सुधीर श्रीवास्तव
आज स्कूल आते समय नंदा बहुत खुश थी। बात दरअसल यह थी कि वह पिछले कई दिनों से यह तय नहीं कर पा रही थी कि कक्षा-3 के बच्चों के साथ संख्याओं की अवधारणा पर काम कैसे किया जाए। यहाँ तक आते-आते बच्चों ने सौ तक की गिनती लिखना-पढ़ना और चीज़ें गिनना तो सीख लिया है, आसानी-से जोड़ने-घटाने के सवाल भी कर लेते हैं। हासिल और उधार के प्रश्न भी अभ्यास के कारण कर लेते हैं। एक तरह से बच्चों ने इन तरीकों को याद कर लिया है। लेकिन वह जानती थी कि बच्चों को यह पता नहीं है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं।
मन ही मन में कक्षा की तैयारी
वह चाहती थी कि बच्चे लिखी हुई संख्याओं को न केवल नाम से पहचानें बल्कि उनके अर्थ को भी समझें। वे समझें कि जिन अंकों की मदद से संख्या लिखी गई है, उनको वहाँ एक खास मतलब से लिखा गया है। एक ही अंक अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग अर्थ रखते हैं। ऐसी और भी बातें हैं। लेकिन यह किया कैसे जाए? इसी उधेड़बुन में कई दिन लग गए थे। आज सुबह उसे एकाएक उपाय सूझा, क्यों न बच्चों को उन परिस्थितियों में ले जाया जाए जिन परिस्थितियों में सम्भवतः पुराने लोगों ने संख्या पद्धति के बारे में सोचा होगा। हो सकता है वह अपनी कोशिश में सफल न हो लेकिन यह तो तय है कि बच्चों को कुछ सोचने का मौका मिल सकेगा। उसने अपने दिमाग में दो-तीन दिनों के काम का एक मोटा-मोटा खाका तैयार कर लिया था। उसकी कल्पना में कई बातें आ-जा रही थीं - बच्चे ये सवाल करेंगे, मेरे जवाब ऐसे होंगे, मेरे प्रश्न क्या होंगे? बात कैसे शुरू होगी?
कक्षा की शुरुआत कहानी से
जैसे ही वह कक्षा में आई, बच्चों ने चिल्लाकर कहा, “गुड मॉ ऽ ऽ र्निंग मैडम।” “गुड मार्निंग बच्चो!” नंदा ने उसी लहज़े में जवाब दिया। बच्चों को शान्त और स्थिर होने में एकाध मिनट लग गया, तब तक नंदा उन्हें मुस्कराती देखती रही। बच्चों को उसका यह तरीका मालूम था। जब कक्षा शान्त हो गई तो उसने कहा, “बच्चो, आज मैं तुम्हें एक कहानी सुनाने जा रही हूँ। यह कहानी बहुत पुराने ज़माने की है, इतने पुराने कि उस समय लोगों को थोड़ी-बहुत ही गिनती आती थी पर मज़े की बात यह थी कि उनका काम रुकता नहीं था।”
“सुनोगे?”
