लेखक: कीर्ति जयराम [Hindi PDF, 108 kB]
अनुवाद: योगेन्द्र दत्त
भाग-1
यह लेख ऐसे समय पर लिखा जा रहा है जब देश भर में इस बात पर बहुत व्यापक चिन्ता व्यक्त की जा रही है कि स्कूलों में बहुत बड़ी संख्या में बच्चे ‘सीख नहीं पा रहे’ हैं। शिक्षा सम्बन्धी कई ताज़ा दस्तावेज़ों और चर्चाओं में इसे शिक्षा के क्षेत्र में एक गम्भीर संकट बताया गया है। हाल ही में बड़े पैमाने पर किए गए कई आकलनों में भी बार-बार इस बात की तरफ इशारा किया जा रहा है कि देश के विभिन्न भागों में बहुत सारे बच्चे सिर्फ रट कर पास हो रहे हैं। वे अर्थपूर्वक पढ़ने, लिखने और अंकगणित की प्रारम्भिक क्षमताएँ भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। इसका मतलब है कि ऐसे बच्चों को पढ़ने, लिखने और सोचने में स्वतंत्र रूप से समर्थ नहीं माना जा सकता।
हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे न केवल यह समझें कि वे क्या पढ़ रहे हैं बल्कि उन्हें पढ़ने में मज़ा आए। वे लिखित सामग्री की व्याख्या कर सकें और उससे पाई गई सीख को स्कूल में, अपने दैनिक जीवन मेंे और सीखने के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रयोग कर सकें। इस मकसद से प्रारम्भिक साक्षरता के साहित्य में कुछ ऐसे तरीके उपलब्ध हैं जिनके सहारे हम अपने बच्चों को समझ से पढ़ने वाले सक्रिय, चिन्तन-शील और उत्साही पाठक बना सकें। इस लेख में इन तरीकों को कुछ हद तक समझने की कोशिश की जाएगी।
पृष्ठभूमि
अगर हम प्रारम्भिक कक्षाओं में पढ़ने और लिखने के सवाल पर गौर करते हैं तो उस समय स्थिति और पेचीदा दिखाई देने लगती है जब हम देश के एक कोने से दूसरे कोने तक विद्यार्थियों, अध्यापकों और पढ़ने-सीखने के माहौल में बेहिसाब विविधता पर ध्यान देते हैं। हालाँकि बच्चे कुदरती तौर पर अपने नए अनुभवों को ‘बूझने’ में सक्षम होते हैं मगर स्कूली और घरेलू भाषा का फर्क तथा स्कूल की संस्कृति और घर की संस्कृति का भेद बहुत सारे बच्चों के लिए एक ऐसी समस्या बन जाता है जिससे वे पार नहीं निकल पाते। लिहाज़ा, उन्हें स्कूल के अनुभव अजनबी और पराए लगने लगते हैं जिनसे वे कोई सार्थक जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते। जब तक स्कूली शिक्षा को बच्चों के जीवन और अनुभवों के साथ जोड़ने के लिए सोच-समझ कर कोशिशें नहीं की जाएँगी तब तक सम्भवत: असंख्य बच्चे कक्षा के भीतर पढ़ने व लिखने की अपनी कोशिशों को सिर्फ स्कूल और पाठ्यचर्या का हिस्सा ही मानते रहेंगे और उनके साथ केवल यांत्रिक और निरर्थक ढंग से जूझते रहेंगे।
