चारुदत्त नवरे

भाग-3                                                                                                                                          पुस्तक अंश

एक समय था जब हम मानते थे कि नर शेर आलसी होते हैं, जो शिकार करने का पूरा ज़िम्मा एवं काम शेरनी पर ही छोड़ देते हैं। यह पक्का विश्वास शेरों की गतिविधियों के सावधानीपूर्वक किए गए अवलोकनों पर आधारित था।

मुझे ही यहाँ सब कुछ करना पड़ता है।

जब तक अवरक्त (इन्फ्रारेड) ड्रोन का इस्तेमाल शुरू नहीं हुआ, जिनकी मदद से रात में होने वाली वन्यजीव गतिविधियों पर नज़र रखी जा सकती है, तब तक हमें पता नहीं चल पाया कि शेर रात में शिकार करते हैं।

उसके बाद ही समझ में आया कि शेर भी शिकार करते हैं -- लेकिन बीच दोपहर में सवाना में ज़ेब्रा का पीछा करने की बजाय, वे घनी वनस्पतियों में चुप-चाप घात लगाकर रात में अनभिज्ञ शिकार पर हमला करना चुनते हैं।

इन्फ्रारेड ड्रोन की उपलब्धता से पहले तक शोधकर्ताओं को रात में घने जंगलों की छानबीन एवं अवलोकन करने में बहुत ही मुश्किल होती थी।

वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म-जीव विज्ञान में भी कुछ ऐसा ही देखा। ज़्यादातर सूक्ष्मजीवों को प्रयोगशाला में कृत्रिम मीडिया पर विकसित नहीं किया जा सकता है। ऐसे सूक्ष्मजीवों की संख्या कितनी है इसके अनुमान अलग-अलग हैं, लेकिन अधिकांश का आकलन है कि ऐसे सूक्ष्मजीवों की मात्रा 90 प्रतिशत से अधिक ही है। यानी हम प्रयोगशाला में सूक्ष्मजीव विकसित करने वाली पारम्परिक विधि को इस्तेमाल करके ज़्यादातर सूक्ष्मजीवों का अध्ययन नहीं कर सकते हैं।

इसी वजह से अगर हमें यह देखना हो कि हमारी आँतों में सूक्ष्मजीवों का समुदाय कितना विविध है तो भी हम बड़ी संख्या में वहाँ रहने वाले सूक्ष्मजीवों का अध्ययन कर ही नहीं पाएँगे।

हम प्रजातियों की संख्या को वास्तविकता से कम करके ही आँकेंगे। जबकि जीनोमिक अनुक्रमण (sequencing) द्वारा हमें बहुत बेहतर अनुमान मिलते हैं। जीनोमिक अनुक्रमण, डी.एन.ए. -- आनुवंशिकता के अणु -- पर अक्षरों के अनुक्रम की पहचान करता है। उसका उपयोग करके वैज्ञानिक डी.एन.ए. से प्रत्येक प्रजाति के विशेष (unique) चिह्नक की पहचान कर सकते हैं।


इस जाँच-पड़ताल से सूक्ष्मजीवों और मनुष्यों के बीच संवाद, संचार और धोखाधड़ी की एक रोमांचक कहानी समझने को मिलती है।


पीएरे एंड मारी क्यूरी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मिरयम सीज़ज़ेक, गुरवन मिशेल और साथियों ने पाया कि हमारी आँत में रहने वाले सूक्ष्मजीव भोजन में मौजूद बैक्टीरिया से भोजन पचाने की कला सीख सकते हैं।

हम अपने आहार में मौजूद दीर्घ  शृंखला पॉलीसेकेराइड जैसे स्टार्च और सेल्युलोज़ को पचाने के लिए हमारी आँतों में मौजूद सूक्ष्मजीवों पर ही निर्भर करते हैं।


हमारे स्वयं के जीनोम में इस कार्य के लिए आवश्यक जीन नहीं होते हैं जबकि आँत के सूक्ष्मजीवों में ऐसे जीन होते हैं जो कार्बोहाइड्रेट एक्टिव एंज़ाइम (काज़ाईम्स) बनाने का काम करते हैं। ये एंज़ाइम हमें अपने आहार में मौजूद स्थलीय पौधों से प्राप्त कार्बोहाइड्रेट का उपयोग करने में मदद करते हैं।

