वसुमती धुरु

वैज्ञानिकों का जीवन संघर्षों से भरा होता है, यह तो हम अक्सर सुनते हैं। लेकिन यहां तो मामला ही कुछ और था। सन् 1933 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज के डायरेक्टर सर सी. वी. रामन, एक लड़की कमला भागवत को दाखिला देने से सिर्फ इसलिए इंकार कर रहे थे क्योंकि वह एक लड़की थी।
इस लड़की को काफी जद्दोजहद के बाद दाखिला दिया लेकिन फिर भी एक साल के प्रोबेशन पर। कमला भागवत ने इस एक साल के दौरान काम करके दिखा दिया कि किसी भी क्षेत्र में इस किस्म का भेदभाव उचित नहीं है।

2 जुलाई 1933; वह दो विश्व युद्धों के बीच का दौर था। जब तक ज़रूरी न हो तब तक लोग आमतौर पर सफर नहीं करते थे। बंबई से मद्रास जाने वाली मद्रास एक्सप्रेस बेंगलोर रेल्वे स्टेशन पर रुकी थी। इस गाड़ी के सेकेंड क्लास के डिब्बे से भागबत पिता-पुत्री उतरे। लगभग पचास साल के नारायणराव भागवत और उनकी बीस साल की बेटी - कमला। छोटे कद की, गोरी, सलीके से पहनी हुई नौ गजी साड़ी, बालों की कसकर गुंथी हुई चोटी। यह सब देखकर कोई भी यही अंदाज़ लगाता कि नारायणराव अपनी बेटी के लिए किसी भरोसेमंद रिश्ते के सिलसिले में बेंगलोर आए होंगे। इतने लंबे थका देने वाले सफर के बावजूद भी कमला के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी, वो खासी उत्साहित दिख रही थी। लेकिन उसका यह उत्साह और खुशी, शादी के लिए उत्सुक लड़कियों की तरह की नहीं थी। कमला के उत्साह की वजह कुछ फर्क थी। बेंगलोर स्थित दुनिया भर में मशहूर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ में दाखिले के सिलसिले में कमला यहां आई थी। इस इंस्टीट्यूट में स्नातक डिग्री के बाद शोधकार्य का मौका दिया जाता था। कमला चाहती थी कि उसे किसी विख्यात वैज्ञानिक के मार्गदर्शन में शोधकार्य का मौका मिले और उसका एक सपना था कि वह खुद भी एक दिन वैज्ञानिक बने।

एक भारतीय उद्योगपति श्री यश ने 1911 मैं बैंगलोर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ नामक संस्थान की शुरुआत की। यह संस्थान हिन्दुस्तान में शोधकार्यों को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था। हो सकता है इसके लिए बेंगलोर का चुनाव यहां के समशीतोष्ण और खुशनुमा मौसम की वजह से किया गया हो। पूरे भारत से चुने हुए विद्यार्थियों को फिज़िक्स, केमिस्ट्री, ऑरगेनिक केमिस्ट्री, बायोकेमिस्ट्री, इंजीनियरिंग जैसे विषयों में शोध करने के लिए यहां दाखिला दिया जाता था। यहां की रिसर्च थीसिस को किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय में भेजने पर उस विद्यार्थी को डिग्री मिल सकती थी। पूरे भारत में इस तरह का यही एकमात्र संस्थान था, इसलिए इस इंस्टीट्यूट में दाखिला पाना भी बड़ी प्रतिष्ठा की बात होती थी।

नारायणराव भागवत 1911 में इस संस्थान में दाखिला पाने वाले पहले ही बैच के विद्यार्थियों में से एक थे। उन्होंने उस समय ऑरगेनिक केमिस्ट्री में शोधकार्य किया था। कुछ साल बाद नारायणराब के छोटे भाई माधवराव ने भी इस इंस्टीट्यूट में प्रवेश पाया और ऑरगेनिक केमिस्ट्री में रिसर्च करके, थीसिस लिखकर उसे बंबई यूनिवर्सिटी में एम. एससी. डिग्री के लिए भेजा। माधवराव की इस थीसिस पर उन्हें डिग्री तो दी ही गई, साथ ही उन्हें 'मूस गोल्ड मेडल' से भी नवाज़ा गया। कमला ने भी बंबई यूनिवर्सिटी से बी. एससी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान लेकर पास की थी। इस सारी पृष्ठभूमि की वजह से यदि कमला के मन में बेंगलोर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ में शोधकार्य करने की इच्छा हिलोरे लेने लगी हो तो इसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं थी।
बेंगलोर रेल्वे स्टेशन पर भागवत पिता-पुत्री के स्वागत के लिए श्री जतकर आए थे। वे भी कभी इस इंस्टीट्यूट के छात्र थे, बाद में वहां के स्टाफ मेम्बर बन गए। वे इंस्टीट्यूट के कैम्पस में ही रहते थे।
 
