सुशील जोशी [Hindi PDF, 308 kB]
ऑक्सीजन की खोज का श्रेय प्राय: दो व्यक्तियों को संयुक्त रूप से दिया जाता है - कार्ल विल्हेल्म शीले और जोसेफ प्रिस्टले। वैसे अन्य साहित्य पढ़कर तो लगता है कि ऑक्सीजन की खोज इन दोनों से सदियों पहले की जा चुकी थी। अलबत्ता, यहाँ इन दोनों की चर्चा करने के बाद इस मुद्दे पर भी थोड़ी बात करेंगे कि किसी चीज़ की खोज करने का क्या अर्थ होता है। ऑक्सीजन के सन्दर्भ में यह सवाल बहुत अहमियत रखता है।
यह तो हम देख ही चुके हैं कि वायु का तात्त्विक रुतबा छिन चुका था और वह एक मिश्रण साबित हो चुकी थी। गैसें भी पदार्थ की श्रेणी में आ चुकी थीं और गैसों को इकट्ठा करके उन पर प्रयोग करने की व्यवस्था बन चुकी थी। 1727 में स्टीफन हेल्स ने इसका एक जुगाड़ तैयार कर लिया था। इस जुगाड़ की मदद से वे उन गैसों को इकट्ठा कर पाते थे जो ठोस पदार्थों को गर्म करने पर बनती हैं। इसके लिए वे एक पानी भरे बर्तन को पानी में उल्टा टांग देते थे और गैसों को पानी के विस्थापन से इकट्ठा करते थे। इसके बाद 1765 में एक अँग्रेज़ डॉक्टर विलियम ब्राउनरिग ने एक ज़्यादा नफीस उपकरण बनाया - एक बेलनाकार मंच जिसके बीचोंबीच एक छेद था। इसके ऊपर पानी भरे फ्लास्क को उल्टा रखकर गैस एकत्रित की जा सकती थी। यह पहला न्यूमेटिक ट्रफ था। इसकी विशेषता यह थी कि इसकी मदद से गैस को एक पात्र से दूसरे पात्र में स्थानान्तरित भी किया जा सकता था।
इस समय तक यह भी स्पष्ट हो चुका था कि श्वसन और दहन के अलावा जंग लगने में भी हवा का वही हिस्सा मददगार होता है।
गैसें रसायनज्ञों के कौतूहल का विषय बन चुकी थीं और कई लोग गैसें बनाकर उनके गुणधर्मों का अध्ययन करने में भिड़े हुए थे। उस समय इन्हें गैस नहीं बल्कि वायु ही कहते थे।
कार्ल शीले की अग्नि वायु
कार्ल विलहेल्म शीले स्वीडन के रहने वाले थे। 1772 में शीले ने कई सारे यौगिकों को गर्म करके देखा था। इनमें मैंग्नीज़ ऑक्साइड, पोटेशियम नाइट्रेट वगैरह थे। इन्हें गर्म करने पर एक गैस निकली। इस गैस में वस्तुएँ ज़्यादा तेज़ी से जलती थीं। जन्तु भी इस गैस में ज़्यादा देर तक जीवित रहते थे। ज़ाहिर है, शीले ने ऑक्सीजन खोज निकाली थी। मगर उन्होंने इसे ‘अग्नि वायु’ (फायर एयर) नाम दिया और यही माना कि यह फ्लॉजिस्टन-रहित वायु है। यहाँ एक रोचक तथ्य यह है कि शीले ने कई प्रयोग किए, अपने अवलोकनों को व्यवस्थित ढंग से रिकॉर्ड भी किया मगर प्रकाशित नहीं किया। इस सन्दर्भ में कुछ लोग मानते हैं कि उनका प्रकाशक ढीला-ढाला, लेट लतीफ था।
प्रिस्टले - फ्लॉजिस्टन-रहित वायु
जोसेफ प्रिस्टले एक अँग्रेज़ वैज्ञानिक थे। उनकी रुचि गैसों के अध्ययन में थी। खास तौर से हवा में उपस्थित गैसों का अध्ययन उनकी दिलचस्पी का विषय था। उन्होंने भी देखा था कि हवा का कुछ भाग ही जलने में सहायक है।