सीज़ज़ेक और मिशेल ने यह पाया - जापानी आबादी में लाल शैवाल आहार का एक सामान्य तौर पर खाया जाने वाला अंश है और इसका उपयोग सुशी बनाने में किया जाता है।

जापानी व्यक्तियों की आँतों में मौजूद सूक्ष्मजीवों में लाल शैवाल में पाए जाने वाले कार्बोहाइड्रेट को पचाने की क्षमता होती है। जबकि उत्तरी अमेरिका के लोगों की आँतों के सूक्ष्मजीवों में यह क्षमता नहीं होती है।

वे सभी जींस जो इन एंजाइम का कूट लेखन करते हैं, समुद्री बैक्टेरिया से जापानी लोगों की आँतों के सूक्ष्मजीवों में स्थानान्तरित हो गए हैं। यह बात समझ में आती है  क्योंकि समुद्री बैक्टेरिया इन समुद्री लाल शैवाल को पचाने में सक्षम होते हैं। 

इस तरह की चीजें विभिन्न बैक्टेरिया उनके विशाल आपसी संबंधों के कारण संभव होती हैं हमसे विपरीत, बैक्टेरिया की विभिन्न प्रजातियाँ जींस को एक-दुसरे में स्थानान्तरित करने में सक्षम होती हैं। 

अभी एक नई एंटीबायोटिक आई है जो हमारी कोशिका की दीवारों पर हमला करती है और आपको इसका मुकाबला करने के लिए यह अहम बात जानने की ज़रूरत है।

एक दुर्लभ जटिल कार्बोहाइड्रेट है, परन्तु हर किसी में इसे पचाने की क्षमता होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन स्पष्ट रूप से इन दिनों भोजन में यह कुछ मात्रा में तो उपलब्ध होता ही है और इस तरह आप इसे पचा सकते हैं।

यहाँ आंत के बैक्टेरिया के में एक और दिलचस्प बात है। जब आपको भूख लगती है तो असल में कौन भूखा होता है? क्या केवल आपके शरीर की कोशिकाओं को भोजन की आवश्यकता होती है? शायद नहीं।

यूनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के प्रोफेसर जॉन एफ. क्रायन और उनके सहयोगियों ने पाया कि चूहे की आँत में पाई जाने वाली बैक्टीरिया की एक प्रजाति, चूहे के मस्तिष्क के साथ संवाद करने में सक्षम थी। ऐसा वे केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की वेगस नस या नाड़ी के माध्यम से करते हैं।

बैक्टीरिया की जिस प्रजाति पर उन्होंने प्रयोग किए थे वह ‘लैक्टोबैसिलस रमनोसस’ थी। उन्होंने पाया कि लैक्टोबैसिलस चूहों के भावनात्मक व्यवहार को भी बदल सकते हैं।

कई लैक्टोबैसिलस प्रजातियाँ प्राकृतिक रूप से स्तनधारियों और पक्षियों की आँतों में रहती हैं। वे दूध के शर्करा लैक्टोज़ और अन्य शर्कराओं को लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित कर देती हैं।

जब यह प्रजाति चूहे के आहार में थी तो उससे अवसाद और चिन्ता जैसे लक्षणों में कमी आई। यह विशेषता उन्हें भविष्य में चिकित्सीय उपयोग के लिए सम्भावित उम्मीदवार बनाती है।


चारुदत्त नवरे: होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (एच.बी.सी.एस.ई.), मुम्बई में शोध के छात्र हैं। आइकेन चिकित्सा स्कूल, न्यू यॉर्क और एन.सी.एल, पुणे से शोध का अनुभव। उनके द्वारा तैयार की गई यह पुस्तक एकलव्य से प्रकाशित होने वाली है।

सभी चित्र: रेशमा बर्वे: अभिनव कला महाविद्यालय, पुणे से वाणिज्यिक कला में पढ़ाई। कई पुस्तकों का चित्रांकन किया है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: कोकिल चौधरी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।