कमला और उसके पिता जल्दीजल्दी तैयार होकर, इंस्टीट्यूट के तत्कालीन डायरेक्टर, दुनिया भर में मशहूर, नोबल पुरस्कार विजेता, सर चंद्रशेखर वेंकट रामन, से मिलने के लिए पहुंचे। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ ने बी. एससी. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण छात्रों से आवेदन पत्र मंगवाए थे। नारायणराव ने भी कमला से प्रवेश के लिए अर्जी भेजने के लिए कहा था। चूंकि कमला इंस्टीट्यूट द्वारा तय की गई शर्तों को पूरा करती थी इसलिए उसे दाखिला मिलना चाहिए था, लेकिन इंस्टीट्यूट ने उसकी अर्जी को नामंजूर कर दिया....!
अर्जी नामंजूर करने की वजह बताई गई कि “इस इंस्टीट्यूट में आज तक यानी दो दशकों में, कोई भी लड़की दाखिला लेने नहीं आई है; सिर्फ लड़के ही आए हैं। इसलिए लड़कियों को दाखिला देने का रिवाज़ हमारे संस्थान में नहीं है।"
यह जवाब पढ़कर कमला तो काफी निराश-हताश हो गई थी लेकिन उसके पिता इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने कहा, "हम बेंगलोर जाकर सर सी. बी, रामन से मिलकर अपना पक्ष उनके सामने रखेंगे। मुझे लगता है उनके जैसा नोबल पुरस्कार पाने वाला वैज्ञानिक, किसी काबिल इंसान के रिसर्च करने के मौके को इस तरह खत्म नहीं करेगा।"
तो कमला और नारायणराव इस संस्थान में दाखिले पर अपना एक जताने के लिए बेंगलोर आए थे। डायरेक्टर के ऑफिस में नारायणराव ने कदम रखे। उनके पीछे-पीछे डरतेडरते कमला भी अंदर घुसी। उस भव्य ऑफिस में एक टेबिल के पीछे प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी सी. बी. रामन बैठे हुए थे। सिर पर साफा, ग्रे रंग का सूट और टाई, चेहरे पर झलकती बुद्धिमत्ता और साथ ही अंदर से झांकता हुआ अहंकार का भाव।

"वॉट केन आइ डू फॉर यू, मिस्टर भागबत?" नारायणराव से हाथ मिलाने के बाद तुरंत सी. वी. रामन ने सवाल किया
भागवत ने कहा, "सर देयर सीम्स टू बी सम मिसअंडरस्टेंडिंग। यह मेरी बेटी कमला है। इसने बी. एससी. में केमिस्ट्री, फिज़िक्स विषय लेते हुए बंबई यूनिवर्सिटी में फर्स्ट-क्लास-फर्स्ट से परीक्षा पास की है। फिर इसने आपके संस्थान में सभी औपचारिकताएं पूरी करते हुए दाखिले के लिए अर्जी भेजी थी लेकिन उसे प्रवेश नहीं मिलेगा, ऐसा जवाब आया।''
"हमारे यहां गलतफहमी जैसी कोई बात नहीं होती। इस बात से आप भी बखूबी वाकिफ हैं भागवत जी।”
"लेकिन सर...."
"वो लड़की है इसलिए उसे दाखिला देने से मना किया गया है। इंस्टीट्यूट से उसे भेजे गए खत में इस बात का शिक़ भी किया गया है।"
"सिर्फ लड़की होने की वजह से आप किसी काबिल इंसान को आगे की पढ़ाई का मौका देने से इंकार कर रहे है? और वह भी इस बीसवीं सदी में? और वो भी आपके जैसा मशहूर वैज्ञानिक”
“नो आरगूमेंट्स प्लीज़, मिस्टर भागवत। वैज्ञानिक शोधकार्य औरतों का कार्यक्षेत्र है ही नहीं। यहां कोई घरेलु पहेलियां तो बुझनी नहीं हैं।"

