक साफ प्रतिबिम्ब पहचान पाने में असमर्थ रहेंगे। यदि दर्पण को और दूर ले जाएँ, तो अचानक हम खुद को दर्पण के अन्दर उल्टा देखने लगते हैं। और यह प्रतिबिम्ब वस्तु से छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। न सिर्फ यह प्रतिबिम्ब उल्टा होता है, हम इसे एक पर्दे पर भी प्राप्त कर सकते हैं (अर्थात प्रतिबिम्ब अब दर्पण के अन्दर और पीछे नहीं है, हमें वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के बाहर भी मिल सकता है)। जब हम पर्दे को दर्पण से अलग-अलग दूरी पर रखते हैं, तो एक बिन्दु ऐसा आता है जहाँ वस्तु का पैना चमकदार प्रतिबिम्ब बनता है। यह प्रतिबिम्ब कितना बड़ा होगा, यह तो इस बात पर निर्भर है कि वस्तु को दर्पण से कितना दूर रखा गया है लेकिन यह हमेशा उल्टा ही होगा। हम पर्दे को दर्पण से दूर या पास ले जाएँगे तो प्रतिबिम्ब धुँधला पड़ जाएगा। ऐसा क्यों होता है और उससे भी पहले सवाल तो यह है कि दर्पण के बाहर प्रतिबिम्ब बनता कैसे है। इन दोनों बातों की व्याख्या सर्वव्यापी किरण-पथ चित्र बनाकर की जा सकती है (देखें बॉक्स 2)। यह प्रतिबिम्ब जो दर्पण के बाहर बनता है उसे वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते हैं। जैसा कि किरण-पथ चित्र से स्पष्ट है, वस्तु से आने वाली विभिन्न किरणें परावर्तन के बाद वास्तव में मिलती हैं जबकि आभासी प्रतिबिम्ब वहाँ बनता है जहाँ से ये किरणें आती हुई प्रतीत होती हैं।

बॉक्स-2: किरण रेखा-चित्र बनाने की सहूलियत के लिए

वैसे तो हर आपतित किरण के लिए परावर्तित किरण बनाने के लिए हम आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब बनाकर अभिलम्ब से उतने ही कोण पर दूसरी ओर परावर्तित किरण बना सकते हैं। लेकिन गोलाकार दर्पणों के मामले में विभिन्न किरणों के लिए कुछ आसान-से नियमों का पालन करना सुविधाजनक है।
नियम 1: मुख्य अक्ष के समान्तर आ रही किरण परावर्तित होकर फोकस बिन्दु से गुज़रती है।
नियम 2: फोकस बिन्दु से आ रही किरण परावर्तन के बाद मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती है।
नियम 3: वक्रता केन्द्र से आने वाली किरण परावर्तित होकर उसी रास्ते लौट जाती है।

अब ज़रा उत्तल दर्पण पर विचार करें। इन दर्पणों का उपयोग आम तौर पर वाहनों में रीयर-व्यू मिरर के रूप में किया जाता है। इनमें आपको हमेशा आभासी व सीधा प्रतिबिम्ब मिलेगा, चाहे वस्तु को दर्पण से कितनी भी दूरी पर रखें। और प्रतिबिम्ब सदैव वस्तु से छोटा होता है। किरण-पथ चित्र से यह समझा जा सकता है कि क्यों प्रतिबिम्ब दर्पण के अन्दर बनता है (यानी आभासी प्रतिबिम्ब होता है) और क्यों वह वस्तु से छोटा होता है (समतल दर्पण के समान बराबर साइज़ का नहीं होता)।

चित्र-4: अवतल दर्पण में प्रतिबिम्ब बनाकर देखने के लिए किसी वस्तु को दर्पण से अलग-अलग दूरी पर रखकर, बनने वाला प्रतिबिम्ब आकार में छोटा है या बड़ा, सीधा है या उल्टा है जैसी बातों को समझ सकते हैं। किरणों के पथ बनाने से बिम्ब की प्रकृति की समझ पुख्ता होती जाती है और बिम्ब की व्याख्या करना आसान होता जाता है। यहाँ अवतल दर्पण व फोकस के बीच में मोमबत्ती को रखा गया है। दो किरणों की मदद से समझने की कोशिश करते हैं। मोमबत्ती की लौ से निकलने वाली किरण मुख्य अक्ष के समान्तर दर्पण से टकराकर, R1 के रूप में फोकस बिन्दु से गुज़रती हुई जाती है। और दूसरी किरण दर्पण से ऐसी जगह टकराती है कि परावर्तित होने के बाद उसी रास्ते लौटते हुए R3  के रूप में दर्पण के वक्रता केन्द्र से गुज़रती है।  अब किरण R1 और R3 को पीछे बढ़ाने से यह पता चलता है कि प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे से आता हुआ लगता है, आकार से बड़ा भी है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि यह आभासी प्रतिबिम्ब है।

