लेखक :  कैरन हैडॉक
अनुवाद: भरत त्रिपाठी

हम में से ऐसे कई लोग, जिन्हें पढ़ाने में दिक्कतें आती रही हैं, इस बारे में बहुत कुछ एक-से ख्याल रखते हैं कि हमारा काम इतना मुश्किल क्यों है। हमारी कुछ सबसे ज़ाहिर शिकायतें हैं - क्षमता से अधिक काम का बोझ, अपर्याप्त वेतन (अधिकांश मामलों में), ढेर सारे दायित्व, प्रत्येक क्लास में बहुत ज़्यादा विद्यार्थियों का होना, रोज़ बहुत सारी क्लासें लेना, हर बच्चे पर ध्यान दे पाने के लिए पर्याप्त समय न मिलना, बच्चों द्वारा किए गए कार्यों में बहुत ज़्यादा सुधार करने की ज़रूरत होना, हमारे पास उचित प्रशिक्षण न होना, तथा विद्यार्थियों के कमज़ोर कौशल और बुनियाद। शिक्षकों के रूप में हमारे सामने आने वाली ये सबसे अहम समस्याएँ हैं, और विद्यार्थियों व पालकों के साथ मिलकर हमें यह माँग करना ही पड़ेगी कि इन्हें सुलझाया जाए। इनके समाधान मुख्यत: आर्थिक हैं। चूँकि किसी भी प्रगतिशील देश की सरकार पर उस देश के समस्त नागरिकों को उच्च कोटि की नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी होना चाहिए, और चूँकि किसी गरीब देश के लिए भी ऐसा करना कोई बहुत खर्चीला नहीं है1, अत: ऐसा न हो पाने का कोई न्यायोचित कारण नहीं है। भारत में ऐसा नहीं हो रहा है, इससे एक ही चीज़ स्पष्ट होती है कि यहाँ की सरकार जन-विरोधी है। और वे तब तक नहीं बदलेंगे जब तक कि हम उन्हें इसके लिए मजबूर न कर दें।

इन समस्याओं के अलावा, विज्ञान शिक्षण की अपनी कुछ विशिष्ट समस्याएँ हैं: पाठ्यक्रम बहुत बड़ा होता है; विद्यार्थियों को दिलचस्पी नहीं रहती; विद्यार्थियों से शैक्षणिक गतिविधियाँ व प्रयोग कराना बेहद कठिन होता है और इसमें बहुत समय भी लगता है; पाठ्यपुस्तक के अलावा पर्याप्त स्रोत नहीं होते; और विज्ञान विद्यार्थियों के जीवन में अप्रासंगिक प्रतीत होता है।
पर इसके अलावा, पाँच बुनियादी समस्यायों का एक समूह अलग है - ऐसी समस्याएँ जिन्हें आर्थिक समस्याओं का समाधान करके भी हल नहीं किया जा सकता। इसका यह मतलब नहीं है कि आर्थिक समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए - उन्हें तो हल करना ही होगा। पर साथ ही हमें निम्नलिखित समस्याओं पर ध्यान देकर इन्हें भी सुलझाना चाहिए। मैं इनमें से प्रत्येक पर संक्षेप में चर्चा करूँगी।

पाँच बुनियादी कारण
आखिर क्यों हमें ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने में कठिनाई होती है जैसे कि बॉक्स में दिए गए हैं? पाठ्य पुस्तकें हमें विरोधाभासों तथा भ्रामक कथनों से भरी क्यों मालूम होती हैं, जैसा कि चित्र में दिखाया गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि न तो हम यह समझ रहे हैं कि विज्ञान की प्रकृति क्या है, और न ही कि हमारी दुनिया की प्रकृति कैसी है।

1. हम सोचते हैं कि विज्ञान ‘तथ्यों’ की सूची है
यह सही नहीं है। विज्ञान कोई याद कर लेने वाले तथ्यों की सूची नहीं है। यह एक प्रक्रिया है - एक पद्धति है प्रश्न पूछने की, परिकल्पनाएँ गढ़ने की, निरीक्षण करने की, परीक्षण करने की, साक्ष्य तलाशने की, आँकड़े एकत्र करने की, विश्लेषण करने की, निष्कर्षों में बदलाव करने की, संवाद करने की, और फिर से सवाल करने की। यह सम्पूर्ण सूची नहीं है, और इनमें से प्रत्येक पहलू का होना ज़रूरी नहीं होता, पर इससे एक अन्दाज़ा लगता है कि एक आम वैज्ञानिक पद्धति क्या और कैसी होती है।
यदि हम विज्ञान पढ़ाना चाहते हैं, तो हमें वैज्ञानिक पद्धति सिखाना होगी। उसे सिखाने का तरीका है उसे करना।