इस अन्याय और अपमान को देखकर कमला के तन-मन से गुस्सा अलकने लगा था। उसने सुना था कि सत्ता की ताकत के आगे बुद्धिमानी पानी भरती है। ऐसा ही कुछ यहां भी दिख रहा था। कमला को मजबूरी में चुप रहना पड़ा।
रामन अपनी रौ में कहते जा रहे थे, “एक तो पहले से ही मुझे लड़कियां पसंद नहीं हैं। लड़कियां यानी एक मुसीबत, एक गैरजरूरी झंझट सौभाग्य से भगवान ने मुझे इस मुसीबत से बचा लिया है। मेरे घर दोनों लड़के ही पैदा हुए। फिर इस इंस्टीट्यूट में मैं यह मुसीबत क्यों मोल लें? मेरे कुशाग्र विद्यार्थियों की पढ़ाई में क्यों विघ्न डालू?"
अब कमला के सब्र का बांध टूट गया। नारायणराव के घर में लड़केलड़की इस किस्म का कोई भेदभाव नहीं था। लड़के-लड़कियों दोनों से समानता का व्यवहार होता था। इसलिए सिर्फ औरत होने के कारण दबाव सहना कमला ने कभी सीखा ही नहीं था। विश्वविद्यालय की पढ़ाई में मिली सफलता, और खेलों में हासिल महारत की वजह से कमला का तन-मन आत्मविश्वास से भरा था।
रामन की बातें सुनकर उसने रामन से सवाल किया, "मुझमें ऐसी क्या कमी है जिसकी वजह से आप मुझे दाखिला देने से इंकार कर रहे हैं? यहां दाखिला पा चुके विद्यार्थियों की तरह मैंने भी स्नातक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है। मुझे स्कॉलरशिप भी मिली है। इतना सब कुछ होने के बावजूद मुझे आगे की पढ़ाई करने का मौका न देकर आप मुझ पर, और मुझ जैसी अन्य लड़कियां जो यहां पढ़ाई करना चाहती हैं, उनके साथ भी नाईसाफी कर रहे हैं। लेकिन हम भी गांधीजी के सिद्धांतों पर यकीन रखने वाले लोग हैं। सत्याग्रह पर भरोसा रखते हैं। हम यहां से बंबई वापस नहीं जाएंगे, यहीं इंस्टीट्यूट में धरना देकर बैठेंगे।"

ऐसा करारा जवाब सुनकर सर रामन थोड़े चौंक गए। उन्हें यह समझ में आ गया था कि यह शख्सियत कुछ फर्क है। उन्होंने अपनी आवाज़ में थोड़ी नरमी लाते हुए कहा, "ठीक है। यदि तुम्हारी ऐसी ही ज़िद है तो मैं तुम्हें यहां दाखिला देने के लिए तैयार हूं। लेकिन एक शर्त पर.....।"
"वो कौन-सी शर्त?" कमला ने पूछा।
'तुम्हे यहां एक साल तक प्रोबेशन पर काम करना होगा। उसके बाद हमारी तुम्हारे बारे में राय, तुम्हें यहां के काम के बारे में मिली थोड़ी विस्तृत जानकारी, तुम्हारा काम, तुम्हारे काम करने का तरीका वगैरह सभी बातों पर सोच-विचार करके हम तुम्हें यहां नियमानुसार दाखिला देंगे। क्या यह शर्त तुम्हें मंजूर है?"
शर्त सुनकर कमला आग बबूला हो गई थी लेकिन अपने गुस्से पर काबू पाकर उसने लाचारी से कहा, "मंजूर है।” सच भी तो है, मरता क्या न करता। कमला ने इस विचित्र और अन्यायपूर्ण शर्त को मंजूर तो कर लिया था लेकिन उसने मन-ही- मन यह संकल्प लिया कि अच्छा काम करके, सर रामन की लड़कियों को लेकर जो राय है, उसे बदलने पर मजबूर नहीं किया तो मेरा नाम भी कमला भागवत नहीं।
"ठीक है। तुम किस विषय में काम करना चाहोगी?' रामन ने पूछा।
"जीव रसायन शास्त्र में।'' कमला ने विश्वासपूर्वक जवाब दिया।
"बेहतर है। जीव रसायन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. सुब्रह्मण्यम हैं। उनको मैं अभी सूचित करता हूं कि तुम्हें यहां दाखिला दिया गया है। तुम उनसे दोपहर में जाकर मिलो। वो बताएंगे कि आगे क्या करना है। इस समय तक सर रामन के व्यवहार में काफी फर्क आ गया था। और आवाज़ में भी थोड़ी मधुरता झलक रही थी।

