लेखक:   डेनियल ग्रीनबर्ग
अनुवाद: पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा                                                                                                                          [Hindi PDF, 684 kB]

विभिन्न आयु को मिलाना सडबरी वैली का खुफिया अस्त्र है। आयु विभाजन का सिर-पैर मुझे कभी समझ नहीं आया। असली दुनिया में लोग अपना जीवन साल-दर-साल आयु के अनुसार पृथक नहीं बिताते। किसी खास उम्र के सभी बच्चों की रुचियाँ या क्षमताएँ एक-सी नहीं होतीं।
बहरहाल, हमने जल्दी ही यह जान लिया कि बच्चे आपस में हिलते-मिलते कैसे हैं। जब हमने उन्हें उनके ही उपायों पर छोड़ा, वे मिल गए। उसी तरह जैसे असली लोग।
जब मैंने अपना सैंडविच बनाने का सेमिनार किया तो मेरे पास बारह और अठारह साल के बच्चे थे, और साथ ही सभी दरमियाना आयु के भी। पाक कला सभी सीमाएँ आसानी से पाट देती है। सालों बाद जब मैंने आधुनिक इतिहास पढ़ाया तो मेरे पास दस वर्षीय एडियन था जो सत्रह साल तक के लड़के-लड़कियों के साथ बैठा था।

सिद्धान्त हमेशा एक ही होता है: अगर किसी को कुछ करना होता है तो वह उसे कर ही लेता है। रुचि ही सबसे महत्वपूर्ण है। अगर गतिविधि का स्तर ऊँचा हो, तो कौशल भी महत्वपूर्ण होता है। कई छोटे बच्चे बहुत सारी चीज़ों में बड़ों से अधिक कुशल होते हैं।

जब कौशल और सीखने की दर समान स्तर की न हों तब मज़े की शुरुआत होती है। बच्चे एक-दूसरे की मदद करते हैं। उन्हें यह करना ही पड़ता है, अन्यथा पूरा समूह ही पिछड़ सकता है। वे ऐसा करना भी चाहते हैं क्योंकि वे अंकों या सुनहरे सितारों को पाने के लिए स्पर्धा नहीं कर रहे होते। उन्हें मदद करना पसन्द आता है क्योंकि किसी दूसरे की मदद करना और उसमें सफल होना बेहद सन्तोषप्रद होता है। और यह देखना भी बेहद सुखदायी होता है। स्कूल में जहाँ कहीं नज़र जाती है, आपका सामना आयु मिश्रण से होता है।

और इसका एक भावनात्मक पक्ष भी है। किसी सोलह वर्षीय किशोरी/किशोर की मातृत्व या भ्रातृत्व की वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति तब होती है जब वह देर-दोपहर एक काउच पर किसी छह साल के सटे बैठे बच्चे के साथ, शान्ति से पढ़ रही हो। और यह उस छह वर्षीय बच्चे में सुकून और सुरक्षा की गहन भावना उस दुनिया में जगाता है जहाँ वह हमेशा बड़े लोगों से घिरा रहता है। जब बारह वर्षीय लड़की धैर्य से किसी सोलह वर्षीय नौसिखिए को कम्प्यूटर के बारे में सिखाती है तो उसमें आत्मगौरव पुष्ट होता है।

इसका एक सामाजिक पक्ष भी है। जब बच्चों ने पहले स्कूल नृत्य का आयोजन किया तो मेरे मन में एक ऐसे कक्ष की छवि थी जिसमें चारों ओर भयभीत बच्चे खड़े होंगे। इसे प्रोजेक्शन यानी प्रक्षेपण कहते हैं - अपने साथ जो घटा हो, दूसरों के साथ भी वैसा ही होगा, यह सोच लेना। जूनियर हाई स्कूल में मेरा पहला स्कूल नृत्य ऐसा ही था; क्या सबके साथ ऐसा नहीं हुआ था? शिक्षक लड़कों को कमरे के एक ओर और लड़कियों को दूसरी ओर खड़ा कर देते और तब स्थितियाँ बद से बदतर बनती जातीं।

पर बच्चों ने हम सबको अचरज में डाल दिया। सभी आए और सभी साथ-साथ नाचे। दस साल के अन्तर वाले जोड़े थे तो एक साल के अन्तर वाले भी। एक सात वर्षीय लड़का पन्द्रह साल की लड़की के साथ नाचा और उस जोड़ी ने प्रथम पुरस्कार जीता। सबके लिए यह आनन्द का समय रहा। साल गुज़रते गए और सबसे छोटे बच्चे सबसे बड़ों में तब्दील हुए, पर यह क्रम बरकरार रहा।

