कालू राम शर्मा                                                                                                                                      [Hindi PDF, 390 kB]

मोजूदा दौर में विज्ञान की पढ़ाई में प्रयोग करके अवधारणा बनाने पर काफी ज़ोर है। हरेक पाठ्य पुस्तक गतिविधियाँ-प्रयोग और छुट-पुट प्रोजेक्ट सुझाती रहती है। एक पल के लिए इसे देखकर थोड़ी तसल्ली और सुकून मिलता है लेकिन अगले पल ही ऐसा अहसास होने लगता है कि कुछ गड़बड़ है - किसी भी प्रयोग के साथ मानक प्रयोग सामग्री या उपकरणों की सूची नहीं होती, स्थानीय सामग्री या जुगाड़ को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, यह समझ में आता है कि ज़्यादातर प्रयोगों को दोहराकर जाँचा-परखा नहीं गया है। साथ ही, पाठ्य पुस्तकों में शिक्षकों के लिए सन्दर्भ सामग्री नदारद होती है। इस सब के बाद भी मैं मानता हूँ कि शिक्षक प्रयोग करवाना चाहते हैं, थोड़ा मौका मिल जाए तो वे नए आयडिया पर अमल भी बखूबी कर लेते हैं। मेरे कई अनुभवों ने मेरी शिक्षकों के प्रति इस सकारात्मक सोच को कायम रखा है। यहाँ ऐसा ही एक अनुभव आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

मैं गुजरात के धरमपुर इलाके में कार्यरत हूँ। इसी इलाके की एक आश्रमशाला के शिक्षक ने मुझसे पूछा, “ये हायड्रिला क्या होता है?” मैंने शिक्षक से प्रतिप्रश्न किया कि “अचानक हायड्रिला की क्या ज़रूरत आन पड़ी?” अब तक इस चर्चा में विज्ञान की एक शिक्षिका और शिक्षक भी शामिल हो चुके थे। शिक्षक ने कहा, “बस यूँ ही...।” मगर जब मैंने ज़ोर देकर पूछा तो उन्होंने बताया कि “छठवीं कक्षा में विज्ञान के एक प्रयोग में हायड्रिला की ज़रूरत पड़ती है। मगर हम हायड्रिला को तो पहचानते ही नहीं।”
मैंने पूछा, “फिर प्रयोग कैसे करते होंगे?” इस पर उन्होंने कहा कि “प्रयोग तो हो जाता है।” मुझे लगा कि इन लोगों ने हायड्रिला के बदले किसी अन्य जलीय वनस्पति का उपयोग किया होगा। मगर जब और गहराई में गए तो मामला कुछ और ही निकला। स्कूलों में उपयोग की जा रही पाठ्य पुस्तकों को देखकर समझ में आया कि इनमें रवैया यह है कि अगर प्रयोग हो जाए तो ठीक और न हो पाए तो कोई बात नहीं। ऐसा इसलिए कि विज्ञान की इन किताबों की रचना शिक्षकों और बच्चों की ‘सहूलियत’ को ध्यान में रखकर की गई है। ज़ाहिर है, इस प्रकार के सहूलियतदार विज्ञान शिक्षण में इस बात का खास ध्यान रखा गया है कि बच्चों को न तो प्रयोग करने में दिक्कत होनी चाहिए और न ही प्रयोगों के बारे में सोचने में। इसलिए प्रयोग के आखिर में जवाब भी दिए गए हैं ताकि प्रयोग न भी हो पाए तो वे प्रयोग से निकले निष्कर्षों को पढ़ लें। दरअसल, यह पूरी प्रक्रिया न केवल विज्ञान शिक्षण में प्रयोगों के महत्व को कम करती है, बल्कि अवलोकनों से निष्कर्ष तक पहुँचने की प्रक्रिया भी बाधित करती है।

शिक्षक साथियों से जब थोड़ी खुलकर दोस्ताना बात हुई तो यह सच सामने आया कि वास्तव में, हायड्रिला वाला यह प्रयोग करवाया ही नहीं जाता। इसकी वजह केवल हायड्रिला की अनुपलब्धता नहीं है, प्रयोग में लगने वाले उपकरण और सामग्री का उपयुक्त न होना भी एक प्रमुख कारण है।
हमने तय किया कि सबसे पहले हायड्रिला की पहचान कर लें। इसके लिए हमने योजना बनाई कि आश्रमशाला के सामने वाली नदी में जाकर इसे ढूँढ़ा जाए।