युद्ध के दौरान जिस तरह अफवाहें फैलने में समय नहीं लगता, उसी तरह इंस्टीट्यूट में एक लड़की को दाखिला दिया गया है, वो भी एक खास किस्म की शर्त पर..., और-तो-और लड़की ने दाखिला लड़-झगड़कर लिया है...... वगैरह-वगैरह; ऐसी बातों को इंस्टीट्यूट में फैलने में ज्यादा समय नहीं लगा। नारायणराव और कमला दोपहर में बॉयोकेमिस्ट्री डिपार्टमेंट में पहुंचे, तब वहां इस दाखिले के बारे में चर्चा चल रही थी। अब तक लोगों को भी यह उत्सुकता थी कि देखें तो यह कमला भागवत कौन है, कैसी दिखती है?

हेड ऑफ द डिपार्टमेंट प्रोफेसर सुब्रह्मण्यम और उनके दो साथी, लेक्चरर बैनर्जी और श्रीनिवासैय्या वहां बैठे हुए थे। कमला को इंस्टीट्यूट में दाखिला दिए जाने की सूचना रामन ने अपनी ओर से डिपार्टमेंट को भेज दी थी। लेकिन एक साल के प्रोफेशन की शर्त की वजह से सुब्रह्मण्यम थोड़े पशोपेश में पड़ गए थे कि कमला भागवत क्या काम करेगी, किसके मार्गदर्शन में करेगी? वैसे भी महिला वैज्ञानिक इस संस्था के लिए सिर्फ सुनी सुनाई हुई बात ही थी। गार्गी, मैत्रेयी, लीलावती ये सब तो पौराणिक कथानकों के चरित्र मात्र थे लेकिन कमला ने तो इस संस्था में कदम रखते ही रणचंडी का खिताब पा लिया था। अब जब कमला उनके सामने खड़ी थी तो उसे देखकर यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि यही वह सौम्य व्यक्तित्व है जिसे रणचंडी कहा जा रहा था।
आखिर कोई हल न निकलता देखकर श्रीनिवासैय्या ने पहल की और कमला से कहा, "ठीक है तुम मेरे मार्गदर्शन में काम कर सकती हो। लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि मैं अनुशासन-प्रिय व्यक्ति हैं। मुझे आलस और काम में टालमटोल बिल्कुल भी पसंद नहीं है।”

श्रीनिवासैय्या की हामी सुनकर कमला को खुशी का अहसास होने की बजाए थोड़ा डर ही लगा। डर उसे इस बात से नहीं लगा कि उसे मेहनत करनी पड़ेगी। इसकी वजह कुछ और ही थी। श्रीनिवासैय्या का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था - काला रंग, उग्र चेहरा, कर्नाटकी तरीके से कसकर बांधी हुई धोती, सिलवटों वाला कुर्ता, लंबे बाल जिनमें गांठ लगाई थी, सिर पर गांधी टोपी, माथे पर बड़ा-सा चंदन का टीका और लंबी दाढ़ी..... कुल मिलाकर कमला सोच रही थी कि इस खूबसूरत जगह क्या वह दुर्वास मुनि के मार्गदर्शन में ज्ञान पाने की साधना करने के लिए आई है। यह सब सोचते हुए उसे एक कहावत याद आई कि 'बेगर्स केन नॉट बी चूज़र्स'। और उसने आखिरकार श्रीनिवासैय्या के साथ काम करने का मन बना लिया।
फिर श्रीनिवासैय्या ने नारायणराव से कहा, "मिस्टर भागवत आपकी लड़की ने यहां दाखिला पाने के लिए सर रामन की शर्त को स्वीकार कर लिया है। 'नरमी देखी लेकिन चाबुक नहीं देखा ऐसा न हो इसलिए यहां मेरे साथ काम करने के तरीके के बारे में आपके सामने बातचीत कर लेना ही बेहतर होगा।'