बड़े बच्चे अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं। ऐसे आदर्श जो छोटों के लिए खुदा समान होते हैं। और ठीक उसी तरह विलोम-आदर्श भी। “मुझे खुशी है कि जब मैं सात साल का था, तो मैं किशोरों की सोहबत में रहता था,” हमारे बेटे माइकल ने हमें अठारह साल की उम्र में एक बार कहा। “मैंने साक्षात देखकर यह सीखा कि मैं क्या नहीं करना चाहता, सो मुझे अपने स्वास्थ्य और जीवन के कई साल बर्बाद कर वे सारे प्रयोग नहीं करने पड़े।”

छोटे बच्चे बड़ों के लिए परिवार का रोल निभाना सम्भव बनाते हैं - छोटे भाई-बहन या बच्चों की भूमिका में। जब शैरॉन पहले पहल स्कूल में चार वर्ष की आयु में आई, वह कुछ ही समय पूर्व अपने माता-पिता को खो चुकी थी। अपने प्रथम वर्ष में वह सबकी ‘बच्ची’ बनी रही, उसे सभी पढ़कर सुनाते, उसके साथ बोलते, बातचीत करते, उसे गले लगाकर दुलारते। जब पूर्व छात्र अपने शिशुओं, या घुटनों चलने वाले नन्हों के साथ मिलने आते हैं, तो अकसर किशोर छात्र-छात्राएँ उनके शिशुओं के साथ घण्टों खेलते देखे जा सकते हैं।

और सीखने का पक्ष भी है। बच्चों को दूसरे बच्चों से सीखना बेहद अच्छा लगता है। अव्वल तो, अकसर यह अधिक आसान होता है, बाल शिक्षक वयस्कों की तुलना में छात्रों की कठिनाइयों के अधिक करीब होता है, क्योंकि हाल ही वह इनसे गुज़रा होता है। उनके स्पष्टीकरण अमूमन अधिक आसान व बेहतर होते हैं। दबाव और फैसला कम होता है। और अपने पथप्रदर्शक के स्तर तक जल्द-से-जल्द पहुँचने का ज़बरदस्त प्रोत्साहन भी रहता है।

बच्चों को एक-दूसरे को सिखाना बहुत अच्छा लगता है। यह उनमें अहमियत और उपलब्धि का भाव भी जगाता है। और भी महत्वपूर्ण बात - इससे वे जो पढ़ा रहे होते हैं, उसकी समझ भी बढ़ती है; उन्हें पहले खुद बात को ठीक से समझना पड़ता है। सो वे सामग्री से तब तक जूझते हैं जब तक वह उनके खुद के दिमाग में बिलकुल साफ न हो जाए। और जब तक उन बच्चों को ठीक से समझ न आ जाए जिन्हें वे समझा रहे हैं।

एक गुप्त हथियार के रूप में, आयु मिश्रण अमोघ है। यह स्कूल में सीखने की शक्ति और सिखाने की शक्ति में भारी इज़ाफा करता है। यह ऐसा मानवीय वातावरण निर्मित करता है जो जीवन्त और वास्तविक हो। स्कूल की तुलना अकसर एक गाँव से की जाती है जहाँ सब मिलते-जुलते हैं। सब सीखते और सिखाते हैं, एक-दूसरे के लिए आदर्श पेश करते हैं, मदद करते हैं और डाँट-डपट लगाते हैं - और जीवन में साझेदारी करते हैं। मुझे लगता है कि यह बिम्ब अच्छा है।

वयस्क भी बच्चों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैंने हान्ना ग्रीनबर्ग के ‘द बीच (Beech)) ट्री’ के वर्णन से बेहतर कुछ नहीं देखा है। आप भी पढ़िए उसने जो लिखा।

