किशोर पंवार व प्रिया त्रिवेदी
बीज में श्वसन को लेकर संदर्भ के अंक-6 में एक लेख छपा था। उसमें अम्ल-क्षार के सूचक फिनॉफ्थलीन को लेकर सूखे बीजों में श्वसन को दिखाने का प्रयास किया गया था। क्योंकि बीजों में श्वसन क्रिया अपने आप में बहुत रोचक एवं महत्वपूर्ण है, अत: इस पर मेरी रुचि अभी भी बनी हुई है। इसी के चलते एक अन्य सूचक मिथिलीन ब्लू का उपयोग कर बीजों में श्वसन क्रिया का प्रदर्शन कराने का एक नया प्रयास किया गया। मिथिलीन ब्लू ऑक्सीकरण-अवकरण क्रियाओं में सूचक के तौर पर उपयोग किया जाता है।
प्रयोग की चर्चा के पूर्व हम श्वसन की क्रिया-विधि एवं इसकी जैव रासायनिक प्रक्रिया की जानकारी जुटा लें तो बेहतर होगा। जन्तु तथा पौधे भोजन में संचित ऊर्जा का उपयोग अपनी जैविक क्रियाओं के संचालन में करते हैं। अधिकांश जीवित कोशिकाओं में संचित भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा मुक्त होती है। भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण के लिए कोशिकाओं को ऑक्सीजन अपने पर्यावरण से मिलती है। जन्तुओं में तो शरीर के अन्दर स्थित कोशिकाओं तक ऑक्सीजन को ले जाने और बाहर निकालने के लिए विशेष अंग होते हैं। परन्तु पौधों में यह कार्य गैसों के प्राकृतिक विसरण द्वारा सम्पन्न होता है। हवा स्टोमेटा और लेंटिसेल द्वारा फल, फूल और तने तथा जड़ों की कोशिकाओं तक पहुँचाई जाती है। ये मुख्यत: पत्तियों और तने पर पाए जाते हैं। यह तो हुआ हवा का आदान-प्रदान।
असली श्वसन तो कोशिकाओं के अन्दर होता है, लगातार चलता रहता है 24x7। इस रासायनिक क्रिया को सरलतम रूप से इस प्रकार दर्शाया जाता है:
C6H12O6 + 6O2 = 6CO2 + 6H2O + 673 किलो कैलोरी उर्जा
श्वसन की क्रिया जटिल है जिसे समझने की दृष्टि से तीन चरणों में बाँटा जा सकता है:
- ग्लाइकोलाइसिस
- क्रेब्स चक्र
- इलेक्ट्रॉन परिवहन तंत्र एवं अन्तिम ऑक्सीकरण।
पहला चरण (ग्लाइकोलाइसिस) कोशिका द्रव में सम्पन्न होता है। इसमें ग्लूकोस का एक अणु पायरुविक अम्ल के 2 अणुओं में टूट जाता है। इस क्रिया में कई एंज़ाइम भाग लेते हैं। परन्तु इसमें ऑक्सीजन का उपयोग नहीं होता। ग्लायकोलाइसिस के दौरान कुछ ऊर्जा निकलती है किन्तु उसके बाद भी पायरुविक अम्ल में ग्लूकोस की लगभग 94% ऊर्जा संचित रहती है।
दूसरा चरण क्रेब्स-चक्र कोशिका में उपस्थित माइटोकॉॅण्ड्रिया में सम्पन्न होता है। माइटोकॉॅण्ड्रिया कोशिका द्रव में पाए जाने वाले कोशिकांग हैं जो श्वसन का कार्य करते हैं। इस चरण की शुरुआत ग्लाइकोलाइसिस के अन्त में बने पायरुविक अम्ल से होती है। माइटोकॉॅण्ड्रिया में क्रेब्स-चक्र के शुरू होने के पूर्व पायरुविक अम्ल से ऐसीटाइल कोएंज़ाइम-ए बनता है। यह क्रिया माइटोकॉॅण्ड्रिया में ही सम्पन्न होती है। एक समीकरण के रूप में इस क्रिया को निम्नानुसार लिखा जा सकता है:
पायरुविक अम्ल + कोएंज़ाइम-ए + NAD = एसिटाइल कोएंज़ाइम-ए + NADH + CO2 + H+
यहाँ हम देखते हैं कि श्वसन क्रिया में पहली बार कार्बन डाइऑक्साइड का एक अणु बाहर निकलता है ।