“एक्सक्यूज मी सर, मुझे यहां एक साल का प्रोबेशन दिया गया है, इस निर्णय के पक्के तौर पर क्या परिणाम निकल सकते हैं?" कमला ने घोड़ा अधीर होते हुए पूछा।
"देखिए यह एक रिसर्च करने का संस्थान है। यहां दो साल तक रिसर्च करने के बाद आप अपनी तैयार की गई थीसिस को एम. एससी, की डिग्री पाने के लिए किसी यूनिवर्सिटी में भेज सकते हैं। यह तो हुई रिसर्च के बाद की बात। लेकिन फिलहाल तो आपको एक साल के प्रोफेशन पर रखा गया है। यानी आपका इस पहले साल के दौरान किया गया काम एम. एससी. की डिग्री के हिसाब से, रिसर्च के हिस्से के रूप में ले पाना संभव नहीं होगा। यदि आपका काम संस्थान को पसंद आया तो आपके दूसरे साल के रिसर्च पर ही आपको थीसिस लिखने का मौका दिया जा सकता है। कुल मिलाकर जिस काम के लिए बाकी विद्यार्थियों को दो साल या इससे भी थोड़ा ज्यादा समय मिलता है उसी काम के लिए आपको एक साल का समय मिलने वाला है," श्रीनिवासैय्या ने समझाकर बताया।

"ठीक है।'' कमला ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा।
"तो अपना कार्यक्रम सुनो। रोज़ सुबह पांच बजे, मतलब ठीक एकदम पांच बजे तुम्हें लैब में पहुंच जाना होगा। तब से लेकर रात दस बजे तक मन लगाकर काम करना होगा। मैं जो भी प्रोग्राम या प्रॉबलम्स दूंगा उन्हें पूरा करना होगा। और रोज़ रात में लाइब्रेरी में पड़ना भी होगा।" श्रीनिवासैय्या ने बताया।
श्रीनिवासैय्या की बातें सुनकर नारायणराव से रहा नहीं गया और उन्होंने पूछ ही लिया, “बो सब तो ठीक है लेकिन इसके खाने-पीने का क्या होगा?"
"उस सब की आप फिक्र मत कीजिए। दोपहर में घर से मेरे लिए खाना आता है। उसी के साथ मैं कमला के लिए भी खाना मंगवा लूंगा और रात का खाना यहां केम्पस की मेस में खाना होगा। इन मामूली कामों में कमला का समय ज़ाया नहीं होना चाहिए।'' श्रीनिवासैय्या ने शांत स्वर में नारायणराव को समझाया।  
"ठीक है मुझे आपकी सारी शर्ते मंजूर हैं लेकिन मैं भी एक मांग रखना चाहती हूं। उम्मीद है आप उसे मान लेंगे।'' कमला ने श्रीनिवासैय्या से कहा।
श्रीनिवासैय्या ने अचरज के साथ पूछा, "कौन-सी मांग?"
“मुझे कामकाज में से रोज शाम को 4 से 6 बजे तक छुट्टी चाहिए।"  

"वो किसलिए?"
"देखा जाए तो यह मेरी अपनी ज़रूरत है। इसका रिसर्च से कोई वास्ता
नहीं है। लेकिन फिर भी बता देती हूँ। मुझे इन दो घंटों में लॉन टेनिस खेलना है।'' कमला ने बताया।
"टेनिस?" श्रीनिवासैय्या को घोर आश्चर्य हुआ। एक तो मराठी लड़की, दिखने में सीधी-सादी, खुद को पढ़ाकू कहती है और दो घंटे टेनिस खेलने की बात कर रही है।
“जी, टेनिस। एक तो टेनिस मेरा पसंदीदा खेल है और दो घंटे खुली हवा में खेलने से मैं शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहूंगी और आपके द्वारा दिया गया कठिन कार्यक्रम पूरा कर सकेंगी।'' कमला ने नम्रता से जवाब दिया।