 

चित्र-5: उत्तल दर्पण में बनने वाले प्रतिबिम्ब को समझने के लिए वस्तु को दर्पण से काफी दूर या अनन्त पर रखकर या दर्पण के वक्रता केन्द्र पर रखकर या दर्पण के काफी करीब रखकर बनने वाले बिम्ब के आकार आदि को देखा जा सकता है। यहाँ बतौर उदाहरण वस्तु को अनन्त पर रखकर किरणों के रेखाचित्र द्वारा बिम्ब कहाँ बन रहा है, यह समझने की कोशिश की जा रही है। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है कि वस्तु से आने वाली किरणें दर्पण के पीछे फोकस पर इकट्ठा हो रही प्रतीत होती हैं। यानी बिम्ब आभासी है। यदि वस्तु को दर्पण के करीब रखा जाए तब भी बिम्ब दर्पण के पीछे फोकस पर ही बनेगा। कहना न होगा कि बिम्ब सीधा और आभासी होगा।


इसी प्रकार से उभयोत्तल लेंस (जिसे मात्र उत्तल लेंस भी कहते हैं) द्वारा भी अपवर्तन के बाद वास्तविक प्रतिबिम्ब बनता है। दूसरी ओर उभय-अवतल लेंस (जिसे अवतल लेंस भी कहते हैं) से सिर्फ आभासी प्रतिबिम्ब बनते हैं। इन सब बातों को किरण-पथ चित्र बनाकर देखा जा सकता है और फिर सत्यापन किया जा सकता है (बॉक्स 3)।

चित्र-6: यहाँ उत्तल लेंस द्वारा विविध स्थितियों में बनने वाले प्रतिबिम्ब को समझने की कोशिश की गई है। स्थिति ‘क' में मोमबत्ती को लेंस के वक्रता केन्द्र से बाहर रखा गया है। किरणों के रेखाचित्र से दिखता है कि प्रतिबिम्ब किरणों के कटान बिन्दु पर छोटा व उल्टा प्राप्त होता है। स्थिति ‘ख'  में मोमबत्ती को लेंस व फोकस बिन्दु के बीच कहीं रखा है। किरणों की मदद से समझ आता है कि यहाँ दोनों आपतित किरणें एक-दूसरे से दूर जा रही हैं। यदि इन किरणों को पीछे की ओर बढ़ाया जाए तो किरणों के कटान बिन्दु पर प्रतिबिम्ब सीधा व बड़ा प्राप्त होगा। क्या आप बता सकेंगे कि इन दो स्थितियों में कहाँ आभासी प्रतिबिम्ब बन रहा है?


फोकस दूरी कैसे निकालें?
अवतल दर्पण और उभयोत्तल लेंस, दोनों के लिए, उनकी गोलाई के अनुसार एक दूरी होती है जहाँ बहुत दूरी से आने वाली प्रकाश किरणें फोकस हो जाती हैं। इस दूरी को दर्पण या लेंस की फोकस दूरी कहते हैं। बचपन में हम सबने लेंस के साथ खिलवाड़ किए हैं और कागज़ के टुकड़ों को आग लगाने की कोशिश भी की है। ऐसा करते हुए हम सूरज की किरणों को एक बहुत छोटे-से क्षेत्र में संकेन्द्रित कर देते हैं और जब सूर्य का प्रकाश और गर्मी एक छोटी-सी जगह में घनीभूत हो जाती है तो कागज़ अपने ज्वलन बिन्दु तक गर्म होकर आग पकड़ लेता है। यह क्रिया तब और भी जल्दी होती है यदि हम कागज़ पर एक पेंसिल रगड़कर उसे काला कर दें ताकि वह गर्मी को बेहतर सोख सके (चाहें तो कार्बन पेपर का इस्तेमाल भी कर सकते हैं)। यह दूरी जिस पर दूरस्थ वस्तुओं से आने वाला प्रकाश एक बिन्दु पर संकेन्द्रित हो जाता है, वह गोलाकार सतह की वक्रता त्रिज्या की आधी होती है। और अवतल दर्पण तथा उभयोत्तल लेंस, दोनों की फोकस दूरी इस आधार पर आसानी-से पता की जा सकती है कि किसी चमचमाते दिन  बाहर  के  दृश्य  का  स्पष्ट प्रतिबिम्ब कमरे के अन्दर दर्पण या लेंस से कितनी दूरी पर बनता है (यदि कमरे में अँधेरा होगा तो यह देखना आसान हो जाएगा कि प्रतिबिम्ब कब सबसे स्पष्ट है)।

