लेखक:   रिनचिन
अनुवाद: सुशील जोशी [Hindi PDF, 1.0 MB]

किसी को पता नहीं था कि पानी का आना कहाँ से हुआ। एक रात अचानक कुछ आदमी पानी से टकरा गए। बस्ती के एक छोर पर वे एक नर्सरी तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। इसमें फलदार पेड़ थे, जड़ी-बूटियाँ थीं, और कई दूसरे पौधे थे। शादी की शानदार दावत के बाद घर लौटते वक्त पहली बार कुछ लोग पानी से मिले थे।

“कौन है?” महेश काका ने पूछा था। पानी का रूप ऐसा था जैसे किसी अँधेरे पोखर में से निकली एक टिमटिमाती लौ।
“मैं पानी हूँ।”
“पानी! यह तुम्हारा नाम है?”
“हाँ।”
“क्या तुम कोई मुसाफिर हो?”
“नहीं, मैं तो घर की तलाश में हूँ।”
“तुम कहाँ के रहने वाले हो?”
“दरिया या बरसात।”
टोली ने दावत में जो कुछ पिया था, उसकी वजह से अधिकांश लोग थोड़े झूम रहे थे। इसलिए सबने अलग-अलग बात सुनी, या वह बात सुनी जो वे सुनना चाहते थे, या उस ढंग से सुनी कि उसका कुछ अर्थ निकले। तो उन्होंने जो कुछ सुना वह इस तरह से था,

“मुझे दर-दर घूमना पसन्द है...”
“सफर ने थका दिया है...”
“दरिया के पास एक गाँव से...”
“रात बिताना है...”
रात काफी बीत चुकी थी और मुसाफिर वैसे भी बहुत कम आते थे, और नए मुसाफिर को लेकर एक कौतूहल था, तो उन्होंने पानी से कहा कि वह नर्सरी में ठहर जाए।
“रात यहाँ रुक जाओ। खुली रात है। कल देखेंगे।”
अगले दिन कई और आदमी पानी से मिलने गए। यह तो उन्हें पता चल ही चुका था कि पानी का आगमन कहाँ से हुआ है। अगला सवाल था कि पानी का काम क्या है?
“चीज़ों को उगाना।”
“मुझे अपनी यात्रा से थोड़ा आराम चाहिए। क्या मैं नर्सरी में रुक जाऊँ?”
वे एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, फिर विचार-विमर्श के लिए एक तरफ हो गए।
“क्या एक अजनबी को बस्ती में ठहरने देना ठीक रहेगा?”
उनमें से कोई मुसाफिर के बारे में कुछ नहीं जानता था, न ही यह पता था कि पड़ाव कितने दिन का होगा।
“मगर शायद ज़्यादा दिन न रुके, हर्ज़ क्या है?”
“यदि मुसाफिर नर्सरी में ठहरकर खुश है, तो कम-से-कम गाय-बकरी तो दूर रहेंगे।”
“और इस मौसम में हम सब व्यस्त रहते हैं। तो अच्छा है कि नर्सरी में कोई चौकीदार रहेगा।”
कुछ बुदबुदाती शंकाएँ थीं, कुछ हिचक थी मगर कौतूहल और ज़रूरत ने उन्हें भी इसके पक्ष में खींच लिया।
तो नर्सरी के किनारे, बस्ती के छोर पर पानी ने डेरा डाला।
बच्चों को वहाँ कई बार कुछ-न-कुछ लाने के लिए भेजा जाता था - खाँसी के लिए जंगली तुलसी, जलन कम करने के लिए ग्वारपाठा, दादी-नानी के जोड़ों के दर्द के लिए निरगुड़ी वगैरह।

जल्दी ही बच्चे वहाँ खेलने जाने लगे। पानी के पास सामान के नाम पर कुछ खास नहीं था - बस कपड़ों की एक पोटली और एक हवाई बाँसुरी। हवाई बाँसुरी को हवा में लहराओ तो गीत सुनाती थी। पता नहीं वह छड़ी थी या बाँसुरी। पानी ने उसे कभी होंठों से नहीं लगाया था, मगर वह गाती थी। पानी का बदन कैसे लहराता था। अत्यन्त सुन्दर और नफीस। बच्चे कोशिश करते थे कि जब तक बन सके नर्सरी में ही रहें। और धीरे-धीरे कुछ नई बातें सीख रहे थे।

