जीतेन्द्र ‘जीत’

शुरुआती  उम्र  में  बच्चे  अपना  भौगोलिक ज्ञान स्थानीय क्षेत्र के भू-दृश्यों से ही प्राप्त करते हैं। ऊँचे पहाड़, बहती नदी, घना जंगल, नीला आकाश, बनते-बिगड़ते बादल, उगता-ढलता सूरज, टिमटिमाते तारे, छोटा-बड़ा होता चाँद, लहराते खेत, बढ़ती फसलें, साल भर बदलते मौसम आदि अनेक घटनाएँ हैं जो वे अपने दैनिक जीवन में देखते हैं। अक्सर ये सब उनकी कहानियों-किस्सों के हिस्से भी होते हैं। दस-पन्द्रह साल के बच्चों के मन में इन सभी घटनाओं को लेकर अनेक जिज्ञासाएँ और सवाल बनते-बिगड़ते रहते हैं। मगर जब इन सवालों पर कोई बातचीत नहीं हो पाती तो ये जिज्ञासाएँ धीरे-धीरे खत्म होने लगती हैं।
राजस्थान और उत्तराखण्ड में काम के दौरान विद्यालय भ्रमण के कई मौके मिले। इस बार अवसर था हिमालय के तराई क्षेत्र में स्थित काशीपुर खण्ड के एक राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय में बच्चों के साथ ‘ग्लोब’ पर चर्चा करना। पहले भी इन बच्चों के साथ अन्य विषयों पर निरन्तर बातचीत होती रही है। अत: हमारा आपसी संवाद बच्चों के लिए एक सहज प्रक्रिया थी। यह चर्चा कक्षा-6 और 7 के बच्चों के साथ सम्मिलित रूप से की गई थी।
यह ‘ग्लोब’ क्या होता है?
कक्षा में मेरे हाथों में ग्लोब देखकर एक बच्चे ने सवाल पूछा, “भैया, यह क्या है?”

मैंने भी सवाल के जवाब में एक सवाल किया, “आपको यह क्या लग रहा है?” बच्चे एकटक सिर्फ ग्लोब को ही देखे जा रहे थे। मैंने आगे फिर कहा, “आज हम इसी पर बातचीत करेंगे। आप इसका नाम तो जानते ही होंगे?”
अब जैसा कि अक्सर होता है, बच्चे आपस में तो कुछ फुसफुसाहट कर रहे थे मगर सबके सामने बोलने से झिझक रहे थे। मैंने महसूस किया कि अक्सर जाने-अनजाने में हम ही बच्चों के अनुभवों और विचारों को सही-गलत के तराज़ू में तोलकर उनकी श्रेणियाँ बना देते हैं। इसी कारण बच्चे अपने स्वतंत्र विचार सबके सामने रखने से कतराते हैं। इस दौरान उपस्थित शिक्षक साथी कुछ खास बच्चों के नाम बार-बार लेकर उन्हें जवाब बताने के लिए उकसा रहे थे। वास्तव में, मेरे ये साथी बच्चों द्वारा मुझे जवाब नहीं बता पाने को विद्यालय की बेइज़्ज़ती जैसा मान रहे थे। मगर असलीयत में ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। बच्चे अपने विचार अक्सर इसलिए भी नहीं रखते या रख पाते क्योंकि उन्हें इसके लिए हमारे द्वारा पर्याप्त समय और स्थान नहीं दिया जाता और उन्हें एक खास तरह की श्रेणी का हिस्सा बना दिया जाता है। मैंने आगे की बातचीत से पहले बच्चों को अपनी बात बेझिझक रखने के लिए प्रोत्साहित किया। साथ ही बार-बार दोहराया कि किसी भी बात पर आपको अपने विचार रखने का उतना ही अधिकार है जितना शिक्षक महोदय या मुझे है।

चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए एक बार फिर मैंने पहले बच्चे के सवाल को दोहराया (ग्लोब की तरफ इशारा करते हुए), “यह क्या है?” इस पर बच्चों ने अलग-अलग विचार रखे:
पहला बच्चा: गेंद है,
दूसरा: गोला,
तीसरा: सौर मण्डल,
दूसरा बच्चा फिर से: धरती का गोला,
चौथा: संसार... (फिर धीरे-से) संसार का ग्लोब,
पाँचवा: पृथ्वी का मानचित्र,
छठा: हमारी धरती,
अन्य कुछ बच्चे (अब धीरे-धीरे सभी बोलने लगे थे) -- पृथ्वी का मॉडल, सूरज, धरती, ग्लोब, धरती का छोटा रूप/स्वरूप, ब्रह्माण्ड का गोला आदि।
बातचीत से पता चला कि जिस बच्चे ने ग्लोब को गेंद कहा था, उसके पास घर में एक हवा वाली गेंद है जिस पर सभी देशों के चित्र ग्लोब की ही तरह उकेरे हुए हैं। इसीलिए उसने ग्लोब को गेंद कहा।
मैंने बच्चों से कहा, “आप सब अलग-अलग नाम बता रहे हो, इससे तो समस्या हो जाएगी। आपने जो भी मुझे बताया है उसे अपने पड़ोसी दोस्तों को भी समझाओ। हम सभी को मिलकर एक नाम तय करना है मगर तर्क के साथ।”
एक बच्चे ने मुझसे पूछा, “धरती तो बहुत बड़ी है, इत्ति-सी (छोटी) कैसे होगी... और उसे हाथ में भी तो नहीं उठाया जा सकता है न?”
एक अन्य बच्चे ने कहा, “यह पूरी धरती   थोड़िना (नहीं) है, उसका मॉडल है।”
फिर तीसरे ने कहा, “रूप है, पृथ्वी का।”
चौथे ने कहा, “यह पृथ्वी का मानचित्र है।”
मेरे द्वारा संसार का मानचित्र दिखाने पर उन्होंने कहा, “यह तो संसार का मानचित्र है, वो (ग्लोब) पृथ्वी का मानचित्र है।”
“तो क्या संसार और पृथ्वी अलग-अलग हैं?” यह सवाल पूछने पर सभी बच्चे चुप हो गए। कुछ बच्चे अपने बस्तों से किताबें निकालकर पन्ने पलटने लगे जैसे पृथ्वी और संसार में अन्तर खोज रहे हों। पृथ्वी और संसार के अन्तर पर चर्चा महासागर और महाद्वीपों के नामों पर चली गई।

क्या पृथ्वी गोल है?
कुछ बच्चों का कहना था कि जिस ज़मीन पर हम रहते हैं वो संसार है तथा जब उसमें महासागरों (पानी) को भी जोड़ देते हैं तब वो सारी पृथ्वी बन जाती है। कुछ ने कहा कि पृथ्वी गोल होती है और संसार चौकोर।
मैंने चर्चा को आगे बढ़ाया और कहा, “यदि हम इसे (ग्लोब को) पृथ्वी का छोटा रूप, प्रतिरूप, मॉडल, मानचित्र आदि मान भी लें, तो क्या हमारी पृथ्वी भी इसी प्रकार गोल ही है?”
एक बच्चे ने कहा, “गोल नहीं, अण्डे जैसी है।”
दूसरे ने कहा, “सन्तरे जैसी।”
तीसरे ने नीचे फर्श की तरफ इशारा करते हुए कहा, “ये तो सीधी (समतल) है। गोल-गोल होती तो टायर की तरह आगे लुढ़क (घूम) जाती न... फिर हमारा क्या होता?” बच्चे की इस बात पर बाकि सभी हँसने लगे जबकी उसने यह बात बहुत गम्भीरता से कही थी।
इस नई बात के आगे एक और बच्चे ने सवाल रखा, “इस (ग्लोब) पर काशीपुर कहॉँ है? हम कहाँ हैं?”
इस सवाल पर कुछ बच्चों ने कहा कि हम ग्लोब के भीतर रहते हैं अर्थात् इस गेंद के अन्दर, तथा कुछ बच्चे चुपचाप सोचते रहे। पूछने पर वे अन्दर रहने वाली बात पर असहमति जताने लगे। मगर वो निश्चित नहीं थे।
एक बच्चे ने धीरे-से कहा (क्योंकि शायद ‘अन्दर’ कहने वालों की तादाद ज़्यादा थी), “हम इसके ऊपर रहते हैं।”
दोबारा पूछने पर कोई नहीं बोला। मगर जब मैंने बात दोहराई तो दो- तीन बच्चे बालने लगे, “ऊपर रहते हैं।”
फिर एक और बच्चे ने कहा, “ऊपर रहते हैं, सारे देश भी तो ऊपर ही बने हैं न।” किसी भी बात के अन्त में ‘न’ बोलना इन बच्चों का भाषाई लहज़ा था।
तपाक से दूसरे ने कहा, “ऊपर रहोगे तो फिसल नहीं जाओगे!”
तीसरे ने कहा, “ये तो गोल है न, सतह पर कैसे रहेंगे?”
अब तक ग्लोब बच्चों के हाथों में जा चुका था।
चौथे ने पूछा, “हम गोले पर रह सकते हैं?”
इसी दौरान मैंने भी अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की, “यदि ऐसा है भी तो क्या दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में रहने वाले लोग उलटे चलते होंगे?” (ग्लोब पर उंगलियाँ चलाकर मैंने दिखाया कि रूस और ऑस्ट्रेलिया के लोग कैसे चलते होंगे।)