प्रारम्भिक साक्षरता पर हमारे पास जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें भी इसी बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि जब छोटे-छोटे बच्चे पढ़ने व लिखने के अनुभवों को अपने जीवन के साथ जोड़ने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, वे उन्हें अपनी सोच या अपने अनुभवों का हिस्सा नहीं बना पाते हैं तो उनका कक्षा के पाठों से कोई अन्तरंग रिश्ता नहीं बन पाता और लिहाज़ा, वे उनको समझने में सक्षम नहीं हो पाते।
भाषा सीखने-सिखाने की वर्तमान सोच के पीछे यह अवधारणा है कि बच्चे दुनिया के बारे में अपनी समझ और ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। यह निर्माण किसी के सिखाए जाने से नहीं, बल्कि बच्चों के खुद के अनुभवों व सक्रिय खोजबीन द्वारा होता है। यहाँ तक कि वे भाषा की ध्वनि संरचना के जटिल नियमों को स्वयं ही, बिना किसी के सिखाए, सीख लेते हैं और पूर्ण रूप से अपनी मातृभाषा आत्मसात करने के बाद ही स्कूल में प्रवेश करते हैं। इस सोच के अन्तर्गत शुरुआती बाल अवस्था में ही बच्चे अपने सामाजिक परिवेश से अर्थ निर्माण करने के तौर-तरीके सीख लेते हैं और इन्हें अपने दैनिक जीवन के अनुभवों पर लागू करके, अपनी आसपास की दुनिया को समझने का प्रयास करते हैं। मौखिक भाषा उनकी जिज्ञासा, उनके विचार, अभिव्यक्ति, कल्पना और प्रश्न प्रकट करने का माध्यम बन जाती है, और इस भाषा का प्रयोग करके ही वे अपनी भाषाई क्षमताएँ सुदृढ़ बनाते जाते हैं।
जिस तरह शुरुआती बालावस्था में नन्हे बच्चे अपने परिवार के सदस्यों से, और अपने आसपास से आदान-प्रदान करके खुद ही बोलना सीख जाते हैं, उसी तरह से यह देखा गया है कि जिन बच्चों को अपने घरों में लिखित माहौल मिलता है वे स्कूल में प्रवेश करने से पहले ही, खुद से कुछ हद तक लिखना-पढ़ना सीख जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, वे पहचान लेते हैं कि लिखने-पढ़ने की प्रक्रिया एक अर्थपूर्ण प्रक्रिया है और जो बात वे बोल कर कहते हैं उसे लिखकर भी कहा जाता है। साथ में वे लिखित शब्दों का प्रयोग भी अपने स्वाभाविक तरीकों से करने लगते हैं, चाहे वह अखबार या पुस्तक पढ़ने का अनुकरण हो, चिट्ठी लिखने का नाटक हो या अपनी उँगली को बाँए-से-दाँए की ओर चलाकर कहानी पढ़ने की कोशिश। उच्चारित शब्दों का लिखित शब्दों से तालमेल चाहे बने या न बने, इन नन्हे बच्चों के लिए उनका गोल-मटोल, ऊट-पटांग लेखन और उसका पठन, सब वास्तविक पढ़ने-लिखने के अनुभव बन जाते हैं। इन बच्चों की तुलना में जिन बच्चों को शुरुआती बालावस्था में ऐसा लिखित माहौल घर में नहीं मिलता है वे इन अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। उनके लिए स्कूल के अपरिचित लिखित माहौल से जुड़ना अक्सर एक चुनौती बन जाती है।
पढ़ना किसे कहते हैं?