बॉक्स-3: लेंस – किरण रेखाचित्र के शॉर्टकट

लेंस के किरण रेखाचित्र बनाने के नियम
1. लेंस के अक्ष के समान्तर आने वाली किरण अपवर्तन के बाद मुड़कर लेंस के फोकस बिन्दु से गुज़रेगी।
2. लेंस के फोकस बिन्दु से आने वाली किरण अपवर्तन के बाद अक्ष के समान्तर हो जाएगी।
3. वस्तु से निकलकर लेंस के केन्द्र से गुज़रने वाली किरण बगैर मुड़े लेंस के आर-पार निकल जाएगी।

चित्र-7: उभय-अवतल लेंस (जिसे अवतल लेंस भी कहते हैं), इसमें प्रतिबिम्ब बनने की एक स्थिति को दर्शाया गया है। मोमबत्ती को लेंस के वक्रता केन्द्र से बाहर रखा गया है। अभी हमने उत्तल लेंस के साथ भी इस स्थिति को देखा है। वही तर्क लगाकर क्या आप बता सकेंगे कि यहाँ किस तरह का प्रतिबिम्ब बन रहा है?

शिक्षक ने सुझाया नया तरीका
लेकिन उत्तल दर्पण और उभय-अवतल लेंस के मामले में इस विधि से फोकस दूरी पता नहीं की जा सकती क्योंकि इनमें वास्तविक प्रतिबिम्ब नहीं बनता। और तो और इनका फोकल बिन्दु भी वास्तविक नहीं, बल्कि आभासी ही होता है। और इसी सन्दर्भ में मैंने कुछ नया सीखा। मैं जानती थी कि उत्तल दर्पण और उभय-अवतल लेंस में वास्तविक प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। लिहाज़ा, मैंने कभी कोशिश भी नहीं की थी कि उस स्थान पर एक पर्दा रखूँ जहाँ प्रतिबिम्ब दिखता है और जाँच करूँ कि क्या वाकई वहाँ कोई वास्तविक प्रतिबिम्ब बना है।
लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र के आश्रमशाला शिक्षकों के साथ एक-दिवसीय कार्यशाला में मेरे एक साथी ने आकर बताया कि एक शिक्षक का कहना है कि उभय-अवतल लेंस की फोकस दूरी भी उसी तरीके से ज्ञात की जा सकती है - फर्क सिर्फ इतना होता है कि प्रतिबिम्ब उसी तरफ बनता है जिस तरफ वस्तु रखी गई है। यह बात रेखाचित्र में दिखाई गई है। तो यदि आप पर्दा उसी तरफ रखें जिधर वस्तु है (इस मामले में वस्तु बाहर का नज़ारा था) तो आपको पर्दे पर प्रतिबिम्ब प्राप्त होगा, और प्रतिबिम्ब व लेंस के बीच की दूरी उभय-अवतल लेंस की फोकस दूरी होगी।

बॉक्स-4: काँच – कुछ अपवर्तन और कुछ परावर्तन

सामान्यत: हम मानते हैं कि काँच पारदर्शी होता है। अर्थात इसकी सतह पर पड़ने वाला सारा प्रकाश इसमें से होकर आर-पार निकल जाता है (अपवर्तन अवश्य होता है)। लेकिन तथ्य यह है कि काँच की सतह से भी प्रकाश का कुछ हिस्सा परावर्तित हो जाता है। यह बात तब स्पष्ट सामने आती है जब हम काँच में से बाहर देखने की कोशिश करें और बाहर अँधेरा हो। तब हमें बाहर का दृश्य दिखने की बजाय कमरे का और खुद का प्रतिबिम्ब नज़र आता है, जो परावर्तन के कारण बना है। दिन के समय बाहर से इतना अधिक प्रकाश अन्दर आता है कि परावर्तित होकर लौटने वाला यह प्रकाश उसकी तुलना में नगण्य होता है। लेकिन वस्तुत: पानी या काँच जैसे किसी भी ‘पारदर्शी’ पदार्थ की सतह से थोड़ा-बहुत परावर्तन तो होता ही है।