2. हम वैज्ञानिक प्रक्रिया की बजाय आस्था और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर करते हैं
चूँकि हम भूलवश यह मान लेते हैं कि विज्ञान तथ्यों की सूची है, हम सोचते हैं कि कुछ आधिकारिक स्रोतों के पास सही तथ्य व हमारे प्रश्नों के सही उत्तर होंगे। दरअसल, जब हम इस तरह के आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर करते हैं, तो ज़रूरी नहीं कि हम विज्ञान पर निर्भर कर रहे हों।
अपने प्रश्नों के उत्तरों के लिए आधिकारिक स्रोतों पर पूरी तरह से और हमेशा निर्भर रहना गैर-वैज्ञानिक है। बेशक, हम खुद ही समस्त अवलोकन नहीं कर सकते, न ही सारे विचारों को परख सकते हैं। अत: हमें विज्ञान करते वक्त भी आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर होना ही पड़ता है। हालाँकि, विज्ञान के मुताबिक, किसी भी आधिकारिक आवाज़ और उत्तर को चुनौती दी जा सकती है। यदि ज़्यादा विश्वसनीय साक्ष्य मिल जाए, तो उत्तर को सुधारा जा सकता है या फिर उसे खारिज भी किया जा सकता है। पर हमें किसी उत्तर को बस इसलिए स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए क्योंकि हमें किसी आधिकारिक स्रोत पर भरोसा है।

3. हम वैज्ञानिक विधि को कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित कर देते हैं
यदि निगमनात्मक विवेचना (deductive reasoning) का इस्तेमाल करते हुए, हम सोचते हैं कि कुछ खास प्रकार के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान के सहारे हासिल नहीं हो सकता, तो हो सकता है कि हम फिज़ूल में खुद को सीमित कर रहे हों।
ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब देना इतना कठिन होता है कि हम यह मान लेते हैं कि इनका तो फौरी उत्तर भी हमें नहीं मिल सकता। पर हम पहले से यह कैसे मान सकते हैं कि उनका उत्तर ही अज्ञेय है?

4. हम तर्क के अनुपयुक्त तरीके का उपयोग करते हैं
हम अकसर कोई ‘व्यावहारिक बुद्धि’ वाला तर्क इस्तेमाल करते हैं जो कि व्यावहारिक बुद्धि से परे होता है। उदाहरण के लिए, अरस्तूवादी तर्क के अनुसार: ए, ए है; ए गैर-ए नहीं है; और एक्स या तो ए है या गैर-ए, पर एक ही समय पर दोनों नहीं। दूसरे शब्दों में, गुलाब, गुलाब होता है। केले का छिलका, केले का छिलका होता है। यह व्यावहारिक बुद्धि प्रतीत होती है, और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में तो यह अकसर काम में आती है। हालाँकि, हमें यह समझना चाहिए कि वास्तविक दुनिया हमेशा इस तरह के तर्क को मानकर नहीं चलती। हकीकत में, चीज़ें इतनी पृथक, अलग-थलग, स्थिर, या इस तरह से सुपरिभाषित नहीं होतीं।

दरअसल, तर्क की ऐसी पद्धति का उपयोग करना ज़्यादा उपयुक्त होगा जिसमें हम ‘ए’ की ए के रूप में तथा गैर-ए के रूप में भी पहचान करें। दूसरे शब्दों में, आन्तरिक विरोध सभी चीज़ों में विद्यमान रहते हैं। इसे उदाहरणस्वरूप एक सड़ते हुए केले के छिलके के आनुक्रमिक चित्रों में दर्शाया गया है। किस बिन्दु पर हम यह कह पाएँगे कि केले का छिलका अब केले का छिलका नहीं रहा? यह बता पाना असम्भव है। दरअसल, केले का छिलका हमेशा ही केले का ऐसा छिलका होता है जो केले के छिलके से इतर बनने की प्रक्रिया में है। विज्ञान का इस्तेमाल करते हुए, जो कि इस तरह के तर्क पर आधारित हो, हमें यह समझ में आता है कि दुनिया प्रक्रियाओं से बनती है, चीज़ों से नहीं।

