केवलानन्द काण्डपाल [Hindi PDF, 160 kB]
जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में काम करते हुए हमें डायट मेंटर के रूप में विकास खण्डों में विद्यालयों का दौरा करने का निर्देश होता है। अपने इस दायित्व के क्रम में मुझे प्रारम्भिक विद्यालयों के बच्चों के साथ बातचीत करने के अवसर मिलते रहते हैं। ईमानदारी से बताऊँ तो बच्चों को समझने से ज़्यादा स्वयं को जानने, समझने के मौके मिलते हैं।
इस साल प्राथमिक विद्यालय, पुरडा, विकास खण्ड गरुड़ में जाने का अवसर मिला। संयोग से (यह सुखद संयोग नहीं है कि एकल अध्यापक/अध्यापिका पाँच कक्षाओं का संचालन कर रहे हों) सभी बच्चे एक बड़े-से कमरे में एक साथ बैठे मिल गए। वस्तुत: यह बहुकक्षीय-बहुस्तरीय कक्षा से मिलती-जुलती कोई व्यवस्था थी। मैंने और मेरे साथी डॉ. विमल किशोर ने बच्चों से विषयगत बातचीत करने का निर्णय लिया। बच्चों ने भी बहुत बढ़-चढ़ कर दोस्ती की और इस दोस्ती का फायदा यह हुआ कि बच्चे अपने बारे में बहुत कुछ बताने को उतावले हो रहे थे।
मेरा यह प्रयास रहता है कि स्कूल के दौरे की सीमित अवधि में निम्न उद्देश्य तो कमोबेश प्राप्त हो ही जाएँ:
* बच्चों से संवाद की स्थितियाँ बना सकूँ।
* संवाद कायम होने के बाद बच्चा अपने बारे में जो कुछ भी बताना चाहता है उसे ध्यान से सुन सकूँ।
* बच्चे की मदद ज़रूरी हो तो बच्चे के स्व का सम्मान करते हुए उससे बातचीत करूँ। यकीनन यह बातचीत दोस्ती के स्तर पर ही हो जहाँ मदद लेने एवं देने में कोई संकोच न रहे।
बच्चों के साथ बातचीत
मैंने सबके सामने एक तरह की चुनौती रखी कि हम सब अपने-अपने बारे में बताएँगे कि कौन-सा एक काम हम अच्छे से कर सकते हैं। और इसकी शुरुआत मैंने की, कागज़ से एक तितली बनाकर (और सच कहूँ तो इससे ज़्यादा कुछ बनाना मुझे आता भी नहीं)। इसके बाद कक्षा-5 में नामांकित एक बच्चे ने चुनौती स्वीकार करते हुए कहा, “मैं आपका चित्र बना सकता हूँ।” मेरे साथी मॉडल बने और मैं इस प्रक्रिया का साक्षी। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उसने हूबहू चित्र बनाया या नहीं वरन् महत्वपूर्ण है उसका अपनी क्षमताओं में विश्वास का भाव, चित्र बनाते समय उसकी तल्लीनता एवं उसका आत्मविश्वास। इसके बाद उसने हाव-भाव के साथ हास्य कविताएँ सुनाईं जो शायद अपने परिवार के बड़े-बुज़ुर्गों से सुनी होंगी। इस बच्चे का नाम अनिल कुमार है। कक्षा-5 में अध्ययनरत अनिल के पिता नहीं रहे, उसकी माँ मेहनत-मज़दूरी करके उसकी शिक्षा का प्रबन्ध कर रही हैं। इतनी विषमताओं के बावजूद अनिल का जीवन पर विश्वास मज़बूत दिखाई देता है। मुझे तो लगता है कि वह जीवन के फलसफे को जानने की यात्रा पर है।
अनिल की अध्यापिका ने बताया कि वह तो पढ़ाई भी अच्छी तरह से कर रहा है और उसने थर्मोकोल से एक मॉडल भी बनाया है।
अनिल ने कक्षा में जैसे जादू ही कर दिया। उसका असर यह हुआ कि प्रत्येक बच्चा अपने बारे में बताने, करके दिखाने को उतावला हो रहा था। मेरी यह नैतिक ज़िम्मेदारी थी कि मैं उनके उत्साह में बाधक न बनूँ। अत: प्रत्येक बच्चे को अभिव्यक्ति का पूरा अवसर दिया गया। इस अवधि में मेरी नज़र एक सहमी-सहमी-सी बच्ची पर भी थी जो अपने में गुमसुम बैठी थी। उस पर यह माहौल असर क्यों नहीं कर पा रहा है?