पृथ्वी के अन्दर या बाहर?
यह एक ऐसा तर्क था जिसे लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया और मानने लगे कि हम धरती के अन्दर ही रहते हैं। इस तर्क के साथ एक बच्चे ने यह भी तर्क दिया कि हम ग्लोब के अन्दर हैं, तभी तो हमें आसमान गोल नज़र आता है।
मैंने बच्चे की बात में जोड़ा, “अगर हम पृथ्वी (ग्लोब) के अन्दर रहते हैं और यदि हम किसी एक ही दिशा में सीधे चलते जाएँ, फिर तो एक दिन पृथ्वी की किसी  अन्दर  की दीवार  से  टकरा जाएँगे।”
पृथ्वी की किसी दीवार से टकराने की यह कल्पना बच्चों के लिए नई और रोचक रही मगर साथ ही दोबारा संशय की स्थिति बन गई। फिर सवाल उठा कि क्या हम वाकई पृथ्वी के अन्दर रहते हैं।
जिन बच्चों का मानना था कि हम पृथ्वी की सतह पर ही रहते हैं, उनके पास इसके लिए कोई ठोस तर्क नहीं था। उनका कहना था कि बस उन्हें लगता है कि हम पृथ्वी के अन्दर नहीं, उसकी सतह पर ही रहते हैं। मुझे लगता है कि उनके पास कुछ तर्क या अनुभव ज़रूर होंगे मगर वे उन्हें प्रस्तुत नहीं कर पा रहे थे। जैसे एक बार एक बच्चे ने आश्चर्यपूर्ण तर्क दिया, “हमें सूरज, चाँद, तारे दिखते हैं, वो भी क्या पृथ्वी के अन्दर ही हैं?” अर्थात् यदि हम पृथ्वी के अन्दर रहते हैं तो इसका एक अर्थ यह भी है कि ये सब पृथ्वी के अन्दर ही होंगे क्योंकि हमें ये रोज़ नज़र आते हैं।
मैंने पूछा, “तो क्या हमारी पृथ्वी इतनी बड़ी है?”
सभी बच्चे कुछ देर चुप रहे फिर एक बच्चे ने कहा, “आसमान में खिड़की है जिसमें से रोज़ रात चाँद और तारे -- सब अन्दर आते हैं और सुबह होते ही वापस चले जाते हैं।”
एक अन्य बच्चे ने पूछा, “और सूरज?”
पहले बच्चे ने कहा, “और इनके जाने के बाद सूरज आ जाता है, इसलिए ही तो सुबह हो जाती है न।”
एक अन्य बच्चे ने पूछा, “वह खिड़की हमें क्यों नहीं दिखती...?”
बच्चे ने कहा, “वह बहुत ऊपर है इसलिए हमें नहीं दिखती।”
फिर एक बच्चे ने कहा, “हवाई जहाज़ में बैठेंगे तब दिखेगी न...।”
आकाश में खिड़की और हवाई जहाज़ में बैठने की बात पर सभी बच्चे एक साथ हँसने लगे। मध्याह्न भोजन के लिए घण्टी बज चुकी थी मगर कुछ बच्चे हाथों से हवाई जहाज़ बनाकर खिड़की देखने निकल पड़े थे।
और फिर... अन्त में