इसके अलावा, हम देखते हैं कि हर चीज़ बदलती है। बदलाव क्रमिक, मात्रात्मक बदलाव होते हैं, जैसे कि टिड्डे के आकार में धीरे-धीरे होने वाली वृद्धि। हालाँकि, यह धीमी प्रक्रिया एक आकस्मिक, गुणात्मक बदलाव में परिणित होती है: टिड्डे की मृत्यु। हमारे लिए इन आकस्मिक बदलावों को गुणात्मक रूप में समझना मुश्किल होता है।

वास्तविक दुनिया की एक और विशेषता यह है कि चीज़ें (प्रक्रियाएँ) एक-दूसरे से जुड़ी हुई और एक-दूसरे पर निर्भर होती हैं, पृथक या अलग-थलग नहीं होतीं जैसे कि वे अरस्तूवादी तर्क के मुताबिक प्रतीत होती हैं। उदाहरण के लिए, जीवधारियों के बीच पारस्परिक निर्भरता सामान्य खाद्य शृंखला के सन्दर्भ में भी नहीं समझी जा सकती। हम देखते हैं कि कई परस्पर सम्बद्ध खाद्य शृंखलाएँ एक खाद्य जाल बनाती हैं। इस खाद्य जाल को समझने के बावजूद पोषण स्तरों को परिभाषित करने में कठिनाई होती है। चूहे को खाने वाले साँप को अपना भोजन बनाने वाला बाज भी चूहे को खा सकता है। मच्छर, बाज और चूहे, दोनों का खून चूसकर अपना पोषण कर सकता है। कोई पशु, पौधों, और उन्हें खाने वाले पशुओं, दोनों को खा सकता है, जिससे वह प्राथमिक उपभोक्ता भी हो जाता है तथा द्वितीयक उपभोक्ता भी। पौधों के प्राथमिक उपभोक्ता किसी कीड़े को भी वीनस फ्लाई ट्रैप जैसा कोई पौधा खा सकता है। और फिर अगर हम सूक्ष्म जीवों और डैट्रीटिवोर्स (विघटन-शील व्यर्थ पदार्थों के भक्षक) को भी इसमें जोड़ने की कोशिश करें तो जल्दी ही परस्पर निर्भरताओं से भरी एक बहुत ही जटिल भूल-भुलैया हमारे सामने होगी। विज्ञान कठिन है।

इतना ही नहीं, हम यह भी देखते हैं कि तर्क की इस वैज्ञानिक पद्धति में कुछ भी हमेशा नहीं चलता। हर नई चीज़ की जगह कोई और नई चीज़ आ जाती है। हम इस तरह से सोचने के आदी नहीं हैं। हमारे लिए यह यकीन करना मुश्किल है कि कभी ऐसा भी समय था जब पृथ्वी पर कोई इन्सान नहीं था। शायद इसीलिए हम इस बात पर इतनी जल्दी भरोसा कर लेते हैं कि आदिमानव डायनासॉरों से लड़ा करते थे (हकीकत में डायनासॉर प्रारम्भिक मानवों के धरती पर आने के 6.5 करोड़ साल पहले ही विलुप्त हो गए थे)। इतने लम्बे कालक्रम की कल्पना भी हम कैसे कर सकते हैं?

5. दुनिया के बारे में सोचने का हमारा तरीका अवास्तविक है
इस प्रकार हम यह देखते हैं कि दुनिया के बारे में सोचने के हमारे तरीके, हमारे लिए विज्ञान सीखना मुश्किल बना देते हैं। रूढ़िवादिता की ओर हमारा झुकाव, हमारे लिए बदलाव देखना मुश्किल कर देता है। प्रत्येक चीज़ के उद्देश्य को समझने की हमारी चाह, हमारे लिए यह समझना कठिन कर देती है कि किस तरह चीज़ें बिना किसी उद्देश्य या अभिप्राय के भी घट सकती हैं, हालाँकि, कारण तो होते ही हैं। हमारी सोचने की ऐसी प्रवृत्ति, कि हमारे शरीरों की तुलना में हमारे दिमाग ज़्यादा सशक्त और आधारभूत होते हैं, के कारण हम विज्ञान के माध्यम से देखी जाने वाली प्रक्रियाओं के पीछे के भौतिक कारणों को अनदेखा कर देते हैं।
शायद जिस प्राकृतिक दुनिया के चमत्कार की पड़ताल हम विज्ञान की प्रक्रियाओं के ज़रिए करते हैं, वह एक तरह से इतनी ज़्यादा अद्भुत और विस्मयकारी है कि वह हमारी समझ से परे है।
इन समस्याओं को पहचानने से हमें विज्ञान सीखने व पढ़ाने में किस तरह मदद मिल सकती है?