छूट्टी का समय हो चला था। बस विद्यालय स्टाफ द्वारा शिष्टतावश घण्टी नहीं बजायी गई थी। मैं भी उनकी छुट्टी के समय में आड़े नहीं आना चाहता था, यद्यपि बच्चों का ध्यान छुट्टी के समय पर नहीं रह गया था। फिर भी मैंने मन बनाया और विदा लेने लगा, परन्तु अभी तो एक चमत्कार बाकी था।
वह गुमसुम-सी बच्ची आत्मविश्वास के साथ खड़ी हुई और पूछा, “सर, आपने तो अपना परिचय दिया ही नहीं।”हाँ बिलकुल, यही शब्द थे उसके। मैं निरुत्तर कुछ-कुछ अचम्भित भी। परन्तु मन ही मन बहुत खुश भी (अधिकतर विद्यालयों में बच्चों को हमेशा उत्तर देने के लिए कन्डीशन्ड किया जाता है और ऐसा प्रश्न करने की तो वे शायद ही कभी हिम्मत कर पाते हों)। मेरी खुशी दो बातों को लेकर थी। पहली यह कि गुमसुम बच्ची ने आत्मविश्वास से स्वयं को प्रस्तुत किया और दूसरी, शायद बच्चे दोस्त के रूप में मुझे स्वीकार कर रहे थे। उस बच्ची के नज़रिए से स्वयं को टटोला तो लगा कि वह मेरा परिचय शिक्षक के रूप में तो नहीं ही चाहती। वस्तुत: औपचारिक परिचय तो विद्यालय की अध्यापिका द्वारा पूर्व में दिया ही गया था, तो फिर यह बच्ची किस प्रकार का परिचय चाहती थी? उसे शायद यह अन्दाज़ा तो होगा कि मैं शिक्षक बिरादरी का कोई व्यक्ति हूँ परन्तु चूँकि शिक्षक-छात्र के बीच की दूरी के मानक का मैं पालन नहीं कर रहा था तो शायद उसे इस बारे में कुछ सन्देह भी हो। अत: मैंने सन्देह का लाभ उठाते हुए पुन: 20-25 मिनट अपनी प्राथमिक कक्षा के अनुभवों और यादों को साझा किया। उस बच्ची के बहुत-से प्रश्नों ने अपने उन दिनों की यादों को ताज़ा करने में मेरी मदद की। बच्चों के प्रश्नों की बानगी तो देखिए:
* आपको कौन-सा विषय अच्छा लगता था?
* क्या आपको अध्यापकों से डर लगता था?
* जिन बातों को आप उन दिनों नहीं समझ पाए थे, क्या बड़े होकर आपने उन्हें समझने की कोशिश की?
* जो बातें आपको समझ में नहीं आती थीं उनके लिए आप क्या करते थे? आदि आदि।
इसी प्रकार के बहुत-से सवाल थे। निश्चित रूप से ये प्रश्न बच्चों के परिप्रेक्ष्य का संकेत हैं और भविष्य में बच्चों से मुलाकातों में मेरी मदद करेंगे। साथ ही, बच्चों को जानने-समझने एवं इससे बढ़कर अपनी भूमिका की जाँच-पड़ताल में मेरी मदद करेंगे।
परिचय न देने के बारे में उस बच्ची का मासूम-सा उलाहना मुझे बेचैन किए हुए है। यह उलाहना बाध्य कर रहा है कि मुझे बार-बार उन बच्चों के बीच जाना होगा। अभी तो परिचय लेने-देने का सिलसिला शु डिग्री ही हुआ है, इसे मज़बूत बनाना है। बच्चों को जानने-समझने और उससे भी बढ़कर अपनी भूमिका को गहनता से समझने के लिए मुझे जाना ही होगा। बच्ची की आवाज़ मेरा पीछा कर रही है, “सर, आपने तो अपना परिचय दिया ही नहीं।”
केवलानन्द काण्डपाल: ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, बागेश्वर, उत्तराखण्ड में कार्यरत।
सभी फोटो: केवलानन्द काण्डपाल।