प्रारम्भिक साक्षरता के साहित्य में पढ़ना एक रचनात्मक प्रक्रिया मानी गई है। इस सोच का मानना है कि पढ़ने की प्रक्रिया में पाठक द्वारा लिखित शब्दों का सक्रिय आदान-प्रदान करके अर्थ का निर्माण किया जाता है। बच्चे अर्थ और समझ बनाने के लिए अपने अनुभवों और पूर्व ज्ञान का उपयोग करते हैं। इस सोच के अन्तर्गत एक बच्चे की पृष्ठभूमि, उसका परिवेश और अनुभव उसके लिए लिखित सामग्री की समझ निर्माण करने का आधार बन जाते हैं। यही कारण है कि कक्षा के भीतर बच्चों की विविधता को पहचानना ज़रूरी होता है ताकि बच्चों के अलग-अलग अनुभव, उनकी व्यक्तिगत सोच और उनके पूर्व-ज्ञान को कक्षा के कार्य में जगह मिल सके, और वे समझ से कक्षा की प्रक्रिया में जुड़ पाएँ। केवल एक सही उत्तर वाली पाठ्यपुस्तिका की गतिविधियाँ विभिन्न सन्दर्भों से आने वाले बच्चों के लिए अक्सर दिक्कत पैदा करती हैं।
पढ़ने से सम्बन्धित शोधों में यह बात भी दिनोदिन साफ होती जा रही है कि कोई भी बच्चा एक ही तरह से नहीं पढ़ता। पढ़ने की हर कोशिश इन तीन बातों से तय होती है जो पढ़ने की क्रिया को सार्थक या निरर्थक अनुभव में तब्दील कर सकती हैं:
* पढ़ने वाले के स्तर और विषयवस्तु के हिसाब से पाठ की उपयुक्तता;
* पाठक का कौशल तथा पढ़ने के प्रति उसकी रुचि और इच्छा जो कि पढ़ने के उद्देश्य से यानी इस बात से तय होती है वह क्यों पढ़ रहा है; तथा
* पढ़ने का सन्दर्भ या गतिविधि।
इसका मतलब है कि पढ़ने की क्रिया पर हमारे बौद्धिक, भाषायी, सामाजिक एवं भावनात्मक आयामों का सीधा असर पड़ता है। कक्षा की खासियतें, जैसे अध्यापक की उम्मीदें और विद्यार्थियों का सहज महसूस करना, ये भी महत्वपूर्ण पहलू हैं क्योंकि काफी हद तक इन्हीं से यह तय होता है कि कोई बच्चा किसी पाठ को किस तरह से देखता है।
बच्चों को लिपिबद्ध चिन्ह और उनकी ध्वनि से परिचित कराने के तरीकों पर प्रारम्भिक साक्षरता के साहित्य में विवाद चला है, यानी इन्हें नियंत्रित और क्रमिक तरीके से सिखाना चाहिए या नहीं। एक विचारधारा यह मानती है कि कुछ अक्षर बाकी अक्षरों की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं और इन्हें पहले सिखाया जाए। वहीं एक दूसरी विचारधारा है कि बच्चों को अक्षर के चिन्ह व उनकी ध्वनियाँ स्वाभाविक तौर से, एक वास्तविक सन्दर्भ में अथवा रोज़मर्रा के जीवन से जोड़कर सिखाए जाएँ जो कि कक्षा के विभिन्न पाठकों के लिए काफी मायने रखती हैं, और इस तरह से पठन प्रक्रिया उनके लिए सार्थक बन जाती है। वर्तमान सोच के तहत इन दोनों विचारधाराओं का सन्तुलित मिश्रण सबसे उपयोगी माना गया है।
समझ के बारे में?
अमेरिकी कांग्रेस ने प्रारम्भिक पठन क्षमता के क्षेत्र में किए गए हज़ारों शोध अध्ययनों का मूल्यांकन करने के लिए कुछ साल पहले नेशनल पैनल फॉर रीडिंग (एनपीआर) का गठन किया था। इस पैनल की रिपोर्ट ‘टीचिंग चिल्ड्रन टू रीड’ के आधार पर, अध्यापकों और शिक्षाविदों ने पठन सम्बन्धी निर्देशों का बारीकी से अध्ययन शु डिग्री किया। उन्होंने कक्षा में होने वाली ऐसी प्रक्रियाओं व शिक्षा पद्धतियों को पहचानने की कोशिश की है जो उद्देश्यपूर्वक और सार्थक ढंग से पढ़ने और