कीटभक्षण - ज़मीन के अन्दर, पत्तियों के ज़रिए [Hindi,PDF 230KB]
पोधों को कभी किसी ने कुछ खातेे नहीं देखा है। फिर भी नई पत्तियाँ, नई शाखाएँ, फूल-फल सभी तो आते रहते हैं इन पर। बिना खाए ये कैसे बढ़ते रहते हैं? किसानों को ज़रूर हमने खेतों में पानी देते देखा है। माली भी बगीचे के पौधों और गमले में लगे पौधों को दो-तीन दिन के अन्तर से पानी देते हैं। अत: पौधे खाते तो नहीं दिखते, पर पीते ज़रूर हैं। पानी की कमी से वे मुरझा भी जाते हैं। सुना तो यह भी है कि वे पानी जड़ों से खींचते हैं और पत्तों से उड़ाते हैं। तो सवाल यह है कि इस पानी का वे करते क्या हैं।

किताबें कहती हैं कि पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, हवा-पानी से, धूप के चूल्हे पर, पत्तियों की रसोई में। इस बात को वैज्ञानिक प्रकाश-संश्लेषण कहते हैं। हरे पौधे अपना खाना स्वयं बनाते हैं अत: उन्हें हमारे जैसे मुँह और दाँत की ज़रूरत नहीं है। और न ही दाल-रोटी की। अरे, जब मुँह ही नहीं तो फिर दाल-रोटी का क्या काम। खैर छोड़ो।

परपोषी पौधे
पर हज़ारों-लाखों पेड़-पौधों की इस हर-भरी दुनिया में कुछ पौधे ऐसे भी हैं जो कामचोर हैं। कहने का मतलब यह है कि अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते। तो फिर ज़िन्दा कैसे रहते हैं? जुगाड़ से। इन पौधों को परपोषी कहते हैं। इनकी कई श्रेणियाँ हैं - पूर्ण परपोषी जैसे अमरबेल (Cuscuta spp ), आंशिक परपोषी जैसे चन्दन (Santalum album), लोरेन्थस (Loranthus Spp.), विस्कम (Viscum spp..) आदि, और इसी बिरादरी में शामिल हैं कीटभक्षी पौधे। इनके पास दाना-पानी तो है (वे प्रकाश-संश्लेषण करते हैं) पर वह कुछ कम पड़ता है। अक्सर इन पौधों का प्राकृतिक आवास ऐसी मिट्टी या दलदल में होता है जिसमें पोषण की कमी होती है। यानी कि शंका हो सकती है कि इनके पोषण में दाना अच्छी क्वालिटी का नहीं है - कुछ प्रोटीन, नाइट्रोजन और खनिज पदार्थ कम पड़ते हैंें।
पोषण की इस कमी को ये पूरा करते हैं कीट-पतंगों का शिकार कर। जी हाँ, सचमुच शिकार कर। अत: इन्हें तरह-तरह से पुकारा जाता है, कीटभक्षी पौधे, मांसाहारी या शिकारी पौधे। दरअसल ये कीटभक्षी ही हैं। क्योंकि अधिकतर ये छोटे-मोटे कीट पतंगे ही पकड़ पाते हैं - इनके ट्रेप (जाल) छोटे ही होते हैं। कुछ कीटभक्षी पौधों, जैसे पिचर प्लांट2 में ज़रूर चूहों को डूबते देखा गया है। इसी तरह वीनस फ्लाई ट्रेप (Dionaea muscilupa) में भी कीटों की बजाय कभी-कभार धोखे से छोटा-मोटा मेंढक गिरफ्त में आ जाता है। पर ये सब अपवाद स्वरूप ही होता है।