यदि हम विज्ञान की सही प्रकृति को समझ पाएँ, अपने सोचने के तरीके से जुड़ी समस्याओं को पहचान सकें, और तर्क के इस नए तरीके को अपना सकें, तो इससे विज्ञान सीखने व सिखाने की नई सम्भावनाएँ खुल जाती हैं।
सबसे पहले, यदि विज्ञान ‘तथ्यों’ की सूची होने की बजाय कोई पद्धति है, तो विद्यार्थियों को ‘तथ्यों’ की सूची पढ़ने की बजाय वह पद्धति सीखना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि विज्ञान का समूचा पाठ्यक्रम बदल दिया जाना चाहिए।

यदि विज्ञान तथ्यों की सूची है तो फिर विज्ञान के पाठ्यक्रम में विषय की रूपरेखा होना लाज़मी है और प्रत्येक विषय में ऐसे तथ्यों की सूची होना चाहिए जिन्हें विद्यार्थी याद रखें। उदाहरण के लिए, इस पुरातन ढंग की सोच के मुताबिक तैयार किया गया विज्ञान का एक ठेठ पाठ्यक्रम बॉक्स में दिखाया गया है।
पर यदि विज्ञान वाकई में एक पद्धति है, तो विज्ञान के पाठ्यक्रम को पद्धतियों, कार्यविधियों, और कौशलों का खाका होना चाहिए, न कि विषय का। पाठ्यक्रम में विषय का ज़िक्र करना कतई ज़रूरी नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि ठीक-ठीक कौन-से विषय पढ़े जाते हैं, क्योंकि महत्वपूर्ण यह है कि विद्यार्थी वैज्ञानिक पद्धति सीखें।

इसके अलावा, विज्ञान के पाठ्यक्रम में विषयों का विशेष उल्लेख करने की आवश्यकता न होने के तीन अतिरिक्त कारण हैं। पहला, हम सभी महत्वपूर्ण विषयों का सम्भवत: उल्लेख नहीं कर सकते। उनकी संख्या बहुत अधिक है। दूसरा, यदि विद्यार्थी विज्ञान की पद्धति सीख जाएँ तो किसी भी विषय के प्रति उनकी दिलचस्पी जाग जाएगी और ज़रूरत पड़ने पर वे उसके बारे में और मालूमात हासिल कर सकेंगे। तीसरा, विषय-प्रसंगों के स्पष्ट रूप से उल्लिखित न होने से विद्यार्थियों (और शिक्षकों) को लाभ पहुँचेगा क्योंकि तब उनके पास अपनी विशिष्ट रुचियों और ज़रूरतों के मुताबिक विषय चुनने की स्वतंत्रता होगी। ऐसे में विज्ञान शिक्षण वैश्विक समुदाय एवं स्थानीय लोगों की ज़रूरतों, दोनों से प्रेरित हो सकता है। इससे विकेन्द्रीकरण को हकीकत बना पाने की समस्या भी हल हो जाएगी, साथ ही यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि सभी स्कूल गुणवत्ता और एक हद तक समरूपता बनाए रख सकें।

आखिरकार, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई छात्र मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद भी ‘प्रकाश संश्लेषण’, या ‘रेफ्लेसिया’, या ‘न्यूट्रॉन’ को परिभाषित नहीं कर सकता? क्या यह वाकई चिन्ता की बात है? वैसे भी, हम सब यह जानते हैं कि अगर विद्यार्थियों के लिए ये सारी परिभाषाएँ उपयोगी नहीं हैं तो वे, वैसे भी उन्हें जल्दी ही भूल जाएँगे।