“हाँ, हाँ .... ज़रूर सुनेंगे।” सभी बच्चों ने एक स्वर में कहा।
नंदा ने कहना शुरू किया, “एक छोटे-से गाँव में एक किसान रहता था। उसने अपने घर के पीछे बाड़ी में कई तरह के फल और सब्ज़ियाँ उगा रखी थीं। वहाँ से फल और सब्ज़ियाँ तोड़ता, अपनी ज़रूरत के हिसाब से अपने पास रखता, बाकी मुहल्ले-पड़ोस में बाँट देता। गाँव के अन्य लोग भी ऐसे ही अपनी चीज़ें आपस में बाँटा करते थे। एक बार उस किसान की बाड़ी में खूब अमरूद फले, बड़े-बड़े, हरे-पीले, मीठे अमरूद। वह टोकरी भर अमरूद लेकर घर आया। अचानक उसके मन में विचार आया कि इन्हें गिनकर देखा जाए कि ये हैं कितने। वह टोकरी से एक-एक अमरूद निकालकर बाहर रखता गया और गिनता गया - एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस...। गिनती तो खत्म हो गई, मगर अमरूद बचे रहे। अब क्या करें? उसे उतनी ही गिनती आती थी जितनी उसके हाथ में उँगलियाँ थीं। वह सोचता रहा, सोचता रहा। आखिर उसे एक तरकीब सूझ ही गई। उसने दस तक की गिनती का ही उपयोग कर अपने सारे अमरूद गिन लिए।”
इतना कहकर नंदा चुप हो गई। बच्चे तो मानो उसी दुनिया में घूम रहे थे। कुछ क्षणों बाद चुप्पी टूटी। एक बच्ची ने पूछा, “उस किसान ने सारे अमरूद कैसे गिने होंगे मैडम?” “यही तो हमें जानना है। जैसा उस किसान ने किया, कुछ वैसी ही कोशिश हम भी करके देखेंगे।”
गिनती, एक अलग तरीके से
नंदा ने अपने बैग से एक थैली निकाली और उसमें रखे इमली के बीजों को टेबल पर उलट दिया। उसने बच्चों से कहा, “मान लो ये अमरूद हैं, इन्हें हम गिनेंगे और हाँ, ध्यान यह रखना है कि हमें केवल दस तक ही गिनती आती है। हम गिनते समय ग्यारह, बारह, तेरह और इसके आगे की गिनती का उपयोग नहीं करेंगे।”
एक बच्चा टेबल के पास आया। उसने एक-एक बीज निकालकर अलग रखते हुए गिनना शुरू किया, लेकिन दस तक गिनने के बाद वह रुक गया, सोचने लगा, अब क्या। कक्षा के बच्चे खुसुर-फुसुर कर रहे थे। नंदा ने उन्हें चुप कराने की कोशिश नहीं की। थोड़ी देर में एक बच्ची ने पूछा, “मैडम! हम दस से आगे नहीं गिन सकते क्या?”
“गिनना तो दस के आगे भी है किन्तु हम ग्यारह, बारह, तेरह, ऐसे नहीं गिन सकते।” नंदा ने एक बार फिर अपनी शर्त समझायी।
“तो क्या हम बचे हुए को फिर से नहीं गिन सकते?” बच्ची ने कुछ सोचते हुए दोबारा पूछा।
यही तो समस्या का हल था। उसे उम्मीद नहीं थी कि बच्चे इतनी जल्दी इसे ढूँढ़ लेंगे, उसने कहा, “करके देखना पड़ेगा।”
लेकिन यह विचार पूरी कक्षा को एक दिशा दे गया। उस बच्ची ने कहा, “मैं गिनकर देखती हूँ।”
उसने पहले से गिने दस बीजों के ढेर को किनारे खिसकाया और बचे हुए बीजों में से एक-एक बीज निकालते हुए गिनना शुरू किया। देखते-देखते दस बीजों की एक दूसरी ढेरी बन गई। नंदा ने उसकी पीठ थपथपाकर कहा, “बहुत अच्छा, बहुत ही अच्छा!”
बच्ची के चेहरे पर एक मुस्कराहट आई। अब थोड़े-से बीज बच गए थे। नंदा ने पूछा, “अब कौन गिनेगा?”
‘मैं, मैं, मैं,’ के शोर से कक्षा भर गई। सारे बच्चों के हाथ उठे हुए थे। पीछे बैठे कुछ बच्चे घुटनों पर, तो कुछ पूरी तरह खड़े हो गए। सबकी इच्छा थी कि उन्हें भी मौका मिले।