इस तरह बना एसीटाइल कोएंज़ाइम-ए क्रेब्स-चक्र की शुरुआत करता है (चित्र-1)।
- एसिटाइल कोएंज़ाइम-ए माइटो-कॉॅण्ड्रिया में उपस्थित एक 4 कार्बन वाले पदार्थ (ऑक्सेलोएसिटिक अम्ल) से क्रिया कर एक 6 कार्बन वाले पदार्थ (साइट्रिक अम्ल) में बदल जाता है।
- इस प्रकार बना साइट्रिक अम्ल जल के एक अणु को खो देता है जिससे सिस-एकोनीटीक अम्ल बनता है जो जल के एक अणु को पुन: प्राप्त कर आइसोसाइट्रिक अम्ल में बदल जाता है।
- इसके बाद यह एंज़ाइम आइसो-साइट्रिक डीहाइड्रोजनेज़ की उपस्थिति में ऑक्सेलोसक्सीनिक अम्ल में बदल जाता है। यहाँ एक CO2 फिर निकलती है।
- अगले चरण में यह अल्फा कीटो ग्लुटेरिक अम्ल में बदल जाता है। यहाँ CO2 का तीसरा अणु निकलता है। अर्थात् अब तक तीन कार्बन वाले पायरुविक अम्ल के तीनों कार्बन CO2 के रूप में मुक्त हो चुके हैं।
- इसके बाद अल्फा कीटो ग्लुटेरिक अम्ल से सक्सिनाइल कोएंज़ाइम-ए बनता है। यहाँ पर अल्फा कीटो ग्लूटेरिक डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम काम आता है।
- अगले चरण में सक्सीनाइल कोएंज़ाइम सक्सीनिक अम्ल में बदल जाता है। यहाँ सक्सीनिक डीहाइड्रो-जनेज़ नाम का एंज़ाइम काम में आता है।
- इसके बाद यह फ्यूमेरिक और फिर मैलिक अम्ल में बदल जाता है।
- यह मैलिक अम्ल पुन: ऑक्ज़ेलो-एसिटिक एसिड में बदल जाता है। यहाँ मैलिक डीहाइड्रोजनेज़ नाम का एंज़ाइम काम में आता है।
आप देख ही सकते हैं कि इस चक्र में कई परिवर्तनों के लिए विभिन्न डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम काम आते हैं। डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम मूलत: किसी पदार्थ में से हाइड्रोजन को अलग करने का काम करते हैं। दूसरे शब्दों में ये पदार्थों के ऑक्सीकरण में भूमिका निभाते हैं। इस हाइड्रोजन को ग्रहण करने वाले कई पदार्थ होते हैं जो इस क्रिया में अवकृत हो जाते हैं। वैसे ये एंज़ाइम उल्टी क्रिया यानी अवकरण को भी उत्प्रेरित कर सकते हैं। क्रेब- चक्र के प्रत्येक चरण में क्रमश: कई पदार्थों का ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा मुक्त होती है।
मिथिलीन ब्लू ऑक्सीकरण-अवकरण क्रियाओं में सूचक का काम करता है। ऑक्सीकृत अवस्था में इसका रंग नीला होता है लेकिन जब यह अवकृत हो जाता है तो रंगहीन होता है। ऊपर हमने देखा कि डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम जब किसी पदार्थ का ऑक्सीकरण करता है तो हाइड्रोजन मुक्त होती है। इस हाइड्रोजन को ग्रहण करने वाले कई पदार्थ ऊतकों में होते हैं। मिथिलीन ब्लू भी यह भूमिका निभा सकता है और हाइड्रोजन को ग्रहण करके अवकृत हो जाता है और इसका रंग उड़ जाता है।
इस प्रकार से मिथिलीन ब्लू का इस्तेमाल यह जानने हेतु किया जा सकता है कि डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम सक्रिय हुए हैं। वैसे देखा जाए तो मिथिलीन ब्लू का रंग उड़ाने के लिए डीहाइड्रोजनेज़ की क्रिया अनिवार्य नहीं है। कोई भी ऑक्सीकरण की क्रिया हो तो मिथिलीन ब्लू अवकृत होकर बता देगा कि ऑक्सीकरण चल रहा है। यह बात नीली बोतल वाले प्रयोग में देखी जा सकती है।
अलबत्ता, चूँकि हम जीवित ऊतक के साथ प्रयोग कर रहे हैं तो यह मानना लाज़मी है कि वहाँ डीहाइड्रोजनेज़ करामात कर रहे हैं। इसलिए मिथिलीन ब्लू को डीहाइड्रो-जनेज़ एंज़ाइमों की सक्रियता का प्रदर्शक माना जाता है।
सिद्धान्त
बीजों में श्वसन को परखने के लिए किए गए फिनॉफ्थलीन वाले प्रयोग में श्वसन के दौरान जो CO2 निकलती है वह श्वसन क्रिया का अन्तिम उत्पाद है। CO2 अम्लीय होती है और अम्लीय माध्यम में फिनॉफ्थलीन रंगहीन होता है। इसलिए फिनॉफ्थलीन का रंग उड़ जाए तो माना जा सकता है कि सूखे बीज श्वसन कर रहे हैं।
दूसरी ओर, मिथिलीन ब्लू वाले प्रयोग में जब एंज़ाइम की उपस्थिति में ग्लूकोस का ऑक्सीकरण होता है तब उस क्रिया से निकले हाइड्रोजन व इलेक्ट्रॉन मिथिलीन ब्लू को रंगहीन बना देते हैं। यह प्रयोग श्वसन क्रिया में काम आने वाले विभिन्न डीहाइड्रोजनेज़ एंज़ाइम की सक्रियता का प्रदर्शन है। अब प्रयोग करके देखते हैं।
सबसे पहले 100 मि.ग्रा. मिथिलीन ब्लू 100 मि.ली. पानी में घोलकर छान लें एवं इस घोल को रंगीन बॉटल में भरकर रख लें। यह मिथिलीन ब्लू का 0.1 प्रतिशत घोल है।
प्रयोग की व्यवस्था
चार प्रकार के सूखे या पानी में भिगोए बीज लें। जैसे गेहूँ, ज्वार, मक्का, मूंग, चना, मोठ आदि। टेस्ट ट्यूब में बीजों को लगभग तीन चौथाई तक भर दें। इसके बाद सभी टेस्ट ट्यूब में मिथिलीन ब्लू का हल्का नीला घोल ऊपर तक भर दें। अब कॉर्क लगा दें। ध्यान रहे, घोल और कॉर्क के बीच में हवा न रहे। अर्थात् टेस्ट ट्यूब ऊपर तक घोल से भरी हो। 30 मिनिट बाद देखें कि क्या होता है।
कंट्रोल के लिए ऐसा ही एक सेटअप उबले चने, गेहूँ, मोठ, मूंग आदि के साथ तैयार करें। इनमें भी नीले रंग का घोल ऊपर तक भरकर कॉर्क लगा दें। 30 मिनट बाद देखें कि क्या होता है।
यह प्रयोग आप सूखे बीजों की जगह आलू, मूली, गाजर आदि के छोटे-छोटे टुकड़ों को टेस्ट ट्यूब में भरकर भी कर सकते हैं। यह देखिए कि किसमें रंग जल्दी उड़ता है।
किशोर पंवार: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक रहने के बाद, शासकीय निर्भय सिंह पटेल विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर से सेवानिवृत्त। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लम्बा जुड़ाव रहा है जिसके तहत बाल वैज्ञानिक के अध्यायों का लेखन और प्रशिक्षण देने का कार्य किया है। एकलव्य द्वारा जीवों के क्रियाकलापों पर आपकी तीन किताबें प्रकाशित। शौकिया फोटोग्राफर, लोक भाषा में विज्ञान लेखन व विज्ञान शिक्षण में रुचि।
प्रिया त्रिवेदी: सहायक प्राध्यापक, प.म.ब. गुजराती साइंस कॉलेज, इन्दौर।
सभी फोटो: किशोर पंवार।
सम्पादन: सुशील जोशी।
बीजों में श्वसन से सम्बन्धित दो अन्य लेख पढ़िए संदर्भ अंक-6 (जुलाई-अगस्त, 1995) और अंक-13 (सितम्बर-अक्टूबर, 1996) में।