अधिकांश लोग पानी को लड़का समझते थे। आखिर कोई लड़की अकेली घूमने कैसे निकलेगी। हाँ, हाँ, वह लड़का ही है। युवक लोग आते और उससे उसी तरह हँसी-मज़ाक करते जैसे किसी अन्य नौजवान के साथ करते हैं। मगर बच्चों की नज़रें अलग होती हैं। वे कभी पक्का तय नहीं कर पाए।

अब नर्सरी में कुछ अजीबोगरीब घटने लगा। पानी जिस पौधे को छू दे, वह उत्साह से बढ़ने लगता। पानी ने कई कुम्हलाए हुए पौधों को फिर से जिला दिया। पानी ने काला कुटिज को फिर से जिला दिया। भोली को अपनी पेचिश के लिए इसकी कितनी ज़रूरत थी। यहाँ तक कि खाँसी-ज़ुकाम में काम आने वाला अड़ूसा और बदमिज़ाज सफेद गुड़हल भी फूलने लगे।
दोपहर में जब ज़्यादातर मर्द-औरत काम पर जाते, नर्सरी में पानी का नृत्य चलता। और नृत्य भी क्या खूब। ऐसा नृत्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। त्यौहारों के समय लड़कियों के कपड़े पहनकर कई लड़के रात-रात भर नाचते थे। कई बार लड़कियाँ बन्द कमरे में लड़कों के कपड़े पहनकर अन्य लड़कियों के साथ नाचती थीं। सबकी सब एक गुप्त आनन्द से खिलखिलाती रहती थीं। मगर पानी की शान तो निराली थी। पानी ने अपने नृत्य से बच्चों और कुछ बड़ों के दिल में जगह बना ली थी।

कुछ अन्य लोगों को पानी के लालित्य में नहीं, उसकी उपयोगिता में आनन्द मिलने लगा था। कई लोगों को जब काम होता और बच्चे की देखभाल का समय नहीं होता, तो वे अपने बच्चे को नर्सरी में छोड़ जाते। बच्चों के साथ पानी की खास खूबियों को सबसे पहले वैजंती ने पहचाना था। एक बार काम पर जाते वक्त वह नर्सरी पर इस उम्मीद में रुकी थी कि उसकी बिटिया वहीं होगी। जब वैजंती दिन भर काम करने को जाती तो यह बिटिया ही छोटी बच्ची की देखभाल करती थी। मगर भावना वहाँ नहीं थी।

वैजंती खीझ गई, “अब क्या करूँ?”
वह वापिस जाने की सोच ही रही थी कि पानी की आवाज़ आई, “बच्ची मुझे दे दो। मेरे साथ नीम की छाया में लेटेगी। आराम से रहेगी।”
“क्या? मुझे नहीं लगता कि वह तुमसे सम्भलेगी। सम्भल जाएगी?”
“कोशिश करने में क्या हर्ज़ है? मुझे लगता है हम दोनों खुश रहेंगे।”

पानी ने यह बात न तो मनाने के हिसाब से कही, न उस पर दबाव डालने के लिए, उसने तो बस कही। वैजंती ने बच्ची को उसके पास छोड़ दिया। दोपहर में वैजंती लौटी तो देखा कि बच्ची नीम की डाल में बँधे कपड़े के झूले में पड़ी मज़े से खिलखिला रही थी। जल्दी ही यह रोज़ाना की बात हो गई और बाकी लोग भी ऐसा ही करने लगे।
बड़ी लड़कियाँ भी नर्सरी में आने लगीं; पहले तो फूल तोड़ने के बहाने और फिर वहाँ रुककर पानी से बातें करने, उसके साथ नाचने-गाने के लिए। पानी के साथ वे नीचे ट्यूब-वेल तक जाती थीं। जब वे पानी भरतीं तो पानी के प्रयास से ऐसी नालियाँ बन जातीं कि पानी अपने ही बल पर ऊपर की ओर बहने लगता था।