प्रिस्टले के शब्दों में: “मेरा मत है कि शायद ही ऐसी कोई अन्य दार्शनिक स्थापना होगी जो मस्तिष्क पर इतनी हावी हो गई हो, जितनी यह है कि वायुमण्डलीय हवा ...एक सरल तात्त्विक पदार्थ है, जो अनश्वर और अ-परिवर्तनीय है। अलबत्ता, मेरी अपनी खोजबीन के दौरान मैं जल्दी ही इस बात का कायल हो गया कि हवा एक अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है; क्योंकि चीज़ों के जलने, जन्तुओं के साँस लेने और विभिन्न अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं के चलते यह फ्लॉजिस्टन से भर जाती है जो इसे दहन, श्वसन वगैरह के अयोग्य बना देता है। और मैंने खोजा कि पानी में विडोलन या वनस्पति का सम्पर्क फ्लॉजिस्टन को हटा देते हैं और हवा की मूल शुद्धता बहाल हो जाती है। मगर मैं मानता हूँ कि मुझे इस बात का कदापि अन्दाज़ नहीं था कि इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर सर्वोत्तम साधारण हवा से भी बेहतर हवा प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में, मैं यह कल्पना तो कर सकता था कि यह वह हवा होगी जिसमें वायुमण्डलीय हवा से भी कम फ्लॉजिस्टन होगा; मगर मुझे तनिक भी अन्दाज़ नहीं था कि ऐसा संघटन सचमुच सम्भव है।”
अर्थात्, वे मानते थे कि जलने वाली वस्तु में से और जन्तुओं की साँस के साथ फ्लॉजिस्टन निकलता है और हवा को संतृप्त कर देता है, तब वह हवा दहन या श्वसन के अनुपयुक्त हो जाती है।
इसके साथ ही उन्होंने यह भी देखा था कि कुछ कैल्क्स (भस्म) को गर्म करने पर एक वायु उत्पन्न होती है जो जलने में साधारण वायु से ज़्यादा मददगार होती है।
1774 में प्रिस्टले ने पारे के ऑक्साइड (यह नाम आजकल का है; प्रिस्टले के ज़माने में इसे लाल पारद भस्म कहते थे) को गर्म किया। उन्होंने इसे छोटी-सी तश्तरी में रखकर एक बन्द बर्तन में गर्म किया था और गर्म करने के लिए सूरज की किरणों को एक बड़े आतिशी शीशे की मदद से इस पर केन्द्रित किया था। इस तरह से जो ‘वायु’ निकली उसे उन्होंने इकट्ठा कर लिया।
उन्होंने इस वायु में जब एक जलती हुई चीज़ रखी तो वह और भी तेज़ी से जलने लगी। इस वायु में चूहे भी आराम से जीवित रहे और साधारण हवा की अपेक्षा ज़्यादा देर तक जीवित रहे। खुद प्रिस्टले ने भी इस वायु को सूँघकर देखा। उन्होंने अपने एहसास निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किए:
“मेरे फेफड़ों में इसकी अनुभूति साधारण वायु से बहुत अलग नहीं थी मगर मुझे सीने में अजीब हल्केपन का एहसास हुआ और बाद में भी अच्छा लगता रहा। कौन जाने कुछ समय बाद यह शुद्ध वायु लक्ज़री की एक फैशनेबल वस्तु बन जाए। फिलहाल मात्र दो चूहों और मुझे ही इस वायु में साँस लेने का अवसर मिला है।”
ज़ाहिर है, प्रिस्टले ने जो ‘वायु’ बनाई थी वह ऑक्सीजन थी। मगर उनका मानना था कि उन्होंने फ्लॉजिस्टन-रहित वायु बनाई है। चूँकि इसमें फ्लॉजिस्टन नहीं है, इसलिए यह जलने में ज़्यादा मदद करती है। फ्लॉजिस्टन-रहित होने के कारण यह वायु जलती वस्तु में से निकलते फ्लॉजिस्टन को ज़्यादा मात्रा में घोल पाती है।