लिखने में सहायता दे सकती हैं। इस सोच-विचार से पठन विशेषज्ञों में यह समझ पैदा हुई है कि अगर बच्चों में शब्दों को पहचानने के कौशल बढ़ाए जाएँ और साथ में उनके पढ़ने-लिखने के प्रवाह, उनकी शब्दावली और समझने के उनके तरीकों पर ध्यान दिया जाए तो वे ज़्यादा अच्छी तरह पढ़ना सीख सकते हैं। इस धारा के अध्ययनों द्वारा किसी पाठ को पढ़कर या सुनकर समझने की दक्षता को पठन शिक्षा के एक महत्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में रेखांकित किया जा रहा है।
पढ़कर समझने को एक ऐच्छिक और सक्रिय प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जो पढ़ने से पहले, पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद तक फैली होती है। पढ़ कर समझने की प्रक्रिया के दो हिस्से होते हैं: शब्दावली का ज्ञान और लिखित पाठ को समझ पाना। किसी पाठ1 (text) का अर्थ समझने के लिए ज़रूरी है कि पहले बच्चा लिखे हुए शब्दों को पढ़ने और उनको समझने में सक्षम हो। अगर कोई बच्चा शब्दों को पढ़ने और समझने में ही मुश्किल महसूस करने लगता है तो वह कहानी के पूरे खाके को नहीं समझ पाएगा। अलग-अलग शब्दों या अलग-अलग वाक्यों की इस समझदारी को स्थानीय समझ (local comprehension) कहते हैं। प्रत्येक शब्द या वाक्य को समझने के योग्य होने के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि बच्चा उन्हें एक साथ रखकर यह समझने में सक्षम हो कि पूरा पाठ या पूरी कहानी क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह की व्यापक समझ को सार्विक समझ (global comprehension) कहा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में पाठक शब्दों की जानकारी और समझ यानी शब्द ज्ञान के साथ-साथ अपने पूर्व-ज्ञान और दैनिक जीवन के अनुभवों का भी प्रयोग करते हैं, जिन्हें विशेषज्ञों द्वारा विश्व-ज्ञान कहा जाता है। इन दोनों के सक्रिय तालमेल से एक पाठक लिखित सामग्री से अर्थ का निर्माण करता है ताकि वह उसे समझ से पढ़ पाए।
काफी समय पहले, 1978-79 में, डॉलोरेस डर्किन्स ने बड़े धैर्य से सैंकड़ों घण्टे तक कक्षाओं का अवलोकन किया था। इस अध्ययन के बाद उनका निष्कर्ष यह था कि अध्यापक अपने विद्यार्थियों की पठन क्षमता का आकलन तो करते थे लकिन वे उन्हें समझ से पढ़ने के तरीके नहीं सिखा रह थे और न ही वे बच्चों को ऐसी कोई विशेष मदद देते थे जिनसे बच्चे सीखें कि अच्छी तरह से पढ़ने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। यानी, ज़्यादातर अध्यापक समझने की दक्षताओं को आँकते तो हैं मगर वे समझ से पढ़ने के तौर तरीके नहीं सिखाते। डर्किन्स के इस निष्कर्ष तथा एनपीआर रिपोर्ट के आलोक में अब इस बात पर एक सहमति बन चुकी है कि लिखित सामग्री को समझने के तरीके भी सिखाए जा सकते हैं और उनको सिखाना ज़रूरी है। मगर, फोन्टास एवं पिनेल ने यहाँ एक हिदायत भी दी है जिसको ज़हन में रखना ज़रूरी है:
“बेशक, हमारा गहरा विश्वास है कि विद्यार्थियों को सक्षम पाठक बनने के लिए मदद दी जानी चाहिए, ताकि वे नाना प्रकार की अर्थ-ग्रहण (comprehension) रणनीतियों का इस्तेमाल करना सीख सकें, मगर हमें इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि हम ऐसा क्यों करना चाहते हैं। बुनियादी बात यह है कि हम उत्साही और लगनशील पाठक तैयार करना चाहते हैं -- यानी ऐसे विद्यार्थी जो न केवल पढ़ सकते हों बल्कि जो पढ़ते हों, जिनमें पढ़ने के प्रति एक ललक हो ताकि उनके सामने साहित्य के नए-नए दरवाज़े खुलते जाएँ, और वे ललित साहित्य और गैर-साहित्यिक (non fiction) लेख के विपुल भण्डार से रूबरू होते जाएँ।”
समझकर पढ़ने की रणनीतियों (reading comprehension strategies) को सिखाने का मुख्य उद्देश्य यह है कि पाठकों को लिखित सामग्री के साथ ज़्यादा मुकम्मल तौर पर जुड़ने में मदद मिले और वह उनके लिए एक सोच-विचार से भरा अनुभव बन सके। स्टेफनी हार्वे और एने गुडविस ने ‘स्ट्रेटेजीज़ दैट वर्क’ नामक अपनी किताब में इस बात को बहुत सटीक ढंग से समझाया है:
“समझ से पढ़ने का मतलब केवल ये नहीं है कि बच्चे सिर्फ किसी पाठांश, कहानी या अध्याय के आखिर में दिए गए सवालों के जवाब देने की क्षमता हासिल कर लें। इसका आशय सोचने की एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया से होता है। जब पाठक बोल-बोल कर पढ़ी जा रही किसी लिखित सामग्री को पढ़ते या सुनते हैं, तो वे मन ही मन उसके साथ एक संवाद भी करते रहते हैं। उसे पढ़ते या सुनते हुए कहीं वे बहुत खुश होते हैं, कहीं हैरान होते हैं तो कहीं गुस्से वाली प्रतिक्रिया देते हैं। वे उस पर सवाल उठाते हैं, लेखक के साथ बहस करते हैं और बीच-बीच में सहमति जताने के लिए अपना सिर हिलाते हैं। जैसे पढ़ी जा रही कहानी को सुनते हुए वे उसके साथ अपना सम्बन्ध गढ़ते हैं, सवाल पूछते हैं और जो कुछ उन्हें पढ़ाया या सुनाया जा रहा है, उसको और बेहतर ढंग से और गहराई से समझने के लिए कुछ निष्कर्ष निकालते चलते हैं...।”
हार्वे और गुडविस आगे बताते हैं,
“हम चाहते हैं कि हमारे विद्यार्थी इस बात को समझने लगें कि पढ़ते समय उनकी सोच कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। अध्यापकों के नाते हमारा फर्ज़ है कि हम विद्यार्थियों को इस बात का यकीन दिलाएँ कि उनकी सोच, उनके विचार और उनकी व्याख्याएँ भी मायने रखती हैं। जब वे पढ़ने वाले किसी पाठ या कहानी से जुड़ते हैं और अपने भीतर होने वाली उस बातचीत को गौर से सुनते हैं तो उनकी समझदारी में इज़ाफा होता है, उनका ज्ञान पुष्ट होता है, उनके पास एक अन्तर्दृष्टि विकसित होती है।”
प्री-स्कूल उम्र के बहुत छोटे बच्चों के लिए भी कहानियाँ सुनना और किताबों को देखना और पढ़ना, उनके लिए समझने की एक सक्रिय प्रक्रिया बन सकती है। इन छोटे-छोटे बच्चों को भी गौर से सुनने के तरीके सिखाए जा सकते हैं। उन्हें जो कुछ सुनाया जा रहा है उसे अपने जीवन से जोड़ने के मौके देकर और उसकी व्याख्या करने से, बच्चों को लिखित सामग्री के साथ समझ से जुड़ने के तरीके सिखाए जा सकते हैं। पढ़ने और बोल-बोल कर पढ़ने के सत्रों में सवाल पूछना, अन्दाज़ लगाना और इसी प्रकार की अन्य सामाजिक अन्तर्क्रियाएँ बच्चों में समझने की क्षमता को बढ़ाती हैं। मिसाल के तौर पर, किताबें पढ़कर सुनाने वाले वयस्क इन छोटे बच्चों के साथ किताब से जुड़ी बातचीत करके उन्हें उसके बारे में सोचने, उस पर सवाल उठाने और उसके साथ अपने जीवन के अनुभवों ंको जोड़ने के मौके देते हैं।