बच्चों ने रास्ता ढूँढ़ लिया था। इतना आनन्द उसे कभी न मिलता यदि वह खुद हल बता देती। उसकी नज़र एकाएक उस बच्चे पर पड़ी जो इस पूरे माहौल से अप्रभावित चुप बैठा था। नंदा ने कक्षा को शान्त करते हुए कहा, “ठीक है, ठीक है, मुझे पता चल गया है कि तुम सभी गिन सकते हो। मैं दयानन्द को मौका दूँगी।’’ उस शान्त बैठे बच्चे को अपने पास बुलाते हुए उसने कहा, “आओ दयानंद, मेरे पास आओ।” दयानंद सामने आया, उसने बिना कुछ पूछे बचे हुए बीजों को गिनना शुरू किया। एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात, बस। नंदा को आश्चर्य हुआ और खुशी भी। उसे लग रहा था कि दयानंद किसी मुश्किल में है -- शायद कक्षा में चल रही बातचीत उसे समझ में नहीं आ रही हो, शायद उसकी तबीयत ठीक न हो। लेकिन उसने तो बिलकुल सही ढंग से गिना। फिर भी उसे दयानंद का ध्यान रखना होगा। मन ही मन निश्चय कर उसने कहा, “वाह! वाह! बहुत अच्छे, बैठो।” बच्चों का ध्यान तीनों ढेरियों की ओर लाते हुए उसने कहा, “अब हमें बताना है कि कुल कितने बीज हैं।”
“सत्ताईस,” सब बच्चे ज़ोर-से चिल्ला उठे।
नंदा मुस्कराई, फिर धीरे-से उसने कहा, “हम तो यह मानकर चल रहे हैं कि हमारी गिनती दस तक है, ग्यारह नहीं है, बारह नहीं है, तो सत्ताईस होगा क्या?’’ बच्चों की आवाज़ें आईं, “ओह।” उन्हें यह समझ में आ रहा था कि बीज हैं तो सत्ताईस लेकिन उन्हें सत्ताईस नहीं कहना है। सब सोचने लगे कि अब क्या करें।
नंदा ने कहा, “तुम लोग चाहो तो एक-दूसरे से बातचीत कर सकते हो।” दो-चार मिनट की बातचीत के बाद कुछ चेहरों पर मुस्कान दिखाई पड़ने लगी। नंदा ने समझ लिया, बच्चों ने कुछ पा लिया है।
उसने सोचा, बच्चों को पहल करने दूँ। वह चुप रही। बच्चों का धैर्य व्यग्रता में बदल रहा था। अन्ततः उनसे रहा नहीं गया। वे बोल पड़े, “मैडम, अब बताएँ क्या?”
“ज़रूर, लेकिन एक-एक करके,” नंदा ने कहा।
एक बच्ची खड़ी हुई। उसने अपने दोनों हाथों की सभी उँगलियों को पूरा फैलाकर कहा, “इतने, फिर इतने।” आखिरी बार उसने अपनी केवल सात उँगलियाँ ही दिखाईं।
नंदा अवाक होकर उसकी ओर देखती रह गई। उसने सोचा न था कि ऐसा जवाब भी आ सकता है। वह आश्चर्य-से बोल पड़ी, “वाह! क्या बात है? तुमने तो कमाल कर दिया।” आगे बढ़कर उसने बच्ची को अपने से चिपका लिया और फिर उसकी पीठ ठोककर पूछा, “यह तुमने कैसे सोचा?”
बच्ची ने कहा, “मैडम! यह मैंने अकेले नहीं सोचा।” उसने अपने साथियों की ओर इशारा करके कहा, “हम सब लोग सोच रहे थे कि यदि संख्या को बोलना नहीं है तो कैसे बताएँ। बात करते-करते यह आइडिया आ गया।” नंदा उस समूह के पास पहुँची, सभी बच्चों को शाबाशी दी।
कक्षा शान्त हुई तो नंदा ने पूछा, “क्या इसके अलावा कोई और तरीका है?” उसने देखा कि बहुत-से बच्चों ने हाथ उठा दिए थे। उसने बच्चों के एक ग्रुप से कहा, “तुम लोग कुछ बतलाओगे?”
बच्चों ने कहा, “मैडम! दस, दस और सात।”
“अरे वाह! क्या बात है। इनके लिए भी तालियाँ।” नंदा ने ज़ोर-से कहा।
पीछे से कुछ बच्चों ने कहा, “मैडम, हम भी बताएँगे।”
“हाँ, हाँ, बताओ।”
“दो बार दस और सात।”
“बहुत बढ़िया! बहुत ही बढ़िया। तालियाँ बजनी चाहिए।”
बच्चे खुशी और उत्साह से भरे हुए थे। उनकी कोशिशों को सराहना जो मिल रही थी। उनके चेहरे पर विश्वास झलक रहा था। उन्हें देखकर लग रहा था जैसे उन्होंने कोई बड़ा मैच जीत लिया है।
नंदा ने फिर पूछा, “किसी और के पास कोई दूसरा उत्तर है?” बच्चों ने कहा, “नहीं मैडम, हम भी ऐसा ही सोच रहे थे।”
“बहुत अच्छा! तुम लोगों ने जिस तरह इस समस्या का हल ढूँढ़ा, कुछ वैसा ही उस किसान ने भी शायद किया होगा। तुम सभी ने मिलकर बहुत बढ़िया काम किया है, बहुत ही बढ़िया।”
“लेकिन मेरे मन में एक सवाल है,” यह कहकर नंदा चुप हो गई। सभी बच्चे उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे।
“जब मैं इस कहानी के बारे में सोच रही थी तो मेरे मन में एक प्रश्न उठा। प्रश्न यह था कि यदि उस किसान को दस तक की गिनती नहीं आती होती, मान लो वह केवल आठ तक ही गिनती जानता तो क्या वह पूरे अमरूद गिन पाता?”