मैंने मानने से इन्कार कर दिया कि ऐसा कोई प्रतिबिम्ब बना होगा। मैंने कहा कि सिद्धान्त के अनुसार भी ऐसा होना असम्भव है। लेकिन मुझे यकीन दिलाया गया कि पर्दे पर प्रतिबिम्ब वास्तव में बना था जबकि पर्दे को उसी बाजू रखा गया था जिस तरफ वस्तु थी। खैर, मेरे लिए इस बात की जाँच करना ज़रूरी था। तो मैं एक उभय-अवतल लेंस और एक पर्दा (सफेद कागज़ का एक ताव) लेकर दरवाज़े पर पहुँची और कागज़ को लेंस के उसी तरफ रखा जिस तरफ सूरज था। मैं स्पष्ट कहूँगी कि मुझे कुछ भी दिखने की उम्मीद नहीं थी। और इसलिए जब पर्दे पर वास्तव में एक धुँधला-सा प्रतिबिम्ब - सूरज और पेड़ व उसकी शाखाओं की एक धुँधली-सी आकृति, जिसमें से रोशनी छनकर आ रही थी - नज़र आया तो चौंकने की बारी मेरी थी।

चित्र-8: अवतल लेंस की फोकस दूरी नए तरीके से। आम तौर पर काफी कम लोग इस बात पर विचार करते हैं कि काँच की बाहरी सतह प्रकाश के कुछ हिस्से को परावर्तित भी करती है। यहाँ सिर्फ समझ के लिए अवतल लेंस का चित्र दिया गया है जिसकी एक वक्र आउटलाइन मोटी काली लाइन है। हम ऐसा मान लेंगे कि ये मोटी काली वक्र लाइन वाली सतह प्रकाश का परावर्तन कर रही है। तो यह एक किस्म से अवतल दर्पण जैसा व्यवहार कर रहा होगा। मान लीजिए अनन्त पर रखी वस्तु से चलने वाली दो किरणें मुख्य अक्ष के समान्तर आती हुई लेंस की मोटी वक्र रेखा से टकराकर परावर्तित होकर फोकस से गुज़रती हैं। यदि इस बिन्दु के पास सफेद कागज़ रखा जाए तो वस्तु का धुँधला प्रतिबिम्ब दिखाई देगा। लेंस से इस बिन्दु की दूरी को मालूम कर लें तो ये दूरी लेंस की फोकस दूरी के बराबर होगी।

इससे पहले कि मैं इस चमत्कार को पचा पाती (नियमों से हटकर कुछ हो रहा था, तो चमत्कार ही कहा जाएगा), मेरी नज़र लेंस पर पड़ी (शायद मैं तसल्ली कर लेना चाहती थी कि लेंस वास्तव में उभय-अवतल है) और मैंने देखा कि मेरा प्रतिबिम्ब मुझे घूर रहा है। और फिर दुनिया एक बार फिर पैरों पर सीधी खड़ी हो गई। मुझे समझ में आया कि वह वास्तविक प्रतिबिम्ब उभय-अवतल लेंस से नहीं बना था बल्कि प्रकाश के उस अंश से बना था जो लेंस के काँच की सतह से परावर्तित हुआ था (आपको याद ही होगा कि प्रतिबिम्ब फीका था)। इसका अर्थ था कि काँच की वह सतह एक अवतल दर्पण की तरह व्यवहार कर रही थी।

फिर मुझे यह भी कौंधा कि शिक्षक का यह कहना सही था कि इस तरीके से लेंस की फोकस दूरी निकालना सम्भव है। हम चाहे लेंस को देखें या दर्पण को, वक्रता तो वही रहती है (लेंस की सतह थोड़े-से प्रकाश को परावर्तित कर देती है)। तो यह था अवतल लेंस की फोकस दूरी ज्ञात करने का निहायत दिलचस्प तरीका। और मुझे यह तरीका कभी पता न चला क्योंकि मैंने इस सिद्धान्त पर कभी सवाल नहीं किया कि अवतल लेंस से वास्तविक प्रतिबिम्ब नहीं बन सकता।


उमा सुधीर: एकलव्य के साथ जुड़ी हैं। विज्ञान शिक्षण के क्षेत्र में काम कर रही हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।