कुछ सोच-विचार करके थोड़ी नाराज़गी, थोड़ी उत्सुकता के बाद उन्होंने कहा, "ठीक है, दो घंटे की छूट दे रहा हूं।”
"थैंक्यू सर। आपने अपने मार्गदर्शन में मुझे काम करने का जो मौका दिया है इसके लिए आपको कभी भी पश्चाताप नहीं करना पड़ेगा ऐसा मैं आश्वासन देती हूं।'' कमला ने भरे गले से कहा।
इतना सब तय हो जाने के बाद नारायणराव उसी रात बंबई के लिए रवाना हो गए।
कमला के रहने की व्यवस्था कैम्पस के ही एक छोटे मकान में की गई थी। रात के समय साथ में एक बाई होती थी। लोकल गार्जियन लेडी रामन बनीं। दोपहर का खाना लैब में श्रीनिवासैय्या के साथ और रात का खाना कैम्पस में मौजूद गुजराती मेस में करना था।

सारी व्यवस्थाएं बन गई थीं। लेकिन फिर भी लैब में पहले दिन ही गड़बड़ हो गई। वैसे कमला सुबह चार बजे उठकर तैयार होकर लैब पहुंची। जब वह लैब की सीढ़ियां चढ़ रही थी तब श्रीनिवासैय्या ऊपर की सीढ़ी पर खड़े होकर उसका इंतज़ार कर रहे थे। उनकी हाथ घड़ी में पांच बजने की घंटी बज रही थी।
उन्होंने गंभीरता से कहा, "तुम्हें आने में देर हो गई। पांच बजे से यदि काम शुरू करना है तो पांच बजे से पहले तुम्हें लैब के भीतर पहुंच जाना चाहिए। यदि अच्छा वैज्ञानिक बनना है तो सभी काम नियमित, सलीके से और समय पर करने की आदत डालनी होगी।'
“सॉरी सर। आज मैं लेट हो गई लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा।” कमला ने कहा।

फिर दोनों लैब में पहुंचे। कमला लैब में मौजूद उपकरणों को थोड़े आश्चर्य से देख रही थी। श्रीनिवासैय्या ने इस बात को ताड़ लिया और उन्होंने कहा, "विज्ञान में रिसर्च कोई सरल काम नहीं है, जैसे हल्दी लगाओ और गोरे हो जाओ। रिसर्च यानी तपस्या है। कुछ तकनीकें हैं जिन्हे सीखना होगा, पृथक्करण की विभिन्न विधियां हैं उन्हें जानना होगा। डायलिसिस का बॉयोकेमिस्ट्री में खासा महत्व है, उसे भी समझना होगा। यह सब जानने के बाद ही रिसर्च के बारे में सोचा जा सकता है।" श्रीनिवासैय्या ने कमला को समझाया।
कमला ने खुशी से इन बातों को मान लिया। नई चीजों को सीखने में उसे काफी मज़ा आता था। उसने श्रीनिवासैय्या द्वारा बताई हुई सभी चीजें सीखने के लिए लगने वाले जरूरी उपकरणों और किताबों की सूची बनाई। ज़रूरी उपकरणों को स्टोर से लेने के लिए श्रीनिवासैय्या जी के हस्ताक्षर लेने पड़ते थे। इसलिए उसने कागजात सर के सामने रखे। उन्होंने कागज़ देखकर कहा, “इन सब उपकरणों की फिलहाल ज़रूरत नहीं है। ये सब अपने पास यहीं रखे हैं।"

"कहां हैं?" कमला ने आश्चर्य से पूछा। " सर ने लैब की एक अलमारी खोलकर उसमें से ग्लास ट्यूबिंग का एक गट्ठर निकाला और उसे कमला के सामने रखा।
कमला के मुंह से बरबस निकल पड़ा, "लेकिन उपकरण कहां हैं? यह तो सिर्फ ग्लास ट्यूब ही हैं।"
"एकदम ठीक फरमाया तुमने। लेकिन इन छोटी-छोटी चीजों के लिए काम रोकना पड़ जाए तो वो वैज्ञानिक ही कैसा? इन व्यूब्स की मदद से ही उपकरण बनाने होंगे। हमारे लैब अटेंडेंट उम्दा ग्लास लोअर हैं। बो तुम्हें ग्लास ब्लोइंग सिखाएंगे।'' श्रीनिवासैय्या ने फरमाया।
इसके बाद कमला की ग्लास ब्लोइंग की क्लासेस शुरू हो गई। ग्लास ब्लोइंग में कांच की ट्यूब को काफी गरम करके उसमें फेंककर, उसे विभिन्न किस्म के आकार दिए जाते हैं। कमला ने सबसे पहले एक कांच की पिपेट बनाई। पिपेट यानी कांच की एक लंबी, पोली नली जिसका बीच का हिस्सा फूला होता है और एक सिरा काफी संकरा होता है। यदि इसका संकरा सिरा किसी तरल पदार्थ में डुबोया जाए और दूसरे सिरे से नली में मौजूद हवा को खींच लिया जाए तो वह तरल इस पिपेट में चढ़ जाता है। कमला ने इस पिपेट को श्रीनिवासैय्या को दिखाया तो उन्होंने इस पिपेट को केलिब्रेट करना (चिह्नित करना) सिखाया। यानी पिपेट पर मिलीलीटर के निशान लगाना ताकि पिपेट में कितना पानी या तरल लिया जा रहा है यह पता चल सके।