बीच का वृक्ष
“इस पतझड़ की एक भव्य सुबह मैंने पहली बार बीच का पेड़ देखा। यह कथन उस व्यक्ति के मुँह से आश्चर्यजनक लग सकता है जो सडबरी वैली स्कूल में अठारह सालों से हो, पर यह सत्य है। सभी दूसरों की तरह मैंने भी इस वृक्ष को पतझड़ के मौसम में देखा है जब इसकी पत्तियाँ लाल हो जाती हैं और फिर झड़ जाती हैं, ताकि उसकी शाखाएँ सर्दी के अपने भव्य रूप को दिखा सकें। मैंने बसन्त में उसे फिर से पनपते भी देखा है जब प्रस्फुटित कोपलें पेड़ पर गुलाबी आभामण्डल बनाती हैं और धीमे-धीमे गहरी हरी होती जाती हैं। साथ ही मैंने छोटे बच्चों की अनेक पीढ़ियों को इस विशाल पेड़ पर चढ़ना सीखते और अधिकाधिक ऊँचे चढ़ते भी देखा है जो यदाकदा उसके शीर्ष तक पहुँच जाते हैं और घण्टों वहाँ बैठे रहते हैं। पर बस पिछले सप्ताह ही मैंने उसे असल में ‘देखा’ और सच में समझा है। एक वयस्क होने के बावजूद मैं पेड़ को वास्तव में, अनुभव करना तब तक नहीं जानती थी, जब तक एक नन्हीं बालिका ने मुझे यह सिखा न दिया। यही हुआ था।
एक दिन, शैरॉन ने, दमकते चेहरे के साथ घोषणा की (जैसे कई अन्य नन्हें उसके पहले भी कर चुके थे) कि उसने आखिरकार अकेले ही बीच के पेड़ पर चढ़ना सीख लिया है। उसने कहा कि जॉयस ने उसे यह सिखाया, और अब वह मुझे दिखाएगी। मैं उसके साथ गई क्योंकि मैं उसकी खुशी साझा करना चाहती थी, और इसलिए भी कि वह बेहद खूबसूरत सुबह थी जिसमें जीवन्त रंग थे और झिलमिल धूप, लाल और पीली पत्तियों की ओस पर झिलमिला रही थी। शैरॉन ने मुझे दिखाया कि वह कैसे चढ़ी थी और कैसे नीचे उतरी। फिर उसने मुझे भी ठीक यही करने को कहा। मैं पहले दर्ज़नों बच्चों को पेड़ पर चढ़ने में और उनसे भी ज़्यादा बच्चों के ऊपर अटक जाने पर नीचे उतरने में उनकी मदद कर चुकी थी। पर खुद पेड़ पर चढ़ने की कोशिश मैंने कभी की ही नहीं थी।

शैरॉन आसानी से ‘ना’ नहीं स्वीकारती, और मैं जानती थी कि अगर मुझे अपने प्रति उसके सम्मान को बनाए रखना है तो मुझे उसके लिए प्रदर्शन करना ही होगा! उसने बड़े धीरज और बारीकी से, मुझे एक-एक कदम द्वारा पेड़ पर चढ़ना और उतरना सिखाया, और मैंने पहली बार ऐसा किया।
जब मैं पहले स्तर तक पहुंची तो मैं उस मचान के सौन्दर्य से दंग रह गई। मैं उन विशाल शाखाओं, उस आरामदेह जगह और उस विस्मय की भावना का वर्णन नहीं कर सकती। इतना कहना ही पर्याप्त है कि मुझे लगा कि मैंने पेड़ को पहली बार ‘देखा’ है। हम वयस्क खुद को बड़ा ज्ञानी मानते हैं और सोचते हैं कि बच्चों को सीखने और सिखाए जाने की ज़रूरत है। पर इस मामले में मैं शर्त लगा सकती हूँ कि सडबरी वैली स्कूल का कोई भी बच्चा भव्यता के प्रति हमारे अज्ञान और असंवेदनशीलता से हैरान हो जाएगा जो हमारे इर्द-गिर्द फैली है और जिसकी हम उपेक्षा करते हैं। शैरॉन एक अच्छी शिक्षिका थी और जो कुछ उसने मुझे सिखाया, उसके प्रति मैं हमेशा उसकी आभारी रहूँगी।”


डेनियल ग्रीनबर्ग: सडबरी वैली स्कूल के संस्थापक सदस्य। विद्यालय संगठन के मॉडल पर इनकी अनेक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भौतिकशास्त्र के प्राध्यापक रहे हैं।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा: लेखन एवं अनुवाद कार्य में मसरूफ हैं। एकलव्य के लिए कई शैक्षिक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद। जयपुर में निवास।
यह लेख, फ्री एट लास्ट, द सडबरी वैली स्कूल, से साभार।