मांसभक्षी पौधों के विविध जाल
पौधे अचल हैं और जीव-जन्तु चंचल। अत: इन चंचल जीवों को पकड़ने के लिए पौधों को कुछ खास इन्तज़ामात करने होते हैं। चूँकि भोजन बनाने का काम मूल रूप से पत्तियों का ही है, अत: भोजन पकड़ने की ज़िम्मेदारी भी पत्तियों पर ही आई है। खुली चपटी हरी पत्तियाँ धूप को पकड़कर भोजन बनाती हैं और कीटभक्षी पौधों की पत्तियाँ बन्द और लाल-पीली होकर शिकार को फँसाती हैं।
कीटभक्षी पौधों के तरह-तरह के मौत के कुएँ हैं - दरवाज़ा खुला और शिकार अन्दर, खिड़की बन्द और जीव कैद में। लालच में आए तो पकड़े गए जाल में। इन पौधों की पत्तियों में शिकार हेतु तरह-तरह के रूपान्तरण देखे जाते हैं। जैसे कब्जा पत्ती, ब्लैडर पत्ती (चित्र-1), पकड़ने वाले रोम वाली पत्ती आदि। जिन पत्तियों में पकड़ने का गुण नहीं विकसित हो पाया वे शिकार को ललचाकर डुबोने का काम करती हैं जैसे कलश पादप, सरासेनिया, डार्लिगटोनिय आदि।
कॉर्कस्क् जाल
परन्तु इन सबसे जुदा तरीका है नम भूमि में पाए जाने वाले कीटभक्षी पौधों का जिनका नाम है जेनलिसिया। दुनिया में जेनलिसिया वंश की 20 से ज़्यादा प्रजातियाँ मिलती हैं। इनके कीटभक्षी होने की सम्भावना चार्ल्स डार्विन ने भी व्यक्त की थी। परन्तु इसकी पुष्टि जर्मनी के विल्हेल्म बार्थलॉट और उनके साथियों ने 1998 में की।
जेनलिसिया का सामान्य नाम है कॉर्कस्क्  कार्निवोर। यानी कॉर्कस्क् डिग्री मांसभक्षी पौधे हैं। इनके शिकार को पकड़ने का तरीका बड़ा विचित्र है। जेनलिसिया में दो तरह की पत्तियाँ मिलती हैं। एक हवाई सामान्य पत्तियाँ (चित्र-2) जो हरी और प्रकाश संश्लेषण कर अपना भोजन बनाती हैं। दूसरे प्रकार की पत्तियाँ ज़मीन के अन्दर रहती हैं और जड़ जैसी दिखती हैं (लेख के पहले पन्ने पर चित्र व चित्र-3)। ये अपने पौधे के लिए बाकी पोषण जुटाती हैं। बाकी इसलिए कि कुछ तो हवाई-हरी पत्तियाँ बना ही लेती हैं। इस शेष पोषण में मुख्यत: खनिज लवण होते हैं जिनकी पूर्ति शिकार को पचाकर की जाती है।

ज़मीनी पत्तियाँ गज़ब का रूपान्तरण दिखाती हैं। ये जड़-नुमा पत्तियाँ दरअसल इस पौधे का ट्रेप है जो ज़मीन में रहने वाले बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ, कृमि और क्रस्टेशियन (छोटे-छोटे सन्धिपाद जीव) जो दलदल या पानी में रहते हैं, को पकड़ती हैं।
ये ट्रेप कैसे अपने शिकार को पकड़ते हैं, आइए देखें। कल्पना कीजिए कागज़ की एक संकरी पट्टी की जिसको मोड़-मोड़ कर पानी पीने की एक नली बनाई गई है। कॉर्कस्क् डिग्री के आकार की इन लम्बी-लम्बी पीली जड़-नुमा पत्तियों (चित्र-4c) से एक संकरी स्पाइरल दरार पूरी पत्ती में नीचे से ऊपर तक चलती है।
यह दरार अन्दर की ओर मुड़े हुए रोओं से ढँकी रहती है (चित्र-4c)। ये रोम सूक्ष्मजीवों को अन्दर तो आने देते हैं पर इस पत्ती-नली से वापस बाहर नहीं जाने देते। शिकार एक बार इस जाल में फँसकर ऊपर स्थित एक चेम्बर (मौत का कुँआ) की ओर अनवरत यात्रा करते रहते हैं। वहाँ स्थित पाचक ग्रन्थियाँ इन जीवों का भविष्य तय कर देती हैं जो निश्चित रूप से मौत ही है।
फँसे हुए शिकार की वापसी को रोकने के लिए एक और व्यवस्था है। यह है मुड़े हुए सूक्ष्म रोम जो एकांगी मार्ग बनाते हैं। ये मुड़े हुए बड़े रोम से अलग होते हैं।

पत्तियों में यांत्रिक अनुकूलन और रूपान्तरण का यह एक अद्भुत उदाहरण है जो प्रकृति के क्रियाकलापों की एक झलक मात्र है। शायद ज़मीनी पत्तियों का प्याज़ के बाद यह दूसरा उदाहरण है। प्याज़ की पत्तियाँ जहाँ भोजन बनाने और संग्रह करने का काम करती हैं वहीं जेनलिसिया में भोजन बनाने का काम हवाई पत्तियाँ करती हैं और भोजन पकड़ने का काम ये रूपान्तरित ज़मीनी पत्तियाँ। इस प्रकार जेनलिसिया विषमपर्णिता (heterophylly) का भी एक ऐसा अनूठा उदाहरण है जहाँ अलग-अलग पत्तियाँ अलग-अलग काम करती हैं। यहाँ विषमपर्णिता केवल आकार्यिकीय स्तर पर ही नहीं कार्यिकीय स्तर पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यानी जेनलिसिया की पत्तियाँ प्याज़ की पत्तियों से चार कदम आगे हैं।

जेनलिसिया की यह कीटभक्षी प्रकृति दलदली स्थानों पर उगे इन पौधों को, जहाँ की मिट्टी में खनिज पदार्थों की कमी होती है वहाँ भी फलने-फूलने में सक्षम बनाती है। पकड़े गए शिकार से इसके भोजन की क्वालिटी सुधरती है और ये कुपोषित से सुपोषित हो जाते हैं।


किशोर पंवार: होल्कर साइंस कॉलेज, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में रुचि।