तुरन्त ही हम कुछ शिक्षक साथी मिलकर नदी के किनारे पहुँच गए। हमने देखा कि नदी में कई तरह की वनस्पतियाँ उगी हुई हैं जिसमें हरे रंंग की काई काफी मात्रा में दिखाई दे रही थी। थोड़े गहरे पानी में नज़र गई तो वहाँ बहुत सारी उलझी हुई पत्तेदार वनस्पति दिखाई दी। मैंने शिक्षकों को बताया कि यही है - हायड्रिला। हमने पानी में से हायड्रिला की एक शाखा को बाहर निकाला और उसका अवलोकन किया। एक शिक्षक ने आश्चर्य के साथ खेद व्यक्त करते हुए कहा, “किसी ने सही फर्माया है - बगल में छोरा और गाँव में ंिढंढोरा। शिक्षक प्रशिक्षण में कई दफा प्रयोग तो बस पढ़ दिया जाता है - लो हो गया प्रयोग।”
बहरहाल, हायड्रिला को तो हमने पहचान लिया था और अब यह जानने की कोशिश की गई कि इसकी जड़ें पानी में ही तैरती हैं या पानी के भीतर ज़मीन से भी जुड़ी रहती हैं। इसके लिए हायड्रिला की कई सारी शाखाओं को पकड़कर खींचा गया तो पाया कि इनकी हल्की सफेद रंग की जड़ें तली की रेत-गाद में गड़ी रहती हैं और तना शाखित एवं गोलाई लिए होता है।

हायड्रिला - लो! अब पता चला
हायड्रिला एक जलीय वनस्पति है। आपने जल स्रोतों में देखा होगा कि कुछ वनस्पतियाँ ऐसी होती हैं जिनकी पत्तियाँ जल की सतह पर तैरती रहती हैं। और कुछ ऐसी जिनके तने बाहर निकल आते हैं एवं पत्तियाँ व टहनियाँ आदि हवा में लहराती रहती हैं। हायड्रिला की पत्तियाँ तो जलमग्न होती हैं मगर फूल जल की सतह पर आ जाते हैं। फूल हल्के सफेद रंग के और काफी छोटे होते हैं। फूलों के डण्ठल काफी पतले मगर लम्बे होते हैं। वैसे डण्ठलों की मोटाई इस बात पर निर्भर करती है कि हायड्रिला कितने गहरे पानी में है। जो टहनियाँ गहराई में मौजूद हैं वहाँ से निकलने वाले फूल का डण्ठल काफी लम्बा होता है। तभी तो फूल पानी की सतह तक आ पाते हैं।
हायड्रिला की पत्तियों का अवलोकन करने पर पाया कि ये तने पर गोल चक्कर में लगी होती हैं। तने पर साफतौर पर नोड और इंटरनोड देखे जा सकते हैं। नोड पर गोलाई में दो से आठ तक पत्तियाँ देखी जा सकती हैं। पत्तियाँ छोटी और नुकीली होती हैं। इनकी पत्तियों में समानान्तर विन्यास होता है और जड़ रेशेदार। इससे यह समझ में आया कि यह एकबीजपत्री पौधा है।
हायड्रिला का अवलोकन करते हुए शिक्षकों ने बताया कि इस वनस्पति को तो उन्होंने देखा है। दरअसल, उन्हें लग रहा था कि नाम तो कुछ अँग्रेज़ीनुमा लग रहा है तो फिर हमारे यहाँ यह वनस्पति कैसे मिल सकती है।

पाठ्य पुस्तक का वह प्रयोग
कक्षा छठवीं की विज्ञान की किताब में कहा गया है कि पत्तियों में जो हरा रंग होता है वह प्रकाश की मौजूदगी में ऑक्सीजन का निर्माण करता है। इस बात को प्रमाणित करने के लिए एक प्रयोग सुझाया गया है। प्रयोग के लिए ज़रूरी सामग्री में एक काँच का बीकर, एक काँच की कीप (जो इस बीकर में फिट हो जाए) और एक परखनली को गिनाया गया है। हमने आश्रमशाला में जाकर देखा कि विज्ञान के प्रयोगों से सम्बन्धित सामग्री तो वहाँ मौजूद थी।

गलतियाँ ढूँढ़िए: गुजरात की छठवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में प्रयोग के साथ दिया गया रेखाचित्र एवं लेब्लिंग। चूँकि शायद रेखाचित्र को वास्तव में, प्रयोग करते हुए नहीं बनाया गया था इसलिए इसमें कुछ विसंगतियाँ आ गई हैं। क्या आप उन्हें पहचान पा रहे हैं?  