लेकिन, हमें उस स्थिति में ज़रूर चिन्तित होना चाहिए जब कोई विद्यार्थी मिडिल स्कूल पूरा कर चुका हो और उसे यही लगता हो कि विज्ञान तो केवल तथ्यों की सूची भर है, और वह सोचता हो कि हर सवाल का एक निश्चित, ज्ञात जवाब होता है, और साथ ही अगर वह सवाल पूछने, प्रयोग करने, विश्लेषण करने, तथा साक्ष्यों पर आधारित निष्कर्ष निकालने की दिलचस्पी और क्षमता खो चुका हो। यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही विज्ञान के शिक्षकों के रूप में यह हमारी असफलता होगी। और अधिकांश मामलों में यही हो रहा है, हम असफल होते जा रहे हैं। हमें हमारे शिक्षण के तरीके को बदलने की ज़रूरत है।

नया पाठ्यक्रम कैसा हो सकता है, इसका एक उदाहरण बॉक्स में दिखाया गया है। यह पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के करने योग्य चीज़ों को रेखांकित करता है। विषयों का अलग से उल्लेख नहीं किया गया है।

एक नया पाठ्यक्रम

1. ऐसे सवाल पूछें जो आवश्यक हों और हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी हों।
2. ऐसे महत्वपूर्ण सवाल पूछें जो हमारे अपने वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए उपयुक्त हों।
3. यह समझें कि विज्ञान में कई प्रश्न ऐसे होते हैं जिनका कोई एक सीधा-सादा उत्तर नहीं होता।
4. देखे जा सकने वाले क्रियाकलापों को स्पष्ट करने के लिए परीक्षण योग्य अवधारणाएँ बनाएँ।
5. प्रश्नों के उत्तर देने के लिए तर्कसंगत भविष्यवाणियाँ, आकलन और जानकारी पर आधारित अनुमान लगाएँ।
6. अवधारणाओं का परीक्षण करने के लिए प्रयोग तैयार करें।
7. वैज्ञानिक प्रयोगों में नियंत्रणों का उपयोग करें और उन्हें समझें।
8. ऐसा कोई प्रयोग करें जिससे आपकी सोच बदल जाए।
9. प्रयोग के लिए बनाए जाने वाले ढाँचे में आने वाली सम्भावित दिक्कतों की पहचान करें।
10. निर्धारित ज़रूरतों के लिए उपयुक्त मापन विधियों का चयन करें।
11. विस्तृत निरीक्षण और मापन करें।
12. मापन के लिए उपकरण तैयार करें।
13. प्रत्यक्ष निरीक्षण, आवर्धन, मापन (जिसमें गिनती करना, द्वि व त्रिआयामी मापन, समय गणना, तौल करना शामिल होता है), चित्र बनाना, और अभिलेखन के अन्य रूपों के माध्यम से चीज़ों का अवलोकन और तुलना करना।
14. निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए आँकड़ों का विश्लेषण करना।
15. शब्दों, रेखाचित्रों , तस्वीरों, फिल्मों, अभिलेखनों आदि का उपयोग करते हुए विस्तृत प्रेक्षणों, नतीजों, और निष्कर्षों को मौखिक व लिखित रूप में प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करें।
16. अपने दृष्टिकोण का बचाव करते हुए चर्चाओं में हिस्सा लें और साक्ष्यों, उदाहरणों, और आलोचनाओं द्वारा दूसरों को समझाने की कोशिश करें।
17. विभिन्न पृष्ठभूमियों (अलग-अलग आयुवर्ग, शैक्षिक स्तर तथा भिन्न-भिन्न भाषाओं, मान्यताओं आदि को जानने-मानने वाले लोग) के लोगों तक प्रभावशाली ढंग से वैज्ञानिक तर्क संप्रेषित करना।
18. किताबों, इंटरनेट, साक्षात्कारों और चर्चाओं के माध्यम से विशिष्ट जानकारियाँ हासिल करना।
19. हमारे पर्यावरण के विभिन्न पौधों व पशुओं की पहचान करने के लिए किसी दिग्दर्शिका का उपयोग करें।
20. शब्दकोषों, सूचियों, विषय-सूचियों, विश्वकोषों, और इंटरनेट का कुशलता व प्रभावशाली ढंग से उपयोग करना।
21. संग्रहीत सूचनाओं की वैधता की तुलना करें और विश्लेषण करें (जानकारी के स्रोतों में गलतियाँ तलाशें)।
22. सूचनाओं में छिपे निजी व सामाजिक पूर्वाग्रहों को पहचानें, तथा अपने दृष्टिकोण से परिचित हो जाएँ और इस बात पर भी विचार करें कि कैसे इससे आपके अपने प्रेक्षण और विश्लेषण प्रभावित हो सकते हैं।
23. बार-बार किए गए मापनों और प्रेक्षणों में आने वाले अन्तरों की तुलना करें और कारणों का विश्लेषण करें।
24. उन पदार्थों की पहचान करें, तुलना करें, उन्हें क्रमबद्ध और श्रेणीबद्ध करें जिनसे सामान्य वस्तुएँ बनी होती हैं।
25. विभिन्न पदार्थों के गुणधर्मों की तुलना और विश्लेषण करने के लिए अच्छे परीक्षण तैयार करें और उन्हें अंजाम दें।
26. पदार्थों में स्थायी व अस्थायी बदलाव करने वाले तरीकों की खोज करें।
27. विभिन्न प्रकार की मानवीय गतिविधियों (जैसे यातायात, भवन निर्माण, कृषि, खनन, वस्तु उत्पादन) के लाभ और हानियों का, तथा पर्यावरण पर पड़ने वाले उनके प्रभावों का मूल्यांकन करें।
28. किसी विशेष उपयोग के लिए कोई यंत्र तैयार करें।
29. कुछ मशीनों और उपकरणों को खोलकर व उनके अंगों को अलग करके व पुन: जोड़कर, इस बात की पड़ताल करें कि वे कैसे काम करते हैं।
30. देखे गए क्रियाकलापों जैसे दिन और रात का होना, चाँद के चरण, संघनन और वाष्पीकरण, कंकाल का लचीलापन, पाचन आदि क्रियाकलापों को समझाने के लिए नमूनों की रचना करें।
31. सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर देने के लिए सर्वेक्षणों की योजना बनाएँ, उन्हें अंजाम दें और फिर नतीजों का विश्लेषण करें।
32. स्थानीय पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक समस्याओं की पहचान करें और इस बात का मूल्यांकन करें कि किस तरह से विज्ञान व प्रोद्योगिकी इन समस्याओं को और उभार सकती है और/या कम कर सकती है।


