सवालीराम 
अंक 35 में सवालीराम से पूछे गए सवालों में से एक सवाल का जवाब यहां दे रहे हैं। यह सवाल बलदेव जुमनानी, होशंगाबाद ने पूछा था। यह जवाब हमें बजरंग लाल जेठू, सीकर राजस्थान द्वारा भेज गए जवाब पर आधारित है।

सवालः हम कहते हैं कि वायुमंडलीय गैसें निरंतर बनती रहती हैं। ओज़ोन जो हमारे वायुमंडल में है वो भी लगातार बनती होगी। फिर ओज़ोन परत में छेद कैसे बना? ओज़ोन की परत तो बनी रहनी चाहिए?
जवाब: आपके सवाल के पहले हिस्से के बारे में यह कहा जा सकता है कि हमारे वायुमंडल में ऑक्सीजन का, कार्बन का, नाइट्रोजन का एक चक्र चलता रहता है जिसके तहत गैसें जीव-जंतुओं, वनस्पतियों, विभिन्न धातुओं, अधातुओं से होती हुई पुनः वायुमंडल में पहुंचती हैं। एक सामान्य संतुलन की स्थिति में तो वायुमंडल में विभिन्न गैसों का प्रतिशत लगभग स्थिर बना रहता है। जब किन्हीं कारणों से (विशेषकर मानवीय हस्तक्षेप से ) यह संतुलन बिगड़ जाता है तो वायुमंडल में किसी एक गैस की मात्रा सामान्य स्तर से ज्यादा हो जाती है या कभी-कभी कम भी हो जाती है। उदाहरण के लिए इन दिनों वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा सामान्य स्तर से ज्यादा हो रही है।

अब हम ओज़ोन के सवाल पर आते हैं। जिस तरह हीरा और ग्रेफाइट कार्बन के दो रूप हैं उसी तरह रासायनिक दृष्टि से ओज़ोन, ऑक्सीजन का अपरूप यानी आइसोटोप है। ओज़ोन में भी ऑक्सीजन के ही परमाणु होते हैं लेकिन इनकी संख्या एवं व्यवस्था भिन्न होती है। ऑक्सीजन के एक अणु में जहां ऑक्सीजन के दो परमाणु होते हैं, वहीं ओज़ोन के एक अणु में ऑक्सीज़न के तीन परमाणु होते हैं। इसका रासायनिक संकेत 0, है। ओज़ोन नीले रंग की, तीखे गंधवाली गैस है जो सांस के साथ फेफड़ों में चली जाए तो बेचैनी पैदा करती है।
ओजोन वायुमंडल के समताप मंडल नामक हिस्से में बहुतायत में पाई जाती है। वैसे तो हमारे वायुमंडल में ओज़ोन की कुल मात्रा का 95 प्रतिशत समताप मंडल (Stratosphere) में ही पाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समताप मंडल में सिर्फ ओज़ोन ही पाई जाती हो, अन्य गैसें भी होती हैं। इस इलाके में। साथ ही यह भी सच है। कि समताप मंडल में ओजोन कोई परत बनाकर नहीं रहती बल्कि ओजोन के अणु स्वतंत्र रूप से समताप मंडल में 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक होते हैं।

समताप मंडल में ओजोन के बनने की प्रक्रिया काफी रोचक है। सूरज की रोशनी के साथ आ रही पराबैंगनी किरणें समताप मंडल में ऑक्सीजन परमाणुओं को जोड़कर ओज़ोन के अणु बनाती हैं। दरअसल होता यह है कि सूर्य प्रकाश के साथ आ रही विभिन्न तरंग लंबाई की पराबैंगनी किरणों में से वे किरणें जिनकी तरंग लंबाई 118 से 242 नैनोमीटर तक है, 2 परमाणु वाली ऑक्सीजन को जोड़कर, ३ परमाणु वाली ओज़ोन बनाती हैं।
1 ऑक्सीजन अणु + 1 ऑक्सीजन परमाणु (पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में) = 1 ओज़ोन अणु
इस तरह पराबैंगनी किरणों की ऊर्जा ओजोन बनाने में खर्च हो जाती है और ओजोन लगातार बनती रहती है। यह तो हुई ओजोन के बनने की बात। ओजोन के अणु काफी अस्थिर होते हैं। इन ओज़ोन के अणुओं को तोड़ने का काम भी पराबैंगनी किरणें ही करती हैं। वे पराबैंगनी किरणें जिनकी तरंग लंबाई 242 से 290 नैनोमीटर होती है वे ओज़ोन को तोड़कर ऑक्सीजन बनाती हैं। यानी ओजोन इन पराबैंगनी किरणों को सोखकर ऑक्सीजन के परमाणुओं के रूप में बिखर जाती है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं:
1 ओजोन अणु (पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में) = 1 ऑक्सीजन अणु + 1 ऑक्सीजन परमाणु