सारे बच्चे एक बार फिर सोच में पड़ गए। नंदा ने कहा, “इसके लिए तुम अभी परेशान न हो। कल सोचकर आना फिर सब मिलकर इसका जवाब ढूँढ़ेंगे।’’
***
दूसरे दिन जब नंदा अपनी कक्षा में पहुँची तो बच्चों ने उसे घेर लिया और चिल्लाने लगे, “हमने बना लिया, हमने बना लिया।”
“अच्छा ठीक है, ठीक है, बैठ जाओ। हाजिरी भरने दो फिर कल के सवाल पर बात करेंगे।”
“नहीं मैडम, पहले सुनिए, हाजिरी बाद में।”
“अच्छा बाबा ठीक है, लेकिन पहले बैठो तो।”
सारे बच्चे बैठ गए तो नंदा ने पूछा, “कितने बच्चों से बना?”
सभी बच्चों ने हाथ उठा दिए। सामने बैठे बच्चों ने कहा, “मैडम, आज हम लोग पहले बताएँगे, कल हमारी बारी सबके बाद आई थी।”
“अच्छा ठीक है, चलो तुम्हीं लोग बताओ।”
एक बच्चे ने कहा, “मैडम! वो किसान है न, पहले सब अमरूदों को एक तरफ रख देगा। उस ढेर में से आठ अमरूद निकालकर अलग ढेरी बनाएगा। फिर आठ अमरूद निकालकर दूसरी ढेरी बनाएगा। ऐसे ही आठ-आठ अमरूदों की ढेरी बनाता जाएगा। एक बार ऐसा होगा कि आठ अमरूद नहीं बचेंगे। उनको अलग से गिन लेगा। फिर वह बता सकेगा कि आठ-आठ अमरूद की इतनी ढेरियाँ और इतने अमरूद।”
नंदा चकित थी, संख्या पद्धति की इस संरचना को कोई बच्चा इतनी आसानी-से समझा देगा। वह भी एक अलग परिस्थिति में, यह बात उसकी कल्पना में नहीं आई थी। उसके मुँह से बस इतना ही निकला, “तुम सब तो कमाल करते हो, क्या बात है।” अपने आप उसके हाथों से तालियाँ बज गईं। सारे बच्चे तालियाँ बजाने लगे।
बच्चों को समस्याओं से जूझने दें
नंदा सोच रही थी हम बड़े लोग बच्चों को कितना छोटा करके आँकते हैं। हम पहले ही यह सोच लेते हैं कि बच्चे ये नहीं कर पाएँगे, बच्चे वो नहीं कर पाएँगे। यदि उन्हें सोचने और आपस में बातचीत करने के मौके दिए जाएँ तो उनकी सहजबुद्धि कितने रास्ते ढूँढ़ लेती है, कितने तर्क बुन लेती है, कितने सवाल करती है, कितने जवाब बना लेती है। आखिर क्यों न हो, ये हैं तो इन्सान ही न।
नंदा को इस विचार प्रवाह में बहना अच्छा लग रहा था, उसे लग रहा था एक शिक्षक के रूप में सवालों के जवाब खुद दे-देकर हम समस्याओं से जूझने की बच्चों की नैसर्गिक क्षमता को विकसित नहीं होने देते। ऐसा करके हमें लगता है कि हम उनकी मदद कर रहे हैं लेकिन हम उन्हें कुछ मायनों में कमज़ोर कर रहे होते हैं। उसे उस तितली की कहानी याद आ रही थी जो अपने कोकून से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रही थी और एक बच्चे ने उसकी मदद करने के उद्देश्य से कोकून में बड़ा छेद बना दिया था। तितली बाहर तो निकल आई पर उसके पंख पूरी तरह विकसित नहीं हो पाए थे। उसने उड़ने की बहुत कोशिश की पर वह उड़ न पाई और आखिर मर गई, बेचारी!