तो ऑक्सीजन की खोज किसने की थी? शीले ने अपने प्रयोग पहले (1772 में) किए थे मगर उनके परिणाम प्रकाशित करने में ढिलाई बरती। प्रिस्टले ने प्रयोग तो दो वर्ष बाद (1774 में) किए थे मगर प्रकाशन पहले कर दिया था। तो इन दोनों में से किसे श्रेय दिया जाए? दरअसल, ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में पहचानने का काम तो इन दोनों में से किसी ने भी नहीं किया था। ये तो इसे ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ ही मानते थे। इस सवाल का मुकम्मल जवाब तो हमें तभी मिलेगा जब एक अन्य वैज्ञानिक एन्तोन लेवॉज़िए के योगदान को जान लेंगे।
रसायन शास्त्र को ऑक्सीजन आसानी से नहीं मिली है। रसायन शास्त्र का सबसे रोचक अध्याय (या कई रोचक अध्याय) ऑक्सीजन की खोज से जुड़े हैं। एक मायने में आधुनिक रसायन शास्त्र का इतिहास और ऑक्सीजन की खोज का इतिहास पर्यायवाची हो जाते हैं। तो कहानी को आगे बढ़ाते हैं। हम यह तो देख ही चुके हैं कि प्रिस्टले और शीले वह पदार्थ बना चुके थे जिसे आगे चलकर ऑक्सीजन कहा जाएगा। मगर दोनों ही इसे एक नया तत्व नहीं बल्कि ‘फ्लॉजिस्टन-रहित हवा’ मान रहे थे। इस फ्लॉजिस्टन-रहित हवा से ऑक्सीजन का सफर अब तय करेंगे।
लेवॉज़िए की स्थिर वायु
एन्तोन लेवॉज़िए एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक थे। गैसों व दहन के अध्ययन में वे देरी से जुड़े थे मगर देर आयद, दुरुस्त आयद। उन्होंने पहला काम यह किया कि इस विषय का पूरा साहित्य पढ़ा और वे सारे प्रयोग खुद करके देखे जो उनसे पहले वैज्ञानिक कर चुके थे: “मुझसे पहले जो कुछ हुआ है उसे मैं मात्र संकेतकारी मानने को बाध्य हूँ। मैं उस सबको नई सावधानियों के साथ दोहराना चाहता हूँ ताकि हवा, जो पदार्थों के साथ जुड़ती है या उनमें से निकलती है, के अपने ज्ञान को अन्य अर्जित ज्ञान के साथ जोड़ सकूँ और एक सिद्धान्त बना सकूँ।”
तब 1773 के पूरे साल लेवॉज़िए ने रसायन शास्त्र का इतिहास पढ़ा। खास तौर से उन्होंने उस सबका अध्ययन किया जो सत्रहवीं सदी के बाद से विभिन्न रसायनज्ञों ने हवा या हवाओं के बारे में कहा था, और उनके प्रयोगों को नई सावधानियों के साथ दोहराया। इस प्रक्रिया के निष्कर्ष 1774 में प्रकाशित हुए थे।
उनकी व्याख्या यह थी कि धातु को हवा में गर्म करने पर हवा धातु से जुड़ रही है और यही जुड़ी हुई हवा (‘स्थिर वायु’) वज़न बढ़ने का कारण है। इस निष्कर्ष का मतलब था कि हवा तब वापिस निकल आएगी जब धातु-भस्म का विघटन किया जाएगा। यानी 1774 में लेवॉज़िए का मत था कि वायुमण्डल की ‘स्थिर वायु’ ही धातुओं के जलने व उनके वज़न में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार थी। यहाँ लगता है कि ‘स्थिर वायु’ को लेकर काफी भ्रम की स्थिति थी। यह स्पष्ट नहीं था कि क्या ‘स्थिर वायु’ साधारण वायुमण्डलीय हवा का एक घटक है अथवा कोई अन्य ‘वायु’ है। स्थिर वायु से तात्पर्य था कि वह हवा जो अपनी वायु-प्रकृति गँवा चुकी हो यानी ठोस से जुड़ गई हो। इसे कार्बन डाईऑक्साइड माना जाता है। फिर भी सवाल है कि ऐसा विचित्र निष्कर्ष कैसे निकला?