समझ हासिल करने की कुछ आधारशिलाएँ
1. अवधारणात्मक ज्ञान
बच्चों को उन शीर्षकों के साथ एक जान-पहचान की ज़रूरत पड़ती है जिनको वे पढ़ रहे हैं। उन्हें उस वृत्तान्त और व्याख्यात्मक पाठ में आई मुख्य अवधारणाओं की कुछ बुनियादी समझदारी की भी ज़रूरत होती है। मिसाल के तौर पर, प्री-स्कूल या कक्षा- एक की उम्र के छोटे-छोटे बच्चे, जो उन विचारों को समझते हैं जिनके बारे में उन्होंने पढ़ा है या जिनके बारे में उन्होंने चित्र-पुस्तक के आधार पर जाना है, वे साल-दो-साल के भीतर पढ़कर समझने की अच्छी क्षमता हासिल कर लेते हैं (पेरिस एवं पेरिस)।
अगर विद्यार्थियों के पास प्रिंट या ऐसी विषयवस्तु के साथ पहले से कोई अनुभव या अवधारणात्मक ज्ञान नहीं है जिसको वे पढ़ने वाले हैं तो ज़रूरी है कि पढ़ने से पहले ही उन्हें यह ज्ञान मिल जाए ताकि उनके लिए पढ़ना एक सार्थक गतिविधि बन सके और वे जो कुछ पढें, उसको समझने में सक्षम हों। अवधारणात्मक ज्ञान को दुनिया का ज्ञान भी कहते हैं। शोधों से पता चला है कि जिन बच्चों के पास दुनिया का ज्ञान कम होता है, वे पढ़ने की क्षमता में भी अपेक्षाकृत कमज़ोर होते हैं।
2. भाषा कौशल
देखने में आया है कि पढ़ने की क्षमता पर बच्चों के मौखिक भाषा कौशल से भी असर पड़ता है। इसमें अपने आपको व्यक्त कर पाने के लिए और सुनने के लिए भाषा के इस्तेमाल की क्षमता शामिल है। उदाहरण के लिए, जिन बच्चों के पास ज़्यादा बड़ा शब्द-भण्डार होता है और जो अपने विचारों, सोच और भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लिखने और बोलने में बहुत सारे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, और जो लिखी हुई सामग्री में भी बहुत सारे शब्दों को समझने में सक्षम होते हैं, उनके पास समझते हुए पढ़ने की ज़्यादा बेहतर क्षमता होती है (डिकिन्सन एवं टेबॉर्स)।
3. तेज़ी से शब्दों को पहचानना (डीकोडिंग की कुशल दक्षताएँ)
किसी पाठ को समझने में शब्दों को पहचानने का कौशल बहुत मायने रखता है। शोधों से यह बात साफ हो चुकी है कि जो विद्यार्थी शब्दों को नहीं पढ़ सकते, वे उस पाठ को नहीं समझ सकते। वे शब्दों को पढ़ पाएँ, इससे पहले ज़रूरी है कि वे अलग-अलग अक्षरों और उनकी ध्वनियों से वाकिफ हों ताकि शब्दों को कहने के लिए वे अलग-अलग आवाज़ों को बोलने और उनको एक-दूसरे से जोड़ने में सक्षम हो सकें।
जब कोई शब्द बोला जाता है तो अच्छे पाठक इस बात को फौरन समझ लेते हैं कि उस वाक्य और पाठ के सन्दर्भ में उस शब्द का क्या अर्थ बन रहा है। अगर उन्हें लगता है कि यह शब्द यहाँ उपयुक्त नहीं है तो वे उस शब्द को फिर से देखकर यह जाँचने की कोशिश करते हैं कि उन्होंने गलत तो नहीं पढ़ लिया है। पढ़ना सिखाने वाले शिक्षक बच्चों के शब्द पहचान कौशल को विकसित करने पर ज़बर्दस्त ध्यान देते रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि समझ कर पढ़ने वाले पाठक तैयार करने के लिए इस तरह का कौशल कितना महत्व रखता है (प्रेसली)।