इस तरह समताप मंडल में ओजोन का बनना और टूटना जारी रहता है। इस दो तरफा क्रिया में ऐसा संतुलन रहता है कि वायुमंडल में ओज़ोन की पर्याप्त मात्रा मौजूद रहती है।
वैसे एक बात पर यदि आपने गौर किया होगा तो आप पाएंगे कि पराबैंगनी किरणों की 118 से 290 नैनो-मीटर तरंग लंबाई वाली किरणें तो ओज़ोन को बनाने और मिटाने में खर्च हो जाती हैं। पराबैंगनी किरणों में इन्हीं तरंग लंबाई की किरणें धरती के जीवन के लिए घातक हैं, जिन्हें समताप मंडल में सोख लिया जाता है।
अब आते हैं सवाल के उस हिस्से पर कि ओज़ोन की परत नष्ट कैसे हो रही है। जैसाकि पहले भी कहा गया है कि वायुमंडलीय गैसों का एक चक्र चलता रहता है। इस चक्र में एक संतुलन की वजह से गैसों का एक सामान्य स्तर वायुमंडल में बना रहता है। लेकिन किन्हीं कारणों से यह संतुलन बिगड़ जाए तो गैस का यह सामान्य स्तर भी बिगड़ जाता है। कुछ साल पहले अंटार्कटिका में हो रहे शोध कार्यों के दौरान यह पता चला कि बर्फ से ढके, इस महाद्वीप पर जीवन के लिए घातक पराबैंगनी किरणें (290 नैनोमीटर से कम तरंग लंबाई की) ज़मीनी सतह तक आराम से पहुंच रही हैं। तत्पश्चात जो खोजबीन हुई उससे पता चला कि अंटार्कटिका के ऊपर मौजूद वायुमंडल में ओज़ोन की मात्रा बहुत कम रह गई है जिसकी वजह से पराबैंगनी किरणों की काफी बड़ी तादाद ओजोन बनाने और ओजोन तोड़ने का काम करने की बजाए धरती तक आ जाती है।

समताप मंडल में ओज़ोन की मात्रा के कम होने के कई कारण बताए गए हैं जिनमें से एक प्रमुख कारण सी. एफ. सी. नामक रसायन के अत्याधिक उपयोग से जुड़ा है। सी. एफ. सी. (क्लोरो फ्लोरो कार्बन) रसायन का उपयोग फ्रिज, एयर कंडीशनर की गैस बनाने, पेंट, फोम, कीटनाशक बनाने आदि में किया जाता है। सी. एफ. सी की एक विशेषता यह है कि यह वायुमंडल में लंबे समय तक बना रहता है। सी. एफ. सी. जब पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आता है तो अपने में से क्लोरीन के परमाणु छोड़ देता है। यह क्लोरीन ओज़ोन से क्रिया करके क्लोरीन मोनोऑक्साइड और ऑक्सीजन बनाता है। क्लोरीन मोनोऑक्साइड काफी अस्थिर किस्म का अणु होने की वजह से जल्दी ही क्लोरीन में फिर से बदल जाता है। और यह क्लोरीन एक बार फिर ओज़ोन से क्रिया करके फिर से क्लोरीन मोनोऑक्साइड और ऑक्सीजन बनाता है। फिर पुरानी क्रिया का दोहराव होता है। यानी एक स्थान विशेष पर ओज़ोन की मात्रा कम होना शुरू हो जाती है।

अब शायद एक सवाल यही बचता है कि ओजोन परत में छेद बनने की शुरुआत पृथ्वी के ध्रुवीय हिस्सों में ही क्यों हुई होगी? क्लोरीन द्वारा ओज़ोन से की जाने वाली रासायनिक क्रिया; जो ऊपर बताई गई है; के लिए ध्रुवीय प्रदेशों के ऊपर का ठंडा और अधिक दाब वाला वातावरण काफी अनुकूल साबित हुआ है।
ओज़ोन की परत में छेद काफी गंभीर समस्या है, इसलिए दुनिया के कई देशों ने सी. एफ. सी. के कम-से- कम इस्तेमाल की कवायत भी शुरू कर दी है। सी. एफ. सी. के बदले दूसरे रसायनों का उपयोग किया जाने लगा है ताकि ओज़ोन की परत को नुकसान कम पहुंचे।