कारण यह लगता है कि अधिकांश भस्मों से धातु प्राप्त करने के लिए उन्हें कोयले (कार्बन) के साथ गर्म करना पड़ता था और इस क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड (‘स्थिर वायु’) निकलती है।
भस्म अ कार्बन र धातु अ स्थिर वायु
तो यह मानना अनुचित नहीं कहा जा सकता कि इससे उल्टी क्रिया भी होती होगी:
धातु अ स्थिर वायु र भस्म
तो सबसे पहले लेवॉज़िए ने निष्कर्ष निकाला कि जलने में हवा का जो हिस्सा मददगार होता है, वह स्थिर वायु (कार्बन डाईऑक्साइड) है। विडम्बना देखिए कि कार्बन डाई-ऑक्साइड दरअसल आग को बुझाने में काम आती है। मगर लेवॉज़िए की खूबी यह थी कि वे यहाँ पहुँचकर रुके नहीं; नए अवलोकनों के प्रकाश में आगे बढ़ने को तत्पर रहे।
ऑक्सीजन की ओर एक कदम
इस मामले में दो वैज्ञानिकों का योगदान महत्वपूर्ण रहा। एक थे औषधि वैज्ञानिक पियरे बेयन। बेयन ने लेवॉज़िए का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया कि लाल पारद भस्म को गर्म किया जाए तो वह पारे में बदल जाता है; कोयला मिलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। और तो और, इस क्रिया में ‘स्थिर वायु’ भी नहीं निकलती।
इस प्रयोग में दो खास बातें थीं। पहली तो यह थी कि पारद भस्म कोयले की मदद के बगैर ही पारे में तबदील हो रहा था। फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक इस प्रक्रिया में कोयला फ्लॉजिस्टन का स्रोत है। अर्थात्, इस प्रयोग के परिणाम के आधार पर फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त सही नहीं हो सकता।
दूसरी बात यह थी कि पारद भस्म से पारा बनाने में ‘स्थिर वायु’ उत्पन्न नहीं हुई। मतलब स्थिर वायु भस्मों का अनिवार्य घटक नहीं है।
लगभग इसी समय (अगस्त 1774 में) 20 हवाओं के मशहूर निर्माता जोसेफ प्रिस्टले ने भी लाल पारद भस्म को तपाया था। इस प्रक्रिया में जो ‘वायु’ निकली वह साधारण हवा की अपेक्षा दहन में ज़्यादा मदद करती थी।
इससे भी पहले (1770-71 में) कार्ल विल्हेल्म शीले स्वीडन में विभिन्न ऑक्साइड्स व कार्बोनेट्स को तपाकर ‘अग्नि वायु’ बना चुके थे। मगर शीले अपेक्षाकृत अलग-थलग थे और उनके प्रयोगों की जानकारी उनके अपने देश में ही बहुत फैलती नहीं थी। इसलिए इनकी जानकारी तो लेवॉज़िए को नहीं थी।
प्रिस्टले अक्टूबर, 1774 में पेरिस गए थे। वहाँ उन्होंने अपने प्रयोगों की जानकारी लेवॉज़िए को दी थी। बेयन व प्रिस्टले के अवलोकनों के अलावा खुद लेवॉज़िए ने भी पारद भस्म पर प्रयोग किए थे। इनके आधार पर उन्होंने अपनी परिकल्पना एक बार फिर बदली। 1775 में फ्रांस की विज्ञान अकादमी में प्रस्तुत अपने पर्चे में उन्होंने बताया था कि दहन का तत्व ‘शुद्ध वायु’ है। इसमें भी उन्होंने हवा के किसी विशिष्ट घटक को दहन के लिए ज़िम्मेदार नहीं बताया था।
दूसरी ओर जोसेफ प्रिस्टले को स्पष्ट था कि दहन में मददगार वायु दरअसल ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ है और यह हवा का एक घटक है। प्रिस्टले ने यह बात 1775 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में स्पष्ट की थी।
यहाँ लेवॉज़िए और प्रिस्टले के बीच चली बहस की बात करना मुनासिब होगा क्योंकि उसी बहस में से लेवॉज़िए ने ‘ऑक्सीजन रसायन शास्त्र’ विकसित किया था और आधुनिक रसायन शास्त्र को उसकी बुनियाद प्रदान की थी। सारी बहस का एक दिलचस्प पहलू यह है कि एक समान प्रयोगों और अवलोकनों के बाद दो सर्वथा भिन्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
अन्तत: (प्रिस्टले की परिकल्पना और स्वयं अपने द्वारा किए गए प्रयोगों के आधार पर) लेवॉज़िए दहन की ऑक्सीजन परिकल्पना तक पहुँचे। मगर उससे पहले उन्होंने काफी हिचकोले खाए। जहाँ प्रिस्टले का निष्कर्ष था कि जलने, श्वसन वगैरह में मददगार वायु ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ है वहीं लेवॉज़िए इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि वह वायु का एक हिस्सा न होकर पूरी की पूरी हवा है। उनके अनुसार धातु को जब हवा की उपस्थिति में गर्म किया जाता है तो हवा उससे जुड़ जाती है और भस्म बनती है। इसी वजह से धातु से भस्म बनने की क्रिया में वज़न बढ़ता है। जब भस्म को गर्म किया जाता है तो यही हवा वापिस निकलती है जो जलने और श्वसन की दृष्टि से बेहतर होती है।
तो लेवॉज़िए की स्थापना तो बॉयल, दा विंची, रॉबर्ट हुक, मेयोव वगैरह के इस निष्कर्ष के विपरीत है कि हवा का एक घटक ही जलने में सहायक है। आखिर यह विचित्र निष्कर्ष कैसे निकला? इसका सम्बन्ध एक गम्भीर प्रायोगिक त्रुटि से है। अगले अंक में उसी के साथ कहानी पूरी करेंगे।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।