कुशलतापूर्वक पढ़ने की एक सबसे गौर करने वाली खासियत यह है कि वे शब्दों को प्रवाह के साथ पढ़ सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि उनके लिए शब्दों को उच्चारित करना एक स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया बन जाती है। उन्हें शब्दों को बोलने के लिए अतिरिक्त ध्यान नहीं देना पड़ता। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि पढ़ना यानी शब्दों का अर्थ बूझना और पाठ को समझना, दोनों ही हमारी अल्पकालिक स्मृति पर निर्भर होते हैं और यह अल्पकालिक स्मृति बहुत थोड़ी होती है। एक सामान्य पाठक एक बार में लगभग 7 जानकारियों को ही ज़हन में रख पाता है। ऐसे में अगर विद्यार्थी शब्दों को पहचानने में तेज़ नहीं होगा, या वह अभी भी शब्दों का बोल-बोल कर अभ्यास कर रहा है तो उसकी अल्पकालिक स्मृति का एक बड़ा हिस्सा शब्दों के अर्थ समझने में ही ज़ाया हो जाएगा। जो पाठक शब्दों को प्रवाहपूर्वक नहीं पढ़ पाते, वे अलग-अलग अक्षरों और उनके मेल से बनी आवाज़ों में ही उलझ कर रह जाते हैं। अगर ऐसा होता है तो उनके पास न तो अलग-अलग शब्दों को पहचानने के लिए और न ही वाक्यों, पैराग्राफों या पूरे पाठ को समझने के लिए बहुत क्षमता बचेगी। इसके विपरीत, जब प्रवाहपूर्वक पढ़ने वाला पाठक शब्दों को पहचानने पर बहुत कम ऊर्जा खर्च करता है तो उसकी ज़्यादातर क्षमता उस पाठ को समझने के लिए बची रह जाती है (प्रेसले)।
इसका मतलब है कि शब्दों को पहचानने का कौशल और प्रवाह विकसित करना किसी भी पाठ को समझने की पहली ज़रूरत है। बच्चों को बहुत सारे वास्तविक पठन में सक्रिय और सार्थक रूप से जुड़ने का मौका देना चाहिए और उन्हें अक्षर और शब्दों में बदलाव के भी मौके मिलने चाहिए जिससे उन्हें सक्रिय और प्रवाही ढंग से शब्दों के अर्थ ढूँढ़ने की सामर्थ्य मिलती है। लिहाज़ा, कम उम्र के पाठकों में समझने के साथ-साथ प्रवाह विकसित करने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें तरह-तरह के पाठ पढ़ने के लिए खूब सारा समय दिया जाए।
4. पाठ की विशेषताओं को पहचानना
शुरुआती पाठकों को यह जानने की ज़रूरत होती है कि किसी पाठ के शीर्षक, उसमें दी गई तस्वीरों, चित्र सम्बन्धी विवरणों, उपशीर्षकों, मोटे शब्दों और मुख्य शब्दों आदि का उस पाठ के अर्थ से क्या सम्बन्ध होता है। उन्हें प्रिंट, अलग-अलग लेखन विधाओं और पाठ संरचनाओं की अवधारणा विकसित करने में मदद दी जानी चाहिए। इससे उन्हें अलग-अलग किस्म के पाठों का अर्थ गढ़ने में मदद मिलेगी (ड्यूक)। कहानियों जैसे विवरणात्मक पाठों के मामले में कहानी की संरचनाओं से अवगत कराने से भी उन्हें अच्छी तरह पढ़ने में और उस कहानी को वापस सुना पाने में काफी मदद मिलती है।
(...जारी)
कीर्ति जयराम: ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर अर्ली लिट्रेसी प्रमोशन (ओईएलपी) की सचिव और अर्ली लिट्रेसी प्रोजेक्ट (ईएलपी) की डायरेक्टर हैं। प्राथमिक शिक्षा और प्रारम्भिक साक्षरता के क्षेत्र में शिक्षक, शिक्षक प्रशिक्षक के रूप में काफी लम्बा अनुभव है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: योगेन्द्र दत्त।
सभी चित्र: कनक शशि: एकलव्य, भोपाल की डिज़ाइनिंग टीम से सम्बद्ध हैं।