कोई शिक्षक ऐसे पाठ्यक्रम का उपयोग किस तरह से कर सकता है? शिक्षक के लिए पहला कदम यह हो सकता है कि वे अपने विद्यार्थियों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाली ऐसी खास समस्याओं को पहचानने में उनकी मदद करें जिन्हें सुलझाना उनके लिए ज़रूरी हो। उदाहरण के लिए, किसी कृषक समुदाय में उगते चावल और उन्हें क्यारियों में बोने से जुड़ी समस्या पर विचार हो सकता है। विद्यार्थी इस तरह के सवाल पूछना शु डिग्री कर सकते हैं कि धान के बीज कितने किस्म के होते हैं और अलग-अलग परिस्थितियों में कितने प्रतिशत बीज अंकुरित होंगे। इस विषय से पाठ्यक्रम की पहली 16 आवश्यकताओं में से कई पूरी हो सकती हैं, और इसे पूरा करने में एक महीना या उससे ज़्यादा का समय लग सकता है। शिक्षक यह निर्णय ले सकता है कि विद्यार्थियों को 14वीं आवश्यकता - आँकड़ों का विश्लेषण - के लिए अतिरिक्त मेहनत करने की ज़रूरत है। ऐसी स्थिति में शिक्षक अन्य प्रश्नों के साथ भी आँकड़ों का पहलू जोड़कर इस विषय के अभ्यास पर ज़ोर दे सकता है।

एक परीक्षा-प्रश्न
वैज्ञानिकों का एक समूह यह जानना चाहता था कि क्या सरसों के अपेक्षाकृत बड़े बीज, बड़े पौधे पैदा करते हैं। उन्होंने दो बीज लिए, एक बड़ा और एक छोटा, उनको बो दिया और फिर उनसे उत्पन्न सरसों के पौधों को तौला। उन्होंने पाया कि बड़े बीज से उत्पन्न पौधे का वज़न छोटे बीज से उत्पन्न पौधे की तुलना में 2 ग्राम ज़्यादा था।
यह प्रयोग दिखाता है कि:

(1) बड़े बीज छोटे पौधे उत्पन्न करेंगे।
(2) छोटे बीज छोटे पौधे उत्पन्न करेंगे।
(3) छोटे बीज कम वज़न वाले पौधे उत्पन्न करेंगे।
(4) छोटे बीज और बड़े बीज तकरीबन एक-से वज़न वाले पौधे उत्पन्न करेंगे।
(5) इससे कोई सिद्धान्त नहीं निकाला जा सकता है क्योंकि सिर्फ दो बीजों का ही इस्तेमाल किया गया था।

इस प्रकार, विद्यार्थियों को किसी पाठ्यपुस्तक की ज़रूरत नहीं रहेगी, पर विज्ञान करने के लिए उन्हें अन्य प्रकार की ढेर सारी किताबों की आवश्यकता होगी। इसमें विभिन्न भाषाओं के शब्दकोष और विश्वकोष (सम्भवत: इंटरनेट पर मौजूद), पौधों, पशुओं, और चट्टानों को पहचानने के लिए दिग्दर्शिकाएँ, तथा अन्य सन्दर्भ पुस्तकें शामिल होंगी।
विद्यार्थियों को ऐसी किताबों की ज़रूरत होगी जो ऐसी विभिन्न विधियों, कौशलों, और प्रोटोकॉलों (कार्य योजनाओं) को समझातीं हों जिनका उपयोग वे अपने प्रायोगिक कार्यों में करेंगे। ज़रूरी उपकरण दिए जाने पर वे कुछ विधियाँ अपने आप से भी विकसित कर सकते हैं। और ज़रूरतों के मुताबिक, कुछ उपकरण वे खुद भी तैयार कर सकते हैं।

पुस्तकें और कहानियों, कविताओं, गीतों, नाटकों, फिल्मों, शिल्पों, और चित्रों वाले अन्य माध्यम विद्यार्थियों द्वारा प्रासंगिक अन्तर्विषयी कार्य करने के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। अन्वेषण हेतु सवालों, गतिविधियों, और प्रयोगों का सुझाव देने वाली किताबें उपयोगी हो सकती हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकों के इतिहास की चर्चा करने वाली किताबें भी उपयोगी हो सकती हैं, खास तौर पर तब जब उनमें इस तरह के वर्णन हों कि किस तरह वैज्ञानिकों ने किन्हीं खास सवालों की पड़ताल की।
शिक्षकों के पास गतिविधियाँ सोचने, तैयार करने व विद्यार्थियों के लिए उनके पर्चे बनाने के लिए सूचना के विभिन्न स्रोतों की ज़रूरत होगी। ज़ाहिर-सी बात है कि इस तरह की पढ़ाई के लिए शिक्षक प्रशिक्षण की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

मूल्यांकन
मूल्यांकन के तरीके निकालना कोई मुश्किल बात नहीं है। किसी मूल्यांकन का मुख्य बिन्दु बस यह पता लगाना हो सकता है कि प्रत्येक विद्यार्थी ने पाठ्यक्रम में बताई गई न्यूनतम आवश्यक गतिविधियाँ की हैं या नहीं। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक यह तय कर सकता है कि प्रत्येक विद्यार्थी को एक निश्चित समय-सीमा में कम-से-कम तीन अलग-अलग प्रयोग तैयार करने होंगे और विभिन्न प्रकार के पाँच मापन करने होंगे।

इस प्रकार के पाठ्यक्रम का उपयोग करते हुए केन्द्रीकृत बोर्ड परीक्षाएँ भी आसानी-से संचालित की जा सकती हैं। इस तरह की परीक्षा के लिए उपयुक्त बहु-विकल्पी प्रश्न का एक उदाहरण यहाँ दिया गया है। यह सवाल यह नहीं जाँच रहा कि विद्यार्थी कोई निश्चित जानकारी रखते हैं या नहीं। उन्हें सारी ज़रूरी जानकारी दी गई है। सवाल इस बात की जाँच करता है कि वे विज्ञान की पद्धति को समझते हैं या नहीं।


कैरन हैडॉक: पिछले पच्चीस सालों से भारत में शिक्षाविद, चित्रकार और शिक्षक के रूप में काम कर रही हैं। आपने बहुत-सी चित्रकथाओं, पाठ्यपुस्तकों और अन्य पठन सामग्रियों को लिखा है और उसमें चित्र बनाए हैं। आपने अपनी पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टोरल ट्रेनिंग यू.एस.ए. में समाप्त की। वर्तमान में होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एज्यूकेशन, मुम्बई में कार्यरत हैं।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।