प्रयोग को करने में पहली समस्या यह थी कि आश्रमशालाओं में बीकर और कीप प्लास्टिक के ही थे यानी काँच के मुकाबले पारदर्शिता कम रहेगी तो हायड्रिला की पत्तियों को सूर्यप्रकाश कम मिलेगा जिसकी वजह से ऑक्सीजन कम या धीमे बनेगी। अब अगर हायड्रिला मिल भी जाए तो इस प्रयोग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि बीकर और कीप का साइज़ ऊपर बताए अनुसार है या नहीं।
दूसरी समस्या किताब में प्रयोग के चित्र को लेकर थी। यदि आप चित्रानुसार उपकरणों की जमावट करेंगे तो ऑक्सीजन गैस इकट्ठी नहीं होगी। चित्र के अनुसार इस प्रयोग में जलीय पौधे को कीप में रखना है। और कीप को बीकर में रख उसे पानी से भरकर, कीप के ऊपर पानी से भरी औंधी परखनली को व्यवस्थित करना है। शिक्षकों ने बताया कि अगर हम बीकर में पानी का स्तर किताब में बने चित्र के हिसाब से रखते हैं तो परखनली को पानी से भरकर औंधा नहीं कर सकते। हमने तय किया कि पुस्तक में दिए गए निर्देशों में कुछ उलट-फेर करना होगा।
तीसरी समस्या विविध प्रयोगों के बीच अन्तर्सम्बन्ध की है। विज्ञान की किताब में वनस्पतियों द्वारा ऑक्सीजन निर्माण करने वाला और ऑक्सीजन के गुणधर्म को परखने वाला यह प्रयोग कक्षा छठी में है। लेकिन रासायनिक क्रिया से ऑक्सीजन बनाने और ऑक्सीजन के गुणों को परखने वाले प्रयोग कक्षा सातवीं में दिए गए हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पाठ्य पुस्तक निर्माण के दौरान प्रयोग और अवधारणाओं के अन्तर्सम्बन्ध की अनदेखी हुई है। किताब में ऐसे कोई संकेत भी नहीं दिए जिससे इस प्रयोग को करने से पहले विद्यार्थियों को ऑक्सीजन के गुणों को परखने का मौका मिले।

इस प्रयोग का सबसे अहम पहलू है कि हम परखनली में ऑक्सीजन गैस को पानी के विस्थापन (water displacement) से एकत्र करते हैं। इस तरीके में पानी से भरी परखनली को औंधे मुँह बीकर में कीप की नली पर रखते हैं। जैसे-जैसे ऑक्सीजन गैस परखनली के ऊपरी सिरे पर इकट्ठी होने लगती है, परखनली का पानी बीकर में धकेला जाने लगता है। हायड्रिला वाले इस प्रयोग में पानी के विस्थापन का तरीका ही अपनाया जा रहा है।
शिक्षक साथियों ने बताया कि ऑक्सीजन बनाने की जो विधि कक्षा सातवीं की पुस्तक में दी गई है उससे हम ऑक्सीजन के इस गुणधर्म को परख पाते हैं कि ऑक्सीजन जलने में सहायक होती है। इसके लिए जो प्रयोग दिया गया है वह बेहद सरल है। उस प्रयोग में एक परखनली में पोटेशियम परमैंगनेट लेकर उसे गरम करना है। काफी गरम करने के बाद एक जलती हुई अगरबत्ती को परखनली के मँुह के पास ले जाना है।

बाल वैज्ञानिक का प्रयोग

दरअसल, एकलव्य संस्था द्वारा तैयार की गई बाल वैज्ञानिक, कक्षा सात के एक अध्याय - पौधों में पोषण - में एक प्रयोग सुझाया गया है। लेकिन इस प्रयोग में सीधे-सीधे हायड्रिला का नाम न लेते हुए कहा गया है कि ‘पानी में उगने वाली वनस्पति लाओ। इन टहनियों को पानी में ही रखकर लाना ताकि वे सूखें नहीं...।’ साथ ही पानी में एक चुटकी भर खाने का सोडा डालने का सुझाव भी दिया गया है।
इस प्रयोग को सेट करने के बाद इसे एक घण्टे तक धूप में रखने को कहा गया है। प्रयोग के दौरान जब पर्याप्त गैस एकत्र नहीं हुई तो हमने इसे लगभग डेढ घण्टे तक धूप में रखा रहने दिया। जब इंजेक्शन की शीशी में गैस एकत्र हो गई तो बारी आई इसको जाँचने की। इंजेक्शन की शीशी को अँगूठे से दबाकर बाहर निकाला और उसके मुँह पर जलती हुई अगरबत्ती ले गए तो अगरबत्ती लौ के साथ जलने लगी। इस तरह से यह प्रयोग सफल रहा।