दूसरे पाठ के तहत उसे डायलिसिस के लिए जरूरी मेंब्रेन (झिल्ली) बनानी थी। बॉयोकेमिस्ट्री में पृथक्करण में बारबार डायलिसिस करना पड़ता है। डायलिसिस यानी पानी की मदद से पृथक्करण। इसके लिए अलग-अलग किस्म के फिल्टर चाहिए होते हैं। बाज़ार में ऐसे फिल्टर या मिल्लियां मिलते हैं, लेकिन श्रीनिवासैय्या ने कमला को नाइट्रो-सेल्युलोज़ से झिल्ली बनाना सिखाया। कमला ने अलग-अलग आकार की झिल्लियां भी बनाई। इन झिल्लियों को मैसुर के स्थानीय दशहरे में प्रदर्शनी में रखा गया; जहां लोगों ने इन्हें काफी सराहा। इससे गुरु-शिष्या को काफी संतोष हुआ। लेकिन श्रीनिवासैय्या यहीं नहीं रुके, उन्होंने कमला को इन झिल्लियों के महीन छेदों की सरंध्रता (पोरोसिटी) निकालना भी सिखाया।

हालांकि ये सारा काम रसायन विज्ञान में रिसर्च के लिहाज से बिल्कुल शुरुआती सीढ़ी थी। फिर भी शुरू से ही नींव मज़बूत होने की वजह से कमला को आगे के काम में काफी आसानी हुई। इस सारे काम में तीन-चार महीने किस तरह निकल गए कमला की समझ में ही नहीं आया। अभी तक कमला की सीखने की इच्छा और ज्ञान पाने की कोशिशों को देखकर श्रीनिवासैय्या भी कमला से खासे प्रभावित हो गए थे। पहले कमला उनके लिए सिर्फ एक विद्यार्थी ही थी लेकिन अब वे कमला को अपनी बेटी जैसा मानने लगे थे। इधर कमला को भी श्रीनिवासैय्या के व्यवहार में पिता जैसा वात्सल्य महसूस होने लगा था।
इधर एक दिन काफी हैरत अंगेज़ वाक़या हुआ। श्रीनिवासैय्या ने कमला से पूछा, “मिस भागवत, अब आप रिसर्च शुरू करेंगी क्या?"
कमला को कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह क्या सचमुच यही सुन रही है। वह खुशी से झूम उठी और उसने पूछ ही लिया, "मैं ऐसा कर सकती हूं क्या?"
ज़रूर। तुम ऐसा कर सकती हो। मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हारी शुरुआती तैयारी हो चुकी है। और रिसर्च में मन लगाकर काम करने के लिए ज़रूरी एकाग्रता भी तुम्हारे पास है ही। सबसे पहले तुम प्रोटीन की समस्या पर काम शुरू करो। विभिन्न पशुओं से मिलने वाले दूध और अलग-अलग दलहनों में मौजूद प्रोटीन और नॉन-प्रोटीन्स का पृथक्करण करो।''