“मैडम जी।” बच्चे उसे झिंझोड़ रहे थे। उसकी तन्द्रा टूटी। उसने अपने आप को सँभाला और विचार क्रम को तोड़ते हुए बच्चों से कहा, “सॉरी, तुम लोगों के उत्तर ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। अच्छा चलो बताओ, किसी के पास इससे अलग उत्तर है?”
“ऐसे ही हम भी गिनेंगे मैडम।”
“बहुत अच्छा।”
नंदा के दिमाग में नया प्रश्न आ रहा था कि यदि ढेरियों की संख्या आठ से ज़्यादा हुई तो इसे बच्चे कैसे गिनेंगे। फिर उसे लगा कि अभी इतनी ही बात की जाए। अभी जो कुछ हो पाया है, उसी विचार को और पक्का होने दूँ तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। उसने बच्चों से कहा, “सुनो, सुनो, अभी इस बात को यहीं खत्म करते हैं। कल हम जिन बीजों को गिन रहे थे, उन्हीं पर कुछ और बात करते हैं। क्या किसी को याद है कि हमने कल कितने बीज गिने थे?”
“दस, दस और सात बीज।”
“दो बार दस और सात बीज,” बच्चों के उत्तर आए।
“ठीक, अब ज़रा सोचो यदि हमारे पास गिनती में दस के बाद और नाम होते जैसे दो बार दस के लिए, तीन बार दस के लिए और इसके आगे भी, तो क्या होगा?’’ कोई उत्तर नहीं आया।
“अच्छा चलो, एक काम करते हैं। हम अपने मन से कुछ नाम बनाते हैं।” नंदा ने अपने दोनों हाथों की सभी उँगलियों को सामने दिखाते हुए कहा, “इतनी चीज़ों के लिए हमारे पास एक नाम है - दस। अब अगर इतनी-इतनी चीज़ें दो बार हों यानी दस और दस हो जाएँ तो इनके लिए कोई नाम सोच लें। बोलो, क्या नाम दें?’’
बच्चे थोड़ी देर इसे समझने की कोशिश करते रहे। फिर एक बच्ची ने उठकर धीरे-से कहा, “मैडम जी, दस और दस के लिए नाम है न, ‘बीस’।”
“अरे हाँ, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूँ। तुमने अच्छा याद दिलाया। दस और दस को तो हम बीस कहते हैं न। गुड। अब तो अपना काम आसान हो गया। चलो, अब बताओ तीन बार दस को क्या कहेंगे?’’
“तीस,” कुछ बच्चों ने एक साथ कहा।
“अच्छा, चार दस को?”
“चालीस,” सभी बच्चे ज़ोर-से चिल्लाए। अब उन्हें यह पैटर्न समझ में आने लगा था। नंदा और आगे पूछती, इसके पहले कई बच्चे कहने लगे, “पाँच दस को पचास, छह दस को साठ, सात दस को सत्तर...”
“अच्छा बस, बस! मैं जान गई कि तुम सबको ये नाम मालूम हैं। बहुत बढ़िया। आओ, हम सब मिलकर एक काम करें। मैं बोर्ड पर इन्हें लिखती हूँ। तुम सब लोग सोचकर उनके आगे संख्या का नाम लिखना।” यह कहकर नंदा ने बोर्ड पर बाईं ओर लिखा। उसने बच्चों को बारी-बारी से आने के लिए कहा। बच्चे क्रम से आते गए। उन्होंने संख्या के आगे उनका नाम लिखा। दो-तीन बच्चे थोड़े ठिठक रहे थे। वे ज़्यादा कुछ सोच पाते, उसके पहले ही अन्य बच्चे संख्या बोले देते। नंदा को लगा, अभी कुछ और अभ्यास कराने की ज़रूरत है। बोर्ड के पास बुलाने पर सभी बच्चों को चांस नहीं मिल पा रहा है। इसलिए उसने बच्चों से कहा, “अब अपनी-अपनी कॉपियों में ऐसे ही उन संख्याओं को लिखो जिन्हें तुम जान गए हो।”