कालांश के बाद उपस्थित शिक्षक साथी से सत्र पर कुछ बातचीत हुई। बातचीत का लबोलुआब यह था कि बच्चों के लिए ग्लोब किसी कुबेर के खज़ाने से कम नहीं होता। सरकारी विद्यालयों में या तो ग्लोब होते नहीं हैं और यदि हैं भी तो वे सिर्फ प्रधान-अध्यापक महोदय की टेबल की शोभा बढ़ाने के काम आते हैं। बातचीत में यह भी सामने आया कि बच्चों ने पिछले विद्यालयों में इसे सिर्फ अलमारी के ऊपर डिब्बे में बन्द देखा था और कभी उन्हें इसे छूने तक का भी अवसर नहीं मिला। सिर्फ आला अधिकारियों के विद्यालय आगमन पर ही इनका प्रदर्शन किया जाता था। इसीलिए बच्चे ग्लोब को बड़े घबराते हुए और असहजता के साथ छू रहे थे।

बच्चों से बातचीत के उपरोक्त सत्र में कक्षा शिक्षण की दो आधारभूत बातों को ध्यान में रखने का प्रयास किया गया है। पहली, यदि बच्चों को सवाल पूछने एवं पूछे गए सवालों पर अपने विचार रखने के अवसर दिए जाएँ तो वे किसी भी अवधारणा पर विस्तृत संवाद करने में सक्षम होते हैं। दूसरी, सवालों के सीधे जवाब देने की बजाय यदि उन्हें जवाब खोजने के लिए आपसी तर्क-वितर्क करने को प्रोत्साहित किया जाए तो वे अपनी समझ एवं अनुभव का प्रयोग बेहतर रूप में करते हैं। साथ ही, एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि बच्चों को यह अनुभव करवाना आवश्यक है कि वे हमारे समक्ष सहजता के साथ अपने विचार रख सकते हैं तथा उनकी ये बातें हमारे लिए मूल्यवान हैं। किसी रचनावादी कक्षा में एक अध्यापक की भूमिका कुछ सिखाने वाले की बजाय आपसी संवाद को आरम्भ करने और उसे एक दिशा में ले जाने की होनी चाहिए। और इसी के साथ, बच्चों के सवालों के सीधे जवाब देने की बजाय उन्हें जवाब खोजने की प्रक्रिया में शामिल करना चाहिए ताकि आगे वे स्वतंत्र रूप से अपने विचार सृजित कर सकें।

और अन्त में, यह कतई ज़रूरी नहीं है कि किसी चर्चा का समाधान एक ही बार में या एक ही  कालखण्ड में हो जाए। अगर बच्चों में बातचीत और सोच-विचार की तैयारी बनती है तो शिक्षक उस विमर्श के ज़रिए बच्चों को जोड़ते हुए अवधारणाओं की स्पष्टता की तरफ बढ़ सकते हैं।


जीतेन्द्र ‘जीत’: शिक्षा-शिक्षण से जुड़े हैं तथा भ्रमण, अध्ययन और लेखन में गहरी रुचि रखते हैं। पूर्व में सामाजिक विज्ञान समूह, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, राजस्थान और उत्तराखण्ड के सदस्य रहे हैं। वर्तमान में विभिन्न शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों से सम्बद्ध हैं।
फोटोग्राफ: जीतेन्द्र ‘जीत’।
सभी रेखाचित्र: शैलेश गुप्ता: आर्किटेक्ट और चित्रकार जो आज भी बचपन को संजोए रखना चाहते हैं। एमआईटीएस, ग्वालियर से आर्किटेक्चर की पढ़ाई। कहानियाँ सुनने और सुनाने का शौक है। भोपाल में रहते हैं।