दूध के प्रोटीन पर रिसर्च
प्रोटीन को लेकर सबसे पहला शोधकार्य कमला ने दूध पर किया। उसने मां का दूध, गाय का दूध, भैंस का दूध, भेड़ का दूध और गधी का दूध लेकर उनमें से प्रोटीन को अलग किया। इस शोध के दौरान कुछ मजेदार निष्कर्ष सामने आए। बच्चों के लिए पाचन के हिसाब से सबसे अच्छा दूध मां का होता है, लेकिन उसके बाद दूसरे नंबर पर गाय का नहीं बल्कि गधी का दूध होता है। यदि कभी दुर्भाग्य से किसी बच्चे को मां का दूध न मिल पाए तो उसे गधी का दूध दिया जा सकता है। गधी के बाद गाय का दूध, फिर मेड़ का और सबसे आखिर में भैंस के दूध का नंबर आता है।
जब प्रोटीन्स में से नॉन-प्रोटीन अलग निकाले गए तो और भी मजेदार तथ्य सामने आया। यदि गधी के दूध का नॉन प्रोटीन, भैंस के दूध में मिलाया जाए तो भैंस का दूध भी पाचन में हल्का हो जाता है। इसकी एक वजह तो यह है कि दूध के प्रोटीन में कैसिन नामक एक प्रमुख प्रोटीन होता है। विविध पशुओं के दूध में कैसिन के अणु का आकार भी बड़ा-छोटा होता है। यदि कैसिन का अणु बड़ा होगा तो वह पचने में भी भारी होगा। मैंस के दूध में गधी के दूध का नॉन-प्रोटीन मिलाने से भैंस के दूध में कैसिन का आकार छोटा हो जाता है और दूध पाचन के हिसाब से हल्का हो जाता है।

कमला भागवत ने इस शोध की अगली सीढ़ी पर कदम रखा। उसे एक और बात ध्यान में आई थी कि भैंस के दूध में मलाई (वसा) की मात्रा ज्यादा होती है। यदि वसा की इस मात्रा को मां के दूध के बराबर लाया जाए और भैंस के दूध में गधी के दूध का नॉन-प्रोटीन मिलाकर जितना जरूरी हो उतना कैसिन का आकार कम किया जाए तो बच्चे भैंस का दूध भी आसानी से पचा सकते हैं। कमला ने इस शोध को 'ह्यूमेनाइजेशन ऑफ बफेलो मिल्क' नाम दिया। हमारे देश में गधी और भैंस के दूध की उपलब्धता को देखते हुए इस प्रयोग का एक खास स्थान हो सकता था; लेकिन इस काम को बहुत प्रचार न मिल पाने के कारण यह किसी किस्म की हलचल नहीं पैदा कर सका और कमला के मन की बात मन में ही रह गई।
श्रीनिवासैय्या के साथ व्यस्त कार्यक्रम में काम करते हुए प्रोफेशन का एक साल कब खत्म हो गया कमला को पता ही नहीं चला। फिर वो एक दिन सर सी. वी. रामन के ऑफिस पहुंची।
"यस मिस भागवत?" उन्होंने आत्मीयता से पूछा।

"सर, मेरा प्रोफेशन का एक साल पुरा हो गया है। अब मैं यहां रहकर काम करू या वापस जाऊं? मेरे दाखिले के बारे में आपने क्या सोचा है?" कमला ने पूछा।
"वॉट ए सिली क्वेशचन!'' खुलकर हंसते हुए उन्होंने कहा, "निश्चित ही तुम यहां रहकर अपनी रिसर्च पूरी करोगी। तुम्हारी ज्ञान पाने की आकुलता और काम को करने का दृढ़ निश्चय देखकर तो मैं बेहद खुश हूं। मैं इतना खुश हूं कि अब से इस इंस्टीट्यूट के दरवाज़े लड़कियों के लिए भी खुले रहेंगे। इस साल मैं दो लड़कियों को यहां दाखिला देकर अपनी पिछले सालों की गलती को सुधारने वाला हूं।''
कमला को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि ये वही सर रामन हैं जिन्होंने एक साल पहले कहा था कि मुझे लड़कियां बिल्कुल पसंद नहीं हैं। और आज वही रामन बिना किसी संकोच के, बिना किसी लाग-लपेट के कह रहे थे कि मैं उस समय गलत था। एक साल में ही वे बिल्कुल दूसरे छोर पर पहुंच गए थे।


एक भारतीय महिला वैज्ञानिक: कमला सोहनी (1 911-1998) के जीवन के विविध प्रसंगों पर आधारित एक जीवनीनुमा किताब 'विज्ञान विशारदा' से साभार 
इस लेख में उनकी जीवनी के कुछ चुनिंदा हिस्से लिए गए हैं।
विज्ञान विशारदा, लेखिकाः वसुमती धुरु, प्रकाशकः ग्रंथाली, मुंबई, 1996,
मूल - मराठी अनुवाद - माधव केलकर।