वे ज़ोर से हँसकर एक-दूसरे को बतातीं, “देखो, पानी ने पानी को खींचकर निकाला।” और साथ-साथ अपने हाथ बहते पानी में डाल देतीं। “पानी तुम बहुत शीतल हो,” वे हँसकर कहतीं। पानी को अपने बदन पर फेंककर वे फुसफुसातीं, “पानी तुम बहुत मखमली हो।”
सारे पेड़-पौधों के साथ नर्सरी बहार पर थी। सिर्फ पेड़-पौधों को बढ़ने में मदद की बात नहीं थी, पानी को मालूम था कि किसी भी चीज़ का इलाज करने में किसी पौधे का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। और हर बार जब किसी पौधे का उपयोग होता, और वह कारगर रहता तो लगता था कि पौधा भी पहले से ज़्यादा ताकतवर हो जाएगा। तो खुशनसीबी और थोड़े-से कुछ अतिरिक्त की बदौलत नर्सरी में सब कुछ फल-फूल रहा था - शिशु, पेड़-पौधे, और बच्चे, जिन्होंने नर्सरी को ही अपना नया स्कूल बना लिया था। नर्सरी की देखभाल करते-करते, घास-फूस की सफाई करते-करते, गिरी हुई पत्तियों को सड़ाते हुए, हर समय पानी की नज़र ‘झूलाघर पेड़’ के नीचे सोए शिशुओं पर रहती थी। बच्चे पेड़ों की शाखाओं पर झूलते हुए पानी पर सवालों की बौछार करते रहते थे।

“पानी, क्या हम तुम्हारे जैसी हवाई बाँसुरी बना सकते हैं?”
“उसके लिए एक खास लकड़ी और खास दिन की ज़रूरत होती है। पहले मैं लकड़ी ढूँढ़ लूँ, फिर हम सही दिन का इन्तज़ार करेंगे। तब शायद मैं वैसी बाँसुरी बना दूँ।”
“पानी, तुम लड़का हो कि लड़की?”
“मैं जैसा चाहूँ, बन जाऊँ।”
“तुम लड़के से शादी करोगे या लड़की से?” वे समवेत स्वर में पूछते।
“किसी से भी...या शायद किसी से भी नहीं।” जवाब आने में देर न लगती।

वे एक साथ बोल उठते, “अरे, ऐसा कैसे हो सकता है?”
“कुछ भी हो सकता है, यदि तुम होने दो। यदि तुम इजाज़त दो तो लोग कैसे भी हो सकते हैं।”
बस्ती के किनारे पर बसी नर्सरी बस्ती का केन्द्र लगने लगी। औरतें अपने शिशुओं को वहाँ दूध पिलातीं, और फिर उन्हें वहीं छोड़कर अपने काम पर चली जातीं। लोग काम से लौटते वक्त थोड़ी देर वहाँ रुक जाते, हवाई बाँसुरी की तान सुनने को। वहाँ पानी पीते और थोड़ी देर गपशप करके आगे बढ़ जाते। इससे लोगों को सुकून का एहसास होता। रोज़मर्रा की भागमभाग में छुट्टी-सी लगती थी नर्सरी। उन्हें लगता था कि यहाँ वे ऐसी बातें कह सकते थे, ऐसे काम कर सकते थे, जो आम तौर पर नहीं कहते-करते। ये बातें उनके साथ-साथ नहीं जाती थीं, इन्हें बस्ती के छोर पर छोड़ सकते थे।

पानी में कुछ बात तो थी। सारी जड़ी-बूटियों, और पेड़-पौधों और शिशुओं की देखभाल में पानी को कड़ी मेहनत ज़रूर करनी पड़ती होगी, मगर पानी पर कभी थकान नहीं दिखती थी। पानी को देखकर तो ऐसा लगता था कि जैसे इस सबमें कोई काम ही न हो। हो सकता है इसी वजह से बस्ती ने कभी देखी ही नहीं पानी की मेहनत। सबके मन में हवाई बाँसुरी की धुन पर नाचते पानी की छवि अंकित थी; वह नर्सरी में डेरा डाले है क्योंकि उन्होंने इजाज़त दी है, उनकी मेहरबानी से।

पानी के हाथों में हवाई बाँसुरी लहराती और उसकी कलाई की कलाबाज़ी से क्या खूब संगीत बिखरता। और संगीत के साथ पानी का बदन कैसे लहराता। पूरी बस्ती को पानी से मोहब्बत होने लगी। लड़कियाँ कल्पना करती थीं कि वे पानी की बाहों में हैं, और मर्द भी यही ख्वाब देखते थे। कल्पना तक तो सब ठीक-ठाक रहा, मगर फिर राजा प्रकट हो गया।

एक किशोर लड़के राजा ने पानी को देखा और पानी ने उसको। कुछ चिंगारियाँ निकलीं। राजा और पानी एक-दूसरे के साथ वक्त गुज़ारने लगे। शुरू-शु डिग्री में तो लोगों ने कोई ऐतराज़ न किया। फिर राजा शादी के लिए लड़कियों से इन्कार करने लगा, तो उन्हें चिन्ता हुई। शादी का मौसम आने वाला था। यही वक्त था जब राजा को किसी लड़की को चुन लेना था, जिससे वह शादी करेगा। मगर नहीं, वह था कि ऐसा कुछ करने को राज़ी नहीं था। और बेशर्मी की हद तो यह थी कि उसने एक बार मज़ाक में कह दिया कि वह पानी के साथ भाग जाएगा।
सबके दिमाग पर राजा सवार था और फिर एक दिन बिंदिया काकी ने अपनी बेटी चांदनी को नींद में पानी का नाम बुदबुदाते सुन लिया। और तो और, वह खुद का आलिंगन भी कर रही थी। इससे भी अजीब बात थी कि चांदनी पानी को लड़की मानकर बात कर रही थी। कोई नौजवान लड़की किसी अजनबी मर्द का ख्वाब देखे तो बुरी बात है, मगर लड़की के बारे में सोचना तो हद हो गई। मामला खतरनाक होने लगा था।
बस्ती के छोर की नर्सरी के किनारे से धीरे-धीरे पानी रिसने लगा था।

हर कोई पानी की चर्चा करने लगा। पानी, पानी और राजा, चांदनी और पानी। “पानी सिर से ऊपर निकलने लगा है, पानी को जाना ही होगा।”
“मगर अब पानी ने क्या गलत किया है? जब पानी रुका था और नर्सरी में काम करता था, तब किसी ने ऐतराज़ नहीं किया।”
“सही है, एक साल में पानी ने उस जगह को एकदम हरा-भरा कर दिया है, पहले से ज़्यादा। घरों को सजाने-महकाने के लिए ढेर सारे फूल हैं, अपने बगीचों को हरा-भरा करने के लिए पौधे हैं। डॉक्टरों से निजात पाने को खूब जड़ी-बूटियाँ हैं। तमाम बीमारियों के लिए तमाम जड़ी-बूटियाँ हैं।”

“अरे, यह कौन-सा बड़ा काम है, चलती हुई नर्सरी को चलाना क्या मुश्किल है? वह छोकरा एक मिनट भी काम नहीं करता, वह तो हमने अपनी ज़मीन दी, मेहमान बनाया।”
“नीम हकीम के हाथों ज़हर खाने से तो डॉक्टर की फीस भली।”
“मगर पानी ने शिशुओं और वहाँ खेलने वाले बच्चों की कितनी अच्छी देखभाल की।”
“देखभाल की? बरबाद किया है बच्चों को उसने। वे स्कूल जाने का नाम नहीं लेते, पूरे समय नर्सरी में खेलते रहते हैं और कितने सवाल पूछते हैं - ‘मैं वह क्यों नहीं हो सकता?’, ‘मैं फलाँ क्यों नहीं बन सकता?’, ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’, ‘वैसा क्यों नहीं हो सकता?’ ”
“और इन औरतों को देखो, कैसे ये अपनी ज़िम्मेदारी से आँख चुराती हैं, बच्चों को पानी के पास छोड़ देती हैं और अपने बचे हुए समय का भगवान जाने क्या करती हैं। यदि ये अपने बच्चों पर नज़र रखतीं, तो बात यहाँ तक न पहुँचती।”
“ये लुच्चा नचैया, पानी को बाहर करो।”

“हमने पानी का विश्वास किया। और हम सब बहक गए।”
“ज़रूर हवाई बाँसुरी की करामात है, उसी ने हम सबको पागल कर दिया है।”
“सब कुछ होना चाहते हो, कुछ भी, यह तो मुमकिन नहीं है। कुछ भी बन जाओगे? जैसे चाहो जिओगे... बकवास।”
तो एक चिंगारी दावानल बन गई।


एक बार फिर बस्ती के लोग पानी से बात करने को गए, उसी तरह जैसे पहली बार पानी के आगमन पर गए थे।
“पानी, यह नहीं चल सकता। तुम्हें एक तरह से व्यवहार करना होगा, तुम औरत हो या मर्द, तुम लड़की से शादी करोगे या लड़के से? बताओ।”
पानी ने थोड़ा सोचकर कहा, “मैं उन सवालों के जवाब कैसे दूँ जिनके जवाब मेरे पास नहीं हैं? आपके शब्दों में तो नहीं दे सकता। चांदनी से प्यार करते वक्त मैं लड़की हूँ और राजा से प्यार करते समय लड़का हूँ।” पानी की आवाज़ थर्रा रही थी मगर विश्वास अडिग था।
“यह सम्भव नहीं है। यदि तुम अपनी बात को उल्टा कर दो, तो आसान हो जाएगा - चांदनी के लिए लड़का बनो और राजा के लिए लड़की। अपने समाज के लोगों में से कोई लड़की या लड़का चुनकर परिवार बसाओ। हमें अकेला छोड़ दो।”

“मगर वे इससे प्यार नहीं करते।” पानी की आवाज़ में विश्वास की ताकत से स्थिरता आती जा रही थी।
“मेरी बाँसुरी, जब आपने इसे देखा था तो क्या आप सबको हैरत नहीं हुई थी? आपने पूछा था कि यह छड़ी है या बाँसुरी? मैंने इसे अपने होंठों से कभी नहीं लगाया, मगर हवा का चुम्बन इसे गीत देता है। वही मैं हूँ। मेरा उड़ना, मेरा बहना उस हवा के साथ है जो मुझे चूमती है। मेरा परिवार भी ऐसा ही होगा, हवाओं के लिए मुक्त, धुनों की सृष्टि के लिए।”
उस रात कुछ मर्दों ने किनारे पर पानी से मुलाकात की।

“हम याद तक नहीं करना चाहते कि तुम कभी यहाँ थे, कि हमारा तुमसे कुछ लेना-देना था। चले जाओ।”
“यदि आप चाहते हैं, तो मैं चले जाने को तैयार हूँ। मगर अपने साथ वह बीता साल ले जाना सम्भव नहीं है। वह तो हमेशा आपके साथ जिएगा।”
लोग खामोश मगर दृढ़ रहे। “चले जाओ, और हम तुम्हारे साथ किसी भी लेन-देन की यादों को मिटा देंगे।”
“यही चीज़ तुम्हें डराती है, नहीं? कि तुम्हारा मेरे साथ कुछ सम्बन्ध रहा? कि तुम्हें खुद की उन बातों पर सन्देह होगा जिनके बारे में तुम इतने मुतमईन हो। और बात सिर्फ प्रेम की नहीं है ना? और न सिर्फ इतनी है कि आज क्या हो रहा है, नहीं? बात यह है कि आगे चलकर क्या-क्या ढह सकता है, नहीं?”

पानी के सवाल का जवाब एक करारी चोट के रूप में आया। और किसी ने बाँसुरी को तोड़ डाला।
वह एक सुर के साथ टूट गई। और फिर यकायक खामोश हो गई। पानी ने उसी रात वहाँ से बोरिया-बिस्तर समेट लिया। चांदनी और राजा भी गायब हो गए।
नर्सरी अपनी पुरानी हालत में आ गई। अब वह फलती-फूलती दिलकश जगह नहीं रही। कुछ मरते, कुछ पनपते पौधों का एक साधारण बगीचा भर रह गई।
नर्सरी में एक पौधा अपने-आप उग आया है। इस पौधे के फूल जब खुलते हैं तो सफेद होते हैं, और दिन ढलने तक वे गुलाबी हो जाते हैं और अगले दिन वे सुर्ख लाल होते हैं। तीसरे दिन फूल मुरझा जाते हैं।

यह पौधा चारों ओर उग गया है। सिर्फ नर्सरी में ही नहीं बल्कि घरों के सामने के छोटे-छोटे बगीचों में, सड़क किनारे और खाली पड़ी पड़त भूमि पर भी। लोग इसकी अजीबो गरीब फितरत के कारण इसे अजूबा कहते हैं।
हवाई बाँसुरी भी हवा में गूँजती सुनी जा सकती है। सबसे पहले हीरा ने बनाई, फिर प्रीतम ने और फिर कई लोगों ने। हालाँकि, बड़े लोग इसे देखते ही तोड़ देते हैं, मगर जल्दी ही किसी दूसरे हाथ में एक और पैदा हो जाती है।


रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। भोपाल में रहती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी चित्र एवं सज्जा: नर्गिस शेख: क.का. साहेब वाघ कॉलेज, नासिक से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। स्वतंत्र रूप से चित्रकारी और फोटोग्राफी करती हैं।