जब हम परखनली में पोटेशियम परमैंगनेट को गरम करने लगे तो ज़्यादा गरम होने की वजह से परखनली फूटने लगी। इस समस्या से पार पाने के लिए हमने इंजेक्शन की शीशी का इस्तेमाल करके देखा। इंजेक्शन की शीशी भी ज़्यादा गरम करने पर फूटती है मगर फिर भी यह परखनली की बनिस्बत काफी मज़बूत होती है और सस्ती भी। जब हम पोटेशियम परमैंगनेट से भरी इंजेक्शन की शीशी के मँुह पर जलती हुई अगरबत्तीे ले गए तो वह तेज़ी से जलने लगी।
साथ ही, हमने बाल वैज्ञानिक, कक्षा-7 में दिया गया वह प्रयोग भी किया जिसमें ऑक्सीजन को जल की विस्थापन विधि से एकत्र कर उसके गुणधर्मों को परखा जाता है। इस प्रयोग को करने से हम ऑक्सीजन गैस के कुछ गुणधर्मों को समझ पाए।

हायड्रिला से ऑक्सीजन
स्कूलों में प्रयोग सामग्री देखने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि सामग्री तो है, मगर इस प्रयोग के लिए काम में नहीं आ सकती। इस प्रयोग की सफलता बीकर और कीप के सही आकार पर ही निर्भर है। स्कूल में उपलब्ध सामग्री को हाथ में लेकर देखा तो समझ में आया कि कीप बीकर में फिट नहीं बैठती। अधिकांश आश्रमशालाओं में कीप और बीकर प्लास्टिक के हैं जो पूरी तरह पारदर्शक नहीं हैं। इसलिए हमने काँच के बीकर और काँच की कीप का जुगाड़ किया। कीप की नली थोड़ी लम्बी थी जिसे हमें बीकर के हिसाब से तोड़कर छोटा करना पड़ा।

प्रायोगिक सामग्री का विकल्प
हाल-फिलहाल का काम तो किसी तरह हो गया लेकिन शिक्षकों को महसूस हो रहा था कि अगर इस प्रयोग को सभी स्कूलों में करवाना है तो बीकर और कीप का विकल्प हमें खोजना ही होगा। बस फिर क्या था। कई दिमाग इस दौड़ में शामिल हो गए। उपाय सूझा, क्यों न प्लास्टिक की बोतलों का इस्तेमाल किया जाए।
आजकल प्लास्टिक की बोतलें इफरात में मिल जाती हैं। तय किया गया कि पारदर्शक बोतल का ऊपर वाला हिस्सा काट लिया जाए जिसका उपयोग कीप के स्थान पर किया जा सकता है। साथ ही परखनली के बदले में इंजेक्शन की शीशी को पानी से भरकर बोतल के मँुह पर औंधा रख दिया गया। और इस पूरे उपकरण को पतीले में रखकर प्रयोग सेट किया गया।
लवकर आश्रमशाला के एक शिक्षक धर्मेश पटेल और उनकी टीम ने इस प्रयोग को करके देखा और पाया कि ऑक्सीजन गैस काफी मात्रा में इंजेक्शन की शीशी में एकत्र होती है। उन्होंने ऑक्सीजन की जाँच भी की।

कुछ दिनों बाद एक बार फिर से इस प्रयोग को जाँचने की कोशिश आश्रमशाला के अन्य शिक्षकों ने की। लेकिन पास की नदी में पानी न होने की वजह से हायड्रिला नहीं मिल पाया। इस बार शिक्षक दूसरी जगह से शैवाल लेकर आए और उससे प्रयोग तैयार किया।
हायड्रिला के इस प्रयोग से हमें कई सारी समस्याओं से एक साथ जूझने का मौका मिला। मसलन, वैकल्पिक प्रयोग सामग्री की खोजबीन, सामग्री का उपयुक्त ढंग से इस्तेमाल और किस तरह हम नतीजों पर पहुँचते हैं। हमारे सामने असल चुनौती यह नहीं थी कि प्रयोग को कर्मकाण्ड के रूप में जैसे-तैसे कर डालें बल्कि समस्याओं को समझकर तटस्थ रूप से हल कर पाने की थी। हाँ, एक और बात जो अहम है कि यह प्रयोग हम अपने सन्तोष के लिए कर रहे थे, न कि किसी को इसके नतीजों से खुश करने के लिए।


 कालू राम शर्मा: जशोदा नरोत्तम ट्रस्ट, धरमपुर (गुजरात) में स्कूली शिक्षण पर काम कर रहे हैं। लेखन में रुचि।