पारुल सोनी [Hindi PDF, 185 kB]
अधिकतर स्थानों में इफरात में पाई जाने वाली परभक्षी शायद मकड़ियाँ ही होती हैं। और अधिक जैव विविधता वाले स्थानों में हज़ारों की संख्या में मकड़ियाँ हो सकती हैं। जो लोग इन आठ पैर वाले जीव से डरते हैं उनकी किस्मत अच्छी है क्योंकि अधिकतर मकड़ियाँ इतनी छोटी होती हैं कि उन पर ध्यान भी नहीं जाता।
हालाँकि, यहाँ कुछ अपवाद भी हैं। और इस अपवाद का नाम है डॉलमिडीज़। इसे फिशिंग स्पाइडर भी कहा जाता है। पूरी दुनिया में डॉलमिडीज़ की सौ से भी ज़्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इसमें यू.एस.ए., कनाडा, न्यूज़ीलैण्ड और यूरोप के कुछ देश शामिल हैं। वयस्क डॉलमिडीज़ वसन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु में पाई जाती हैं।
डॉलमिडीज़ को फिशिंग स्पाइडर इसलिए बोला जाता है क्योंकि ये झीलों और तालाबों के पास पाई जाती हैं और जलीय कीड़ों को अपना शिकार बनाती हैं। पर विलक्षण बात यह है कि ये मकड़ियाँ छोटी मछलियों का शिकार भी करती हैं। अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने पाया कि डॉलमिडीज़ ट्राइटन खुद से 4-5 गुना भारी मछलियों को पकड़ सकती हैं और पानी की सतह पर आने वाली लहरों की मदद से इन मछलियों को 18 से.मी. की दूरी तक खोज सकती हैं।
अगर फैले हुए पैरों को शामिल किया जाए तो मादा डॉलमिडीज़ की लम्बाई 3 इंच से ज़्यादा हो सकती है। जैसा कि अधिकतर मकड़ियों की दुनिया में होता है, डॉलमिडीज़ में भी नर आकार में काफी छोटे - मादा के आकार के आधे से भी कम - होते हैं। उनके उदर पर विशिष्ट काले रंग वाले ज़् के आकार के 3 निशान होते हैं।
आकार में इस तरह की विसंगति से समागम की प्रक्रिया काफी ज़ोखिम भरी हो जाती है। कभी-कभी नर कोई कीड़ा लेकर मादा के पास जाता है, इस उम्मीद में कि शायद मादा की भूख इससे तृप्त हो जाएगी। और अगर ऐसा नहीं होता है तो समागम समाप्त होने के बाद वही नर उस मादा का भोजन बन सकता है। नर मकड़ियाँ (डॉलमिडीज़ ट्राइटन) मादा को आकर्षित करने के लिए पानी में एक खास आवृत्ति पर तरंगें उत्पन्न करती हैं जो शिकार होने वाले कीड़ों द्वारा उत्पन्न आवृत्ति से कम होती हैं। वे शायद ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए भी करते हैं कि कहीं मादा उसे अपना शिकार न समझ ले।
फिशिंग स्पाइडर का नाम इनके काम से काफी मिलता है। ये मकड़ियाँ छोटे-छोटे, जल निरोधी मखमली बालों से पूरी तरह ढकी होती हैं। इनके खास तरह से बने हुए पैर पानी के पृष्ठ-तनाव (surface tension) को तोड़ते नहीं हैं। इस वजह से वे पॉण्ड स्केटर्स की तरह पानी पर खड़े होने और दौड़ने के लिए पानी के पृष्ठ तनाव का इस्तेमाल कर पाती हैं। डॉलमिडीज़ ज़रूरत पड़ने पर पानी में डुबकी भी लगा सकती हैं और फिर इनके शरीर के बालों के बीच हवा फँस जाती है जो शरीर की पूरी सतह और टाँगों पर एक पतली परत बना देती है जिससे वे चमकती हुई चाँदी की तरह दिखती हैं।
अन्य मकड़ियों की तरह डॉलमिडीज़ भी उदर के नीचे स्थित बुक लंग्स। (book lungs) के द्वारा साँस लेती हैं जो हवा की पतली परत (बाल और शरीर के बीच की परत) में खुलते हैं और इस वजह से ये मकड़ियाँ तब भी साँस ले पाती हैं जब वे पानी के अन्दर डूबी होती हैं। इस फँसी हुई हवा के सहारे डॉलमिडीज़ तैरती रहती हैं और यदि वे किसी पत्थर पर न आएँ या किसी पौधे के तने को न भी पकड़ें तो भी वे पूरी तरह सूखी अवस्था में पानी की सतह पर तैरते हुए आ जाती हैं।
डॉलमिडीज़ दिन के समय दरारों में रहती हैं और अँधेरा होने के बाद सक्रिय रूप से शिकार करती हैं जब उनके मुख्य शिकारी, पक्षी, सो जाते हैं। ज़मीन पर या जाले में अपने शिकार का इन्तज़ार करने की बजाय वे अपने शिकार के इन्तज़ार में पानी के किनारे घात लगा कर बैठी रहती हैं। डॉलमिडीज़ मकड़ियाँ पानी की सतह का उपयोग वैसे ही करती हैं जैसे अन्य मकड़ियाँ अपने जाले का।
वैसे तो अन्य मकड़ियों की तरह डॉलमिडीज़ की भी आठ आँखें होती हैं लेकिन जब पानी की सतह पर कम्पन द्वारा इन्हें अपने शिकार को ढूँढ़ना होता है तो उनकी स्पर्श की संवेदनाएँ ज़्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। काफी हद तक उससे यह भी पता चल जाता है कि पानी में कम्पन किस वजह से हो रहा है - पत्तियों के गिरने से, या हवा चलने से या पानी के पत्थरों से टकराने से। अध्ययनों के मुताबिक कम्पन का स्रोत पता लगाने के साथ-साथ ये मकड़ियाँ यह भी मालूम कर लेती हैं कि उनका शिकार उनसे कितनी दूरी पर और किस दिशा में है।
बस फिर क्या है, जैसे ही वे अपने संवेदनशील स्पर्शिनी (अगली टाँग) और टाँगों पर स्थित संवेदी बालों के द्वारा किसी भी गुज़रते हुए जलीय कीड़े के कम्पन को महसूस करती हैं, शिकार करने के लिए तुरन्त हरकत में आ जाती हैं। डॉलमिडीज़ सहज रूप से पानी की सतह पर स्केट करते हुए जाती हैं और इससे पहले कि वह कीड़ा पानी से निकलकर किसी सुरक्षित जगह पर जाए, अपने आगे वाले पैरों की मदद से शिकार को दबोच लेती हैं। और विषैले दाँतों से काटकर अपने शिकार के अन्दर खतरनाक ज़हर छोड़ती हैं जिससे शिकार के अन्दरूनी अंग जल्द ही पूरी तरह सूख जाते हैं।
फिशिंग स्पाइडर आला दर्ज़े की शिकारी जान पड़ती हैं। इसके बावजूद ये इन्सानों पर आक्रामक नहीं होतीं और यदा-कदा ही इन्सानों को काटती हैं, वह भी तब जब इन्हें छेड़ा जाए या इन्हें इन्सानों से कोई खतरा दिखाई दे। अगर ये इन्सानों को काट भी दें तो इनका डंक मधुमक्खी के डंक से ज़्यादा तेज़ नहीं होगा। इसलिए हमें इनसे डरने या इन्हें नियंत्रित करने की ज़रूरत नहीं।
पारुल सोनी: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।