बच्चे काम करने में मशगूल हो गए। कुछ बच्चे एक-दूसरे से पूछकर या तो जान रहे थे या अपनी समझ के प्रति आश्वस्त हो रहे थे। नंदा ने उन्हें आपस में बात करने से नहीं रोका। उसे हमेशा यह लगता है कि बच्चे आपस में बातें करके भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। पाँच-सात मिनट बाद बच्चे अपनी कॉपियाँ लेकर उसके पास आने लगे। प्रायः सभी बच्चों ने बहुत हद तक सही किया था। शब्दों को लिखने में कहीं-कहीं मात्रा, वर्ण आदि की त्रुटियाँ थीं। नंदा ने सोचा, “इन शब्दों के हिज्जे बाद में सिखा दूँगी, अभी तो बच्चों को अपने ढंग से काम करने दूँ।”
खेल सवाल-जवाब का
उसने देखा, बच्चे बहुत मज़े-से काम कर रहे हैं। उसे लगा कि इस काम को थोड़े अलग ढंग से भी करके देखा जाना चाहिए। इसलिए उसने बच्चों से पूछा, “क्या हम लोग पूछने-बताने का खेल खेलें?” कक्षा में जो खेल नंदा करती थी, उसमें यह भी एक खेल था। इस खेल में बच्चे ही सवाल करते और बच्चे ही जवाब देते थे।
नंदा ने जैसे ही पूछा, बच्चों के शोर से कक्षा गूँज गई।
“खेलेंगे, हाँ, हाँ, खेलेंगे।” देखते ही देखते कक्षा दो हिस्सों में बँट गई, टीम ‘ए’ और टीम ‘बी’। नंदा ने पूछा, “आज खेल का नियम क्या होगा?” एक बच्ची ने कहा, “जब एक टीम दूसरी टीम से सवाल करेगी तो सवाल पूछने वाला यह भी तय करेगा कि जवाब कौन देगा।”
नंदा ने पूछा, “क्या ये बात सबको मंज़ूर है?”
सबने कहा, “हाँ, ठीक है।”
फिर बारी-बारी से हर टीम ने सवाल पूछना शुरू किया। सबसे पहले टीम ‘ए’ की नेहा ने पूछा, “तीन बार दस यानी कितना होगा, अंजली बताएगी।”
“तीस,” टीम ‘बी’ की अंजली ने कहा।
अब अंजली ने पूछा, “नौ बार दस कितना होगा, अनवर बताएगा।” “नब्बे,” अनवर ने उत्तर दिया और खेल चलता रहा। खेल के खत्म होने तक नंदा आश्वस्त हो चुकी थी कि सभी बच्चे यह समझ गए हैं कि दस, बीस, तीस में कितने-कितने दस शामिल हैं।
खाना खाने का समय हो गया था। उसने बच्चों से कहा, “आज बस इतना ही। कल फिर कोई नया खेल सोचेंगे, और हाँ, कल जब आओ तो कुछ चीज़ें ढूँढ़कर लाना, जैसे छोटे-छोटे तिनके, बजरी, गिट्टी के टुकड़े, कंकड़, चूड़ी के टुकड़े और ऐसी ही कुछ चीज़ें जो आसानी-से मिल जाएँ। ठीक है? अच्छा अब जाओ, अब तुम्हारे खाने की छुट्टी। जल्दी आना, आज तुम्हें एक मज़ेदार कहानी सुनाऊँगी।”
बच्चे हो-हो करते हुए कक्षा से बाहर निकल गए, जल्दी आने के लिए। खाने की छुट्टी के बाद जब बच्चे आए तो नंदा ने उन्हें ‘सिंदबाद’ की कहानी सुनाई। बच्चों ने बहुत मन से कहानी सुनी। थोड़ी देर में छुट्टी हो गई। नंदा आकर स्टाफ रूम में बैठी। उसका दिमाग कल की कक्षा की योजना बनाने में लगा हुआ था। थोड़ी देर बाद उसने जो कुछ सोचा था वो सब अपनी डायरी में लिख लिया।
सुधीर श्रीवास्तव: सेवानिवृत्त सहायक प्राध्यापक हैं। राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, रायपुर, छत्तीसगढ़ में सभी विषयों की पाठ्यपुस्तक लेखन समिति के समन्वयक रहे हैं। गणित विषय में शोध किया है तथा गणित के साथ गहरा लगाव है। बच्चों के लिए प्रकाशित पत्रिकाएँ किलोल व बालमित्र के सम्पादक रहे हैं।
सभी चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं।